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________________ ( १०२ ) अर्थ-नांग कुमारी के इन्द्र को फणिराज कहते हैं उसके सहस्त्रफण हैं प्रत्येक फण में मणि हैं परंतु मध्य के फण में माणिक मणि सर्वोत्तम है उसकी किरणों से विस्फुटित हुआ फणिराज शोभायमान होता है तैसे ही निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जिनेन्द्रभक्त जीव जैनसिद्धान्त में शोभायमान होता है। जहतारायणसहियं ससहरबिम्ब खपण्डले विमले । भाविय तव वय विमलं जिणलिङ्गं देसण विसुद्धं ॥१४६॥ यथा तारागणसहितं शशधरविम्बं खमण्डले विमले । भावित तपोव्रतविमलं जिनलिङ्गं दर्शन विशुद्धम् ।। अर्थ-जैसे निर्मल आकाश में तारागण सहित चन्द्रमा का बिम्ब शोभायमान होता है तैसे ही जिनमत में तपश्चरण और व्रती से निर्मल तथा सम्यग्दर्शन से शुद्ध ऐसा जिन लिङ्ग (दिगम्बर वेष) शोभित होता है। इयणाउं गुणदोसं दसणरयणं धरेह भावेण । सारंगुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥१४॥ इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरतभावेन । सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ अर्थ--भो भव्यजनो? आप इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के गुण और दोषों को जान कर सम्यग्दर्शन रुपी रत्न को भाव सहित धारण करो जो कि समस्त गुण रत्नों में सार (प्रधान) है और मोक्ष मन्दिर की प्रथम सीढी है। कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणोय । दंसणणाणवउम्गो णिदिद्योजिणवरिंदेहि ॥१४८॥ कर्ती भोगीअमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनश्चः । दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टो जिनवरेन्द्रः ।।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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