________________
( ३९ )
गमन रूप गति से चरमशरीर से किंचिन्न्यून आकार को प्राप्त हुवे हैं, मुक्त स्थान में स्थित हैं, खड्डासन वा पद्मासन अवस्थित हैं ।
अर्थात् - जिस आसन से मुक्त हुवे हैं उसी आकार हैं। ऐसी प्रतिमा जो सदा इसी प्रकार ध्रुव रहती है बन्दने योग्य है ।
दमेइ मोक्खमगं संमत्तं संयमं सुधम्मं च । णिग्गंथं णाणमयं जिणमगे दंसणं भणियं ॥ १४ ॥ दर्शयति मोक्षमार्गं सम्यकत्वं संयमं सुधर्मं च । निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्ग दर्शनं भणितम् ॥
अर्थ - निर्बंध और ज्ञानमई मोक्ष मार्ग को, सम्यक्त्व को, संयम
को. आत्मा के निज धर्म को जो दिखाता है उसको जैन शास्त्र में दर्शन कहा है
I
जहफुलं गंधमयं भवदिहु वीरं सघिय मयं चावि । तह दंसणाम्म सम्मं णाणमय होड रूपच्छे " ॥
रू. स्म् ॥
यथा पुष्पं गन्धभयं भवति स्कर्ट र तथा दर्शने सम्यक्त्व ज्ञानयं भवा अर्थ - जैसे फूल गन्ध वाला है दूध वाला हैं तैसे ही दर्शन सम्यकूत्व वाला है । वह सम्यकत्व अन्तरङ्ग तो ज्ञानमय है और वाह्य सम्यगदृष्टिं श्रावक और मुनि के रूप में स्थित है ।
य चारि ।
जिणविर्वणाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च ।
जं देइ दिक्ख सिक्खा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ||१६|| जिनविम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च ।
य ददाति दीक्षा शिक्षा कर्मक्षय कारणे शुद्धाः ।
अर्थ - जो ज्ञानमय हैं, संयम में शुद्ध हैं अत्यन्त वीतराग हैं,
और कर्मों के क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शीक्षा देते हैं वह आचार्य परमेष्ठी जिन विम्व हैं । अर्थात जिनेन्द्रदेव के प्रतिबिम्ब ( सादृश्य ) हैं ।