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( ४८ ) अर्थ-सर्वज्ञ अर्हन्तदेवका भाव (स्वरूप ) ऐसा है कि सम्यस्वरूप दर्शन (सामान्यावलोकन ) कर स्वपर को देखें हैं और कानकर समस्त द्रव्य और उनकी पर्यायों को जाने हैं तथा क्षायिक सम्यक्त्व गुणकर सहित हैं।
भावार्थ-अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनन्तसुख और अनन्त वीर्य यह चार गुणघातिया कर्माके नाश से अर्हन्त अवस्था में प्रकट होते हैं।
मुण्णहरे तरुहि उज्जाणे तहमसाणवासे वा। गिरिगुह गिरिसिहरेवा भीमवणे अहव वासते वा ॥४२॥
शून्यग्रहे तरुमूले उद्याने तथा श्मशानवासे वा। गिरिगुहायां गिरिसिखिरेवा भीमवने अथवा वसतौवा ।।
अर्थ-शून्यग्रह, वृक्ष की जड़, बाग, श्मशान भूमि, पर्वतो की गुफा, पवर्ती के सिखिर, भयानक बन, अथवा वसति का (धर्मशाला ) में दीक्षित (प्रतधारी) मुनी निवास करते हैं।
सवसासत्तंतित्थं वच चइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अहवेजे जिणमगे जिणवराविति ॥ ४३ ॥
स्ववशाशक्तं तीर्थ वचश्चैत्यालय त्रयं च । जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विन्दन्ति ।
अर्थ-म्वाधीनमुनिकरआशक्त स्थान में अर्थात ऐसे स्थान में जहां मुनि तप करत है और निर्वाणक्षेत्र आदि तीर्थ स्थान में शब्दागम परमागम युक्त्यागम यह तीनों ध्यान करने योग्य हैं तथा जिन मन्दिर ( कृत्रिम आकृत्रिम लोकत्रय में स्थित जिनालय ) भी ध्यान करने योग्य हैं एसा जिन शास्त्रा में जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
पंचमहव्वयजुत्ता पंचेंदिय संजया निरावेक्खा । सञ्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहाणि इच्छति ॥४४॥
पञ्चमहाब्रतयुक्ता पञ्चेन्द्रियसंयता निरापेक्षा । खाध्यायध्यानयुक्ता मुनिवरवृषभानीच्छन्ति ।।