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करके शीलवान होता है, और उस शील के फल से अभ्युदय अर्थात् स्वर्गादिक के सुख को पाकर क्रम से निर्वाण को प्राप्त करता है ।
जिण वयण ओसहमिणं विसय सुह विरेयणं अमिदभूयं । जरमरण वाहि हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ||१७|
जिन वचन मौपधिमिदं विषय सुख विरेचनम मृतभूतम् । जरामरण व्याधि हरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ||
अर्थ - यह जिन बचन विषय सुख को अर्थात् इन्द्रियों के विषय भोगों में जो सुख मान रक्खा है उसको दूर करने में औषधि के समान हैं और बुढ़ापे और मरने की व्याधि को दूर करने और सर्ब दुखों को क्षय करने में अमृत के समान हैं।
एकं जिणस्स रूवं वीयं उकिट सावयाणंतु ।
अवरीयाण तइयं चउथं पुण लिंग दंसणेणच्छी ॥ १८ ॥
एकं जिनस्य रूपं द्वितीयम् उत्कृष्ट श्रावकानां तु । अपरस्थितानां तृतीयं चतुर्थे पुनः लिङ्गं दर्शनेनास्ति ||
अर्थ - जिन मत में तीन ही लिङ्ग अर्थात् वेश होते हैं, पहला जिन स्वरूप नग्न दिगम्बर, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का, और तीसरा आर्यकाओं का, अन्य कोई चौथा लिङ्ग नहीं है ।
छह दव्व णव पयत्था पंचच्छी सच तच्चणिदिट्ठा । सद्दह ताण रूवं सो सदिट्ठी मुणेयव्वो ||१९||
पट द्रव्याणि नव पदार्थाः पञ्चास्ति सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि । श्रद्धाति तेषां रूपं स सद्दृष्टिः ज्ञातव्यः ॥
अर्थ - छह द्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय, और सात तत्व जिनका उपदेश श्री जिनेंद्र ने किया है उनके सरूप का जो श्रद्धान करता है उसको सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये ।
जीवादी सरहण सम्मतं जिनवरेह वण्णत्तं । बवहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मतं ||२०||