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________________ सत्तम गरयावासे दारुणभीसाइ असहणीयाए । भुत्ताई मुइरकालं दुक्खाई पिरंतर हि सहियाई ॥ ९ ॥ सप्तसुनारकवासे दारुण भीष्मणि असहनीयानि । भुक्तानि मुचिरकालं दुःखानि निरन्तरं सहितानि ॥ अर्थ-हे जीव तुमने सातो नरक भूमियों के आवास (बिल) में तीब्र भयानक असहनीय ऐसे दुःखों को बहुत काल तक निरन्तर भागे और सहे। खणणुतावण वालण वेयण विच्छेयणाणि रोहं च । पत्तोसिभावरहिओ तिरयगइए चिरं कालं ॥१०॥ खननोत्तापन ज्वालम व्यसन विच्छेदन निरोधनं च । प्राप्तोसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरकालम् ।। अर्थ-हे आत्मन् ? भावना विना तिर्यच गति में पहुत काल अनेक दुःख पाये हैं, जब पृथिवी कायिक भया तब कुदाल फावडर्डा आदि से खोदने से, जब जल कायिक हुवा तय तपाने से, जब अग्नि कायिक हुवा तब बुझावने से, वायु कायिक हुवा तब हिलाने फटकने सं, जब बनस्पति हुवा तब काटने छेदने रांधने से, और जब विकलत्रय हुवा तब राकने ( बांधने ) से महादुःख पाये । आगंतुक माणसियं सहजं सरीरयं च चत्तार । दुक्खाई मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ॥१२॥ आगन्तुकं मानकिं सहज शारीरकं च चत्वारि । दुःखानि मनुजनन्मनि प्राप्तोसि अनन्तकं कालम् ॥ अर्थ-हे जीव ? तुमको इस मनुष्य जन्म में आगन्तुक आदि अनेक दुःख अनन्त काल पर्यन्त प्राप्त हुवे है । भावार्थ-जो अकस्मात बज्रपात ( विजली ) आदि के पड़ने से दुःख होय सो आगन्तुक है इच्छित वस्तु के न मिलने पर जो चिन्ता होती है उसको मानसीक दुःख कहते हैं, वात पित्त कफ से
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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