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( १३ )
पुरुसोवि जो समुतो ण विणासह सो गओवि संसारे । सच्चेपण पच्चक्खं णासदितं सो अदिस्स माणोवि ॥ ४ ॥
पुरुषोपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोपि संसारे । सचेतना प्रत्यक्षं नाशयति तसः अदृश्यमानोपि ॥
अर्थ - जो पुरुष सूत्र सहित है अर्थात् सूत्रों का शाता है वह संसार मे फँसा हुवा भी अर्थात ग्रहस्थ में रहता हुवा भी नष्ट नहीं होता है वह अप्रसिद्ध है अर्थात चारो संघ में से किसी संघ में नहीं हैं तो भी वह आत्मा को प्रत्यक्ष करता हुवा अर्थात आत्म अनुभवन करता हुवा संसार का नाश ही करता है ।
सूत्तत्थं जिण भणियं जीवाजीवादि बहुविअत्थं । हेयायं चतहा जो जाणइ सोहु सुद्दिट्ठी ।। ५ ।
सूत्रार्थं जिनभणितं जीवा जीवादि बहु विधमर्थम् । हेयायं चतथा योजानाति सस्फुटं सद्दृष्टिः ॥
अर्थ - जो सूत्र का अर्थ है वह जिनेन्द्र देव का कहा हुवा है ।
वह अर्थ जीव अजीव आदिक बहुत प्रकार का है उस अर्थ को और हे अर्थात् त्यागने योग्य और अंहय अर्थात ग्रहण करने योग्य कां जो कोई जानता है वह ही सम्यग दृष्टि है ।
जंसूतं जिण उत्तं ववहारो तहय परमत्थो ।
सं जाणऊणजोई लहइ सुई खबर मल पुंजं ॥ ६ ॥
यत् सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथान परमार्थम् ।
तत् ज्ञात्वायोगी लभते सुखं शयति मलपुञ्जम् ||
अर्थ - जो जिनेन्द्र माषित सूत्र हैं वह व्यवहार रूप और परमार्थ रूप हैं, उनको जान कर योगीश्वर सुख को पाते हैं और मल पुंज अर्थात कर्मों को क्षय करते हैं ।
सूतत्थ पर्यावणो मिथ्यादिट्ठी मुणेयव्वो । खेडेविण कायव्वं पाणियपत्तं सचलेस्सं ॥ ७ ॥