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( ४४ ) उपमारहित अनन्तचतुष्टय आदि गुणांकर सहित हैं ऐसे अर्हन्त परमेष्टी होते है।
भावार्थ-यद्यपि अर्हन्तदेव के आयु, नाम, गोत्र, और वेदनीय इन चार अघातिया कर्मों का अस्तित्व है तौभी कार्यकारी न होने से नष्टवतही है । १३ में गुणस्थान में प्रकृति वा प्रदेश बंधही होता है स्थिति अनुभागबन्ध नहीं होता है इस कारण बन्ध न होने के ही समान हैं तथा समम्न कर्मों के नायक माइकर्म के नाश होजाने पर बाकीके कर्म कार्यकारी नहीं हैं इस अपेक्षा अहन्त भगवान मोक्षस्वरूपही है।
जरवाहिजम्म मरणं चउगइ गमणं च पुण्णपावं च । हंतूणदोसकम्मे हुउणाणमयं च अरिहंतो ॥ ३० ॥
जराव्याधि जन्ममरण चतुर्गतिगमनं च पुण्यपापं च । हत्वा दोषान् कर्माणि भूतः ज्ञानमयः अर्हन् ।
अर्थ-जरा अर्थात बुढापा व्याधि अर्थात गंग, जन्म मरण चतुर्गति गमन तथा पुन्य पाप आदि दोषों को तथा उनके कारण भूत कर्मों को नाश कर जो केवल ज्ञान मय हैं वह अर्हन्त दव हैं।
गुणठाण मग्गणेहिंय पज्जत्तीपाण जीवठाणहि । ठावण पंच विहेहि पणयव्वा अरहपुरुसस्स ॥३१॥
गुणस्थान मार्गणाभिश्च पर्याप्तिप्राण जीवस्थान. । स्थापन पञ्चविधै प्रणेतव्या अहत्पुरुषस्य ॥
अर्थ--१४ गुण स्थान, १४ मार्गणा ६ पर्याप्ति, प्राण, जीव स्थान इन पांच स्थापना से अर्हन्त पुरुष को प्रणाम करो।
तरहगुगटःणे पाजोयकेवालय होइ अरहंतो। च उतीस अइगयगुण तिहु तस्स टु पडिहारा ॥३२॥ त्रयोदशगुणस्थाने सयोगकवलिको भवति अर्हन् । चतुस्त्रिंशदतिशयगुण भवन्तिहु तस्यप्रातिहार्याणि ॥