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तिहितिणि धरविणिचं तियरहिओ तहतिएण परियरिओ । दो दोसविमुको परमप्पा झायए जोई ॥ ४४ ॥
मैं
त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिकलितः । द्विदोष विप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी |
अर्थ
[-मन वचन काम कर तीनों ( वर्षा शीत उष्ण ) कालों सदा काल तीनों शल्यों ( माया मिथ्या निदान ) को छोड़ता हुआ और तीनों (दर्शन ज्ञान चरित) कर संयुक्त होकर दो दोषों ( रागद्वेष ) से छूटा हुवा योगी परमात्मा को ध्यावे हैं ।
मयमाय कोहरहिओ लोहेण विवर्जिओ य जो जीवो । जिम्मल सभावजुतो सो पावइ उत्तमं सौक्खं ॥ ४५ ॥
मदमाया क्रोध रहितः लोभेन विवर्जितश्च यो जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः स प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ||
अर्थ - जो जीव मद (मान) मायाचार क्रोध और लोभ से रहित है और निर्मल स्वभाव वाला है सोही उत्तम सुख को पावे है । विसय कसायेहि जुदो रुद्दोपरमध्य भावरडिय मणो । सोण कहहि सिद्धसुहं जिनमुद्द परम्मुडो जीवो ॥। ४६ ।।
बिषय काषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्म भावरहित मनाः । स न लभते सिद्धसुखं जिनमुद्रा पराङ्मुखो जीवः ॥
अर्थ – जो विषय और कषायों से सहित है और परमात्मा की भावना से रहित है मन जिसका और जिनमुद्रा (दिगम्बर भेष ) से विमुख है ऐसा रुद्र सिद्ध सुख को नहीं पावे हैं ।
reमुद्दे सिद्धि हवेई नियमेण जिणवरुद्दिद्वा । सिविणेषिणु रुच्चइपुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥ ४७ ॥ जिनमुद्रा सिद्धसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा । स्वमपि न रोचते पुनः जीवा तिष्ठन्ति भवगइने ||