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अर्थ - १ निशङ्कित अर्थात जैन तत्वों में शंका न करना २ निःकाङ्क्षित अर्थात इन्द्रिय भोगों की प्राप्ति के लिये वांछा न करना ३ निर्विचिकित्सा अर्थात् व्रती पुरुषों के शरीर से ग्लानि न करना ४ अमूढ दृष्टि अर्थात् मिथ्यामार्ग को देखा देखी उत्तम न समझना ५ उपगूहन अर्थात् व्रती पुरुष यदि अज्ञानता आदिके कारण कोई दोष कर लेवें तो उन दूषणों को प्रकट न करना ६ स्थिती करण अर्थात् रत्नत्रय से डिगते हुवों को फिर धर्म में स्थिर करना ७ वात्सल्य अर्थात् जैन धर्मीयों से स्नेह रखना ८ प्रभावना अर्थात् ज्ञान तप और वैराग्य से जैन धर्म के महत्व को प्रकट करना ये सम्यक्त्व के आठ अङ्ग हैं ।
तं चैव गुणविशुद्धं जिण सम्मत्तं सुमुक्खठाणाए । जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्त चरणचारितं ॥ ८ ॥
तच्चैव गुणविशुद्धं जिन सम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय । यच्चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्व चरणचरित्रम् | अर्थ- जो कोई निश्शङ्कितादिगुण सहित जिनेन्द्र के श्रद्धान
को ज्ञान सहित परम निर्वाण की प्राप्ति के लिये आचारण करता है। सो पहला सम्यक्त्व चरण चारित्र है ।
भावार्थ -- ज्ञानी पुरुष सर्वज्ञ भाषिततत्वार्थ को निशंकादिक आठ अङ्गों सहित श्रद्धान करें तो उसके सम्यक्त्व चरण चारित्र अर्थात पहला चारित्र होता है ।
सम्मत चरण सुद्धा संजम चरणस्म जइव सुपसिद्धा । पाणी अमूढ दिठ्ठी अचिरे पावन्ति निव्वाणं ॥ ९ ॥
सम्यक्त्व चरणशुद्धा संयम चरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धा । ज्ञानिनः अमूढ दृष्टयः अचिरं प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥
अर्थ -- जो सम्यक्त्व चरण चारित्र में शुद्ध हैं अर्थात जिनका सम्यक्त विशुद्ध है और संयम के आचरण में प्रसिद्ध हैं अर्थात संयम को पूर्ण रूप पालते हैं व ज्ञानवान पुरुष मूढ़ता रहित होते हुव थोड़ेही समय में निर्वाण को पाते हैं 1