Book Title: Revati Dan Samalochna
Author(s): Ratnachandra Maharaj
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Vir Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2462. 233Cr सদलালনথ समालोचना" मूल-वृत्ति - हिन्दी अनुवाद सहित ) ले० पं० शतावधानी मुनि श्री रत्नचन्द्रजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना

-- [ मूल-वृत्ति हिन्दी अनुवाद सहित ] लेखक शतावधानी पं० महाराज जी प्रचिन्द्रजी कमी हिन्दी-अनुवादक . पं० शोभाचन्द्रजी भारत यायतीर्थ प्रकाशक श्री० श्वे० स्थाजैन वीर मण्डल, केकड़ी वि० सं० प्रति वीर संवत् २४६१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नथमल लुणिया द्वारा आदर्श प्रेस (केसरगञ्ज डाकखाने के पास ) अजमेर में छपी सञ्चालक-जीतमल लूणिया जैन समाज के इस बड़े भारी प्रेस में सब प्रकार की छपाई बहुत उमदा, सस्ती और जल्दी होती है । %3 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन " जैनें जयतु शासनम् ” भगवान् महावीर का शासन जयवन्त बर्तो, विजयशाली हो ऐसी भावना प्रत्येक जैन में होती है— होनी चाहिये ! तीर्थंकरों के युग में उनके शासन के साधु श्रावक में कितनी प्रेम वृत्ति, कितनी धर्म, भावना, कैसा पापभिरुत्व, श्रात्मवेषक वृत्ति और कैसा शासन प्रेम था ! इसकी सबूत जिनागम और पूर्वाचायों के ग्रन्थादि पढ़ने से स्पष्ट होता है । एक ही समय में पार्श्व प्रभु के शासनवर्ती मुनि और महावीर प्रभु के शासनवर्ती मुनि थे; किन्तु परस्पर की विनीतता, सत्यान्वेषक दृष्टि और निरहंत्व जानकर हमें बड़ा आल्हाद होता है ( देखिये उत्तराध्यन सूत्र अध्य० २३ ) उन्हीं पार्श्व प्रभु, महावीर प्रभु एवं अन्य तीर्थकरों के समय में नाना क्रियाकांड में रक्त परिव्राजक, सन्यासी, त्रिदंडी, तापस आदि भी थे; किन्तु जिनेश्वर के सच्चे साधु श्रावकों की उनपर कैसी माध्यस्थ दृष्टि, अनुकम्पा बुद्धि और आत्म धर्म के सन्मुख प्राणीमात्र को लेजाने की कैसी परोपकार वृत्ति थी ! ( देखिये भगवतीजी के कयी शतक व उद्देश्य उनके वर्णन से भरे हैं: ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] आज एक प्रमु महावीर के शासन में उन्हीं के तत्त्वज्ञान और फिलोसॉफी को मानने वाले जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानक वासी, तेरह पन्थी श्रादि फिकों में और उसके भी अनेक प्रभेदों में बटे हुए हैं। उन सब जैनों के तीर्थकर ( इष्ट देव), नवकार मन्त्र (इष्ट जाप्य) और तत्वज्ञान में कोई फर्क नहीं है । बिल्कुल एक वाच्यता होते हुए भी क्रिया कांडों की, परम्परा की विभिन्न मान्यताओं को प्रधानता देकर परस्पर में लड़ रहे हैं। पत्तों के लिये हम मूलों को छेद रहे हैं। दिगम्बर भाई कहें कि, श्वेतम्बरों के महावीर ने मांस खाया और श्वेताम्बर कहें कि, दिगम्बरों ने स्त्री-शूद्रों के अधिकार छीन लिये, ब्राह्मणत्व को अपनाया इत्यादि से महावीर को कलंकित किया। इस प्रकार पारस्परिक विसंवाद से अजैनों को हँसने का, आपके ईष्टदेव महावीर प्रभु को और जैन श्रागम ग्रंथों ( तत्वज्ञान ) को कलंक देने का मौका मिलता है। अपने आपको विद्वान् मानने वाले, शासन के हितैषी कहलाने वाले, शास्त्र के मर्मज्ञ मानने वाले श्रोप स्वयं ही उन प्रतिस्पर्धि के कुल्हाड़े के हाथे हो जाते हैं। क्या श्वेतम्बरों का महाबीर और दिगम्बरों का महाबीर भिन्न है ? कर्मफिलॉसोफी और तत्वज्ञान में फर्क है ? कभी नहीं। अधिक से अधिक इतना कह सकते हो कि, हम एक ही पिता के पृथक २ पुत्र हैं। उन्हीं वीर परमात्मा के निर्दिष्ट मोक्षमार्ग को पहुँचने के भिन्न २ मार्ग मात्र हमारे पूर्वज प्राचार्यो ( जो कि, छग्रस्थ ही थे, भले ही हमसे कुछ अधिक बुद्धिमान होंगे) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ने बताये हैं । अतः क्रियाकांड की प्रथा कुछ भले ही भिन्न है; किन्तु ध्येय एक ही है। श्वेताम्बर दिगम्बरों पर या दिगम्बर श्वेताम्बरों पर कलंक देते हैं, वे दोनों प्रमु महावीर के शासन पर ही कुठाराघात करते है । स्याद्वाद न्यायको समझने वाले विविध नयवादों से भी समन्वय कर सकता है, तो किंचित् स्थूल भेद वाले श्वेताम्बर दिगम्बर मान्यतां का समन्वय तो अति सुलभ है ही। जब कि, दिगम्बर भाइयों ने श्वेताम्बर आगमों पर आक्षेप करके महावीर ने मांसाहार किया है ऐसा भगवती सूत्र के 'रेवती दान' के अधिकार में सिद्ध करके श्वेताम्बर आगमों को तुच्छ समझाने की चेष्टा की है तो उन भाइयों को सत्य समझाने के लिये, उनकी दयनीय दशा को सुधार लेने की अनुकम्पा वृत्ति से जैन-धर्म दिवाकर पं० रत्न शतावधानीजी रत्नचन्द्रजी महाराज ने 'रेवती दान' के विषय में आगमोद्धार समिति के विद्वान् मुनि सदस्यों को उपस्थिति में जयपुर विराजते समय यह निबन्ध लिख कर दिगम्बर भाइयों का भ्रमनिवारण किया है। मुनि श्री ने वैद्यक के प्राचीन ग्रन्थों (वैद्यक शब्द सिन्धु, वनौषधि दर्पण, कैयदेव निघण्टु, शालिग्राम निघण्टु आदि) से, वैयाकरणीय ग्रन्थों ( कारिकाबलो, सुश्रुत संहिता आदि ) से शब्द कोष ग्रन्थों (शब्दार्थ चिन्तामणि आदि) से, काव्यप्रन्थों ( वाग्भट आदि) से; ऐसे २ प्राचीन एवं विश्वस्त ग्रन्थों से इस समालोचना में यह सिद्ध किया है कि, जिन शब्दों (मार्जार, कुकट, कपोत आदि) को एकार्थ वाची ( पशु, पक्षी) समझ कर आपत्ति की जाती है, वे शब्द वनस्पति के नाम वाची भी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। सभी फिर्के के जैन भगवान् की वाणी को अनेकार्थ युक्त तो मानते ही हैं। फिर इन्हीं शब्दों को एकार्थी मान लेना भगवान् की वाणी का अपमान करना, या अपनी तुच्छता बताना या अपनी हठवादी बुद्धि का प्रदर्शन नहीं है ? . अधिक तो क्या कहें ! एक सीधी-सादी बात है कि, याज्ञिकादि अनेक प्रकार की हिंसा को रोक कर अहिंसा का झण्डा ऊठाने वाले, पकाये हुए मांस में भी समुच्छिम जीवों की उत्पत्ति मनाने वाले, पृथ्वी-वाणी-वनस्पति जैसी जीवनावश्यक बस्तुओं के सचित भक्षण में हिंसा बताने वाले, अप्रतिप्राती आयुष्य वाली देह धारण करने वाले प्रमु महावीर पशु-पक्षी का मांस का भक्षण कर ही कैसे सके ? जैन धर्म का नाम श्रवण करने वाले को विधर्मी भी इसे मंजूर नहीं कर सकता । तो बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि, इन्हीं महावीर के पुत्र दिगम्बर जैन भाइयों को यह कैसे सूझी? ऐसा भी मान लिया जाय कि, दिगम्बर भाइयों को श्वेताम्बर सूत्रों पर आक्षेप करना था, तो भी क्या आज तक किसी श्वेताम्बरीय साधु या श्रावक की हिंसा की और प्रवृत्ति देखी ? यदि श्वेताम्बरी लोग उक्त शब्दों का पशु-पक्षी अर्थ करते तो वे अवश्य मांसाहारी हुए होते परन्तु ऐसा आज तक देखने में नहीं पाया है। मुझे सम्पूर्ण विश्वास है कि, दिगम्बर भाई इस रेवती दान समालोचना को पढ़कर अपने मन्तव्य को सुधार लेंगे और श्वेताम्बरीय जैन भाई भी रेवती दान के शब्दों का. परमार्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । .. [ ५ ].. समझ कर भ्रम में पड़े हुए भाइयों का भ्रमनिवारण करेंगे । सुज्ञेषु किं बहुना ? ब्यावर (राजपूताना.) ! जिन शासन का तुच्छ सेवक महावीर जयन्ति वी. सं. २४६१ । धीरजलाल के तुरखिया वि. सं. १९९२ चैत्र शुक्ला १३ | ऑ. अधिष्ठाता, जैन गुरुकुल ब्यावर नोट:-रेवती-दान का स्पष्टीकरण खास कर उन दिगम्बर पंडितों के लिये लिखा गया है, जो कि, श्वेताम्बर आग़मों के मनमाने असंबद्ध शब्दार्थ करते हैं । इन पण्डितों को विद्वता एवं युक्ति प्रमाण सहित उनकी प्रिय भाषा संस्कृत में ही पं० मुनि श्री स्त्रचन्द्रजी महाराज ने यह पद्य गद्यात्मक निबन्ध लिखा था, जिसका लाभ आम जनता को भी मिले यह आवश्यक समझ करके एक दिगम्बर न्यायवादी पंडितजी ने ही इसका मनुवाद कर देने की कृपा की है, अतः उनको धन्यवाद दिया जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुश खबर एक पन्ध दो काज श्री जैन गुरुकुल, ब्यावर ने अपना प्रेस (छापाखाना) शुरू कर दिया है यदि आप हिंदी, गुजराती, इंग्लिश भाषा में किसी प्रकार (कुंकुंम् पत्रिका, हुँडी, पर्चे, रिसीट बुक, छोटी बड़ी पुस्तक आदि ) की सुन्दर शुद्ध छपाई का, कार्य कराना चाहते हैं तो गुरुकुल प्रि० प्रेस में ही छपाने का आर्डर दीजिये। आपका काम ठीक समय पर, सुन्दर और शुद्ध प्रकार से होगा। दाम भी वाजिब लगेगा और गुरुकुल के उद्योग विभाग को उत्तेजन मिलेगा। पत्र व्यवहार का पतामैनेजर, श्री जैन गुरुकुल प्रिंटिङ्ग प्रेस ___ ब्यावर ( राजपूताना) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द महानुभावो, 'श्वेताम्बर मत समीक्षा' पुस्तक तथा जैन मित्र आदि पत्रों में रेवतो का भगवान को दिया आहार अभक्ष था तथा और भी कई आरोप विश्व वन्द्य वीर भगवान पर पढ़कर रोमांच कांपने लगे। आक्षेपों को निर्मूल सिद्ध करने के लिए परम पूज्य, प्रातः स्मरणीय शतावधानीजी पंडित मुनि श्री रत्नचन्दजी स्वामी ने 'रेवती दान समालोचना' शीर्षक लेख लिखा, जो जैन प्रकाश के उत्थान ( महावीरांक ) में प्रकाशित हो चुका है। किन्तु लेख संस्कृत भाषा में होने के कारण आम जनता को लाभ कम दे सका । अतः सर्व साधारण के हितार्थ यह लेख हिन्दी भाषानुवाद सहित प्रकाशित किया गया है । लेख में स्वामीजी महाराज ने सप्रमाण, आगम, तर्क व शब्द शास्त्रानुसार विपक्षी समाज का भ्रम निवारण व समाज पर आरोपित कलङ्कों को निर्मूल सिद्ध कर दिया है और यह भली भाँति उल्लेखित है कि रेवती का दिया हुआ आहार कैसा था ? आगम व शब्द शास्त्रानुसार यह स्वयं सिद्ध है कि कपोत कुक्कुट, मार्जार आदि शब्द केवल पशु द्योतक ही नहीं, किन्तु बनस्पति द्योतक भी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] जो महानुभाव हमारे आगम, साम्प्रदायिक कट्टरतावश, देखते हैं, वे सूत्रों के रहस्य की खोज तो केवल खंडनात्मक दृष्टि से ही ही न समझ सके तो भला कारण पंडित अजितप्रसादजी शास्त्री ने अपनी की धुन में रेवती के लिए मांसाहारिणी आदि शब्द लिखने का दुस्साहस किया है जो श्री श्वेताम्बर आगमों की अनभिज्ञता का स्पष्ट परिचय है । वास्तविक भाव दूर रही । इसी कीर्ति व ख्याती पाठक, इस पुस्तक को जिज्ञासा भाव व तत्व निर्णय की दृष्टि से पढ़ें और वास्तविक रहस्य का निर्णय करें 1 नम्र निवेदक धनराज जैन मंत्री श्री श्वेताम्बर स्थानक वासी, जैन वीर मंडल केकड़ी ( अजमेर) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्वे. स्था. जैन वीरमण्डल, केकड़ी का संक्षिप्त परिचय केकड़ी (जि० अजमेर ) में पहिले कोई स्था० जैन संस्था नहीं थी। न कोई विद्वान मुनि महात्मा का पधारना होता था। सद् भाग्य से सं० १९८७ फाल्गुन कृष्ण २ को महावैरागी, एकान्त मौन योगी प्रेमी, आदर्श ब्रा० ब्र० श्रात्मार्थ मुनि श्री मोहनऋषिजी महाराज श्री का पदार्पण हुआ। मुनि श्री के उपदेशामृतसे स्था० नैन श्री संघ में नूतन जागृति हुई और चैत्र शुक्ला १ सं० १९८८ को उक्त मंडल की स्थापना हुई। ____मंडल के धर्म प्रेमी उत्साही मंत्री धनराजजी जैन और सभासदों ने श्री संघ की सेवा करना प्रारम्भ किया, जब से प्रति वर्ष चातुर्मास (मुनिवर या महासतीजी के ) होने लगे । धर्मस्थानक बन गया और सूत्र बत्तीसी, टीकाएँ, तथा सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय आदि १५०० पुस्तकों का संग्रह हो गया। इस प्रकार पुस्तकालय और वाचनालय चल रहा है । मंडल के आय व्यय और कार्य की रिपोर्ट यथा समय प्रकट होती रहती है। उक्त मंडल की तर्फ से ही इस समालोचना की ५०० प्रति छपायी गयी है। स्थान २ पर ऐसी सुसंगठित संस्थाएँ खोलकर शासन सेवा का सुयोग प्राप्त करना जैन भाइयों का पवित्र कर्तव्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार भूत ग्रन्थों की सूची १. वनौषधि दर्पण-सं० कविराज बिरजचरण गुप्ता काव्य भूषण, राजवैद्य, कूच ( विहार ) सं० १९०९. . २. मुश्रुत संहिता-हिन्दी भाषानुवाद युक्त, प्रकाशक श्यामलाल, श्रीकृष्णलाल, सन् १८९६. ३. वैद्यक शब्द सिन्धु-प्र. कविराज श्री उमेशचन्द गुप्त सन् १८९४... ४. कारिक वली---सिद्धान्त मुक्तावली सहिंता श्री विश्वनाथ पंचानन भट्टाचार्य विरचिता सन् १९१२ प्र. गु. प्रिं. प्रेस ५. कैयदेव नियण्टु-कर्ता आयुर्वेदाचार्य पं. सुरेन्द्र मोहन _B.A. वैद्य कलानिधि (कलकत्ता), प्राचार्य-दयानंदा । युर्वेदिक कॉलेज लाहौर ता. २०-३-१९२८. प्र. मेहरचंद लक्ष्मणदास, सैदमिट्ठा बाजार, लाहौर. ६.शब्दार्थ चिन्तामणि-प्रका. मेदपाटेश्वर महाराणा सा. श्री. सज्जनसिंहजो ( उदयपुर ). स. १९४० में उदय सज्जन यंत्रालय से प्रकाशित. ८. शालिग्राम निघण्टु-सं. शालिग्राम वैश्यः ( मुरादाबाद ) प्र. खेमराजः श्रीकृणदासः ( बम्बई ) सं. १९६९. ८. वाग्भट्ट-अरुणदत्त प्रणील व्याख्या सहित प्र. पाण्डुरंग जावजी (निर्णयसागर मुद्रणालय) ___ बम्बई. शकाब्द १८४६ सन् १९२५. रेवतीदान समालोचना के सम्पादन में उपरोक्त ग्रन्थों का आधार लिया है। अतः उक्त ग्रन्थों के सम्पादक एवं प्रकासकों का आभार प्रकट किया जाता है। लेखक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत सूची हेमचन्द्राचार्य राजनिघण्टु वर्गः त्रिकाण्डशेषः भावप्रकाश पूर्व भाग सुश्रुत सुत्रस्थान अध्याय मेदिनी वाग्भट उत्तरखण्ड, उत्तर तंत्रम् रत्नावली राज:वल्लभः परिच्छेदः रेवतीदान समालोचना हिन्दी भाषानुवाद को प्रति १००० निम्न सज्जनों ने अपने खर्च से छपायी हैं । वे धन्यवाद के पात्र हैं। श्री श्वे. स्था. जैन वीर मण्डल, केकड़ो प्रति ५०० श्री. कुशालचन्दजी अभयकुमारजी, अल्वर प्रति १०० श्री. विरजलालजी रामबक्सजी जैन , श्री. छोटेलालजी पालावत जैन , श्री. कांधला के सुज्ञ श्रावक भाई ,, , २०० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ० ० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना श्रीमान् मित्रसेन पल्टूमल जैन कांधला की तरफ से २०० प्रतियाँ भेट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ श्रई ॥ रेवती- दान-समालोचना लेख :---- शतावधानी पंडित महाराज श्री रत्नचंद्रजी स्वामी मंगलाचरणम् । प्रारीप्सितनिबन्ध परिसमाप्त्यर्थमिष्टदेवतानमस्कारात्मकमङ्गलमातनांति नमस्कृत्य महावीरं, भवपाथोधिपारगन् । रेवतीदत्तदानार्थे, याथातथ्यं विचिन्त्यते ॥ १ ॥ नमस्कृत्येति — उपपदविभक्तेः कारक विभक्तेर्बलीयस्त्वान्महावीरमित कारकविभक्तिर्द्वितीया । श्रन्येष्वपीष्टदेवेषु सत्सु विशेषतया महावीरस्योपादानं वर्तमानशासनपतित्वात्प्रकृतनिबन्धेन तस्य सम्बन्धाश्च । युद्धविजेता वीरः, कर्मयुद्धविजेता तु महावीरः, वीरेष्वपि महान् वीरः, अतुलपराक्रमदर्शको वर्धमानस्वामीत्यर्थः । क पराक्रम दर्शित इत्यत आह-भवेति, भवः संसारः स एवागाधत्वात्याथोधिः समुद्रस्तस्य पारमन्तं गच्छतीति भवपाथोधिपारगस्तम् । - रेवतीति, रेवतख्या मेरिढकग्रामनिवासिनी काचिद् गृहिणी, यया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अई ॥ रेवती-दान-समालोचना (हिन्दी भाषान्तर) मंगलाचरण जिस निबंध को प्रारंभ करने की इच्छा की है उसकी समाप्ति के लिए इष्ट देव को नमस्कार रूप मंगलाचरण करते हैं___ संसार-समुद्र के पार पहुंचे हुए महावीर को नमस्कार करके रेवती द्वारा दिए हुए दान के विषय में वास्तविकता का विचार किया जाता है ॥१॥ उप पद विभक्ति से कारक विभक्ति अधिक बलवती होती है, अतः यहाँ 'महावीरम्' पद में द्वितीया कारक विमक्ति का प्रयोग किया गया है। इष्ट देव तो महावीर के अतिरिक्त और भी हैं किन्तु महावीर ही वर्तमान शासन के स्वामी हैं और प्रकृत निबंध का संबंध उन्हीं से है, इसलिए मंगलाचरण में उन्हीं का ग्रहण किया गया है। युद्ध के विजेता को वीर कहते हैं किन्तु कम-युद्ध में विजय पाने वाले को महावीर कहते हैं। अर्थात् वीरों में भी जो महान् वीर हो सो महावीर । महावीर पद से यहाँ अतुल पराक्रम दिखलाने वाले वर्धमान स्वामी का अर्थ लिया गया है। ____ वर्धमान ने कहाँ अतुल पराक्रम दिखलाया है ? इसका समाधान करने के लिए कहते हैं-मव अर्थात् संसार, यही संसार भगाध होने के कारण मानों समुद्र है, उसके पार अर्थात् अन्त तक जो जा पहुंचे वह 'भवपाथोदधिपारग' कहलाता है। मतलब यह है कि वर्धमान स्वामी ने मोक्ष प्राप्त करने में अतुल पराक्रम दिखलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ~~~~~~~~ महावीरस्वाम्यर्थ सिंहानगाराय भैषज्यं प्रतिलाभितम् । तया दत्तं यहानं तस्याः पदार्थस्तद्विषये केषांचिच्छ का विद्यते, यत्तहानवस्तु मांसमासीदन्ये वदन्ति तद्वस्तु वनस्पतिफलादिजन्यमौषधमासीदत्र पक्षद्वये किं यथातथमिति विशेषेण पर्यालोचनपूर्वकं प्रमाणपुरस्सरं चिन्त्यते विचार्यत इत्यर्थः ॥ १ ॥ वोरस्य रोगोत्पत्तिः। रेवतीदानस्य प्रयोजनं महावीरस्वामिनः शरीरे रोगोत्पत्तिः । तस्याश्च निमित्तं वर्धमानस्वामिनं प्रति गाशालकेन प्रक्षिप्ता तेजोलेश्या तद्दर्शनायाह गोशालकेन विक्षिप्ता, तेजोलेश्या जिनं प्रति । यद्यपि नास्पर्शदीर, तथाप्यभूद्वयथाकरी ॥२॥ गोशालकेनेति-अस्य विस्तृतार्थस्तु भगवतीसूत्रे पञ्चदशशतके । अत्र तु सम्बन्धमात्रदर्शकः संक्षितार्थः। गोशालकप्रक्षिप्ततेजोलेश्याया महावीरस्वामिशरीरेण सह संपर्को नाभूत, शरीरसमीपप्रदेशादेव तस्याः परावृत्तत्वात् । तथापि सामीप्येनाघातजनकत्वात्सा तेजोलेश्या रोगोत्पत्तिजनकाऽभवदित्यर्थः ॥ २॥ रोगस्वरूपम् । महावीरस्वामिनः कीदृशो रोगोऽजनीत्याह पित्तज्वरस्ततो जातस्तथा वर्चसि लोहितम् । ___ असह्यो विषुलो दाहो, देहे वीरस्य चाभवत्॥३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान - समालोचना रेवती, मेंढक ग्राम में रहने वाली एक गृहिणी (गृहस्थ स्त्री) थी जिसने महावीर स्वामी के लिए, सिंह अनगार को औषध दान दिया था । रेवती द्वारा दिये हुए दान के विषय में किन्हों- किन्हीं को आशंका है। किसी का कहना है कि उसने 'मांस' दिया था और कोई-कोई कहते हैं कि मांस नहीं बल्कि बनस्पति के फल वगैरह से बनी हुई दवा दी थी। इन दोनों पक्षों में से कौन सा पक्ष सत्य और कौन सा असत्य है ? इसका विशेष रूप से आलोचन और प्रमाण पूर्वक विचार किया जाता है ॥ १ ॥ वीर को रोगोत्पत्ति • ५ महावीर स्वामी के शरीर में रोग की उत्पत्ति होना रेवती के दान का निमित्त था और रोग का कारण था - गोशालक के द्वारा महावीर स्वामी . 'पर फेंकी हुई तेजोलेश्या । इसी बात को बतलाते हैं गोशालक के द्वारा भगवान् की ओर फेंकी हुई तेजोलेश्या ने यद्यपि वीर भगवान् को स्पर्श नहीं किया, तो भी उससे उन्हें व्यथा ( रोग जन्य पीड़ा ) हो गई || २ || इसका विस्तृत विवरण भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में है । यहाँ सिर्फ प्रकरण बताने के लिए संक्षेप में कह दिया है । गोशालक के द्वारा फ्रैंकी हुई तेजोलेश्या का महावीर स्वामी के शरीर के साथ स्पर्श नहीं हुआ था - शरीर के पास से ही वह लौट गई थी। आने के कारण उसने आघात उत्पन्न कर दिया योग की उत्पत्ति का कारण कहा गया है ॥ २ ॥ फिर भी समीप तक और इसी कारण उसे रोग का स्वरूप महावीर स्वामी को कैसा रोग हुआ था, यह बताते हैं तेजोलेश्या समीप आने से भगवान् वीर के शरीर में पिच www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना पित्तति-ततस्तेजोलेश्यासामीप्यात्पित्तज्वरो, वर्चसि लोहितं, विपुलो दाहश्चेत्येतत्रिविधरोगोद्भवः श्रीवीरस्य देहेऽजायत । त्रिविधोऽपि दुस्सह इति तदुक्तं भगवत्याम्-"तए णं समणस्स भगवो महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउन्भूए उज्जले जाव दुरहियासे पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्तीए यावि विहरइ अवियाइं लोहियवच्चाइंपि पकरेइ"-(भग० १५,१ पृ० ६८५) ॥३॥ जनताप्रवादः। अनेन जनसमुदाये यः प्रवादोऽभूत्तमाहगोशालेन पराभूतो, वीरः पित्तज्वरादितः । मृत्युमाप्स्यति षण्मास्यां, छमस्थःप्रसूता कथा ॥४॥ गोशालेनेति-लोके ईदृशी वार्ता प्रसृता यन्महावीरस्वामिगोशालकयोर्विवादे गोशालको विजेता महावीरस्वामी च पराजितः । गोशालकस्य तपस्तेजसा परिभूयमानः श्रीवीरः पित्तज्वरव्याप्तशरीरो दाहापक्रान्त्या छद्मस्थः सन् मासषट्कान्ते कालधर्म प्राप्स्यति । मन्यते गोशालोक्तिः सत्या भविष्यतीति प्रवादो लोकापवादरूपो जातः । तदुक्तम्-"एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सति" (भग.० १५,१, पृ०.६८५).॥ ४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्वर हो गया, दस्त जलन होने लगी ॥ रेवती - दान-समालोचना में रक्त गिरने लगा तथा अत्यन्त असह्य ३॥ तेजोलेश्या पास तक आई इस कारण महावीर के शरीर में पित्त ज्वर हुआ, मल में रक्त आने लगा और तेज़ जलन होने लगी । इस प्रकार तीन प्रकार का रोग उन्हें हो गया । यह तीनों ही प्रकार का रोग असा था । भगवती सूत्र में कहा है - तब श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में बहुत से रोग और आतंक प्रगट हो गए । ये तीव्र और असह्य थे । उनका शरीर पित्त ज्वर से व्याप्त हो गया, जलन होने लगी और खूनी दस्त लगने लगे ॥ ३॥ जनता- प्रवाद – अफवाह इस बीमारी के कारण लोगों में जो अफवाह उड़ी, उसे बताते हैं गोशाला के द्वारा महावीर परास्त कर दिये गये हैं । पित्त - ज्वर आदि के कारण छद्मस्थ महावीर छह महीने के भीतर ही भीतर मृत्यु को प्राप्त हो जाएँगे । इस प्रकार की अफवाह लोगों में उड़ने लगी ॥ ४ ॥ लोक में ऐसी बात फैल गई कि गोशाला और महावीर स्वामी के विवाद में गोशाला विजयी हुआ और महावीर हार गए हैं। गोशाला के तप के प्रभाव से पराभव पाने वाले श्रीमहावीर स्वामी का शरीर पित्त ज्वर से आक्रान्त हो गया है और दाह होने से वे छद्मस्थ ही रह कर छह माह में काल-धर्म - मृत्यु — को प्राप्त होंगे। मालूम होता है, गोशाला का कथन-पक्ष सच्चा होगा । इस प्रकार की बातें लोक में फैलने लगीं कहा भी है चारों वर्ण कहते हैं कि मंखलिपुत्र गोशालक के तपस्तेज से पराभव पाये हुवे श्रमण भगवंत महावीर छः महीने के अंदर पित्त ज्वरादि रोग से छद्मस्थ अवस्था में ही काल धर्म पावेंगे ॥ ४ ॥ न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 1 www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना लोकापवादजन्यं मुनेदुःखम् । अस्य प्रवादस्य मुनिजनष्वपि कीदृशी परिणतिर्जातति दर्शयतिस्मृतेरस्य प्रवादस्य, चिचे चिन्ताव्यथाऽभवत् । सिंहाभिधानगारस्य, ध्यानस्थस्य वनान्तिके ॥ ५ ॥ स्मृतेरिति-मेण्ढिकग्रामस्येशानकोणे विद्यमानस्य शालकोष्ठकाख्योद्यानस्य समीपे मालुकाकच्छकनाम वनमासीत् । तत्र श्रीवीरप्रभुः सपरिवारः समवसृतः । सिंहाभिधानस्तच्छिष्यो मुनिगणान्वितो वनस्यैकान्तप्रदेशे ध्यानमग्नोऽभवत्तदानीं पूर्व श्रुतस्य लोकप्रवादस्य स्मृतिर्जाता, तया च मनसि महदुःखं समजनि । व्यवहार इव धर्मेऽपि लोकापवादो धर्मिजनहृदयं परितापयत्येव । अत एवोक्तं-"यदपि शुद्धं लोकविरुद्धं, नाकरणीयं नाचरणीयम् ।" तदुक्तम्-"तेणं कालेणं २ समणस्स भगवत्रो महावीरस्स अंतेवासी सीहे नामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूरसामंते छटुंछ?णं अनिक्खित्तेणं २ तवोकम्मेणं उर्दु बाहा जाव विहरति, तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स माणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउ. भूए उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्सति, वदिस्संति य णं अन्नतित्थिया छउमत्थे चेव कालगए, इमेणं, एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे पायावणभूमिओ पक्षोरुहइ"-(भग० १५,१, पृ० ६८६)॥५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान - समालोचना लोकापवाद से मुनियों को शोक इस अफवाह से मुनिजनों की भी चित्तवृत्ति कैसी हुई, सो कहते हैं - इस अपवाद के स्मरण से, वन में ध्यान करने वाले सिंह नामक नगर के मन में चिन्ता जन्य पीड़ा हुई ॥ ५ ॥ मेंढक ग्राम से ईशान कोण में विद्यमान शालकोष्ठ उद्यान के पास मालय कच्छ नामक एक वन था । वहाँ भगवान् महावीर अपने शिष्यों के -साथ पधारे । भगवान् के शिष्य मुनि-गुण से युक्त सिंह अनगार वन के एक एकान्त प्रदेश में ध्यान में लीन हुए। उस समय पहले सुने हुए उस लोक प्रवाद का उन्हें रमरण हो आया । उनके मन में अत्यधिक दुःख हुआ । जैसे व्यवहार में लोकापवाद असह्य होता है वैसे ही धर्मा पुरुषों को धर्मं विषयक अपवाद भी असह्य होता है । इसीलिए कहा है कि "शुद्ध कार्य भी यदि लोक विरुद्ध हो तो नहीं करना चाहिए ।" कहा भी है-उस काल में, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य, भद्र स्वभाव वाले, बिनयी सिंह अनगार मालुयाकच्छ के निकट मौजूद, षष्ठभक्त करते हुए, बाहें ऊपर को फैलाकर तपस्या करते हुए विचरते थे । ध्यान-मन सिंह अनगार को ऐसा विचार आया कि मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में विपुल रोगआतंक प्रकट हुआ है । ( यावत् ) छद्मस्थावस्था में शरीर त्याग करेंगे. ऐसा अन्य तैर्थिक कहेंगे । सिंह अनगार इस महान् मानसिक दुःख -बड़े दुःखी हुए और आतापन- भूमि से पीछे लौटे ॥ ५ ॥ से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान - समालोचना दुःखातिरेके किं जातम् ? मानसिकं दुःखमाश्वासकाम वे प्रतिक्षणं वंद्धमानं सदश्रुरूपं हृदयाद्बहिर्निःसरति तदेवाह - १० मालुयाकच्छकं गत्वा, रुरोदार्त्तस्वरेण सः । मृते नाथेऽपवादेन, हा ! हा !! धर्मस्य हीनता ॥ ६॥ रुरोदेति - यद्यपि महता महता शब्देनार्त्तस्वरेण रोदन - मार्त्तध्यानेऽन्तर्भवेत्तथाप्यत्र तस्य धर्मप्रशस्त रागजन्यत्वाद् गुरुभक्तिपरिणामपरिणतत्वान्नार्त्तध्यानत्वं । तस्य तु केवलमियमेव चिन्ता यन्महावीरस्वामिनः षण्मासीमध्ये यद्यवसानं भवेत्तर्हि परतैर्थिकाः किं कथयिष्यन्ति । तेऽवश्यं शासनमालिन्यं करिष्यन्ति वदि-व्यन्ति च यन्महावीरश्छद्मस्थ एवं मृत इत्येतद्भविष्यद्धर्महीनताजन्यमेव तद्रोदनमिति । तदुक्तम् - " जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवा० २ मालुयाकच्छं तो ऋणुपविस्सइ २ मालुया० २ महया महया सद्देणं कुहुकुहुस्स परुन्ने” – (भग० १५; १, पृ० ६८६ ) ।। ६ ॥ - शिष्यसमाश्वसनम् । 1 वीरेण प्रेषितास्सन्तः सिंहमाहयितुं द्रुतम् । श्रागतं काननादेनं, वीर इत्थं समाश्वसत् ॥ ७ ॥ वीरेणेति — मणिरत्नमालायां “शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव, गुरुस्तु को यश्च हितोपदेष्टा" इति शिष्यगुरुलक्षणमुक्तं तत्सत्यमेव । शिष्यरोदनं महावीरेण ज्ञातम् । झटित्येव श्रमणान् संबोध्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना इस तीव्र दुःख के बाद क्या हुआ ? आश्वासन देने वाला वहाँ कोई नहीं था। अतएव उनका दुःख प्रतिक्षण बढ़ता-बढ़ता अन्त में आँसुओं के रूप में बाहर निकलने लगा; यही बताते हैं वह अनगार मालुयाकच्छ वन में जाकर आर्तस्वर से रोने लगे कि हाय ! हाय !! स्वामी (महावीर ) की मृत्यु होने पर धर्म की हीनता होगी ।। ६ ।। __ यद्यपि ज़ोर-जोर से चिल्लाकर भार्च स्वर से रोना आर्तध्यान के अन्तर्गत है तथापि सिंह अनगार का यह रोना आर्तध्यान नहीं है क्योंकि एक तो वह धर्म सम्बन्धी शुभ राग से उत्पन्न हुआ और दूसरे उसमे गुरुभक्ति की भावना थी। उन्हें तो केवल यही चिन्ता थी कि यदि छह मास के मोतर महावीर स्वामी का अवसान हो गया तो अन्य मतावलम्बी क्या कहेंगे ! निस्सन्देह वे वीर-शासनं को मलिन करेंगे और कहेंगे कि देखो महावीर तो छप्रस्थ अवस्था में ही मर गए। इस प्रकार भविष्य कालीन धर्म की हानि के विचार से ही वे रोये थे। कहा भी है-जिस ओर मालुयाकन्छ था, उसी ओर वे आये और मालुयाकच्छ में प्रविष्ट हुए । उसमें प्रविष्ट होकर चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगे ॥ ६ ॥ शिष्य को आश्वासन भगवान वीर ने सिंह अनगार को शीघ्र बुलाने के लिए मुनियों को भेजा। उद्यान से आये हुए सिंह अनगार को वीर ने इस प्रकार आश्वासन दिया ॥७॥ "कौन शिष्य ? गुरुभक्त होय जो, कौन गुरु ? हितदेशक हो।" यह मणिरत्नमाला में लिखा हुआ गुरु शिष्य का स्वरूप सत्य ही है। अस्तु । शिष्य का रोदन भगवान् महावीर ने जाना। उन्होंने तत्काल श्रमणों को बुलाकर कहा-"कोमल स्वभाव वाला मेरा शिष्य सिंह अनगार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ रेवती - दान-समालोचना वदद्वीरः - मम शिष्यः सिंहमुनिः प्रकृतिभद्रको मालुयाकच्छ के वने रोदिति, तमाह्वयत । श्रुत्वैतच्छीघ्रमेव तद्वनं गताः श्रमणाः सिंहानगारं सावधानं कृत्वा कथयन्ति तं वीरसन्देशम् । सोऽपि द्रुतमेव गुर्वाज्ञां शिरसि कृत्वा तैः सह मालुकाकच्छवनाच्छा कोष्ठकवनमागत्य गुरुं नत्वा समीपे स्थितवान् । समुपस्थितं तं वीर इत्थं वक्ष्यमाणप्रकारेण समाश्वसत् अन्तर्भावितण्यर्थतया सान्त्वयामास इत्यर्थः ॥ ७ ॥ समीपस्थितं तं गुरुराश्वासन पूर्वक मित्यमाह - रोदिसि त्वं कथं भद्र ! षण्मास्या नास्ति मे मृतिः । अर्द्धषोडशवर्षान्तं, स्थास्यामि क्षितिमण्डले ॥ ८ ॥ रोदिसीति — श्रीमहावीरः सिंहं वक्ति–तव रोदनं मुधैव, नास्ति रोदनकारणम् । अज्ञा लोका न जानन्ति सत्यम् । मिथ्यैव लोकप्रवादः । एतत्प्रवादप्रयोजकं गोशालकवाक्यमस्ति तदप्यसत्यमेव । कारणेऽसत्ये कार्यमप्यसत्यम् । न षण्मास्यैव, मम मृत्युर्भविष्यति । अहं त्वस्मिन् भूतले सार्द्धपञ्चदशवर्षपर्यन्तं विचरिष्यामि तो विषादं मा कुरु । तदुक्तं - "तं नो खलु श्रहं सीहा ! गोसालम्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं ते एणं नाइट्ठे समाणे अंतो छहं मासाणं जाव कालं करेस्सं, अहन्नं अन्नाई श्रद्धसोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि " - ( भग० १५; १, पृ० ६८६ ) ॥ ८ ॥ जीवनसद्भावेऽपि रागो विद्यते तस्य किमिति शङ्कानिवर्त्तनायाहनिवर्त्स्यति मम व्याधिः, शीघ्रं भैषज्ययोगतः । गच्छेदानीं प्रमोदेन, रेवतीगृहिणी गृहम् ॥ ६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना १३ ......x.mmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwimmmmmmmmm मलुयाकच्छ वन में रो रहा है। उसे बुला लाओ।" भगवान् की आज्ञा सुन कर श्रमण उसी समय वहाँ के लिए रवाना हो गए। वहाँ पहुँच कर सिंह अनगार को सावधान करके उनसे भगवान् का सन्देश कहा। सिंह अनगार गुरु-आज्ञा शिरोधार्य करके, मुनियों के साथ मालुयाकच्छ वन से शालकोष्ठ वन में आए और गुरुजी को वन्दना करके उनके पास बैठे। उपस्थित हुये सिंह मुनि को महावीर स्वामी ने इस प्रकार आश्वासन दिया ॥ ७ ॥ समीप में बैठे हुए सिंह मुनि को तसल्ली देते हुए गुरु यों बोले भद्र ! तू रोता क्यों है ? छह मास में मेरी मृत्यु नहीं होगी। मैं इस पृथिवी मंडल पर साढ़े पन्द्रह वर्षे तक मौजूद रहूँगा ।। ८॥ श्रीमहावीर, सिंह भनगार से कहते हैं-तेरा रोना व्यर्थ है, गेने का कोई कारण नहीं। अज्ञ लोग सत्य को नहीं जानते। यह अफवाह मिथ्या है । इस अफवाह को फैलाने वाला गोशाला का वचन भी मिथ्या है। जब कारण ही सत्य नहीं तो कार्य सत्य कैसे हो सकता है ? छह महीने में मेरी मृत्यु नहीं होगी। इस भूतल पर मैं साढ़े पन्द्रह वर्ष पर्यन्त विचरण करूँगा। तू विषाद न कर। कहा भी है-हे सिंह ! मंखलि पुत्र गोशाला के तप के तेज से मैं पराभूत नहीं हुआ हूँ और न छह माह में मेरी मृत्यु ही होगी। अभी मैं साढ़े पन्द्रह वर्ष तक और विचरूँगा॥ ८॥ जीवित रहने पर मी रोग का क्या होगा ? कहते हैं औषधि के योग से मेरा रोग शीघ्र दूर हो जायगा । प्रसन्न. होकर अभी रेवती श्राविका के घर जाओ ॥ ९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ रेवती-दान-समालोचना www ~ निवत्स्यतीति-रोगस्यापि नास्ति चिरकालिकत्वम् । तन्निवृत्त्युपायमपि जानाम्येव । मदर्थ तु तस्यापि नास्त्यावश्यकता तथापि त्वादृशानामाशङ्कां निवर्तयितुं दर्शयाम्युपायम् । यदीच्छा चेद्विनिवर्त्य विषादं प्रसन्नचित्तेनेदानीमेव रेवतीगाथापत्नीगृहं ब्रज । तदुक्तं-"तं गच्छह णं तुमं सीहा ! मेंढियगामं नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिहे"-(भग० १५, १, पृ० ६८६) ॥ ९॥ तत्र यदनषणीयं तत्प्रथमं दर्शयति द्वे कपोतशरीरे वै, तया मह्यमुपस्कृते।। ते न ग्राह्ये यतस्तत्राधाकर्मदोषसंश्रयः ॥ १० ॥ द्वे इति-रेवतीगाथापल्या भक्तिवशाद् द्वे कपोतशरीरे मदर्थमुपस्कृते ते तु नानेये, कुतः ? मदर्थ निष्पादितत्वात्तत्राधाकर्मदोषः संभवति । प्राधाकर्मदोषविशिष्टत्वात्तद्वस्तु न ग्राह्यमिति । मूलपाठस्तु-"तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अट्ठो"-(भग० १५; १, पृ०. ६८६)॥ १० ॥ किमानेयमित्याहमार्जारकृतकं पर्यु-षितं कुक्कुटमांसकम् । आनयैषणया सद्यो, भवेद्यनामयक्षयः॥११॥ - मार्जारकृतकमिति यदन्यन्मार्जारकृतं पर्युषितं ह्यस्तननिष्पादितं कुक्कुटमांसकं तद्गृहे विद्यते तत् प्रासुकमेषणाशुद्धShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना १५ रोग भी चिरकालीन नहीं है । उसे दूर करने का उपाय भी मैं जानता हूँ। मुझे तो इसकी भी आवश्यकता नहीं परन्तु तुम जैसों की आशंका को दूर करने के लिए उपाय बताता हूँ। इच्छा हो तो विषाद को दूर कर, प्रसन्न मन से इसी समय रेवती गाथापत्नी के घर जाओ। कहा भी है हे सिंह ! मेंढिकग्राम नामक नगर में रेवती गाथापत्नी के घर जाओ ॥ ९ ॥ वह जो अनेषणीय है उसे पहिले दिखाते हैं ___ उसने-गाथापत्नी ने मेरे लिए दो कपोत-शरीर पकाये है, वे ग्राह्य नहीं हैं, क्योंकि उनके ग्रहण करने में प्राधाकर्म दोष है ॥ १० ॥ रेवती गाथापत्नी ने भक्ति के वश होकर मेरे लिए दो कपोत-शरीर पकाये हैं। वे लाने योग्य नहीं हैं। क्यों ? इसलिए कि वे मेरे लिए पकाये हुए हैं अतः उन्हें ग्रहण करने से आधाकर्म दोष लगेगा। तात्पर्य यह कि आधाकर्म दोष से दूषित होने के कारण वह वस्तु ग्राह्य नहीं है। मूल पाठ इस प्रकार है___ तत्थ-रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए दो कपोत-शरीर सम्पन्न किये हैं। उनसे हमें प्रयोजन नहीं ॥ १० ॥ तो लाना क्या ? सो कहते हैं M मार्जारकृतक, कल बनाया हुआ कुक्कुटमांस (क) एषणा पूर्वक ले आओ, जिससे शीघ्र ही रोग दूर हो जाय ॥ ११ ॥ पूर्वोक्त कपोत-शरीर के अतिरिक्त, कल बनाया हुमा कुक्कुटShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना मानय, येन भैषज्येन सद्य एव ममामयो विनश्येत् । एतत्पद्यद्वयस्य भावार्थोऽग्रे विशदीभविष्यति, अत्र तु शब्दार्थमात्रमुक्तम् ! मूलपाठस्तु-"अस्थि से अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमसए तमाहराहि एएणं अट्ठो"- भग० १५,१, पृ० ६८६)॥११॥ आज्ञायां सत्यां यत्कृतं तदाहकृतं तथैव सिंहेन रेवतीपतिलाभितम् । शुद्धं द्रव्यं समानीतं, तेन शान्तिरजायत ॥ १२ ॥ कृतमिति-सिंहानगारः प्रमुदितः सन्नीर्यासमित्या रेवतीगृह गतः । रेवती विनयभक्तिपूर्वकमभिवंद्य मुनिं पृष्टवती 'महानुभाव ! किमागमनप्रयोजनम् ?' मुनिना श्रीमद्वीरोक्तं, सर्व वृत्तं निवेदितम् । गाथापत्नी साश्चर्य पप्रच्छ-कथमेतन्मम रहस्यं ज्ञातं भवता ? तेनोक्तं,नाहं स्वयं जानामि किन्तु मम धर्माचार्यप्रज्ञापनेन । सा सहर्ष भक्तगृहं जगाम । तदुक्तं-"जेणेव भत्तघरे तेणेव उवा० पत्तगं मोएति पत्तगं मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छइ २ तासीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसितं सव्वं सम्मं निस्सिरति" (भग० १५; १, पृ. ६८७)। ज्ञास्यन्ति पाठका अनेन पाठेन यद्रेवत्या दीयते स नाहारोऽपि तु भैषज्यमेव । यद्याहारः स्यात्तद्वद्धपात्रे न स्याद्, आहारस्तु मुक्ते पिहिते पात्रे स्याद्, अत्र तु 'पत्चगं मोएति'- पात्रक मोचयतीत्यर्थः, बद्धस्यैव मोचनसंभवो, न तु पिहितस्य । वृत्तिकारेण तु 'पात्रकं पिठरकाविशेषं मुञ्चति-सिक्कके उपरिकृतं सत्तस्मादवतारयतीत्यर्थः' कृतः सिकके स्थापितमपि वस्तु किन्चिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना मांसक उसके घर मौजूद है। वह प्रासुक है, उसे ले आओ। जिससेजिस औषधि से-मेरा रोग जल्दी दूर हो जाय । इन दोनों पद्यों का भावार्थ आगे स्पष्ट हो जायगा । यहाँ तो शब्दार्थ ही कहा है। मूल पाठ इस प्रकार है-"दूसरा जो पर्युषित मार्जार कृतक कुक्कुटमांसक है उसे ले आओ । वही काम का है" ॥१॥ आज्ञा होने पर जो किया सो कहते हैं सिंह मुनि ने वैसा ही किया। रेवती का दिया हुआ शुद्ध पदार्य वह लाये और उससे रोग की शान्ति हुई ॥ १२ ॥ सिंह अनगार प्रसन्न होकर ईर्या समिति से रेवती के घर गए। रेवती ने विनय-भक्ति करने के बाद मुनि से पूछा-"महानुभाव' ! अपने आगमन का प्रयोजन कहिए।" मुनि ने वह सब वृत्तान्त कहा जो श्रीमान् महावीर ने कहा था। गाथापत्नीने आश्चर्य के साथ पूछा-"मेरी यह गुप्त बात आपने कैसे जानली ?" मुनि ने कहा-"मैं स्वयं नहीं जानता किन्तु अपने धर्माचार्य के बताने से मैं जानता हूँ।" । वह प्रसन्न होकर भोजनशाला में चली गई। मूल पाठ यह है-“वह भोजन गृह की ओर गई । पात्र को खोला। पात्र खोलकर सिंह अनगार की भोर आई और वह सब सिंह भनगार के पात्र में रख दिया।" पाठकों को इस पाठ से विदित होगा कि रेवती ने जो कुछ दिया, वह भाहार नहीं था वरन् औषधि थी। यदि भोजन होता तो बन्द वर्तन में न रखा होता। बल्कि बन्द न किये हुए-ढंके हुए वतन में होता । परन्तु यहाँ "पत्तगं मोइए (पात्रक मोचयति ) ऐसा पाठ है। मोचन करना अर्थात् खोलना । बंधे हुए को ही खोला जाता हैन कि ढके हुए को । टीकाकार ने इसका, पिरका विशेष का मोचनः।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ रेवती-दान-समालोचना द्विशिष्टमेव स्यान्न तु सामान्याहारः । वस्तुतस्तु 'मोएइ' इति 'मुन्च' धातोः प्रेरणारूपं बद्धस्य मोचनमेव तदर्थः समीचीनः, कृतं प्रसंगेन । रेवत्या प्रतिलाभितं भैषज्यं गृहीत्वा मुनिमहावीरान्तिके गतः । तेन समानीतं शुद्धद्रव्यरूपं भैषज्यं दर्शितम् । भुक्तं चानासक्त्या प्रभुणा। तेन च शरीरे पूर्णमारोग्यं समजनि तदुक्तम्-"से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसमं पत्ते हटे जाए अारोगे बलियसरीरे तुट्ठा समणा, तुट्ठाओ समणीओ, तुट्ठा सावया, तुद्वानो सावियाओ, तुट्ठा देवा, तुट्टाओ देवीओ, सदेवमणुयासुरे लोए तुडे हटे जाए समणे भगवं महावीर"-भग० १५; १, पृ० ६८७ ।। १२ ।। ॥ इति संक्षिप्तकथानकार्थः ।। अथार्थमीमांसा। शरीरमांसमार्जारकृतकपोतकुक्कुटाः । षडेते द्वयर्थकाःशब्दा, अर्हन्ति चिन्तनीयताम् ॥१३॥ शरीर इति--'दुवे कवोयसरीरा' इति वाक्ये कपोतशरीरशब्दो, 'मज्जारकडए' इति विशेषणवाक्ये मार्जारकृतकशब्दो, 'कुक्कुडमंसए' इत्यत्र कुक मुटमांसकशब्दौ । इत्थं त्रिषु वाक्येषु द्वौ द्वौ शब्दो शंकास्पदो स्तः। द्वयर्थकत्वात् । शरीरशब्दस्य प्राणिशरीरवनस्पतिशोरेऽपि वर्तमानत्वात् , मांसशब्दस्य प्राधिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना .. ... ... .mmmmmmmmm...~~~~mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm करना अर्थात् छींके पर रक्खे हुए को नीचे उतारना, ऐसा अर्थ किया है। छींके पर रक्खी हुई वस्तु भी सामान्य आहार नहीं किन्तु कोई विशिष्ट वस्तु ही होना चाहिए। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, दरअसल बात यह है कि 'मोएई' यह मुच् धातु का प्रेरणा-रूप है और बंधे हुए को खोलना इसका अर्थ है। रेवती द्वारा दिये हुए भौषध को ग्रहण कर मुनि, श्री महावीर स्वामी के पास गए। उन्होंने अपने लाये हुए शुद्ध पदार्थ रूप दवा को दिखखा। भगवान् ने अनासक्त भाव से उसका उपभोग किया । उसके सेवन से भगवान् का शरीर बिलकुल नोरोग हो गया। कहा भी है-वह विपुल गेगातंक शीघ्र ही उपराम को प्राप्त हुआ। शरीर हष्ट, नीरोग और सबल होगया। साधु, साध्वियाँ, श्रावक, श्राविकाएँ, देव, देवियाँ, तथा देवों के साथ नर असुर आदि समस्त लोक प्रसन्न हुए तब श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट-तुष्ट हुए। ॥ संक्षिप्त कथानक समात ॥ अर्थमीमांसा शरीर, मांस, मार्जार, कृत, कपोत, और कुक्कुट, ये छह अनेकार्थक शब्द विचार करने योग्य हैं ॥१३॥ 'दुवे खोयसरीरा' इस वाक्य में कपोत और शरीर कद, 'मज्जारकाए' इस विशेषण वाक्य में मार्जार तथा कृतक शब्द, एवं 'कुक्कुडमंसए' यहाँका कुक्कुट और मांसक शब्द; इस प्रकार इन तीन वाक्यों में बाये हुए दो दो शब्द, संदिग्ध है क्योंकि वे दो-दो भर्य वाले है। शरीर कम से प्राणी के देह के अर्थ में प्रयुक्त होता है उसी प्रकार वनस्पति देर में प्रयोग किया जाता है। मांस मान्य प्राणी मांस की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० रेवती-दान-समालोचना . . . . मांसवत्फलगर्भेऽप्युक्तत्वात्, मार्जारकुक्कुटकपोतशब्दानां प्राणिवद्वनस्पत्यर्थेऽपि विद्यमानत्वात् । तत्कथमिति तु प्रमाणपुरस्सरमने दर्शयिष्यामः । द्वयर्थका वाऽनेकार्थकाः शब्दाः श्रोतरि संशयजनकाः सन्तोऽवश्यमेव विचारणीयपथमायान्ति । एतादृशपरिस्थितौ प्रसंगादिकमेव निर्णायकं भवति । यथा केनचिच्छेष्ठिना किंकरं प्रत्युक्तं 'सैन्धवमानय'। एतच्छ्रवणानन्तरं स संशयानश्चिन्तयति 'किं लवणमानयामि वाऽश्वम्'। प्रसङ्गोपस्थितो. तु. निर्णयति । यन्नेदानी लवणप्रयोजनं प्रयाणप्रसङ्गात् । यद्वा नाश्वप्रयोजनं भोजनप्रसङ्गात् । एवमत्राप्युभयार्थकान् षट् शब्दान् श्रुत्वा श्रोतारो गच्छन्त्येव चिन्तापथम् । अत्रं ये सम्यंगदृष्टयः शास्त्रज्ञास्ते तु प्रसङ्गानुसारेण सम्यग्दृष्टितया सम्यगर्थमेव निश्चिन्वन्ति । ये तु मिथ्यादृष्टयस्ते विपरीतमेवाथै गृह्णीयुः । तेषां तत्स्वभावत्वात् । यदुक्तं नन्दीसूत्रे-"सम्मदिद्विस्स सम्मसुयं मिच्छदिद्विस्स मिच्छसुयं" ॥ १३ ॥ विपरीतदृष्टयः कमर्थं गृहन्तीत्याहविपर्यस्तधियः केचिन्मत्वा मांसार्थकांश्च तान् ।। शास्त्रस्यापि सदोषत्वं, ख्यापयन्ति यथाकथम् ॥१४॥ विपर्यस्तधियइति-यथा दृष्टिस्तथा सृष्टिः । सम्यगज्ञानदर्शनावासितान्तःकरणाः केचिज्जमाः प्रकरणादिकमनपेक्ष्यैव शद्धमर्थ विहायोपर्युक्तानां षएगां शब्दानां प्राणिजन्यमांसाद्यर्थेकत्वं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना or ..... .........rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.....rrrrrrwww. तरह फल के गूदे अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। सब मार्जार, कुक्कुट और कपोत शब्द जीव को भाँति बनस्पति के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं । इन शब्दों का ऐसा प्रयोग किस प्रकार होता है, यह बात आगे चलकर बतावेंगे। दो अर्थ या अनेक अर्थ वाले शब्द, सुनने वाले को अवश्य सन्देह उत्पन्न करते हैं अतः उन पर विचार करना चाहिए। ऐसी दशा में प्रसंग आदि से ही निर्णय हो सकता है। मान लीजिए किसी सेठ ने अपने नौकर से कहा-'सैन्धव' ले आओ। यह सुनकर वह सन्देह में पड़ जाता है कि नमक लाऊँ या घोड़ा ले आऊँ ? किन्तु प्रसंग का विचार करके वह निर्णय कर लेता है कि इस समय नमक की आव. श्यकता नहीं है क्योंकि सेठजी यात्रा कर रहे हैं, अथवा इस समय घोड़े की आवश्यकता नहीं क्योंकि भोजन का प्रसंग है । इसी प्रकार दो अर्थ वाले इन छह शब्दों को सुनकर श्रोतागण विचार में पड़ जाते हैं। जो सम्यग्दृष्टि और शास्त्र के ज्ञाता हैं वे प्रसंग के अनुसार सम्यम् रष्टि होने के कारण सम्यक् अर्थ का निश्चय कर लेते हैं किन्तु जो मिथ्या. दृष्टि हैं वे उलटा ही अर्थ ग्रहण करते हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टियों का स्वभाव ही ऐसा होता है । नन्दी सूत्र में कहा है-"सम्यग्दृष्टि का श्रुत सम्यक श्रुत है और मिथ्यादृष्टि के लिए वही श्रुत मिथ्याश्रुत होता मिथ्यादृष्टि क्या अर्थ लेते हैं १ सो बताते हैं उलटी बुद्धि के लोग इन शब्दों को मांसार्थक मानकर, जैसे-तैसे शास्त्र को भी दूषित बताते हैं ॥ १४ ॥ .. जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । सम्यग्ज्ञान, दर्शन से जिनका अन्तःकरण संस्कृत नहीं है ऐसे कोई-कोई लोग प्रकरण आदि की परवाह न करके, शुब अर्थ को त्याग कर. उपर्युक्त छह शब्दों का अर्थ प्राणीजन्य मांस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ रेवती-दान-समालोचना .. .... निर्धाय यथाकथंचित् शास्त्रस्य-भगवत्यादिसूत्रस्यापि मासादिशब्दविशिष्टत्वात्-सदोषत्वं-दुष्टत्वं ख्यापयन्ति-प्रथयन्ति ।।१४।। वस्तुतस्तु स्वयं दुष्टः स्वदोषानेव परेष्वारोपयतीत्याहमिथ्याबुद्धविलासोऽयं, न सदसत्परीक्षणम् । पाण्यर्थो घटते नैव, प्रसंगेऽत्र कथञ्चन ।। १५ ॥ मिथ्याबुद्धरिति-अयं प्रलापः शास्त्रस्य दुष्टत्वख्यापनरूपः न सत्यासत्यपरीक्षात्मकः, किन्त्वयं मिथ्याबुद्धे-विपरीतदृष्टरेव विलासः परिणामः । मिथ्यामतिः सापेक्षवचनानां पर्यालोचनपूर्वकं नार्थ चिन्तयति। यदि सदसत्परीक्षा स्यात्तदा संगतम) विहायासंगतमर्थ न स्वीकुर्यात् । विवेकबुद्धिमांस्तु प्रकरणादिकं चिन्तयेत् । कः प्रसंगः, को दाता, को गृहीता, कस्मै गृह्यते, कीदृशं तस्य जीवनमिति सर्वमनुसंधायवार्थ कुर्यात् । सम्यग्दृष्ट्या वा शास्त्रदृष्ट्या चिन्त्यमानेऽस्मिन्प्रसंगे कथंचिदपि मार्जारादिशब्दानां प्राण्यर्थो-प्राणिमांसाद्यर्थों वा नैव घटते-युज्यत इत्यर्थः ॥ १५॥ कथं न घटत इत्याहनरकायुष्यहेतुत्वं, मांसाहारस्य दर्शितम् । स्थानांगादिषु सूत्रेषु, स्पष्टं श्रीमज्जिनेश्वरैः॥ १६ ॥ नरकायुष्यहेतुत्वमिति-प्रासुकैषणीयभोजिनां मुनीनां द्वे गती एव भवतः-मोक्षो वैमानिकदेवगतिश्च । तत्रापि श्रीShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना यदि निश्चित करके जैसे-तैसे भगवती आदि शास्त्रों को भी मांस-प्रतिपादक कह कर दूषित करते हैं ॥ १४ ॥ वास्तव में वे स्वयं दोषी हैं और अपने ही दोषों का दूसरों पर श्रारोपण करते हैं यही दिखलाते हैं - २३ यह प्रलाप विपरीत बुद्धि का फल है, सत् असत् की परीक्षा का नहीं। क्योंकि इस प्रकरण में प्राणी अर्थ किसी भी प्रकार नहीं घट सकता ।। १५ ।। शास्त्र को दूषित करने रूप यह प्रलाप अपनी दुष्टता को प्रकट करता है । सत्य-असत्य की परीक्षा से इसका कुछ सम्बन्ध नहीं है । यह तो मिथ्या बुद्धि का ही परिणाम है । मिथ्यादृष्टि, सापेक्ष वचनों के अर्थ को विचार पूर्वक चिन्तन नहीं करता । यदि सत्य-असत्य की परीक्षा करे तो संगत अर्थ को छोड़ कर असंगत अर्थ को क्यों स्वीकार करे ? विवेक-बुद्धि वाले को तो प्रकरण आदि का विचार करना चाहिए | कौन देता है ? कौन लेता है ? किस लिए लेता है ? लेने वाले का जीवन कैसा है ? इन सब बातों पर नज़र रखते हुए ही अर्थ करना चाहिए । सम्यग्दृष्टि से या शास्त्र दृष्टि से विचार करने पर इस प्रसंग में मांजर आदि शब्दों का प्राणी या प्राणी का मांस आदि अर्थ नहीं घटता है ॥ १५ ॥ न घटने का कारण जिनेश्वर भगवान् ने स्थानांग नरकायुष्य का कारण स्पष्ट रूप से आदि सूत्रों में मांसाहार को बताया है ॥ १६ ॥ प्रासुक- एषणीय भोजन करने वाले मुनियों को दो ही गतियाँ प्राप्त हो सकती हैं-मोक्ष अथवा वैमानिक देवगति । भगवान् महावीर स्वामी को तो मोक्ष ही प्राप्त हुआ क्योंकि वे तीर्थंकर थे। लेकिन मांसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ रेवती-दान-समालोचना मन्महावीरस्य तु मोक्षगमनमेव । अथ मांसाहारेण तु नरकगतिः सम्भवति । तदुक्तम् स्थानांगसूत्रचतुर्थस्थाने "चउहिं. ठाणेहिं जीवा जेरइयत्ताए कम्मं पकरेति तं जहा-महारंभाए, महापरिगगहयाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं"। आदि शब्देन भगवत्यौपपातिकसूत्रयोहणमर्थाद्भगवत्यष्टमशतकस्य नवमोद्देशके तथौपपातिकसूत्रे देशनाधिकारेऽप्येवमेवोक्तम् । नैतद्येन केनाप्युक्तमपितु श्रीमज्जिनेश्वरैः । नात्र काचिच्छङ्का अपितु स्पष्टमुक्तमित्यर्थः । एवं च मांसाहारस्य नरकायुष्यहेतुत्वं यैरुक्तं त एवोत्तमपुरुषाः किं मांसाहारं कुर्युः ? नैव कुर्युरित्यर्थः ॥ १६ ॥ किन्च मांसं निष्पद्यते यत्र, स्थाने तत्र मुनीश्वरैः। अन्नाद्यर्थ न गन्तव्यं, निशोथे तनिषिध्यते ॥ १७ ॥ मांसमिति-मांसाहारनिष्पत्तिस्थानेऽन्यदशनादिकं प्रहीतुं मुनिना न गन्तव्यमिति निशीथसूत्रे नवमोद्देशके निषेधः कृतः । तथाहि-"जे भिक्खू रगण खत्तियाणं जाव भिसित्ताणं मंसक्खायाण वा मच्छखायाण वा छवियक्खायाण वा बहिया निग्गयाण वा असणं पाणं; खाइम, साइमं जाव साइज्जइ" । यद्वस्तुनिष्पत्तिस्थानस्यापि दुष्टत्वं तद्वस्तुदुष्टत्वस्वभावेनोक्तं, तर्हि वस्तुनस्तु का कथा ? अनेन मांमस्याशुद्धत्वं दुष्टत्वं च प्रतिपादितम् ।। १७ ॥ . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना २५ हार से नरक गति होती है। स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में कहा हैजीव चार स्थानों (कारणों) से नरकायु कर्म बांधते हैं-महा आरंभ से, महा परिग्रह से, पंचेन्द्रिय जीवों के बध से और कुणिम-मांस को भाहार से। श्लोक में जो आदि पद दिया है उससे भगवती और औपपातिक सूत्र का ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् भगवती शतक आठवें के नौवे उद्देशक में तथा औपपातिक सूत्र के देशना अधिकार में भी यही बात कही गई है। यह कथन किसी ऐसे-वैसे का नहीं किन्तु भगवान् जिनेन्द्र का कथन है। भगवान् का यह कथन एकदम स्पष्ट है-इसमें जरा भी सन्देह की गुंजाइश नहीं है। इस प्रकार जिन्होंने मांसाहार को नरकायु का कारण बताया है क्या वही उत्तम पुरुष मांसाहार करेंगे? कदापि नहीं कर सकते ॥ १६ ॥ और मीजिस जगह मांस पकाया जाता हो वहाँ मुनीश्वरों को अन्न आदि के लिए भी न जाना चाहिए। निशीथ सूत्र में ऐसा निषेध किया गया है ॥ १७ ॥ जिस स्थान पर मांस पकाया जाता हो वहाँ मुनि को दूसरा अब आदि आहार लाने के लिए भी नहीं जाना चाहिए, ऐसा निशीथ सूत्र में नौवें उद्देशक में निषेध किया है। वह निषेध इस प्रकार है जो भिक्षु मांस, मछली, भुट्टे होले आदि खाने वाले राजा या क्षत्रिय का मशन पान, खाद्य, स्वाद्य, ( आहार लेता है उसको चौमासी प्रायश्चित्त आता है) जिस पदार्थ के दोष के कारण, उसके निष्पत्ति स्थान तक को दृषित माना गया है, उस पदार्थ के दोष का तो कहना ही क्या ! इस उदाहरण से मांस की अशुद्धता और दुष्टता का प्रतिपादन किया गया है॥१७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना पुनश्चउत्तराध्यायसूत्रेऽपि दर्शितं मांसभोजिनः । फलं दुर्गतिबन्धादि, दुःखदौर्भाग्यदायकम् ॥ १८ ॥ उत्तराध्यायसूत्रे इति-द्वितीयमूलसूत्रे श्रीमदुत्तराध्ययने त्वनेकस्थलेषु मांसाहारकर्तुर्दुःखदारिद्र्यजनकं दुर्गतिबन्धादि फलं भवतीति तत्तस्थले दर्शितम् । तथाहि-पञ्चमाध्ययनस्य नवम्यां गाथायाम् "हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे। भुञ्जमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नड़ ॥५६॥" सुरामांसभोजिनो बालमरणं भवति न तु पंडितमरणभिति । बोलमरणाच्च दुर्गतिरेवेति दुर्गतिफलकत्वं मांसाहारस्य दर्शितम् । एवं सप्तमाध्ययने "इथिविसयगिद्धे य, महारम्भपरिग्गहे । भुञ्जमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे ॥ ७ ॥६॥ अयकक्करभोई य, तुंदिले चियलोहिए। आउयं नरए कंखे, जहाएस व एलए ॥ ७॥ ७ ॥" अत्रापि सुरामांसभोजिनो नरकायुष्यबंधकत्वं विज्ञापितम् । एवमेवैकोनविंशतितमेऽध्ययने "तुहं पियाई मंसाई, खंडाई सोल्लगाणि य । खाविओ विसमंसाई, अग्गिवरणाइंऽणेगसो ॥१९७०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना २७ www.on फिर भी उत्तराध्ययन सूत्र में भी मांसभोजी को दुःख और दुर्भाग्य देने वाला दुर्गति का बन्ध आदि फल दिखाया है ।। १८ ॥ दूसरे मूल सूत्र श्रीमदुत्तराध्ययन में, अनेक स्थलों पर मांसाहार करने वाले को दुःख और दरिद्रता जनक दुर्गति का बन्ध आदि फल होता है, ऐसा कहा गया है। पाँचवें अध्ययन को नववर्वी गाथा में लिखा हैहिंसक, वाल, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर, और शठ मनुष्य मदिरा और मांस का भोगना श्रेयस्कर है, ऐसा मानता है । ( ५-६) मदिरा-माँस-भोजी का बालमरण होता है-पण्डित मरण नहीं होता और बालमरण से दुर्गति ही होती है, अतएव मांसाहार को दुर्गति का कारण यहाँ बताया है । सातवें अध्ययन में कहा है स्त्री आदि विषयों में आसक्त, महा आरंभी, महा परिग्रही, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला, मादरा और मांस का सेवन करता हुआ डूबता है । (७-६ ) यहाँ भो मदिरा-माँस-भोजी को नरकायु का बन्ध होना प्रगट किया है । उनीसवें अध्ययन में कहा है "तुझे मांस बहुत प्रिय था ऐसा कह कर परमाधामी ने मुझे मेरे हो शरीर के मांस के टुकड़े का सोल्ला बना कर अनेक बार खिलाया"। (७०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ रेवती-दान-समालोचना तुहं पिया सुरा सीहू, मेरो य महूणि य । पाइनो मि जलतीओ वसाओ रुहिराणि य ॥१६ । ७१॥ मृगापुत्रः स्वमातरं नरकदुःखं वर्णयति । तदुःखस्य पूर्वभवाचरितमदिरापानमांसभक्षणत्वप्रयोज्यत्वं दर्शयति । एतैः सर्वचनैर्मदिरापानमांसभक्षणस्यैकान्तदुष्टत्वं प्रतिपाद्यते ॥ १८ ॥ किञ्चपिशितं भुञ्जमानानां, मनुजानामनार्यता। सूत्रे सूत्रकृतांगे त्वाद्रकुमारेण भाषिता ॥१६॥ पिशितमिति--सूयगडाभिधे द्वितीयेऽङ्गसूत्रे षष्टाध्ययने बौद्धार्द्रकुमारयोः संवादे मांसभक्षणस्य कर्मबन्धाहेतुत्वं मन्यमानान् बौद्धान्प्रति वक्त्याद्रकुमारः"तं भुजमाणा पिसितं पभूतं, णो उवलिप्पामो वयं रएणं। इच्चेवमाहंसु अणज्जधम्मा, अणारिया बालरसेसु गिद्धा ॥३८॥ जे यावि भुजंति तहप्पगार, सेवन्ति ते पावमजाणमाणा। मणं न एयं कुसला करेंति, वाया'वि एसा बुहया उमिच्छा ॥३६॥" पिशिताशिनोऽनार्या बाला रसगृद्धा अनार्यधर्माण इति विशे'षणचतुष्टयेन मांसाशनस्यैकान्तनिन्द्यत्वं दर्शितम् । कुशलपुरुषास्तु तदिच्छामपि न कुर्वन्ति । मांसस्य निर्दोषत्वप्रतिपादनपरा वाण्यपि मिथ्यैवेत्येतत्सर्व वर्णनं मांसाहारनिषेधायालमस्ति । एतट्टीकाकारेण प्रकृतविषये शास्त्रान्तरीयप्रमाणान्यप्युपन्यस्तानि तानि चेमानि-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना rrrrrrrrrrmmmmmmmmmmmmm "तुझे ताड़ी सुरा-मादिरा बहुत प्रिय थी ऐसा कह कर परमाधामी ने मुझे जलता हुआ रुधिर और चीं पिलाई" (७१) और भीसूत्रकृतांग सूत्र में, मांसभोजो मनुष्यों को आर्द्रकुमार ने अनार्य कहा है ॥ १९॥ सूयगडांग नामक दूसरे अंगसूत्र में, छठे अध्ययन में बौद्धों का और आर्द्रकुमार का संवाद है। बौद्ध मांस भक्षण को कर्मबन्ध का कारण नहीं मानते । आर्द्रकुमार उनसे कहते हैं "हम प्रभूत मांस-भक्षण करते हुए भी कमों से लिप्त नहीं होते" ऐसा वही कहते हैं जो अनार्य धर्म वाले हैं, स्वयं. अनार्य और बाल हैं तथा जो रसों में श्रासक्त हैं।" ॥३८॥ "जो मांस आदि का भोग करते हैं और यथार्थता को न जानते हुए पाप का सेवन करते हैं। कुशल मनुष्य उसकी इच्छा भी नहीं करते । मांस का समर्थन करने वाले बचन भी मिथ्या ही हैं" ॥३६॥ मांस भक्षक लोग अनार्य हैं, बाल हैं, रसलोलुपी हैं और अनार्यधर्मी हैं, इन चार विशेषणों से मांस-भोजन की सर्वथा निन्दनीयता दिखलाई गई है। बुद्धिमान् पुरुष तो उसकी इच्छा भी नहीं करते । मांस का प्रतिपादन करने वाली वागी भी मिथ्या ही है। यह सब वर्णन मांसाहार के निषेध के लिए पर्याप्त हैं। इसके टीकाकार ने इस विषय के अन्य शास्त्रों के भी प्रमाण दिये हैं। वे यह हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना rrrrrrivarwwwmarwwwwwwwwwwxxxmmmmmm "मां स भक्षयिताऽभत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ १॥ योऽत्ति यस्य च तन्मांसमुभयोः पश्यतान्तरम् । एकस्य क्षाणका तृप्तिरन्यः प्राणवियुज्यते ॥२॥ श्रुत्वा दुःखपरम्परामतिघृणां, मांसाशिनां दुर्गतिं, __ये कुर्वन्ति शुभोदयेन विरतिं, मांसादनस्यादरात् । सदीर्घायुरदूषितं गदरुजा, संभाव्य यास्यन्ति ते, मत्र्येषु टभोगधर्ममतिषु, स्वर्गापवर्गेषु च ॥ ३ ॥ एवमनेकप्रमाणसद्भावेऽपि विस्तरभयाद् दिङ्मात्रमत्र दर्शितम् ॥१९॥ नवाचारांगद्वितीयश्रतस्कन्धादौ मांसार्थसाधका अपि पाठाः सन्ति बाधकप्रमाणवत्साधकप्रमाणं किं न स्वीक्रियत इत्यत आह न चाचारद्वितीयस्थाः, पाठा मांसार्थसाधकाः । यतश्चिन्त्यं तदस्तित्वं विरोधादागमान्तरैः ॥२०॥ नेति--आचारस्याचारांगाभिधसूत्रस्य द्वितीयश्रुतस्कन्ध आचारद्वितीयः । आचारस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ स्तस्तत्र यो द्वितीयअतस्कन्ध इत्यर्थः । तत्र तिष्ठन्तीति तत्स्थाः । पाम पालापकाः "से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा मंसाइयं का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान- समालोचना " जिसका मांस मैं इस लोक में खाता हूँ, मां (मुझको) स ( वह ) परलोक में खायगा । यही मांस की मांसता हैअर्थात् इसीलिए उसे 'मां-स' कहते हैं । “जो जिसके मांस को भक्षण करता है, उनके अन्तर को देखो—एक की तो क्षणिक तृप्ति होती है और दूसरा बेचारा प्राणों से मुक्त होता है" ॥ २ ॥ “मांस-भक्षियों की अत्यन्त घृणास्पद और दुःख देने वाली दुर्गति को सुन कर जो पुरुष पुण्योदय से मांस भक्षण का त्याग करते हैं, वे दीर्घायु पाते हैं, नरोिग होते हैं, खूब भोगोपभोग और धर्म को प्राप्त करने वाले मनुष्यों में तथा क्रमशः स्वर्ग और मोक्ष में जाते हैं ॥३॥ इस प्रकार के अनेक प्रमाण मौजूद होने पर भी विस्तार के भय से यहाँ सिर्फ दिग्दर्शन मात्र कराया गया है ॥ १९ ॥ ३१ श्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध आदि में मांसार्थ के साधक पाठ भी हैं। आप बाधक प्रमाणों की तरह साधक प्रमाणों को क्यों नहीं स्वीकार करते ? इसका समाधान - चारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पाठ नहीं करता, क्योंकि भागमान्तर के साथ पाठों का अस्तित्व विचारणीय है | २० | मांसार्य को सिद्ध विरोध होने से उन आचारांग के द्वितीय भ्रतस्कन्ध को वहाँ 'आचार द्वितीय' कहा है। आचारोग के दो अतस्कन्ध है। उनमें से द्वितीय तसे जिगर बा• बाब समाने से जं पुण आजा साइमं वा अच्छा का” इत्यादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ रेवती-दान-समालोचना मच्छाइयं वा......" इत्यादयः पिण्डेषणाध्ययनसत्का न मांसाथसाधकत्वेनोपादातुं शक्यन्ते कुतो नेत्याह-यत इति यम्मात्कारणात् श्रागमान्तरैः-मांसादिनिषेधकैः स्थानाङ्गभगवतीनिशीथाद्यागमपाठैः । विरोधात्-बाधितत्वात् । ननु द्वितीयश्रुतस्कन्धपाठरागमान्तरपाठानामेव बाधितत्वमस्तु विनिगमनाविरहादिति चेन्न । आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रथमश्रुतस्कन्धास्थविरैरुद्धृतत्वेन नियुक्तकारेण बहिरङ्गत्वप्रतिपादनात् । बहिरङ्गविधितोऽन्तरङ्गविधेर्बलीयस्त्वान्मांसादिपाठानां बाधितत्वे विनिगमनासत्वात् । तदस्तित्वम्-तेषां द्वितीयश्रुतस्कन्धगतपिण्डेषणाध्ययनसत्कपाठानामस्तित्वं सद्भावः । चिन्त्यम्-चिन्तनीयम् विचारणीयमस्तीति । बहिरङ्गानां तत्पाठानामस्तित्वेऽपि सन्देहास्पदे ते पाठाः स्वयमस्थिरात्मवन्तः कथं मांसार्थसाधकाः स्युः ? नैव स्युरित्यर्थः ॥ २० ॥ आगमविरोधं प्रदर्य प्रकृतप्रकरण विरोधं दयतेद्रव्यशुद्धेन दानेन, देवायुर्वद्धमेतया । जिननाम च मांसार्थ-करणेऽदो न सम्भवेत् ॥२१॥ द्रव्यशुद्धनेति-रेवतीगाथापल्या सिंहानगाराय यद्रव्यशुद्धं दानं दत्तं तस्य प्रभावेण तया तदानीमेव देवगत्यायुष्यं तीर्थदूरनामकर्म च बद्धमित्युक्तं तत्रैव प्रकरणे स्थानाङ्गसूत्रस्य नवमे स्थाने च । तथाहि-"तएणं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं तवस्सिसुद्धेणं तिकरणसुद्धणं पडिगाहगसुद्धणं दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ३३ पाठ मांसार्थ का समर्थन करने के लिए उपयोग नहीं किये जा सकते, क्योंकि मांसादि का निषेध करने वाले स्थानाङ्ग भगवती निशीथादि आगमपाठों से ये पाठ बाधित हैं। यदि यह कहो कि द्वितीय श्रतस्कन्ध के पाठों के द्वारा ही दूसरे आगमों के पाठ का बाध विनिगमना (एक पक्ष की युक्ति) के अभाव से क्यों न हो, तो यह कथन ठीक नहीं । क्यों. कि आचाराङ्ग द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पाठ स्थविरों ने प्रथम श्रुतस्कन्ध से लेकर उद्धृत किया है और नियुक्तिकार ने उसका बहिरङ्गत्व प्रतिपादन किया है। 'वहिरंग विधि से अन्तरङ्ग विधि बलवान होती है' इस नियम के अनुसार मांसादि बोधक पाठों का बाध होने पर विनिगमना हो जाती है। उन द्वितीय श्रुतस्कन्ध गत पिण्डेषणाध्ययन संलग्न पाठों का होना विचारणीय है । इसलिये वहिरंग उन पाओं का अस्तित्व ही सन्देहास्पद है । वे पाठ स्वयं अस्थिर होते हुए किस प्रकार मांसार्थ साधक हो सकते हैं अर्थात् किसी प्रकार भी नहीं । आगम विरोध बताकर प्रकृत प्रकरण से विरोध दिखाते हैं: इसने-रेवती गाथापत्नी ने-द्रव्य शुद्ध दान से देवायु का बंध किया इतना ही नहीं बल्कि तीर्थङ्करनामगोत्र को भी बाँधा । यदि मांस अर्थ लिया जाय तो यह दोनों बातें नहीं बन सकती हैं॥ २१ ॥ गाथापत्नी रेवती ने सिंह अनगार के लिए जो द्रव्यशुद्ध दान दिया था, उसके प्रभाव से उसने उसी समय देवायु और तीर्थङ्करनाम गोत्र का बन्ध किया। यह उसी प्रकरण में लिखा है। वह पाठ इस प्रकार है-तएणं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं तवस्सिसुद्धणं तिकरणसुद्धणं पडिगाहगसुद्धणं दाणेणं सोहे अणगारे पटिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध।” स्थानागसूत्र में रेवती ने तीर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना भग० १५; १, पृ. ६८७ समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्थंसि णवहिं जीवहिं तित्थगरणामगोत्ते कम्मे णिज्वतिते सेणिएणं, सुपासेणं, उदाइणा, पोहिलेणं अणगारेणं, दठाउणा, संखेणं, सयणेणं, सुलसाए, रेवतीए । स्था० ९, सूत्र ६९१, पृ० ४५५ । रेवत्या दत्तं यदि प्राणिमांसं स्यात्तदोक्तपाठौ न संगच्छेयाताम् । मांसस्याशुद्धद्रव्यत्वेन दुष्टत्वस्य सपद्येव निदर्शनात् । किञ्च तीर्थङ्करनामदेवायुष्यबंधोऽपि न संभवेत् । मांसाहारस्य नरकायुष्यहेतुत्वेन स्थानाङ्गादौ प्रतिपादितत्वात् । तथा च कपोतादिशब्दानां प्राणिमांसार्थपरत्वे स्वोकृते द्रव्यशुद्धिस्तीर्थङ्करनामकमदेवायुष्यबंधश्चेत्येतन्न संगच्छेत ॥ २१ ॥ मांसार्थ 'कडए' शब्दस्यानन्दयापत्तिः स्यादित्याहकडए इति शब्दस्य, मांसे नान्वययोग्यता। न हि निष्पाद्यते मांस, मार्जारेण कथंचन ॥२२॥ छिन्नं वा भक्षितं तस्य, लक्ष्यार्थः क्रियते तदा । वाक्यार्थासंगतिः स्पष्टा, दातुं योग्यं न तद्भवेत् ॥२३॥ कडए इति–'मजारकडए कुक्कुडमंसए' इति वाक्ये मार्जारेण कृतमिति तृतीयातत्पुरुषे कृते कृतभित्यस्य निष्पादितमित्यर्थे मार्जारनिष्पादितमित्यर्थः स्यात् । स च न संभवति । न हि शस्त्रादिना मार्जारः कुक्कुटमांसं निष्पादयितुं शक्नोति । तत्सकाशे शस्त्रादीनामभावात् । दंतदंष्ट्रादिकमेव शस्त्रं तेन च कुक्कुट छिनत्ति भक्षयति वा मार्जार इत्युच्यते तदा महदसामञ्जShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान - समालोचना झरनामगोत्र बाँधा मूलपाठ इस प्रकार है: - समणस्स भ० महावीरस्स तिव्यंसि णवहिं जोवेहिं तित्थगरणामगोतं कम्मे णिव्वतिते सेणिएणं..... "रेवतीएणं सु० ६९१ पृ० ४५५ | रेवती के द्वारा दिया हुआ पदार्थ यदि प्राणी का मांस होता तो -यह पाठ संगत नहीं होता क्योंकि मांस अशुद्ध द्रव्य है और उसकी अशुद्धता अभी बतलाई जा चुकी है । दूसरी बात यह है कि यदि रेवती ने प्राणी-मांस दिया होता तो देवायु का बन्ध और तीर्थङ्करनाम - गोत्र कर्म का बन्ध भी न होता, क्योंकि स्थानांग आदि सूत्रों में मांसाहार को नरकायु का कारण बताया है । तात्पर्य यह है कि कपोत आदि शब्दों को प्राणी-मांस अर्थ का प्रतिपादक माना जाय तो द्रव्यशुद्धि और देवायु का बंध, यह दोनों बातें नहीं बन सकतीं ॥ २१ ॥ मांस अर्थ मानने पर 'कडए' शब्द का अनन्वय ३५ संबंध नहीं घटता, क्योंकि कडए शब्द का 'मांस' के साथ - मार्जार के द्वारा मांस का निष्पादन नहीं किया जाता है। यदि मार्जार के द्वारा छेदा या खाया हुआ, ऐसा 'कडए' शब्द का लाक्षणिक अर्थ लिया जाय तो वाक्यार्थ की असंगति स्पष्ट हो है । ऐसा पदार्थ दान देने योग्य नहीं हो सकता ।। २२-२३ ॥ 'मज्जारकडर कुक्कुड मंसए' इस वाक्य में 'मार्जारेण कृतम् (मार्जार के द्वारा किया हुआ) इस प्रकार तृतीया तत्पुरुष समास करने पर मार्जारकृत का अर्थ मार्जार द्वारा निष्पादित होता है । यह अर्थ असंभव है, क्योंकि मार्जार शस्त्र आदि से सकता । मार्जार के पास शस्त्र होते कि दाँत और डाढ़े आदि ही मार्जार के के मांस को निष्पादन करता एवं भक्षण कथन और बे सिर पैर का है। क्योंकि ऐसो वस्तु तो दान के योग्य हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com " कुक्कुट मांस का ही नहीं हैं । निष्प दन नहीं कर यदि कोई यह कहें शस्त्र हैं और उन्हीं से वह कुक्कुट करता है । सो यह लाक्षणिक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना warrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrowm स्यम् । तद्वस्तु दानयोग्यमेव न भवेत्। तथा च वाक्यबोधानापत्या वाक्यार्थासंगतिः स्पष्टैव । एकापत्तिदूरोकरणेऽपरापत्तिः समागता तथा च व्याघ्रनदीन्यायप्रसंगः ॥२२॥२३॥ कथमसामञ्जस्यमित्याहमार्जारोच्छिष्टमन्नाद्यं, गण्यतेऽद्यापि दूषितम् । शिष्टाः स्पृशन्ति नैवैतद्, भक्षणस्य तु का कथा २४॥ मार्जारोच्छिष्टमिति-वर्तमानकालेऽपि यदन्नदुग्धादिके खाद्यवस्तुनि मार्जारेण मुखं निविष्टं तद्वस्तु दूषितमखाद्यं नीचवणेरपि मन्यते । शिष्टजनास्तु तत्स्पर्शमपि त्यजन्ति । भक्षणं तु सुतरामेव त्यजन्ति ॥२४॥ शरीरशब्दप्रयोगोऽपि मांसार्थबाधक इत्याह पक्षाद्यङ्गसमष्टिः स्याच्छरीरं भुज्यते न तत् । प्रयोगोऽत्र शरीरस्य, मांसार्थबाधकस्ततः ॥२॥ पत्ताधङ्गसमष्टिरिति-'दुवे कवोयसरीरा' इत्यत्र शरीरशब्देन यदिमांसमेवाभिमतं स्यात्तदा 'कवोयसरीरा' इत्येव प्रयुज्येत । परं च तत्रापि 'दुवे' शब्दो बाधितः स्यात्तन्मांसे द्वित्वासंभवात् । न च द्वित्वं कपोतेऽन्वेति तद्वारा तन्मांसेऽन्वय इति वाच्यम् । 'दुवे' इत्यस्य समस्तत्वेन शरीर एवान्वयो घटते न तु कपोते । किं च शरीरशब्दस्य मांसार्थकत्वं न संभवत्येव । मांसं तु शरीरShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ही नहीं सकती। इस प्रकार मांस अर्थ करने से वाक्य का ठीक ठीक अर्थ ही नहीं लगता। अतएव एक भापत्ति को दूर करने चले तो दूसरी आपत्ति आ गई ! यह तो वही बात हुई कि इधर कुवा उधर खाई ॥२२-२३ लाक्षणिक अर्थ अयुक्त क्यों है ?-- .. मार्जार का जूठा अन्न आदि आज कल भी दूषित माना जाता है। उसे शिष्ट पुरुष छूते भी नहीं है, फिर खाने की तो बात ही क्या है ? ॥ २४ ॥ ___ वर्तमान काल में भी जिस अन्न या दूध आदि खाद्य पदार्थ में मार्जार (विलाव ) मुंह डाल देता है उसे नीच वर्ण के लोग भी अखाद्य और दूषित मानते हैं। शिष्ट जन तो उसका स्पर्श भी नहीं करते-इस प्रकार भक्षण का स्वयं ही त्याग हो जाता है ॥ २४ ॥ 'शरीर' शब्द का प्रयोग भी मांसार्थ का बाधक है पंख आदि समस्त अंगों का समुदाय शरीर कहलाता है। यह शरीर भक्षण नहीं किया जा सकता । यहाँ पर 'शरीर' शब्द का प्रयोग किया गया है अतः मांसार्थ करने में इससे बाधा आती है ॥ २५ ॥ ___ 'दुवे कवोयसरीरा' यहाँ शरीर शब्द का मतलब यदि मांस होता तो फिर 'कवोयमंसा' ऐसा प्रयोग होना चाहिए था। किन्तु ऐसा पाठ होता तो भी 'दुवे' शब्द वृथा हो जाता, क्योंकि 'मांस' के लिए 'दो' विशेषण नहीं लगाया जा सकता। यदि कोई यह कहे कि 'दो' विशेषण मांस का नहीं किन्तु कपोत का है, सो ठीक नहीं। कारण यह है कि यहाँ 'कपोतशरीर शब्द समासयुक्त है और समास-युक्त होने से शरीर के साथ ही उसका ('दो' विशेषण का) अन्वय घटता है, कपोत शब्द के साथ नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना गतमेकं वस्तु तद्भिन्नानां रुधिरादीनामपि शरीरे समावेशात् । शरीञ्चावयवी मासं तु तदवयवः, अवयविनोऽनेकावयवसमष्टिरूपत्वात्तदाह पक्षाचंगेति पक्षाः पिच्छानि आदिशब्देन चरणचञ्च्वादयस्तेषामंगानां समष्टिरेव शरीरं, पिच्छादिसहितं पक्षिशरीरं न क्वापि केनचिदप्युपस्क्रियते मुज्यते वा मांसमात्रमेव भुज्यते न तु पिच्छादिकम् । ततश्च शरीरशब्दस्य द्विशब्दस्य च प्रयोग एवात्र मांसार्थबाधकः सिद्ध्यति न तु तत्साधकः । तत्प्रयोगस्य सिद्धान्ते कथं सार्थक्यमित्यग्रे दर्शयिष्यामः ॥ २५ ॥ रोगचिकित्सायाः प्रकृतिपरीक्षा मूलम् प्रकृतिश्चिन्त्यते सुज्ञैरादावौषधरोगयोः अन्यथा हानतास्थाने, वृद्धी रोगस्य जायते ॥२६॥ प्रकृतिरिति-सुझैवैद्यैरादौ रोगश्चिकित्स्यते । रोगस्य का प्रकृतिः, कः समयः, पुरुषस्य कोदृशमाचरणं, का प्रकृतिरिति निरीक्षणानन्तरं कीदृशप्रकृतिकस्यौषधस्य सेवनमारोग्यजनक भवेदिति सम्यक पर्यालोच्य भैषज्यं ददाति सुवैद्यस्तदा रोगस्य हानिर्भवति । अन्यथा- कृति विज्ञानं विना यद्योषधं दीयते तदा रोगहानिस्तु दूरे तिष्ठति प्रत्युत हानिस्थाने तवृद्धिरेव स्यादिति सामान्यनियमः । अत्र महावीरस्वामिनाऽपि तन्नियमानुसारेणैव रोगस्वभावप्रतिपक्षिस्वभावकमौषधमानेतुमादिष्टमिति ।। २६ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना www.mmmmmmmmmmmmmm दूसरी बात यह है कि 'शरोर' का अर्थ मांस नहीं हो सकता । मांस, शरीर में रहने वाली एक वस्तु है, शरीर नहीं। शरीर में मांस के अतिरिक्त रुधिर आदि अन्य पदार्थों का भी समावेश होता है। शरीर अवयवी है, मांस अवयव है। अवयवी, अनेक अवयों का समुदाय होता है। इसीलिए ऊपर कहा है कि पत्र और ( आदि शब्द से ) पैर चोंच आदि अंगों का समूह शरीर कहलाता है और पख आदि के साथ पक्षी का शरीर न तो कोई कभी खगता है न पकाता है। अर्थात् मांस हो खाया जाता है, पंख वगैरह नहीं। अतएव शरीर शब्द का और दुवे शब्द का प्रयोग ही यहाँ मांसार्थ का बाधक है-साधक नहीं। शरीर शब्द का प्रयोग सार्थक किस प्रकार है, यह बात आगे दिखावेंगे ॥२५॥ प्रकृति परीक्षा, रोग की चिकित्सा का मूल है विद्वान् लोग पहले औषधि और रोग को प्रकृति की परीक्षा करते हैं। इनकी परीक्षा न करने से रोग घटने के बदले बढ़ जाता है ॥ २६ ॥ विद्वान् वैद्य सर्व प्रथम रोग की चिकित्सा करते हैं। रोग की प्रकृति क्या है, मौसिम कौन सा है, रोगी पुरुष का आचरण कैसा है, इसकी प्रकृति कैसी है इन बातों पर पहले विचार करके तथा किस प्रकृति वाली औषध का सेवन करने से आरोग्य बढ़ेगा यह सोच कर ही वैद्य औषध देते हैं। तभी रोग का नाश होता है प्रकृति की परीक्षा किये विना ही यदि दवा दे दी जाय तो रोग का नाश होना दर किनार रहा हानि की जगह उलटी वृद्धि ही होती है। यह एक सामान्य नियम है । महावीर स्वामी ने इसी नियम के अनुसार ही रोग के स्वभाव से विपरीत स्वभाव वाली औषधि लाने के लिए भाज्ञा दी थी ॥ २६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ननु मांसमव रोगप्रकृत्यनुकूलं किं न स्यादित्याहमांसस्योष्णस्वभावत्वात्तस्मात्पित्तप्रकोपनम् । वर्चसि लोहिताधिक्यं, तेन स्यान्न तदौषधम् ॥२७॥ मांसस्येति-शीतजन्यरोगाणामुष्णस्वभावौषधं रोगशमकं भवेन्न तु शीतस्वभावौषधम् । एवमुष्णताजन्यरोगाणां शीतस्वभावौषधं शान्तिजनकं न तूष्णस्वभावौषधम् । तत्तु प्रत्युत रोगवर्धकमेव भवेदिति प्राकृतजनोऽपि जानाति । वैद्यकशब्दसिन्ध्वाख्यकोषे ७०१ पृष्ठे मत्स्यशब्दप्रसंगे ७३९ पृष्ठे च मांसशब्दप्रसंगे मत्स्यमांसस्य साधारणमांसस्य च रक्तपित्तजनकत्वेनोष्णस्वभाव. वत्त्वं दर्शितम् । तथा चोष्णरोगाणां वर्धकमेव मांसं भवति न तुशमकमिति सिद्धम् । श्रीमन्महावीरस्वामिशरीरे पित्तज्वरलोहितपतनदाहानामुष्णव्याधिरूपत्वादुष्णस्वभावमांसेन तेषां वृद्धिः स्याद्वा हानिः स्यादिति निर्णेतुं शक्यत एष, तेनेति पित्तप्रकोपेन लोहिताधिक्येन च मांसमोषधं कथमपि भवितुं नाहति । ततोऽस्मिन्रोगप्रसङ्ग कपोतादिशब्दानां मांसार्थकत्वकरणे प्रसङ्गासंगतिर्दोषः स्यादिति ।।२७॥ वृत्तिकारस्य श्रीमदभयदेवसूरेरत्र कऽभिप्राय इति दयतइत्यं सत्सु प्रमाणेषु, मांसार्थबाधकेष्वपि । वृत्तिकारेण तत्पक्षः, किमर्थ नैव खण्डितः ॥२८॥ इत्थमितिः-इत्थममुना प्रकारेणोक्तप्रकारेणेत्यर्थः । मांसाथैति-कपोतादिशब्दानां मांसार्थे तात्पर्य नास्तीति मांसार्थनिषेधे बाधकप्रमाणानि दर्शितानि तेषु प्रमाणेषु विद्यमानेषु व्याख्याकारShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ४१ मांस, रोग की प्रकृति के अनुकूल क्यों नहीं है ? मांस का स्वभाव उष्ण है। उससे पित्त का प्रकोप होता है, मल में रक्त गिरने की अधिकता होती है, अतएव मांस उस रोग की दवा नहीं हो सकता ।। २७ ॥ ____ शीत-जन्य रोगों की दवाई उष्ण स्वभाव वाली होती है, शीत स्व. भाव वाली नहीं। इसी प्रकार गर्मी से जो रोग उत्पन्न हुभा हो उसके लिए शीत स्वभाव वाली औषधि शान्ति जनक हो सकती है, गर्म स्वभाव वाली नहीं। गर्म स्वभाव वाली दवा तो उल्टी रोग बढ़ाने वाली होती है। वैद्यक शब्द सिन्धु कोष पृ० ७० में मत्स्य शब्द में और पृष्ठ ७३९ में मांस शब्द के प्रसंग में मत्स्यमांस और साधारण मांस रक्तपित्त जनक होने से उष्ण स्वभाव वाला बताया है इससे यह बात सिद्ध है कि मांस उष्ण रोगों का बर्धक है, नाशक नहीं। भगवान् महावीर स्वामी के शरीर में पित्तज्वर, रक्तपात और दाह ये सब उष्ण स्वभाव वाले रोग थे, ये उष्ण स्वभाव वाले मांस से घटते या उटे बढ़ते ? इसका निर्णय सहज ही हो सकता है। अतः पित्त के प्रकुपित होने तथा खून की अधिकता होने से मांस यहाँ किसी भी प्रकार औषध नहीं हो सकता । इस कारण इस रोग के प्रसंग में कपोत आदि शन्दों का मांस अर्थ करने में प्रकरणासंगति दोष आता है ॥ २० ॥ टीकाकार श्री अभयदेव सूरि का अभिप्राय: इस प्रकार मांसार्थ के बाधक प्रमाणों के मौजूद होने पर भी टीकाकार ने उस पक्ष का खण्डन क्यों नहीं किया ? ॥२८॥ ___ कपोत आदि शब्द मांस अर्थ के वाचक नहीं हैं, इस प्रकार मांसार्थ के निषेध में जो प्रमाण पहले बताये हैं, उनके होने पर टीकाकार का यह भावश्यक कर्तव्य था कि वे दूषित पक्ष का प्रमाण पूर्वक खण्डन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ रेवती-दान-समालोचना स्यावश्यककर्त्तव्यमस्ति यद्वाधितपक्षो निराकरणीयः प्रमाणपुरस्सरमागमविरुद्धपक्षः खण्डनीयः । अत्र कश्चिच्छङ्कते यद् वृत्तिकारण मांसार्थपक्षः कथं न खण्डितः ? 'श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्त' इति वाक्येन केषांचिन्मांसार्थपक्षः किमर्थमुपन्यस्तः । यदि पूर्वपक्षरूपेणोपन्यस्तः स्यात्तदा तदाधनं स्वशब्देन किमर्थं न कृतमिति प्रश्नकाराशयः ।।२८।। द्वितीयपक्षोपन्यासः अन्ये त्वाहुरयं पतः, किमर्थ नैव मण्डितः । योग्यायोग्यविमर्शन, स्वाशयः किं न दर्शितः ॥२६॥ अन्य इतिः--कपोतकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधात्ते कपात कूष्माण्डे हस्बे कपोते कपोतके ते च शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, इत्यादिना वनस्पत्यर्थको द्वितीयपक्ष उपन्यस्तः सोप्यन्येषां न तु स्वस्य । यदि स पक्षोऽपि स्वाभिमतस्तर्हि किमर्थ तन्मण्डनं-स्थापनं न कृतं साधकबाधकप्रमाणैस्तद्योग्यायोग्यत्वपर्यालोचनेन मांसार्थबाधने किमर्थ निजाशयो न प्रकटीकृतः ?॥२९॥ अस्याक्षेपस्य निबन्धलेखकः समाधनं करोतिवच्म्यत्र वृत्तिकारण, यद्यप्युक्तं न शब्दतः । तथापि ज्ञायते तस्याशयः सूक्ष्मनिरीक्षणात् ॥३०॥ वच्मीतिः-पत्र विषयेऽहं किञ्चिद्वीमि-वृत्तिकारेण यद्यपि पूर्वपक्षे वोत्तरपक्षे स्वकीयशब्दैः किञ्चिन्नोक्तम् तथापि वृत्तिकारस्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना करते । अतएव यहाँ कोई शंका कर सकता है कि टीकाकार ने उस पक्ष का क्यों खण्डन नहीं किया ? 'श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते' ( कोई कोई इस सुने जाने वाले अर्थ को मानते हैं ) इस वाक्य से किसी का मत मांसार्थक है, ऐसा क्यों कहा? यहाँ प्रश्नकर्ता का आशय यह है कि यदि इस वाक्य से टीकाकार ने पूर्व पक्ष किया है तो अपनी ओर से उसका खण्डन क्यों नहीं किया ? ॥ २८ ॥ दूसरा पक्षः दुसरे लोग कहते हैं कि इस ( वनस्पति अर्थ ) पक्ष का उन्होंने मंडन क्यों नहीं किया ? योग्य-अयोग्य का विचार करके अभिप्राय क्यों नहीं प्रदर्शित किया ? ॥२९ ॥ __ कपोत अर्थात् कबूतर पक्षी, और उसके रंग के समान जिस फल का रंग हो वह कपोत फल अर्थात् कोला। क्योंकि कोला में वनस्पति कायकि जीव होता है अतः उसे कपोत-शरीर कहते हैं। इस प्रकार टीका. कार ने नो दूसरा पक्ष लिखा है वह भो दूसरों का मत बताया है-अपना नहीं। यदि टीकाकार को वह अर्थ स्वीकार था तो, साधक-बाधक प्रमाणों के द्वारा, योग्य अयोग्य का विचार करके मांसार्थ का खण्डन करने में अपना मत क्यों नहीं प्रगट किया है ? तात्पर्य यह है कि टीकाकार ने दोनों अर्थ दिये हैं मगर वे दूसरों के मत के अनुसार दिये हैं। अपनी ओर से कुछ भी अर्थ नहीं लिखा। इसका क्या कारण है ? ॥ २९ ॥ निबंध-लेखक का समाधान: इस विषय में मैं कहता हूँ-यद्यपि टोकाकार ने स्पष्ट शब्दों में कुछ नहीं कहा है तो भी सूक्ष्म निरीक्षण करने से उनका श्राशय मालूम हो जाता है ।। ३० ॥ इस विषय में मैं कुछ कहता हूँ-यद्यपि टीकाकार ने पूर्व पक्ष या उत्तर पक्ष के विषय में अपने शब्दों में कुछ नहीं कहा है, तथापि पूर्वापर का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ रेवती-दान-समालोचना कोऽभिप्रायो विद्यते, स तु पूर्वापरपर्यालोचनेन ज्ञातुं शक्यते । पूर्वपक्षस्य कियानादरः कृतः ? उत्तरपक्षस्य च तावानेवादरो वाऽधिकादरः ? । पूर्वपक्षस्य कियदालोचनपूर्वकार्थावधारणं दर्शितमुत्तरपक्षस्य च कियदिति सूक्ष्मरीत्या पर्यालोचने कृते त्ववश्यमेव तदाशयपरिज्ञानं स्यादेवेति ।।२०।। पूर्वोत्तरपक्षयोः किं न्यूनाधिक्यं तद्दर्शयति निर्हेतुकश्च संक्षिप्तः पूर्वपक्षो न चादृतः । द्वितीयो विस्तृतः स्पष्टमुत्तरपक्षलक्षणः ॥३१॥ निर्हेतुक इतिः-श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते इत्येकवाक्यमात्रेणैव पूर्वपक्ष उपन्यस्तः । नात्र कश्चिद्धेतुर्दशितः । न वा साधकबाधकप्रमाणानि । न वा परामर्शः । संक्षेपेणैव तन्मतो पदर्शनं कृतम् । श्रयमाणमेवार्थ मन्यन्ते इति वाक्यमपि तत्पक्षस्य पर्यालोचनशून्यत्वं दर्शयति । कुतः ? सर्वत्र शब्द एव श्रूयमाणो भवति नत्वर्थः । शब्दश्रवणानन्तरमीहा-पर्यालोचना भवति ततोऽवायोऽर्थावधारणं भवतीति मतिज्ञानस्यायं सामान्यनियमः। अत्र त्वर्थत्य श्रयमाणत्वमुक्तं तत्कथं घटते । शब्दार्थयोः कथञ्चिदभेदाश्रयत्वेन शब्दवदर्थस्य श्रयमाणत्वे स्वीकृते तत्रेहा-पर्यालोचना व्यापारो न प्रतीयेत । तथा चात्र मांसार्थो घटते वा न घटते शास्त्रान्तरे तद्वाधकप्रमाणानां सद्भावेन बाध्यतेऽत्र मांसाओं नवेति पर्यालोचनाविरहेण न यथार्थावायस्तत्र संभवति । शब्दवदर्थः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ४५ विचार करने से यह विदित हो जाता है कि टीकाकार का क्या विचार है ? उन्होंने पूर्व पक्ष ( मांसाथ पक्ष ) को कितना स्वीकार किया है? और उत्तर पक्ष (वनस्पति-अर्थ) को उतना ही या उससे अधिक स्वीकार किया है ? कितनी आलोचना करके पूर्व पक्ष के अर्थ का निश्चय किया है और उत्तर पक्ष के विषय में कितनी आलोचना की है ? इस प्रकार सूक्ष्म रीति से विचार करने पर उनका आशय जरूर मालूम हो जाता है। ॥ ३० ॥ पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष की न्यूनाधिकताः पूर्व पक्ष को संक्षेप में कहा है और कोई हेतु नहीं दिया, अतः पूर्व पक्ष को उन्होंने स्वीकार नहीं किया किन्तु उत्तर पक्ष विस्तार से और स्पष्ट रूप से बताया है ॥ ३० ॥ 'श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते' (सुने जाने वाले अर्थ को ही कोई मानते हैं ) इस एक वाक्य के द्वारा ही पूर्व पक्ष का निर्देश कर दिया है। इसमें कोई भी हेतु नहीं दिखाया और न साधक-बाधक प्रमाण ही दिये हैं। इसका कुछ परामर्श भी नहीं किया। बहुत संक्षेप में ही यह मत दिखा दिया है। 'श्रयमाणमेवार्थ मन्यन्ते' यह वाक्य भी उस पक्ष की विचार शून्यता का दिग्दर्शन कराता है; क्योंकि अर्थ कहीं सुना नहीं जाता-शब्द ही सर्वत्र सुना जाता है । "शब्द सुनने के बाद ईहा-पर्यालोचना (विचार) होता है । ईहा के अनन्तर अवाय होता है और तब अर्थ का निश्चय होता है। मतिज्ञान का यह सामान्य नियम है। मगर यहाँ अर्थ का सुना जाना कहा है सो यह कैसे ठीक हो सकता है ? शब्द और अर्थ सर्वथा मित्र नहीं हैं-कचित् अभिन्न हैं अतः यहाँ अभेद की अपेक्षा से अर्थ का सुना जाना कहा है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो उसमें ईहा नहीं होनी चाहिए । ऐसी हालत में 'मांसार्थ युक्त है या नहीं, दूसरे शास्त्रों में मांसार्थ के बाधक प्रमाण का सद्भाव है अतः यहाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ रेवती - दान- समालोचना 1 श्रुतः । न पर्यालोचनपूर्वकमवधारित इति तात्पर्य प्रकृतवाक्यस्यास्तीति पूर्वपक्षे वृत्तिकारस्य न सम्यगादरः प्रतीयते । किं च कः श्रूयमाणोऽर्थ इत्यपि स्पष्टं नोक्तम् । अथ द्वितीयपक्षस्तु विस्तरेण स्पष्टमुक्तः स चोत्तरपक्षरूपेणोपन्यस्तः । तत्र पूर्वपक्षस्य खण्डनसवेनोतरपक्षलक्षणविशिष्टत्वम् ॥ ३१ ॥ उभयपक्षये, द्वितीयस्य प्राधान्य दर्शयति शैल्यैतया द्वितीयस्य प्राधान्यं स्वीकृतं स्वयम् । प्रथमस्य च गौणत्वं, स्थापितं व्यंग्यहेतुतः || ३२॥ शैल्येति — एतयोपरिदर्शितया शैल्या पूर्वपक्षत्वात्तरपक्षत्वसंक्षिप्तत्व विस्तृतत्वनिरादरत्व सादरत्व निर्हेतुकत्व सहेतुकत्वप्रतिपादनगर्भितरच नात्मकया रीत्या । द्वितीयस्य वनस्पत्यर्थ स्वीकुर्वतो द्वितीयपक्षस्य वृत्तिकारेण स्वयं प्राधान्यं स्वीकृतम् । मांसार्थे तात्पर्यग्राहकम्य प्रथमपक्षस्य च गौणत्वं स्थापितम् । कुत इत्याह व्यंग्यहेतुतः पञ्चम्यन्तशब्दात्मक हेत्वदर्शनेऽपि स्वमनोभावगतहेतोरित्यर्थः । यदि वृत्तिकारस्याशयः प्रथमपक्षस्वीकारे स्यात्तदा स द्वितीयपक्षवत्प्रथम पक्षमपि विस्तरेण हेतुपूर्वकं स्पष्टं स्थापयेत् । तथा नोपदर्शितम् । तेन च तस्याशयः स्पष्टं ज्ञातुं शक्यते धीमद्भिरित्यलं विस्तरेण ||३२| वृत्तिकारस्य स्पष्टाशयः - किश्च स्थानाङ्गटीकायामनेनैव निजाशयः । फलार्थे दर्शितः स्पष्ट नात्रातः पुनरोरितः ॥३३॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना मांसार्थ होना चाहिए या नहीं, इस प्रकार की पर्यालोचना के बिना यथार्थ अवाय ज्ञान भी नहीं हो सकता। शब्द के समान अर्थ सुना, किन्तु उसका विचार पूर्वक निश्चय नहीं किया, पूर्व पक्ष का ऐसा भाशय निकलता है। इससे प्रतीत होता है कि टीकाकार ने पूर्व पक्ष का आदर नहीं किया। सुना जाने वाला वह अर्थ कौनसा है, यह भी साफ़-साफ़ नहीं बताया है। किन्तु दूसरे पक्ष को विस्तार से स्पष्ट कहा है और वह उत्तर पक्ष के रूप में लिखा है। अतः वहाँ पूर्व पक्ष का खण्डन होने से उत्तर पक्ष की ही विशिष्टता सिद्ध होती है ॥३१॥ _दोनों पक्षों में से दूसरे पक्ष की प्रधानताःटीकाकार ने इस शैलीसे स्वयं ही दूसरे पक्ष की प्रधानता स्वीकार की है और व्यंग रूपसे प्रथम पक्षकी गौणता स्थापितकी है ॥३२॥ पूर्व पक्ष को संक्षिप्त और उत्तर पक्ष को विस्तृत कहने, पूर्व पक्ष में निरादर करने और उत्तर पक्ष का आदर करने, पूर्व पक्ष को बिना किसी हेतु के कहने और उत्तर पक्ष को सहेतुक कहने रूप शैली से, वनस्पति-अर्थ को मानने वाले उत्तर पक्ष की प्रधानता स्वीकार की है और मांसार्थ मानने वाले प्रथम पक्ष की गौणता सिद्ध की है। वह गौणता यद्यपि पंचमी विभक्ति रूप शाद्विक कथन करके नहीं किन्तु अपने मनोभाव रूप हेतु से सिद्ध की है। यदि टीकाकार का आशय प्रथम पक्ष को स्वीकार करने का होता तो वह द्वितीय पक्ष की भाँति प्रथम पक्ष को भी विस्तार से और साथ ही हेतु के साथ स्पष्ट रूप से स्थापित करते। मगर उन्होंने ऐसा नहीं दिखलाया है, इस कारण टीकाकार का आशय विद्वान लोग स्वयं ही समझ सकते हैं। बस, इतना कहना ही पर्याप्त है ॥३२॥ टीकाकार का स्पष्ट आशय और भी इन्हीं टीकाकार (श्री अभयदेव सूरि) ने स्थानाङ्गसूत्र की टीका में अपना आशय फलाहार में स्पष्ट बताया है। इसी कारण भगवती की टीका में वही बात दोहराई नहीं है ॥३३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ रेवती-दान-समालोचना mmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmm किञ्चति-न केवलं वृत्तिकारस्थाशयोऽनुमानगम्योऽपि तु स्थलान्तरे स्पष्टोल्लिखितोऽपि वर्तते । स्थानाङ्गेति-स्थानाङ्गाभिधतृतीयाङ्गसूत्रस्य नवमे स्थाने टीकायां-वृत्तौ अनेनैवेतिभगवतीसूत्रवृत्तिकारेणैव श्रीमदभयदेवसूरिणा । स्पष्ट स्पष्टतया । फलाथै इति-कुक्कुटमांसादिशब्दानां फलार्थवाचकत्वं न तु मांसार्थवाचकत्वमिति । निजाशयः-स्वाभिप्रायः दर्शितः व्यक्तीकृतः । तथाहि___ततो गच्छ त्वं नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपल्या मदर्थ द्वे कूष्माण्डफलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनं, तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिवृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकं बीजपूरक-कटाहमित्यर्थः, तदाहर, तेन नः प्रयोजनमिति-स्थानाङ्गसूत्रे नवमस्थाने सू० ६९१, पृ० ४५६-४५७ अतः-अस्मात्कारणात् । अत्र-भगवती-टीकायाम् । पुनःभूयः । नेरितः-न प्रतिपादितः। स्थानाङ्गटीकाया पूर्वनिर्मितत्वात्तत्र स्पष्टतया निवेदितत्वान्नात्र पुनरुक्तम् । तत एवात्रानुसन्धेयमिति तदाशयः अथोक्तशब्दानां वनस्पत्यर्थः साध्यतेएतेषामथ शब्दानां, वाचकत्वे वनस्पतेः । प्रमाणानि प्रदश्यन्ते, स्वपरशास्त्रयोः स्फुटम् ॥३४॥ एतेषामितिः--अथशब्द आनन्तर्यार्थकः । मांसार्थनिरूपकाद्यपक्षखंडनानन्तरं प्रकृतशब्दानां वनस्पत्यर्थकत्वं साध्यते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ४९ rrrrrrrrrrrrwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmrrrrrn टीकाकार का आशय केवल अनुमान गम्य ही नहीं किन्तु स्थान्तर में स्पष्ट उल्लिखित भी है अर्थात् स्थानाङ्ग नामक तृतीय अङ्ग सूत्र के नवम स्थान की टीका में भगवती टीकाकार अभयदेव सूरि ने ही कुक्कुटमासादि शद्ध फलार्थवाचक हैं, मांसार्थ वाचक नहीं हैं ऐसा अपना आशय स्पष्ट प्रगट किया है। जैसे कि "तू नगर में जा और रेवती नामक गृहपत्नी ने मेरे लिए जो दो कूष्माण्ड (कोला) के फल संस्कार करके तैयार किए हैं-उससे प्रयोजन नहीं है किन्तु उसके घर में दूसरा मार्जार नाम का वायु की निवृत्ति करने वाला कुक्कुट मांसक अर्थात् बिजौराफल का गर्भ है वह ले आ; उससे हमारा प्रयोजन है। (स्थानाङ्गसूत्र-नवम स्थान सू० ६९१,५० ४५६ ४५७) इस कारण से टीकाकार ने भगवती की टीका में फिर यही बात नहीं बतलाई ।' क्योंकि स्थानाङ्ग सूत्र की टीका पहले बनाई गई है और वहाँ पर यही बात स्पष्ट बतलाई गई है अतः यहाँ पर पुनरुक्ति करने में भाई नहीं इस कारण वहाँ से अनुसन्धान करने का टीकाकार का भाशय है ॥ ३३ ॥ उक्त शब्दों के वनस्पति अर्थ की सिद्धिः अब इन शब्दों की वनस्पति अर्थ की वाचकता में स्व-पर शास्त्रों के स्पष्ट प्रमाण दिखलाये जाते हैं ।। ३४ ॥ अथ भब्द का अर्थ है-इसके अनन्तर । अर्थात् म.सार्थ पक्ष का सण्डन करने के अनन्तर प्रकृत शब्द वनस्पति अर्थ के वाचक हैं, यह बात सिद्ध की जाती है। इन शब्दों का वनस्पति अर्थ वैद्यक के सुश्रुत आदि अन्यों में तथा वैद्यक कोष में प्रसिद्ध है। जैन सूत्रों में भी कहीं कहीं यह अर्थ पाया जाता है। अतः पूर्व पक्ष के हिमायतियों के लिए प्रज्ञा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० रेवती-दान-समालोचना एतेषां शब्दानां तत्तद्वनस्पतिवाचकत्वं वैद्यकपुस्तके सुश्रुतादौ वैद्यककोषे च प्रसिद्धमस्ति । तथा जैनसूत्रेऽपि कचित्तथास्ति । ततः पर्वपक्षिणं प्रति स्वशास्त्रस्य प्रज्ञापनादेः परशास्त्रस्य सुश्रुतादेश्व प्रमाणानि प्रमितिजनकवाक्यान्युद्धत्य प्रदर्श्यन्त इत्यर्थः ॥३४॥ प्रथमं कपोतशब्दार्थो निरूप्यतेपारावतः कपोतश्चामरे पर्यायतः स्थितौ । पारावतस्तरुः सिद्धः, कपोतोऽपि तथा भवेत् ॥३॥ पारावत इति:-'दुवे कवोयसरीरा' इति प्रथमवाक्ये 'कवोय' (प्राकृते )-कपोत ( संस्कृते ) शब्दः प्रयुक्तः । कपोतश्च पारावतशब्दस्य पर्यायतयामरकोषे द्वितीयकाण्डे निगदितः । तथाहि "पारावतः कलरवः कपोतोऽथ शशादनः ।" (पकि० १०१६) पर्यायत्वाद्योऽर्थः पारावतशब्दस्य स एवार्थः कपोतशब्दस्याऽपि भवितुमर्हति । अथ पारावतशब्दस्य तु पक्षिवाचकत्वं प्रसिद्धमिति चेद् वृक्षवाचकत्वस्यापि प्रसिद्धत्वात् । तथा हि सुश्रुतसंहितायां ३३८ पृष्ठे-फलवृक्षप्रकरणे-"पारावतं समधुरं रुच्यमत्यग्निवातनुत्" पारावतवृक्षस्य सुश्रुतेऽनेकस्थलेषुलेखात्तस्य वृक्षत्वं सिद्धमेव । तत एव कपोतस्यापि पारावतपर्यायत्वाद् वृक्षत्वं सिद्धमिति ॥३५॥ कपोतशब्दस्य द्वितीयार्थः शब्दसिन्धौ कपोतेन, पारीशोऽभिहितस्तरुः । पारीशेन पुनस्तत्र, प्लततो निरूपितः ॥ ३६ ॥ शब्दसिन्धौ-वैद्यकशब्दसिन्ध्वाख्यकोषे १९३ पृष्ठेकपोतेनShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना पना आदि स्वकीय शास्त्रों के तथा सुश्रुत आदि पर शास्त्रों के प्रमितिजनक वाक्य-प्रमाण उद्धृत करके दिखलाये जाते हैं ॥ ३४ ॥ कपोत अर्थ का निरूपण अमर कोष में 'कपोत' और 'पारावत' शब्द पर्याय वाची हैं और पारावत नाम का एक वृक्ष होता है अतः कपोत का भी वह अर्थ-वृक्षार्थ-होना चाहिए ॥ ३५ ॥ ___ 'दुवे कवोयसरीरा' इस प्रथम वाक्य में कोय (प्राकृत)-कपोत (संस्कृत)शब्द प्रयुक्त हुआ है और कपोत शब्द 'पारावत' शब्द का पर्याय वाची है, यह बात अमर कोष के द्वितीय काण्ड में कही है। कहा भी है "पारावत, कलरव और कपोत, ये कबूतर के (पंक्ति १०१६) पर्यायवाची शब्द हैं ।" जब दोनों शब्द पर्यायवाची हैं तो पारावत शब्द का जो अर्थ है वह कपोत शब्द का भी होना चाहिए। यदि कोई कहे कि पारावत-शब्द तो पक्षी ( कबूतर) का वाचक प्रसिद्ध है तो यह भी कह सकते हैं कि पारावत शब्द वृक्ष का भी वाचक है : सुश्रुत संहिता पृष्ठ ३३८, फल प्रकरण में कहा है-पारावत, मधुर, रुचिकारक तथा अग्निवर्धक और वात को दूर करता है।' सुश्रत में पारावत वृक्ष का कई जगह उल्लेख है अतः पारावत वृक्ष सिद्ध है। अतएव कपोत शब्द का अर्थ वृक्ष होता है, यह बात भी सिद्ध हो गई क्योंकि यह दोनों शब्द पर्यायवाचक हैं ॥ ३५ ॥ कपोत शब्द का दूसरा अर्थ वैद्यक शब्दसिन्धु कोष में कपोत शब्द से पारीश नामक वृक्ष कहा गया है और वहीं पारीश शब्द से प्लक्ष वृक्ष का अर्थ लिया गया है ।। ३६ ॥ वैवक-शब्दसिन्धु नामक कोष पृ० १९३ पर कपोत शब्द से पारीश नामक पेड़ का अर्थ लिया गया है और इसी ग्रंथ के पृ० ६.१ पर पारीश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ रेवती-दान-समालोचना wanan mammmmmmmmmmmmmmmmmmmm कपोतशब्देन पारीशः पारीशनामकस्तरुः वृक्षोऽभिहित उक्त इत्यर्थः । पुनश्च तत्रैव पुस्तके ६०१ पृष्ठे पारीशेन पारीशशब्देन प्लक्षवृक्षो निरूपितः कथित इत्यर्थः । वनौषधिदर्पणाख्यपुस्तके ४४७ पृष्ठे पश्यतामिदं प्लक्षवर्णनम् "प्लक्षः-Ficus infectoria. A large deciduous tree. Astringent and cool. प्लक्षः कषायः शिशिरो, ब्रणयोनिगदापहः । ..... दाहपित्तकफामनः, शोथहा रक्तपित्तहृत् ॥" तथा च कपोतशब्दवाच्यप्लक्षवृक्षस्य दाहपित्तनाशकत्वेन संभवत्यत्र तदुपयोगः । शरीरशब्दस्य तूभयत्र वृक्षात्मकशरीरैकावयवे फले लक्षणाकरणेन भवति निर्वाहः ॥ ३६ ॥ कपोतस्य पाठान्तरत्वेन तृतीयोऽर्थः-- यद्वा प्रागत्र कावोई, कवोयश्रुतिमागतः ।। हस्वत्वं च यकारश्च, स्थानसाम्यात्पमादतः॥३७॥ यदेति-अथवा शरीरशब्दस्य शक्तिमात्रेण निर्वाहः स्यादेतादृशं यदि प्रकारान्तरं संभवति तदा तद्दशनीयमित्यतः 'प्रकारान्तरदर्शनोपक्रमः । अत्र अस्मिन्प्रकरणे पाक- सूत्राणां पुस्तकारोहणात्पूर्व श्रत्यनुश्रुतिप्रवाह आसीत् । गुरुः शिष्यमश्रावयत्स पुनस्तच्छिष्यमिति कर्णोपकर्णश्रवणपरंपरायां देशविशेषेणोच्चारणभेदः, अतिभेदश्च संभवत्येव, वर्तमानेऽपि तथा दृश्यते । तथा चात्र श्रुत्यनुअतिसमये कावोई-कावोईत्याकारकशब्दः कवोयशब्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ५३ सन्द का पक्ष (पाकर ) नामक वृक्ष अर्थ कहा है । वनौषधिदर्पण नामक पुस्तक के पृष्ठ ४४० पर प्लन का वर्णन इस प्रकार दिया है पक्ष:-Ficus infectoria _ A large deciduous tree. Astringent and cool. ... प्लक्ष कसैला, शीतल, व्रण और योनि के रोगों का नाशक, दाह, पित्त तथा कफ का मिटाने वाला, शोथ रोग और रक्तपित्त का नाशक है। .. · इस प्रकार कपोत शब्द का वाच्य प्लक्ष वृक्ष दाह और पित्त का नाशक है अतएव सम्भव है उसका उपयोग किया गया हो। रहा शरीर शब्द, सो फल, वृक्ष रूप शरीर का एक अवयव होता है और लक्षणा वृत्ति से उसका अर्थ ठीक बैठ जाता है ॥३६॥ पाठान्तर से कपोत का तीसरा अर्थ अथवा इस पाठ में पहले कावोई शब्द होगा जो 'कवोय' ऐसा सुना गया होगा । ह्रस्व 'क' और 'ई' की जगह 'य' प्रमाद से हो गया होगा, क्योंकि इनके उच्चारण स्थान एक ही हैं ।। ३७ ॥ . शरीर शब्द का प्रयोग शक्ति से ही युक्त हो जाए, ऐसा कोई प्रकार यदि हो सकता है तो बताइए? ऐसी आशंका होने पर दूसरा प्रकार दिखाते हैं। पुस्तक रूप में लिपिबद्ध होने से पहले सूत्रों में अति-अनु. श्रुति की परम्परा थी। गुरु अपने शिष्य को सूत्र सुनाता था और वह शिष्य फिर अपने शिष्य को सुनाता था। इस प्रकार कानों कान सुनने की परम्परा होने पर देश के भेद से उच्चारण में और श्रुति में भेद होना सम्भव है। वर्तमान काल में भी यह बात देखी जाती है। अतः अति अनुश्रुति की परम्परा के समय 'काबोई शब्द 'कवोय' ऐसा सुना गया। शास्त्रों के लिखने की प्रणाली महावीर स्वामी के निर्वाण से ९८० वर्ष व्यतीत हो जाने पर आरंभ हुई थी। उससे पहले और उसके पश्चात् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwrrrrrrrrrrrrrrr त्वेन श्रतिमागतः-श्रवणपथं प्राप्तः। लेखनप्रवृत्तिस्तु महावीरस्वामिनिर्वाणसमयादशीत्यधिकनवशतवर्षेषु व्यतीतेषु जाता। ततः पूर्व पश्चादपि चानेके शब्दाः पाठान्तरतां गता दृश्यन्त तद्वदयमपि कावोईशब्दः कवोयत्वेन परिणतः स्यादित्यत्र नास्त्याश्चर्यम् । कथमित्याह स्थानसाम्याद्-ईकारस्य यकारस्य च तालुस्थानवत्त्वेन आकारस्याकारस्य च कण्ठस्थानवत्त्वेन साम्यादाकारस्याकारत्वेन, ईकारस्य च यकारत्वेन श्रुतिसंभवः अथवा लेखकानां प्रमादतस्तत्परिवर्तनसंभवः । तथा च 'दुवे काबोईसरीराओ' इति मूलपाठे मन्यमाने शरीरशब्दस्य न लक्षणाश्रयप्रसङ्गः शक्त्यैव निर्वाहसम्भवात् ॥ ३७ ॥ कावाई शब्दस्य स्पष्टार्थःकथ्यतेकापोती द्विविधा श्वेता-कृष्णा चोक्ता वनस्पतौ । लक्षणोत्पत्तिभेदाश्च, तस्यास्तत्र निरूपिताः ॥३८॥ कापोतीति-सुश्रुतसंहितायां कापोतीशब्दस्य प्राचीनकालप्रसिद्धवनस्पत्यर्थकत्वप्रसिद्धम् । तदुपयोगस्तदुत्पत्तिस्थानं तल्लक्षणानि च तत्र विस्तरेणोक्तानि । तथाहि ८२१ पृष्ठे-"श्वेत. कापोती समूलपत्रा भक्षयितव्या गोनस्यजगरी कृष्णकापोतीनां सनखमुष्टिम् खण्डशः कल्पयित्या क्षीरेण विपाच्य परिस्रावितमभिहुतञ्च सकृदेवोपभुञ्जीतम्" । तत्रैव ८२२ पृष्ठे श्वेतकापोतीलक्षणम् "निष्पत्रा कनकाभासा, मूल. द्वयंगुलसंमिता। सर्पाकारा लोहितान्ता, श्वेतकापातिरुच्यते ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना मी अनेक शब्दों में पाठान्तर हो गया देखा जाता है। इसी प्रकार 'कावोई शब्द यदि 'कवोय' बन गया हो तो इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है! मगर ऐसा हुआ क्यों ? इसका समाधान यह है कि उच्चारण: स्थानों की समानता है। ई और य, ये दोनों वर्ण तालु स्थान से बोले जाते हैं, तथा आ और अ ये दोनों स्वर कंठ से बोले जाते हैं। इस प्रकार समानता होने से सम्भव है ई की जगह य सुना गया हो और आ की जगह अ सुना गया हो। अथवा यह भी सम्भव है कि लेखकों की असावधानी से यह परिवर्तन हो गया हो। ऐसी अवस्था में 'दुवे कवोई सरोराओ' ऐसा मूल पाठ मान लिया जाय तो शरीर शब्द का अर्थ घटाने के लिए लक्षणा का आश्रय नहीं करना पड़ेगा, शक्ति से ही अर्थ घट जायगा ॥ ३७॥ ___ काबोई शब्द का स्पष्ट अर्थ काली और सफेद दो प्रकार की कापोती, वनस्पति अर्थ में कही गई है। उसके लक्षण, उत्पत्ति, और भेद भी वहाँ निरूपण किये गये हैं ॥३८॥ सुश्रुतसंहिता से यह बात सिद्ध है कि कापोती शब्द का प्राचीनकाल से वनस्पति अर्थ होता है। उक्त ग्रन्थ में उसका उपयोग, उत्पत्ति स्थान और लक्षण विस्तार के साथ बताये गये हैं। देखिए श्वेतकापीती समूलपत्रा भक्षयितव्या गोनस्यजगरी कृष्णकापोतीनां सनखमुष्टिं खण्डशः कल्पयित्वा क्षीरेण विपाच्य परिपरिनाविर्तामभहुतन्छ सकृदेवोपभुजीतम् ॥" (पूज ८२.) सफेद कापोती का लक्षण बिना पत्ते की, कनक के समान, मूल में दो अंगुल प्रमाण, सांप जैसे आकार की, अन्त में लोहित वर्ण की, सफेद कापोती कहलाती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना - कृष्णकापोतीलक्षणम् - "सक्षीरां रोमशां मृद्दी, रसेनेचुरसोपमाम् । एवं रूपरसाञ्चापि, कृष्णकापोतिमादिशेत् ॥" ८२४-८२५ पृष्ठे तदुत्पत्तिस्थानम् "कौशिकी सरितं तीवा, सञ्जयन्त्यास्तु पूर्वतः । क्षितिप्रदेशो वल्मकि- राचितो योजनत्रयम् । विज्ञेया तत्र कापोती श्वेता वल्मीकमूर्धसु ॥ कापोतीशब्दः श्वेतकापोतीकृष्णकापोतीसाधारणो वर्तते । सामान्यशब्देनोभयमपि ग्रहीतुं शक्यते ॥ ३८ ॥ शरीरशब्दस्य किं प्रयोजनमित्याह शरीरव्यवहारस्तु वृतादावपि विद्यते । तस्याप्यौदारिकायंगत्रयमुक्तं जिनेश्वरैः ॥ ३६॥ शरीरव्यवहार इति-ननु 'दुवे कावोइअो उवक्खडियाश्रो' इत्येवास्तु किं शरीरशब्देनेति चेन्न 'सरीर' इति पाठदर्शनादस्त्येव तस्योपयोगः शरीरशब्दसाहचर्यादेव 'कावोई' इति शब्दस्य वनस्पत्यर्थकत्वं विशेषतः सिद्धयति, कुतः ? कापोतीवनस्पतेर्मूलपत्रसहिताया एवोपयोगो दर्शितः सुश्रुते । समग्रस्योपयोगादेवात्र शरीरशब्दः प्रयुक्तः। पक्षिवाचकत्वे तु तदसंगतिः पूर्व दर्शितैव । वनस्पति शरीरे तु द्वित्वमपि संभवतीति सवै संगतम् । ननु वनस्पतेः शरीरत्वाभिधाने किं शास्त्रीय प्रमोणमिति चेदस्त्येव । सूत्रे जिनेश्वरैवनस्पतिमात्रस्यौदारिकादिशरोरत्रयमस्तीत्युक्तत्वात् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ५७ काली कापोतो का लक्षण दूधवाली, रोमवाली, कोमल गन्ने के रस के समान रस चाली, कृष्ण कापोती कहलाती है। कापोती के उत्पत्तिस्थान कोशिकी नदी को पार करके, सञ्जयन्ती से पूर्व में, बांबियों से व्यास ३ योजन भप्रदेश है। वहां बांबियों के ऊपर सफेद कापोती होती है।। ___ कापोती शब्द सामान्य रूपमे सफ़ेद और काली दोनोंके लिए प्रयुक्त होता है, क्योंकि सामान्य शब्द से दोनों का ग्रहण हो सकता है ॥३८॥ शरीर शब्द का प्रयोजन शरीर शब्दका प्रयोग वृक्ष वगैरहमें भी होता है,क्योंकि जिनेन्द्र भगवान ने उसके भी औदारिक आदि तीन अंग कहे हैं ॥३९॥ शंका-'दुवे काबोईओ उवक्खडियाओ' ऐसा पाठ हो हो, शरीर शब्द की क्या आवश्यकता है ? समाधान-ऐसा न कहिए। शरीर' यह पाठ जो देखा जाता है सो इसको आवश्यकता है ही। 'शरीर शब्द साथ रहने से ही विशेषतया वनस्पति अर्थ में 'कावाई शब्द की सिद्धि होती है। शंका-कैसे ? समाधान-मूल (जड़) और पत्तों के साथ ही कापोती वनस्पति को सुश्रत में उपयोगी बताया है। सारी कापोती का उपयोग होने के कारग ही यहाँ शरीर शब्द का प्रयोग किया है। यदि 'कापोती' शब्द को पक्षी का वाचक माना जाय वह असंगत होगा, यह बात पहले ही बता चुके हैं। वनस्पति के शरीर में 'दो' का व्यवहार भी हो सकता है। इस प्रकार यह सब अर्थ संगत बैठता है। शंका-वनस्पति का शरीर होता है, ऐसा कहने में क्या शास्त्र का प्रमाण है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ रेवती-दान-समालोचना तथा च वृक्षादौ शरीरशब्दव्यवहारो नानुपपन्नः। वैद्यकशास्खेऽपि वनस्पतेः पत्रपुष्पफलादीनामङ्गत्वप्रतिपादनात्कापोतीशब्देन शरीरशब्दसमासः सार्थकः । द्विशब्दप्रयोगोऽपि संगत इति ॥३९॥ ननु कूष्माण्डफलस्यैव पित्तघ्नत्वेन विशेषतः प्रसिद्धत्वात्तदर्थः किमत्र न संभवतीत्यत आह वस्तुतस्त्वत्र कूष्माण्डमर्थः सम्यक् प्रतोयते । यथाश्रुतस्य शब्दस्या-सवाक्याच्छक्यताग्रहात् ॥४॥ वस्तुत इतिः-पारावतप्लक्षकापोतीनां पित्तघ्नत्वे दाहन्नत्वे च सिद्धेऽपि जयपुरस्थलक्ष्मीरामप्रभृतीनां वैद्यानामभिप्रायेणास्मिन रोगे कूष्माण्डफलस्याधिकोपयोगित्वं प्रतिभाति । ततो बलवनिश्चितप्रकारान्तरमुच्यते । वस्तुतस्त्विति-तु शब्दो विशेषार्थकः, पूर्वेभ्योऽयं पक्षः विशिष्टतर इत्यर्थः । अत्र अस्मिन्प्रकरणे, यथाश्रुतस्य वर्तमानपुस्तकेषु यथा दृश्यते श्रूयते वा 'दुवे कवोयसरीराओ' एतद्वाक्यस्थस्य 'कवोयशरीर' ( कपोतशरीर ) शब्दस्य कूष्माण्डं-कूष्माण्डफलमित्यर्थः । सम्यक्निर्दोषत्वादुपयोगित्वाच्च सुष्ठुप्रतीयते-विज्ञायते । ननु कपोतशरीरशब्दस्य कूष्माण्डमित्यर्थो न क्वापि कोषे प्रसिद्ध इति कथं तस्मात्तदर्थप्रतीतिरिति चेत्, कोषं विनाऽपि व्याकरणाप्तवाक्यादितः शक्तिमहस्य न्यायशास्त्रप्रसिद्धत्वात्, तदुक्तं सिद्धान्तमुक्तावल्याम्(कारिकावल्याम् ) ८३ पृष्ठे "शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान-कोषाप्तवाक्याद्दयवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सांनिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ५९ समाधान-हाँ है। जिनेन्द्र भगवान् ने सूत्र में कहा है कि वनस्पति मात्र को औदारिक तैजस कार्मण यह तीन अंग होते हैं। अतएव वृक्ष आदि में शरीर शब्द का प्रयोग करना अनुचित नहीं है। वैद्यक शास्त्र में भी वनस्पति के पत्र पुष्प फल आदि को अंग कहा है, अतएव कापोती शब्द के साथ शरीर शब्द का समास सार्थक है और 'ई' शब्द का प्रयोग भी युक्तियुक्त है ॥३९॥ कूष्माण्ड फल ही पित्त का नाशक विशेष रुप से प्रसिद्ध है, अतः यहां उसी का अर्थ क्यों न लिया जाय ? सो कहते हैं वास्तव में तो यहाँ जैसा शब्द इस समय सुना जाता है, उसका आप्त-वाक्य से तथा शक्ति-ग्रह से कूष्माण्ड अर्थ ही ठीक प्रतीत होता है ॥३०॥ ___ यद्यपि पारावत, प्लक्ष और कापोती, पित्त और दाह के नाशक हैं, फिर भी जयपुर निवासी श्रीलक्ष्मीरामजी आदि बैद्यों की सम्मति के अनुसार इस रोग में कूष्माण्ड फलं ही अधिक उपयोगी प्रतीत होता है। अतः निश्चित रूप से बल-पूर्वक कहते हैं कि इस प्रकरण में, वर्तमानकालीन पुस्तकों में 'दुवे कवोय सरीराओं' ऐसा जो देखा और सुना जाता है, सो इस वाक्य में आये हुए 'कवोयसरीर' (कपोत ) शब्द का कूष्माण्ड (कोला ) अर्थ ही वास्तविक ज्ञात होता है। शंका-कपोत शरीर' शब्द का कमाण्ड अर्थ किसी भी कोष में प्रसिद्ध नहीं है ऐसी हालत में यह अर्थ कैसे हो सकता है ? समाधान-कोष के बिना भी व्याकरण तथा आप्त वाक्य आदि से शक्ति ग्रहण न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध है। सिद्धान्तमुक्तावली (कारि.. कावली ) के पृ• ८३ में कहा है व्याकरण से, उपमान से, कोश से, प्राप्तवाक्य से, व्यवहार से, वाक्यशेष से, विवरण से, तथा सिद्ध पद के सम्बन्ध से शक्ति का ग्रहण होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना 'rmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अत्राप्तवाक्यादेव कूष्माण्डे शक्तिहो जायते । किमाप्तवाक्यमिति चेत्, वृत्तिकाराभिमतद्वितीयपक्षवाक्यमेवाप्तवाक्यम् । तथाहि-"अन्येत्वाहुः-कपोतकः--पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधर्म्यात्ते कपोते--कूष्माण्डे ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतशरीरे, अथवा कपोतशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतशरीरे कूष्माण्डफले एव ।"यद्येतावताऽपि न संतोषस्तर्हि कपोतशरीरवर्णसाधादस्तु कूष्माएफले तस्य लक्षणा । लक्षणाया अपि शब्दवृत्तित्वात तयाप्यर्थप्रतीतिसंभवात् । कूष्माण्डस्य गुणा वैद्यकशास्त्रे प्रसिद्धास्तथाहिसुश्रुतसंहितायाम् ३३५ पृष्ठे "पित्तघ्नं तेषु कूष्माण्डं, बालमध्यं कफावहं । पक्वं लघूष्णं सक्षारं दीपनं बस्तिशोधनम् ॥" कैयदेवनिघण्टौ ११४ पृष्ठे"कृष्माण्डं शीतलं वृष्यं, स्वादुपाकरसं गुरु । हृद्यं रूक्षं सरं स्यन्दि, श्लेष्मलं वातपित्तजित् । कूष्माण्डशाकं गुरुसन्निपातज्वरामशोफानिलदाहहारि ॥' कूष्माण्डशाकस्यापि ज्वरदाहहारित्वादत्र कूष्माण्डयुगलस्य रेवत्या शाकं व्यञ्जनं कृतमित्यर्थः फलति ।। ४० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना यहाँ पर आप्त वाक्य से कूष्माण्ड में शक्ति ग्रह होता है। आप्तवाक्य कौनसा है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि टीकाकार ने द्वितीय पक्ष को बताने वाला जो वाक्य टीका में दिया है, वही आप्तवाक्य है । कहां भी है-“अन्ये त्याहुः-कपोतकः-पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्ण. साधात्ते कपोते-कूष्माण्डे हुस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पति. जीवदेहत्वात् कपोतशरीरे, अथवा कपोतशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतशरीरे-कूष्माण्डफले एव।" ____ यदि इतने से भी संतोष न हो तो कपोत क्षरीर (कबूतर के शरीर) के रंग की समानता के कारण कूष्माण्ड फल में उसकी लक्षणा करनी चाहिए। लक्षणा भी शब्द की एक वृत्ति है और उससे भी अर्थ की प्रतीति होती है । कूष्माण्ड के गुण वैद्यक शास्त्र में प्रसिद्ध हैं । कहा भी है-- उनमें बाल और मध्यम कूष्माण्ड पित्त नाशक, कफ बढ़ाने वाला होता है । पका हुआ कूष्माण्ड लघु, उष्ण है, क्षार सहित दीपन और बस्ति को शुद्ध करता है। -सुश्रुत संहिता पृ० ३३५ कूष्माण्ड शीतल, पौष्टिक, स्वादिष्ट, पाकरस, भारी, रुचिकारक, रूक्ष, दस्तावर, कम्प उत्पन्न करने वाला, कफवर्धक और वातपित्त का नाशक है । कूष्माण्ड का शाक भारी है, सन्निपात ज्वर,आम, सूजन तथा अग्निदाह को मिटाने वाला है। -कैयदेवनिघण्टु १० ११४ इससे यह अर्थ फलित होता है कि कूष्माण्ड का शाक ज्वर और दाह को शान्त करता है अतएव दो कूष्माण्डों का शाक व्यज्जन रेवती ने बनाया था॥४०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ~ ~ मज्जारशब्दार्थ:-- प्रज्ञापनापदे चाये, भगवत्येकविंशतौ । शतके वर्तते शब्दो, मज्जारेति वनस्पतौ ॥४१॥ अपरे वाहुरित्येतन् , मुखेनोक्ता विरालिका । वृत्तिकारेण सेवात्र, मज्जाराख्यवनस्पतिः ॥४२॥ प्रज्ञापनापदे इति-आद्य-प्रथमे प्रज्ञापनापदे-प्रज्ञापनाभिधोपाङ्गसूत्रस्य प्रकरणे च-पुनः । भगवत्येकविंशतौ-भगवतीनामकपञ्चमाङ्गसूत्रस्यैकविंशतितमे शतके मज्जारेति-मजारेत्याकारकः शब्दो वनस्पतौ--वनस्पत्यर्थे वर्तते-विद्यते । तथाहि-"अब्भसहवोयाणहरितगतंडुलेन्जगतणवत्थुलचोरगमज्जारपोइचिल्लिया..'इत्यादि (भग० आगमो० ८०२ पत्रे) तथैव प्रज्ञापना ( पन्नवणा) सूत्रे प्रथमपदे वृक्षाधिकारे "वत्थुलपोरगमज्जारपोइवल्लीयपालक्का..” (पद० १) ___अत्र वृत्तिकारेण स्वमुखेन मज्जारशब्दार्थो नोक्तः। किन्तु द्वितीयपक्षान्तर्गतस्य 'अन्येत्वाहुः-अपरे त्वाहु' रित्येतदवान्तरपक्ष. द्वयस्य मुखेन मज्जारशब्दस्य व्याख्या कृता। 'तथाहि-"अन्येस्वाहुः-मार्जारो-वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं-संस्कृतं मार्जारकृतम्, अपरे त्वाहुः-मार्जारो-विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं-भावितं यत्तत्तथा ।" तत्र प्रथमावान्तरपक्षो मज्जारशब्दस्य वायुविशेषवाचकत्वं व्याख्याति द्वितीयस्तु विरालिकाभिधो चनस्पतिविशेषो मज्जारशब्दार्थ इति कथयति । अत्र या विरा. लिका वृत्तिकारण तन्मुखेनोक्ता सैव विरालिका-विडालिका अत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान- समालोचना ६३ मज्जार शब्द का अर्थ प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में तथा भगवती सूत्र के इक्कीसवें शतक में, मज्जार शब्द वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ॥ ४१ ॥ कोई-कोई यह कहते हैं कि टीकाकारने अपर मुख से जो विरालिका कही है वही मज्जार नामक वनस्पति है ॥ ४२ ॥ प्रज्ञापना नामक उपाङ्ग सूत्र के प्रथम पद में तथा भगवती नामक पाँचवें अंग सूत्र में के इक्कीसवें शतक में 'मजार' शब्द वनस्पति अर्थ में विद्यमान है | आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र के पृष्ठ ८०२ में इस प्रकार पाठ है - "अब्भसहवोयाणहरितगतं दुलेजगतणवत्थुलचोरगमज्जारपोइचिल्लिया” इत्यादि । प्रज्ञापना के प्रथम पद में वृक्ष के प्रकरण में "वत्थुल पोरगमज्जार पोइवल्लीय पालक्का” ऐसा पाठ है । यहाँ टीकाकार ने अपनी ओर से मार्जार शब्द का अर्थ नहीं लिखा है । बल्कि द्वितीय पक्ष के अन्तर्गत 'दूसरे कहते हैं' 'अन्य लोग कहते हैं' इस ढंग से दो अवान्तर पक्षों के मुख से 'मज्जार' शब्द की व्याख्या की है । वह इस प्रकार है " दूसरे कहते हैं कि मार्जार अर्थात् एक प्रकार की वायु उसे शान्त करने के लिए जो किया गया- पकाया गया हो, वह मार्जारकृत ।' कोई कहते हैं कि मार्जार अर्थात् विरालिका नाम की एक वनस्पति, उसके द्वारा जो किया-बनाया गया हो वह 'मार्जारकृत' । यहाँ दो अन्तर्गत पक्ष हैं। पहला पक्ष मार्जार शब्द को वायु-विशेष का वाचक मानता है और दूसरा पक्ष कहता है कि मार्जार का अर्थ विरालिका नामक वनस्पति है । यहाँ पर अन्य मुख से टीकाकार ने जो विरालिका नामक वनस्पति बताई है वही ( विडालिका ) इस प्रकरण में मार्जार शब्द का वाच्य भर्थ है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ रेवती-दान-समालोचना ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm प्रसङ्ग मज्जारशब्दवाच्यत्वेनाभिमता वनस्पतिः तस्याः प्रकृतोपयोगित्वात्तथाहि-शब्दार्थचिन्तामणिचतुर्थभागे ३२२ पृष्ठे-"विडालीस्त्री भूमिकूष्माण्डे ।" वैद्यकशब्दसिन्धौ ८८९ पृष्ठे-विडालिकास्त्री भूमिकूष्माण्डे ।” कैयदेवनिघण्टौ ३९७ पृष्ठे-"४६७ विदारीद्वयम् ( विदारी. क्षीरविदारी च) Ipomen digitata (हिं) विदारीकन्द, बिलाई कंद.. A large perennial creeper . (ब) भूई कूमडा. Tuberous root demul cent ? Nutritive, aphrodisiac and | (म०) भूई कोहला lactagogue J (गु) भोकोलु विदारीक्ष विदारी स्यात्स्वादु कन्दा विदारिका । कूष्माण्डकी कन्दवल्ली वृक्षकन्दा पलाशकः ॥१३६७॥ गजवाजिप्रिया वृष्या वृक्षवल्ली विडालिका ॥ इत्यादि विदारी बृंहणी वृष्या सुस्निग्धा शीतला गुरुः । मधुरा मूत्रला स्वयम् स्तन्यवर्णबलप्रदा ॥१४०१॥ पित्तानिलास्रदाहप्नी जीवनीया रसायनी ॥" इत्यादि ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ रक्तचित्रकक्षुपस्य मज्जारशब्दवाच्यत्वऽपि प्रकृतानुपयोगित्वम्शब्दसिन्धौ हुपे प्रोक्तो, मार्जारो रक्तचित्रके । नास्ति तस्योपयोगित्वं, प्रकृते प्रातिकूल्यतः ॥४३॥ शब्दसिन्धौ इति-वैद्यकशब्दसिन्ध्वाख्यकोषे। मार्जारःप्राकृतमजारशब्दस्य संस्कृतछायारूपमार्जारशब्दः । रक्तचित्रके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना wwwwwwwwwwwwwimmmmmmmmmmmmmm. वही इस प्रसंग में उपयोगी है। शब्दार्थचिन्तामणि, चतुर्थ भाग, पृष्ठ २३२ में कहा है-"विडाली (स्त्री)-भूमिकूष्माण्डे ।" वैद्यक शब्द सिन्धु पृष्ट ८८९ में लिखा है-"विडालिका-(स्त्रीलिंग) भूमिकूष्माण्डे ।" कैयदेव निघण्टु पृष्ट ३९७ में लिखा है ४६७ विदारी द्वयम् ( विदारी, क्षीरविदारी च ) Ibomea digitata (हिन्दी) बिदारीकन्द, बिलाईकन्द A large perennial creeper ___(बंगला) भुईकूमडा Tuberous root demul cent (मराठी) भूई कोहला Nutritive, aphoodisiac & (गुजराती) भोकोलु lactagogue विदारी, इक्षुविदारी, स्वादुकन्दा, विदारिका, कष्मांडकी, कन्दवल्ली, बृक्षकन्दा, पलाशक, गजवाजिप्रिया, वृष्या, वृक्षवल्ली, विडालिका, इत्यादि विदारी के नाम हैं। १३६७। विदारी, वृंहिणी, पौष्टिक, स्निग्ध, शीतल, गुरु, मधुर मूत्र पैदा करने वाली, स्वर को सुन्दर करने वाली, दूध, रूप, और बल को बढ़ाने वाली है। पित्त, वायु तथा दाह नाशक और जीवनी रसायन है। इत्यादि ४१-४२ रक चित्रक नामक छोटे पेड़ को मज्जार शब्द का वाच्य मानना प्रकरण में अनुपयोगी है वैद्यक शब्द सिन्धु नामक कोष में प्राकृत भाषा के मजार शब्द की संस्कृत छाया रूप मार्जार शब्द, रक्तचित्रक नामक छोटे वस के अर्थ में कहा गया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना रक्तचित्रकाभिधे क्षुपे-जघुवृक्ष पोक्तः-कथितः । तथाहि"मार्जार:-पुं, रक्तचित्रकक्षुपे. रा. नि. व. ६ । पूतिसारिकायाम् । वै. निघ. । बिडाले, अम. । खट्टाशे. हे. च. (कः) मयूरे त्रिका ॥" पृ. ७४७. "रक्तचित्रक-पुं. ( Plumbago rosea or coecinea. syn. P. rosea ) रक्तवर्णदण्डपत्रचित्रकक्षुपे। गुणाः-स्थौल्यकरः रुच्यः कुष्ठध्नः रसनियामकः लौहवेधकः रसायनः चित्रकान्तराद्गुणाढ्यश्च । रा. नि. व. ६ ।” पृ. ७८९. प्रकृते-प्रकृतप्रसङ्गे रक्तातिसारपित्तज्वर दाहरोगप्रसङ्गे । तस्य-रक्ताचत्रकापस्य । उपयोगित्वं-उअयोगः । नास्ति-न विद्यते। कुतो नेत्याह-पातिकूल्यतः रोगप्रकृतेः प्रतिलोमत्वाद्रोगत्योष्णस्वभावत्वादस्याप्युग्णस्वभावत्वात् ।। ४३ ॥ कडएशब्दार्थःकडए इति शब्दस्तु, संस्कृतभावितार्थकः । बह्वर्थत्वेन धातूनां, वृत्तिकारेण दर्शितः॥४४॥ कडए इति-कडए इत्यस्य कृतक इति छाया। कृत एव कृतकः । स्वार्थे क प्रत्ययः । टीकाकारेणैव कृतशब्दस्य संस्कृतं भावितमित्यर्थद्वयं निरुक्तम् । करणार्थक-कृधातोः संस्कारभावनार्थकत्वं कथं स्यादित्यत आह वहथत्वेनेति-धातू. नामनेकार्थत्वादिति व्याकरणशास्त्रे प्रसिद्धम् ॥ ४४ ॥ कुक्कुडशब्दार्थ:कुक्कुटः सुनिषण्णाख्ये, शाके शाल्मलिपादपे । कुक्कुटी मातुलुङ्गऽपि, मधुकुक्कुटिका तथा ॥ ४५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना वह इस प्रकार मार्जाः-पु. रक्त चित्रक क्षुपे ए० नि०व० ६ । पूतिसारिकायाम् । वै० निघ । विडाले, अम० । खट्टाशे. हे. च. (कः) मयूरे त्रिका.पृ. ७४४ यहाँ रक्तातिसार, पित्त ज्वर और दाह रोग के प्रसंग में रक्तचित्रक वृक्ष उपयोगी नहीं है। क्योंकि यह रोग की प्रकृति से प्रतिकूल है, अर्थात् रोग का स्वभाव भी उष्ण है और इस वृक्ष का स्वभाव भी उष्ण है ॥ ४३॥ कउए शब्द का अर्थ धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अतएव टीकाकार ने 'कउए' शब्द के संस्कार कियो हुआ और भावित किया हुआ, ऐसे दो अर्थ किये हैं ॥४४॥ कउए' यह प्राकृत भाषा का शब्द है। इसका संस्कृत भाषा में ‘कृतक' रूप होता है। कृत ही कृतक । यहाँ सार्थक में 'क' प्रत्यय हुआ है। टीका झार ने ही कृत शब्द के 'संस्कृत' तथा 'भावित' ये दो मर्य किये हैं। शंका-कृ धातु का अर्थ 'करना है। ऐसी दशा में उससे संस्कार या भावना का अर्थ कैसे ले सकते हैं ? समाधान-प्रत्येक धातु के अनेक अर्थ होते हैं; यह बात व्याकरण शास्त्र में प्रसिद्ध है ॥ ४४ ॥ कुक्कुड शब्द का अर्थ कुक्कुट शब्द का अर्थ सुनिषण्ण नामक शाक-वनस्पति और सेमल का वृक्ष, होता है। कुक्कुटी तथा मधुकुक्कुटिका का अर्थ है मातलिंग (बिजौरा)। टीकाकार के मत से बिजौरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ रेवती-दान-समालोचना वृत्तिकाराशयात्तस्मिन्, कुक्कुटोऽपि प्रवर्तते । स्वस्तिकस्योपयोगेऽपि, माँसशब्दो निरर्थकः ॥४६॥ शाल्मलेः फलवत्त्वे:पि, नात्र तस्योपयुक्तता । मातुलुङ्ग तु सार्थक्य, सर्वथाऽतस्तदाश्रयः ॥४७॥ त्रिभिः कुलकम् । कुक्कुट इति–'कुक्कुडमंसए' इत्यत्रार्षकुक्कुडशब्दस्य संस्कृतच्छाया कुक्कुट इति भवति । कुक्कुटशब्दस्यानेकार्थकत्वेऽपि शाकवृक्षाद्यर्थकत्वमत्रोपयुक्तमिति तदेव दर्शयति । कुक्कुट इति कुक्कुटेत्याकारकः शब्दः सुनिषण्णाख्ये स्वस्तिकाभिधेशाके व्यञ्जनोपयोगिवनस्पतिविशेषे शाल्मलिपादपे-शाल्मलिनामख्याते वृक्षे वर्तते इति शेषः । तथाहि-वैद्यकशब्दसिन्धौ २५९ पृष्ठे । "कुक्कुटः-(कः)। पुं.। सुनिषण्णशाके । भा. पू. १ भ. शाकव.। सुण सुणा रानमाठ इति कोङ्कणे । शाल्मलि वृक्षे।" कैयदेव निघण्टौ १४६ पृष्ठे"१६५ सुनिषण्णाकः (शितिवार) (हिं) शिरीारी, चौपातया Marsilea Quadrifolia A four-leaved aquatic hot- (बं) शुषुनिशाक. (म) करडू herb । (गु.) उटीगण, चतुष्पत्री Cool, diuretic and astrigent_j हरितक.क्षीत, मूत्रल, प्राही । सुनिषण्णः सूचीपत्रश्चतुष्पत्रो वितुनकः । श्रीवारकः सितिवारः स्वस्तिकः कुक्कुटः सितिः॥ . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना के अर्थ में कुक्कुट शब्द का भी प्रयोग होता है। स्वस्तिक (सुनिषण्ण ) यहाँ उपयोगी होता है परन्तु मांस शब्द निरर्थक बनता है। सेमल के वृक्ष में यद्यपि फल होते हैं परन्तु वह इस प्रकरण में उपयोगी नहीं है। हाँ, मातुलिंग (बिजौरा ) सब प्रकार प्रकरण में उपयोगी है अतः उसी अर्थ का आश्रय लेना चाहिए ॥ ४५-४६-४७ ॥ _ 'कुक्कुडमंसए' इस पद में आर्ष कुक्कुड शब्द की संस्कृत छाया कुक्कुट' है। कुक्कुट के अनेक अर्थ होते हैं, लेकिन इस प्रकरण में शाक या वृक्ष अर्थ ही उपयोगी है, अतः उसीको दिखलाते हैं। कुक्कुट शब्द सुनिषण्ण अर्थात् स्वस्तिक नामक व्यंजन उपयोगी शाक के अर्थ में है और उसका दूसरा अर्थ शाल्मलि (सेमल) का वृक्ष भी होता है। वैद्यक शब्द सिन्धु (पृष्ठ २५९ ) में लिखा है "कुक्कुरः (क) पु० । सुनिषण्ण शाके । भा. पू. १ भ. साकव. सुणसुणा रान्नाठ इति कोङ्कणे । शाल्मलि वृक्षे।" कैयदेव निघण्टु पृष्ठ १४६ में लिखा है६५ सुनिषण्णकः (शितिवार) (हिं.) शिरोभारी, चौपातया Marsilea quabifolia (बं.) शुषुनिशाक, A four leaved aquatic bot-herb है (म.) करडू cool, diuretic and astrigent, | (गु.) उटीगण, चतुष्पत्री, हरितक शीत, मूत्रल, ग्राही। ___सुनिषण्णक, सूचीपत्र, चतुष्पत्र, वितुनक, श्रीवारक, सितिवार, स्वस्तिक, कुक्कुट, सिति, शूस्या, थायस, ये सुनिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० रेवती-दान-समालोचना mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmnwurmmmmmmmm.inwww.ima-............... चांगरिपत्रसहशपात्रः शूल्या च वायसः ॥६३३॥" शालिग्रामनिघण्टुभूषणे ८७८ पृष्ठे "सुनिषण्णकनामानिसितिवारः सितिवरः स्वस्तिकः सुनिषण्णकः । श्रीवारकः सूचीपत्रः पर्णाकः कुक्कुटः शिखी ॥ प्रस्य गण: सुनिषरणो लघुर्माही वृष्योग्निकृत्रिदोषहा । मेधारुचिप्रदोदाहज्वरहारी रसायनाः ॥" वैद्यकशब्दसिन्धौ १९२ पृष्ठे__ "शाल्मलिः -पुं. स्त्री। Bombox malabarica. Syn, Selmalica malabarica. स्वनामख्यातमहातरौ। गुणाः __वृष्यो बल्यः स्वादुः शीतः कषायो लघुः स्निग्धः शुक्रश्लेष्मवर्धनश्च । तद्रसगुण एव ग्राही कषायश्च । तत्पुष्पफलमपि तत्समगुणमेव । रा. नि. व. ८। तत्पुष्पं धृतसैन्धवसाधितं. प्रदरघ्नं रसे पाके च मधुरं कषायं गुरु शीतलं ग्राही वातलश्च । भा. पू १ भ. शाकव, । कृमिमेहघ्नं रुक्षमुष्णं पाके कटु लघु वातकफघ्नञ्च । सु. मू. ४६ अ॥" कुक्कुटी:-कुक्कुटीत्याकारकः स्त्रीलिङ्गवाची कुक्कुटशब्द । तथा-एवं मधुकुक्कुटिका-मधुकुक्कुटीत्याकारकः शब्दः । मातुलुङ्गे-मातुलुङ्गापरपर्यायबोजपूरकबृक्षे वर्तत इति शेषः । अपीत्यनेन सुनिषण्णादिग्रहणम् । मधुकुक्कुटिकेत्यत्र मध्विति विशेषणे दूरोकृते कुक्कुटिकेत्यवशिष्यते। कुक्कुटीशब्दस्यैव कप्रत्यये हस्खे च कृते कुक्कुटिका संपद्यते। तथा च तयोः पर्यायत्वं संभShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना rammm.wwwwwwwwwwwww षरण के नाम है. चंगरी के पत्र समान इसके पत्र होते हैं । शालिग्राम निघण्टु भूषण पृ० ८७८ मे लिखा है “सुनिषण्णक के नाम" । सितिवार, सितिवर स्वास्तिक, सुनिषण्णक, श्रीवारक, सूचीपत्र, पर्णाक, कुक्कुट, शिखी ये सुनिषण्णक के नाम हैं। सुनिषण्णक के गुणसुनिषएणक लघु, ग्राही, पौष्टिक, अग्निवधक,त्रिदोषनाशक, मेधा और रुचि को बढाने वाला, दाह ज्वरनाशक, और रसायन है। वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० ९५२ में कहा है "शाल्मलिः-पु० स्त्रो०। Bombax malabarica. syn. Semalica malabarica. स्वनामख्यातमहातरौ । गुणाः ( गुण-) पौष्टिक, बलकारक, स्वादिष्ट, शीत, कसैला, हलका, स्निग्ध, वीर्य और कफ को बढ़ाने वाला है। ग्राही और कसैला उसके रस के ही गुण हैं। उसके फूल और फल के गुण उसी के समान हैं । घी और नमक में साधा हुआ उसका फूल प्रदर को नाश करता है. रस तथा पाक में मधुर, कणय, गरु, शीतल, ग्राही तथा वातकारक है। (भा. पू. १ भ. शाक व.) कृमि तथा प्रमेह का नाशक, रूखा, उष्ण, पाक में कटु, लघु, वात और कफ को हरने वाला है। (सु. मू ४६ अ.) कुक्कुटी, कुक्कुट शब्द का संगवाची शब्द है और इसी प्रकार मधु कुक्कुटिका शब्द बीजपूरक ( बिजौरा) बृक्ष का पर्यायवाची है । 'अपि' शब्द से सुनिषण्ण आदि का ग्रहण किया है। 'मधुकुक्कुटिका' शब्द में से 'मधु' विशेषण हटा दें तो 'कुक्कुटिका' शेष रहता है और कुक्कुटी शब्द से क प्रत्यय करने पर और ह्रस्व करने पर 'कुछ कुटिका' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना वति। तेन मधुकुक्कुटिकावस्कुक्कुटीशब्दस्यापि मातुलुङ्गार्थकत्वं कोषसिद्धमेव । तथाहि-वैद्यकशब्दसिन्धौ "कुक्कुटी-पुं.। कुक्कुभपक्षिणि । तदण्डाकारकन्दे । म। स्त्री । Silk cotton tree. शाल्मलिवृक्षे । रा. नि. व.८। भा. पू. ४ भ. मूत्राष्टकतैले । शितवारके। वा. उ. ५ अ । उत्कटवृक्षे । उच्चटामूले । उच्चटाबहुलिङ्गी स्यात्सैवोक्ता कुक्कुटी क्वचित् ।' रत्ना ॥" ( २५९) पृष्ठे )। "मधुकुक्कुटिका-( टो)-स्त्री. । मातुलुङ्गवृक्षे, जम्बीरभेदे । महुर इति भाषा। गुणाः-'मधुकुक्कुटिका शीता, श्लेष्मलास्यप्रसादनी। रुच्या स्वादुर्गुरुः स्निग्धा, वातपित्तविनाशिनी ॥ राज. ३ प ॥” (७०८ पृष्ठे ) । "मातुलुङ्गः-( कः )। पुं. । ( Citrus medica) छीलङ्गवृक्षे । हि. बिजौरा । गुणाः 'स्यान्मातुलुङ्गः कफवातहन्ता कृर्माणां जउरामयघ्नः । स दूषितरक्तविकारपित्तसन्दीपनः शूलविकारहारी ॥' तत्फलगुणाः-श्वासकासारुचिहरं तृष्णाघ्नं कण्ठशधनम् ।। दीपनं लघुरुच्यञ्च मातुलुङ्गमुदाहृतम् ॥" (पृष्ठ ७४३) सुश्रुतसंहितायां ३२७ पृष्ठे-“बिजौरा श्वासकासारुचिहरं, तृष्णाघ्नं कण्ठशोधन । लघ्वम्लं दीपनं हृद्यं, मातुलुङ्गमुदाहृतम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ७३ शब्द बन जाता है। अतएव वे पर्यायवाची हो सकते हैं। इस कारण जैसे मधुकुक्कुटिका शब्द का अर्थ बिजौरा है उसी प्रकार कुक्कुटी शब्द का अर्थ भी बिजौरा कोष से सिद्ध है। वैद्यक शब्द सिन्धु में कहा है "कुक्कुटो-पु० । ककुभपक्षिणि । तदण्डाकारकन्दे । मं० । स्वी । Silk cotton tree शाल्मलिवृक्षे । रा०नि० ध० ८ । भा० पू० ४ भ० मूत्राष्टकतैले । शितिवारके। वा० उ० ५ अ । उत्कटवृक्षे । उच्चरामूले । ' उच्चटा वहुलिङ्गी स्यात् सैवोक्ता कुक्कुटो क्वचित् ' । रवा ॥" ( पृष्ठ २५९) मधुकुक्कुटिका-(टी)-स्त्री। मातुलिंग वृक्षे, जम्बीरभेदे । 'महुर इति भाषा। गुणाः-मधुकुक्कुटिका शीता, श्लेष्मलास्य-प्रसादनी। रुच्या स्वादुर्गुरुः स्निग्धा, वातपित्तविनाशिनो ॥ राज, ३ प. ॥" (पृष्ठ ७०८) मातुलिङ्ग:-(कः)। पु०। (citrus anedica) छीलंग वृक्ष हि. विजौरा । बिजौरे के गुग बिजौरा कफ और वात को नाश करने वाला, पेट के कीडों का नष्ट करने वाला, दूषित रक्त विकार मिटाने वाला है। मातुलिंग फल के गण इस प्रकार हैश्वास खासी, तथा अचे को नष्ट करने वाला, तृष्णा का नाशक और कण्ठ को शुद्ध करने वाला दपिन, लघु एवं रुचिकारक है। सुश्रत सहिता पृ० ३२७, "विजौरा"मातुलिङ्ग श्वास, खांसी और अरुचि को हस्ने वाला, तृषा बुझाने वाला, कण्ठ शुद्ध करने वाला, लघु खट्टा, दापन तथा रुचिकारक होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ रेवती-दान-समालोचना uvurov : त्वक्तिक्ता दुर्जरा तस्य, वातकृमिकफापहा । स्वादु शीतं गुरु स्निग्ध, मांसमारुतपित्तजित ॥ ननु कुक्कुटीशब्दस्य मातुलुङ्गार्थकत्वेऽपि कुक्कुटशब्दस्य तु तन्न सिद्धमिति चेदा हवृत्तिकाराशयादिति-कोषं बिनाऽऽप्तवाक्यदितोऽपि शक्तिग्रहो भवतीति । दर्शितमेव कुक्कुडशब्देन मातुलुङ्गापरनामबीजपूरकार्थबोध एव वृत्तिकारस्याशयः । तद्यथा 'कुक्कुटमांसक' बीजपूरकम् । ( भग० आगमो० समिति ६९१ पृष्ठे) तथा च तदभिप्रायेण कुक्कुटोऽपि कुक्कुटशब्दोऽपि तस्मिन् मातुलुङ्गार्थे प्रवर्तते शक्त्यैव बोधजनको भवतीत्यर्थः । एवं च 'कुक्कुड' शब्देन त्रिषु बनस्पत्यर्थेषूपस्थितेष्वपि विशेषणात्र कस्योपयोग इति दर्शयति । स्वस्तिकस्येति सुनिषण्णकापरपर्यायशितिवारशाकस्य दाहज्वरहारित्वेनात्रप्रसंगे । उपयोगेऽपि--- उपयुक्तत्वेऽपि मांसशब्दो निरर्थकोऽर्थ शून्यत्वेनानुपपन्नः स्यादिति शेषः फलगर्भस्यैवात्र मांसत्वेन स्वस्तिकस्य तादृशफलवत्त्वाभावात् । शाल्मले:-खनामख्यातमहातरोः फलवत्त्वेऽपि मांसविशिष्टफलसद्भावेऽपि । अत्र-अम्मिन्प्रकरणे तस्य-शाल्मलिफलस्य नोपयुक्तता-नोपयोगो भवति पित्तदाहाद्यनिवारकत्वात् ।। मातुलुङ्तु-बीजपूरकफले मांसात्मक-गर्भसद्भावात्तस्य च पित्तादिदोषनिवारकत्वेन दर्शितत्वात् । सर्वथा-सर्व प्रकारेण सार्थक्यं साफल्यम् । पूर्वोक्तप्रकाराभ्यामस्य विशेषतोपदर्शनार्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना ७५ - इसकी छाल तिक्त और कठिनता से पचने वाली होती है। वह वात, कृमि और कफ को नष्ट करती है। उसका गुदा स्वादु, शीतल, गुरु, स्निग्ध, वायु और पित्त को जीतने वाला है। शंका-कुक्कुटो शब्द का अर्थ बिजौरा हुआ, लेकिन यह सिद्ध नहीं हुआ कि कुक्कुट शब्द का अर्थ भी बिजौरा है। समाधान-कोष के बिना भी आप्त-वाक्य आदि से शब्दार्थ का बोध होता है। यह पहले ही दिखाया जा चुका है कि कुक्कुट शब्द से टीकाकार का आशय बिजौरे से ही है, जिसका दूसरा नाम मातुलुङ्ग भी है। वह इस प्रकार कुक्कुट मांसक-बीजपूरकम् (भग. आगयो.. समिति ६९१ पृष्ठ) इस प्रकार टीकाकार के मत के अनुसार कुक्कुट शब्द भी बीजपूर का वाचक है। यहाँ कुक्कुट शब्द से तीन वनस्पतियों का अर्थ होता है, उनमें से इस प्रकरण में विशेष रूप से जिसकी उपयोगीता है, वह बताते हैं । सुनिषण्णा नामक शितिवार शाक दाह-ज्वर का नाशक होता है: इसलिए वह इस प्रसंग में उपयोगी है, तथापि यदि यह अर्थ लिया जाय तो मांस शब्द व्यर्थ हो जाता है। क्योंकि फल के गूदे को यहाँ मांस शब्द से कहा है मगर शितिवार के फल वैसे (शूदेदार) नहीं होते दुसरा अर्थ शाल्मलि (सेमल) है। सेमल के फल में गूदा भी होता है मगर वह इस प्रकरण में उपयोगी नहीं है क्योंकि वह पित्त-दाह आदि का नाशक नहीं होता। अब रह गया बिजौरा, सो उसके फलों में गूदा भी होता है। और वह पित्त आदि रोगों का निवारग भी करता है,. इस कारण वही सब प्रकार से उपयुक्त है। यही कारण है कि प्रकरग के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती-दान-समालोचना तु शब्दः । अत:---अस्मात्कारणात् तदाश्रयः-मातुलुङ्गरूपतृतीयार्थस्यैवाश्रयः कृतो द्वावौँ विहाय तृतीयोऽर्थः समादृतः प्रकरणानुरोधेनेतिभावः ॥ ४५ । ४६ । ४७ ॥ मांसशब्दार्थो निरूप्योमासशब्दस्य शक्तिस्तु, पिण्डीभूते रसे मता। फलगर्भोऽपि तद्रूपो, दृश्यते प्राणिमांसवत् ॥४८॥ त्वङ्मांसकेसराणां च, लक्षणानि पृथक पृथक् । वाग्भटे वैद्यके ग्रन्थे, दर्शितानि गुणैः सह ॥४६॥ मांसशब्दस्येतिः—'कुक्कुडमंसए' इत्यत्र 'मंसए' इति शब्दस्य छाया मांसकमिति पुल्लिंगस्तु प्राकृतत्वात् । कप्रत्ययः स्वार्थिकः । मांसशब्दस्य पिण्डीभूते रसे रसपिण्डे रक्तजतृतीयधातौ वा शक्तिः प्राणिशरीरे यथा रसपिण्डीभावो भवति तथा वृक्षफलादावपि रसपिण्डीभावो भवत्येवात आह तद्रूपः रसपिण्डरूपः । प्राणिमांसफलगर्भयोः क्वचिदर्णेनापि सादृश्यं दृश्यते । ततो मांसशब्देन फलगर्भोऽपि गृह्यते । तदुक्तं प्रज्ञापनायाम्-"बेटं मंसकडाहं एयाई हवंति एगजीवस्स । वृन्तं समंसकटाहं ति । स मांसं सगिरं तथा कटाहं एतानि त्रीण्येकस्य जीवस्य भवन्ति एकजीवात्मकान्येतानि त्रीणि भवन्तीत्यर्थः । ( पन्नवणा. बाबु. पद. १ पृ. ४०)॥" एवं वाग्भटे (सू. स्था. अ. ६. श्लोक १२९--१३१)मातुलुङ्गस्य त्वङ्मासकेसराणां पृथगुपयोगदर्शनात् पृथगेव गुणानाहत्वक्तिककटुका स्निग्धा मातुलुंगस्य वाताजत् । बृंहणं मधुरं मांसं वातपित्तहर गुरु । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान-समालोचना अनुरोध से कुक्कुट शब्द के तीन वनस्पति- अर्थों में से पूर्वोक्त दो को छोड़ कर तीसरे बिजौरे अर्थ का आश्रय लिया है ॥ ४५-४६-४७ ॥ ७७ मांस शब्द का अर्थ रस का पिण्ड, मांस शब्द का अर्थ है । फल का गर्भ (गूदा गिरी) भी प्राणी के मांस की तरह उसी प्रकार का देखा जाता है ॥ ४८ ॥ वाग्भट्ट नामक वैद्यक ग्रंथ में, त्वचा, मांस, और केसर के लक्षण,. उनके गुणों के साथ, जुदे - जुदे बताये हैं । 'कुक्कुडमंसए' पद में 'मंसए' इम प्राकृत शब्द की संस्कृत छाया 'मांसकम्' होती है | स्वार्थ में 'क' प्रत्यय हुआ है। मांस का अर्थ है रस का पिण्ड अर्थात् रक्त से उत्पन्न होने वालो तीसरी धातु । जैसे प्राणी के शरीर में रस का पिण्ड होता है उसी प्रकार फल वगैरह में भी होता है, इसलिए मांस को रक्त पिण्ड रूप कहा है । कहीं-कहीं प्राणी के मांस और फल के गूदे में रंग की भी समानता देखी जाती है, इसलिए मांस शब्द से फल का गूदा अर्थ भी लिया जाता है । प्रज्ञापन सूत्र में कहा भी है- "बेटं मांसकडाहं इयाई हवंति एगजीवस्य ।” अर्थात् एक जीव के वृन्त, मांस सहित गूदा सहित, और कटाई, ये तीन होते हैं, अर्थात् ये तीनों एक जीव रूप हैं । ( पन्नत्रणा बाबू. पद. १ पृ. ४० > इसी प्रकार वाग्भट्ट में ( देखिये सू. स्था. अ. ६. श्लोक १२९-१३१ ) बिजौरे की त्वचा, मांस और केसर का पृथक-पृथक उपयोग देखा जाने से उनके गुण भी पृथक्-पृथक् कहे हैं · मातुलिंग की छाल तिक्त, कडुवी, स्निग्ध, तथा वातनाशक है । मातुलुंग का गूदा बृंहण, मधुर, वातपित्तनाशक एवं गुरु है । उसकी केशर लघु है, श्वास खांसी, से हुवा रोगों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com -- Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ रेवती-दान-समालोचना लघु तत्केसरं कासश्वासहिध्ममदात्ययान् ॥ प्रास्यशोषानिल श्लेष्मविबन्धछधरोचकान् । गुल्मादराशःशूलानि मन्दाग्नित्वं च नाशयेत् ॥" इत्थं मांसशब्दस्य फलगर्भत्वे सिद्धेऽत्र मातुलुङ्ग-फलस्य गर्भ इति तदर्थः ॥ ४८ । ४९ ॥ प्रथमवाक्यस्य फलितार्थःरेवतोपस्कृतं मह्यं, कूष्माण्डफलयुम्कम् । तन्नग्राह्य सदोषत्वा-दित्याह प्रथम जिनः ॥ ५ ॥ रेवत्येति-रेवतीगाथापल्या मह्यं-मदर्थ, कूष्माण्डफलयुग्मकम्-युग्ममेव युग्मकम्-कूष्माण्डाभिधफलयोर्युग्मकं युगलमित्यर्थः । तत्-कूष्माण्डयुगलव्यञ्जनं न ग्राह्यमित्यर्थः । कुतो नेत्याह-सदोषत्वात्-आधाकर्मादिदोषसहितत्वात् । जिनोवर्तमानशासनपतिः श्रीमहावीरः प्रथम-पूर्व प्रथमवाक्येन सिंहानगारं प्रति इत्याह--इत्थममुना प्रकारेण जगादेत्यर्थः । तथाहि"मम अट्ट दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अट्ठो भग. १५, १, पृ. ६८६" इत्येतत्प्रथमवाक्यस्य समुदायार्थः ॥ ५० ॥ द्वितीयवाक्यस्य फलितार्थ:गर्भो यो मातुलुङ्गस्य, भूमिकूष्माण्डसंस्कृतः । पर्युषितो गृहे तस्या, स्तमानयेत्यवक् ततः॥५१॥ गर्भ इति-मातुलुङ्गस्य-बीजपूरकाभिधफलस्य । गर्भ:मांसं फलान्तर्गतकोमलविभागः । भूमिकूष्माण्डं-विरालिकाकन्दविशेषः । तेन संस्कृतः संस्कार प्रापितः । पर्युषितो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान - समालोचना ७९ की नष्ट करने वाली है । तथा मुख के सुखने को, वात, कफ, कजइ, कजई, वमन, अरुचि, गुल्म, बवासीर शूल और मंदाि को नाश करने वाली है । इस प्रकार मांस का अर्थ फल का गूदा सिद्ध है । अतएव यहाँ " कुक्कुड मंसए" का अर्थ बिजौरे के फल का गूदा है ।। ४८-४९ ।। प्रथम वाक्य का फलितार्थ... पहले भगवान् महावीर ने यह कहा कि रेवती ने मेरे लिए दो को पकाये हैं वे ग्रहण करने नहीं है, क्योंकि वे -सदोष हैं ।। ५० ।। योग्य फल पकाये हैं वे दोनों आदि दोषों से दूषित प्रथम वाक्य में सिंह 9 गाथा पत्नी रेवती ने मेरे लिए दो कूष्माण्ड ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि वे आधाकर्म हैं। वर्तमान शासन के स्वामी श्री महावीर ने अनगार से इस प्रकार कहा था । मूल पाठ इस प्रकार है-मम अट्ठ दुवे कवोयसरी उवक्खडिया तेहिं नो अट्ठो ।” प्रथम वाक्य का यही -समुदित अर्थ है ॥ ५० ॥ द्वितीय वाक्य का फ़लितार्थ विरालिका कन्द के द्वारा जो गर्भ रेवती के घर कल उसके बाद ऐसा कहा ।। ५१ ।। संस्कार किया हुआ, बिजौरे का पकाया गया है उसे ले आओ । रेवती के घर, बीजपुर नामक फल का गर्भ ( फल का मीतरी कम कोमल भाग ) जो विगलिका कन्द द्वारा संस्कार किया गया है और कल पकाया गया है, मौजूद है । उसे ले आओ । प्रथम वाक्य के पश्चात् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० रेवती-दान-समालोचना rva criminaruwaonm गतदिननिष्पादितः । तस्या रेवतीगृहिण्या गृहे विद्यत इति शेषः । तं-बीजपूरकगर्भम् । आनय-त्वमिति शेषः ततः-प्रथमघाक्यान्तरं द्वितीयवाक्येन वीर जिनः सिंहं प्रति इत्यवक-इत्थमवददिति--"अस्थि से अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुड मंसए तमाहराहि" भग० १५; १, पृ० ६८७ इत्येनद् द्वितीयवाक्यस्यायं समुदायार्थ इति ।। ५१ ॥ दोषनिराकरणमाहअस्मिन्नर्थे न काप्यस्त्य-नुपपत्तिर्न दुषणम् । न चागमाविरोधोऽपि, सर्व संगच्छते ततः ॥ ५२ ।। अस्मिन्निति-मांसार्थे 'दुवे सरीरकडए' इत्येतेषां त्रयाणां शब्दानामन्वययोग्यतानुपपत्तिः नरकादिगतिप्राप्तिः स्वर्गाद्यप्राप्तिश्च दूषणं मांसाहारनिषेधकानामागमवाक्यानां विरोधश्च । इत्येवं ये ये दोषा मांसार्थे संभवन्ति तन्मध्यांद्वनस्पत्यर्थे नैकोपि दोषः संभवति । ततस्तदर्थे सर्व संगच्छते सर्वथापि संगतिरस्ति । न, मनागप्यसंगतिरनुपपत्तिर्वास्तीत भावः ।। ५२ ।। उपसंहारः-- मांसार्थपरिहारेण, वनस्पत्यर्थसाधनात् । रेवतीदत्तदानस्य, पूर्णशुद्धिर्विनिश्चिता ॥ ५३॥ मांसार्थपरिहारेणेति-रेवतीदत्तदाने याथातथ्यं परोक्षितुं प्रारब्धेऽस्मिन्निबन्धे पूर्वापरसम्बन्धपूर्वकं शब्दार्थपर्यालोचनायो क्रियमाणायां मांसार्थनिराकरणेन वनस्पत्यर्थसाधनेन च रेवतीदत्तदानं नाशुद्धं किन्तु पूर्णशुद्धमिति सप्रमाणं निश्चितमिति ॥५३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवतो-दान-समालोचना वीर भगवान् ने दूसरा यह वाक्य कहा था। मूल पाठ-"अस्थि से भचे पारियासिए मज्जार कडाए कुक्कुड मंसए तमाहराहि ।" यह दूसरे वाक्य का समुदित अर्थ है ॥ ५१ ॥ इस अर्थ की निदोपता इस अर्थ में न कोई अनुचितता है, न दोष है और न कोई आगम-विरोध ही है। अतः यह अर्थ संगत है ।। ५२॥ मांस अर्थ करने से 'दुवेसरीरकडए' इन तीन शब्दों का परस्पर संबंध का न बनना, नरक आदि गति की प्राप्ति, स्वर्ग आदि सुगति की अप्राप्ति तथा मांसाहार का निषेध करने वाले आगम-वाक्यों से विरोध, आदि जो जो अनेक दोष आते हैं, उनमें से एक भी दोष वनस्पति-अर्थ करने से नहीं रहता। अतः वनस्पति अर्थ ही सर्वथा संगत है। इसमें ज़रा भी असंगति या अनुपपत्ति नहीं है ॥ ५२ ।। मांसार्थ का परित्याग करके, वनस्पति अर्थ की सिद्धि होने में रेवती द्वारा दिये हुए दान की पूर्ण शुद्धता निश्चित होती है ॥ ५३॥ रेवती के द्वारा दिये हुए दान की परीक्षा करने के लिए प्रारंभ किये हुए इस निबंध में, अगला पिछला संबंध देखते हुए शब्दार्थ का विचार करने से, मांसार्थ का निराकरण करके वनस्पति-अर्थ की सिद्धि होने से यह सप्रमाण निश्चित है कि रेवती के द्वारा दिया हुआ दान अशुद्ध नहीं बल्कि पूर्ण शुद्ध था ॥ ५३ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ रेवती-दान-समालोचना ...कथं निश्चितभित्याह आगमोद्धारसंस्थायाः, मिलितानां सभासदाम् । परस्परमविशेण, जातोऽयमनिश्चयः ॥ ५४॥ . आगमोद्धारसंस्थाया इति—श्री अजमेराख्यपत्तने साधुसम्मेलनप्रसङ्ग शास्त्रपर्यालोचनकृते स्थापिता याऽऽगमोद्धारसमितिस्तस्याः सभासदः प्रतिनिधियो गण्युपाध्याययुवाचार्यपूज्यअमोलखऋषिप्रतियः । ये संप्रति जयपुरपत्तने विराजन्ते शास्त्रपर्यालोचनार्थ मिलितानां तेषां परस्परविमर्शण-परस्परं विहितशास्त्रपर्या लोचनेन अयं-प्रकृतनिबन्धगतार्थनिर्णयः कृतः साधित इत्यर्थः ॥ ५४॥ प्रशस्तिः खनिध्यंकटरावर्षे, माघशुक्लाष्टमीतिथौ । भौमे भारतविख्याते, जयपुराख्यपत्तने ॥ ५५ ॥ पूज्यगुलाबचन्द्रा यम्बुजपरागसेविना । .. रत्नेन्दुना निबन्धोऽयं, निर्मितो मुक्तयेऽस्तु नः॥ ५६ ॥ . खनिध्यंकघरावर्षे इति-खं शून्यं निधिर्नव अङ्को नव धरा चैका। अङ्कानां वामतो गतिरिति १९९० मिते वर्षे-विक्रमाब्दे मावमासशुक्लपक्षस्याष्टमीतिथौ भौमे मंगलवासरे भारतवर्षप्रसिद्ध जयपुराख्ये पत्तने लिम्बडीसम्प्रदायस्याचार्यवरस्य पूज्यश्रीगुलाबचन्द्रजित्स्वामिनश्चरणकमलरजःसेवकेन रलचन्द्रमुनिना विरचितोऽयं निबन्धो नोऽस्माकं सर्वेषां च मुक्तये कल्याणायास्तु भवत्विति लेखकभावना ।। ५५-५६ ॥ नभोऽङ्कनिधिभूवर्षे, माघकृष्णदलेशनौ । पञ्चम्य मृजुटीकेयं, स्वोपज्ञं पूर्णतां गता ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवती - दान- समालोचना किस प्रकार निश्चित हुवा, सो कहते हैंआगमोद्धार समिति के एकत्रित हुए सभासदों के परस्पर विचार से यह अर्थ निश्चित हुआ है ॥ ५४ ॥ ८३ शास्त्रों की पर्यालोचना थी । उसके सभासद श्री काशीरामजी युवा अजमेर नगर में साधुसम्मेलन के अवसर पर करने के लिए आगमोद्धार समिति स्थापित हुई श्री उदयचंदजी गणी, श्री आत्मारामजी उपाध्याय, चार्य, पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी, आदि जो कि इस समय जयपुर नगर में विराजमान हैं, परस्पर मिले और उन्होंने शास्त्र की पर्यालोचना द्वारा यह निर्णय किया है ॥ ५४ ॥ ० ९ ९ १ विक्रम् सम्बत् ख निधि अंक धरा (१९९० ) की माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्ठमी, मंगलवार के दिन, भारतवर्ष के प्रसिद्ध जयपुर नगर में, सेवक रत्नचन्द्र मुनि ने यह निबंध रचा । यह निबंध हमें और समस्त प्राणियों को कल्याणकारी हो, यह लेखक की भावना है ।। ५५५६ ।। टीकाकार को प्रशस्ति संवत १६६० में के माघ कृष्ण पंचमी के दिन यह स्वोयज्ञ सरल टीका पूर्ण हुई ॥ १ ॥ * अंकों की वाम गति होती है, अतः • ९ ९ १ को उलटने से १९९० हो जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Deeeeeeee @nararana.renorcarena है बिजली से चलनेवाला अजमेर में बहुत बड़ा प्रेस खुल गया ? आदर्शप्रेस,अजमेर ( उमदा काम, समय की पाबन्दी और मुनासिब रेट , हमारो खास विशेषताएँ हैं। संस्कृत, हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी का सब तरह का काम हमारे, यहाँ बहुत सुन्दरता से किया जाता है। प्रूफ-संशोधन का भी प्रबंध है, कागज़ का स्टॉक भी रहता है। किताबों व पत्र पत्रिकाओं के छापने का खास प्रबन्ध है।। > जैनी भाइयों से प्रार्थना है कि वे अपनी छपाई का सब काम अपने इस जैन प्रेस में ही भेजने की कृपा करें। निवेदक-जीतमल लूणिया, सञ्चालक-आदर्श प्रेस. पता-आदर्श प्रेस, अजमेर. ___ (केसरगंज डाकखाने के पास) COM คงจะระกะระกะจะจะ प्रादर्श पुस्तक भण्डार आदर्श प्रेस के मकान में ही यह पुस्तक भण्डार खुला है। हिन्दुस्थान भर में मिलनेवाली सब प्रकार की हिन्दी की उत्तमोत्तम पुस्तकें हमारे यहाँ मिलती हैं। सस्ता-साहित्य मण्डल के राजपूताना प्रान्त के हम सोल एजन्ट हैं। अश्लील या मनुष्य-जीवन को गिरानेवाली पुस्तकें हम नहीं बेचते। बड़ा सूचीपत्र मुफ्त मॅगाइए। पता-आदर्श पुस्तक-भण्डार, केसरगञ्ज, अजमेर. । rernanna. wasapurna Veen Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवतीदान समालोचना की प्रत्यालोचना (ले०-शतावधानी पंडित मुनिश्री रत्नचन्द्रजी महाराज) [ जैन प्रकाश के उत्थान महावीरांक में शतावधानी पं०. मुनिश्री रत्नचन्दजी म. ने रेवतीदान समालोचना नामक निबंध संस्कृत में प्रकाशित कराया था। उसकी आलोचना पं. अजितकुमारजी ने जैन मित्र में की थी। जिसका यह उत्तर है। अच्छा होता कि यह उत्तर जैनमित्र में ही छपता जिससे जैनमित्र के पाठक दोनों तरफ की बातों को समझ सकते । परन्तु खेद है कि, यह लेख जेनमित्र के पास भेजा भी गया, लेकिन जैनमित्र ने इसके छापने की उदारता नहीं दिखलाई। जेनमिंत्र को अपनी इस जिम्मेदारीका ख्याल अवश्य रखना था। खेर! इससे तो मुनिश्री के लेखका महत्वही बढता है। यह लेख और पत्रों में भी प्रकाशित हुआ है परन्तु इसका मूल लेख जैन प्रकाश में ही छपा था इस लिये यह लेख भी यहां दिया जाता है । सं. ] ___दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर से प्रकाशित होने वाले "जैन मित्र" नाम के साप्ताहिक पत्र में ता० १ अगस्त वर्ष १६ के अंक ४१ में दिगम्बर सम्प्रदाय के पण्डित श्री अजितकुमारजी शास्त्री ने "रेवतीदान समालोचना" नामक संस्कृत के निबन्ध की समालोचना करते हुये प्रकृत निबंध के उद्देश्य की मर्यादा को उल्लंघन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८६ । कर श्वेताम्बर दिगम्बर की साम्प्रदायिक चर्चा में उतर गये हैं। प्रकृत निबंध का उद्देश्य तो केवल यह है कि रेवती गाथापत्नीने सिंह अणगार को दान दिया है; वह शुद्ध है, किंवा अशुद्ध ? कपोत, मार्जार, कुक्कुट, मांस आदि शब्दों का यहां पर वास्तविक अर्थ पक्षो है या वनस्पति ? महावीर स्वामी ने मांसाहार किया या नहीं ? इत्यादि आक्षेप अनेकों की ओर से हो रहे हैं। उनका समाधान करने के लिये ही उक्त निबंध की योजना की गई है। इसी लिये इस निबंध का नाम "रेवतीदान समालोचना" रक्खा गया है, न कि गोशालक कथा समालोचना । पंडितजी ने उपर्युक्त ध्येय के ऊपर यदि लक्ष दिया होता तो श्वेतांबर दिगम्बर की अप्रासंगिक ( साम्प्रदायिक ) चर्चा में नहीं उतरते। क्योंकि ऐसी चर्चाओं का आज तक अन्त नहीं हुआ। ऐसी चर्चाओं में केवल समय के अपव्यय के अतिरिक्ति कोई लाभ नहीं बल्कि उल्टा अन्दर ही अन्दर विक्षेप बढने के साथ साथ ईर्षा द्वेष की वृद्धि होती है। वर्तमान समय वैमनस्य बढाने का नहीं है, प्रत्युत परस्पर ऐक्य तथा प्रेम बढाने का है। दूसरी बात यह है कि, जिस सम्प्रदाय की समीक्षा या खंडन करना हो तो प्रथम उस सम्प्रदाय की परिभाषा से पूरी २ जानकारी होना अत्यावश्यक है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की समीक्षा व खण्डन श्वेतांबर सम्प्रदाय को परिभाषासे ही हो सकता है, न कि दिगम्बर संप्रदाय की परिभाषा या अन्य दर्शन की परिभाषा से। इसी तरह से दिगंबर संप्रदाय को समीक्षा व खण्डन दिगंबर संप्रदायकी परिभाषा से ही हो सकता है, न कि श्वेतांबर सम्प्रदाय को परिभाषा या अन्य दर्शन की परिभाषा से। समीक्षा करनेवाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८७ ] वा दूसरे की भूल दर्शाने वाले को चाहिये कि, समीक्षा या समालोचना करते समय लेखक के अभिप्राय व उस सम्प्रदाय की परिभाषा से पूरी पूरी जानकारी प्राप्त करे तथा पक्षपात रहित न्याय दृष्टि रक्खे; तब उसमें से एक दूसरे के लिये जानने योग्य कुछ मिल सकता है । अन्यथा नहीं । यदि पंडितजी रेवतीदान समालोचना करने के पहिले श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सूत्रों का पूरे तौर पर अवलोकन कर लेते तो जो आशंकाएं पंडितजी ने उठाई हैं, उनका अपने आप समाधान हो जाता । पंडितजी ने प्रकृत निबंध के विषय में जो अपनी सम्मति तथा उच्च अभिप्राय प्रकट करते हुये ध्येय की सफलता में ९ त्रुटियां लेखवद्ध की हैं। उनमें से एक से पांच नम्बर तक तो ऐसी त्रुटियाँ हैं जो इस निबंध से कोई सम्बन्ध न रखती हुई केवल पारस्परिक सांप्रदायिक विद्वेषवर्द्धन के लिये ही हो सकती हैं और जिन पर पूर्वाचार्यों के बहुत कुछ लिखने पर भी आज तक कोई फल नहीं हुआ । अर्थात् इन विवादास्पद विषयों पर पूर्वाचार्य बहुत कुछ लिख गये हैं तो भी अपने २ मन्तव्यों को छोड़ने के लिये कोई भी तय्यार नहीं ! अतः इन सब का उत्तर ( तय्यार होते हुये भी ) लिखकर व्यर्थ समय का दुरुपयोग करना श्रेष्ठ प्रतीत नहीं होता । यदि पंडितजी आग्रह छोड़ सप्रमाण सिद्ध सत्य के स्वीकार करने में अपनी मनोवृत्ति प्रकट करते हुए आग्रह करेंगे तो हम उनका भी उत्तर देने के लिये प्रस्तुत होंगे । व्यर्थ दोनों सम्प्रदायों के बोच में वैमनस्य का वातावरण पैदा करना हमारा ध्येय नहीं है । इसलिये इस लेख में उन्हीं ६-७ और ८ वें प्रश्न जिनका संबंध " रेवतीदान समालोचना" नाम के निबन्ध से है उन्हीं का उत्तर क्रमशः दिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८८ ] जाता है। छठी आशंका में पंडितजी लिखते हैं कि "सबसे बड़ी आपत्ति इस विषय में यह है कि भगवान महावीर स्वामी ने अपने योग्य भोजन लाने के लिये सिंह साधु को जिस रेवतीगाथा पत्नि के घर भेजा, वह मद्य पीने वाली तथा मांस भक्षण करनेवाली थी। उपासक दशांग सूत्र के आठवें अध्याय के २४०-२४२२४४ वें सूत्र के अनुसार उसका मलिन आचरण इस योग्य सिद्ध नहीं होता कि उसके घर साधारण गृहस्थ-जैन-के खाने योग्य भो आहार मिल सके। उसने जब विष-शस्त्रों द्वारा अपनी १२ सौतों को मार दिया था तथा मद्य, मांस, मधु खान पान में लीन रहती थी। श्रेणिक राजा की वध निषेध की आज्ञा रहने पर भी वह अपने पिता के घर से बछड़े मरवाकर मँगा लिया करती थी। तब उसके घर कबूतर मुर्गे का मांस होना सरल संभव है । यदि वह मांस भक्षग न करती होती तब तो कपोत, कुक्कुट शब्द का अर्थ वनस्पति किसी प्रकार किया भी जाता। मांस लोलुपी के घर सीधे सरल मांस आदि शब्दों का अर्थ वनस्पति रूप करना ठीक नहीं।" इसमें पंडितजी ने सिंह मुनि को दान देनेवाली रेवती को उपासक दशा में वर्णन की हुई रेवती मान ली है। यह पंडितजी की बड़ी भूल है। पंडितजी का कर्तव्य था कि दूसरों की त्रुटि को दिखाने के पहिले रेवती से संबंध रखने वाले दोनों पाठों को भली भाँति विचारते हुये पूर्वापर सम्बन्ध को अच्छी तरह से हृदयंगम कर लेते जिससे कि यह अज्ञानान्धकारावृत न रहता कि दोनों पाठों में आई हुई रेवती एक नहीं बल्कि पृथक २ हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८९ ) परंतु न मालूम पंडितजी ने बिना देखे भाले किस प्रकार ये आशंकायें उपस्थित कर दी । अस्तु । वस्तु स्थिति इस प्रकार है कि उपासक दशा के आठवें अध्याय में जिस रेवती का वर्णन आया है वह, राजगृही की रहने वाली महाशतकजी को पत्नी है। उसका पाठ निम्नलिखित प्रकार से है "तत्थणं रायगिहे महासयए नाम गाहावई परिवसई । तस्स महासयस्स रेवई पामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्था ।" और श्री भगवती सूत्र में जिस रेवती का वर्णन आया है उसका पाठ इस प्रकार है:___ "गच्छहणं तुम सीहा ! मेंढिय गाम नगरं रेयतीए गाहावतिणीए गिहे" (१) उपासक दशा में वर्णिता रेवती राजगृही को रहने वाले महाशतकजी की स्त्री परतन्त्र है और ( २ ) भगवतीजी सूत्र में वर्णन की हुई रेवती मेंढिक ग्रामनामा नगर की रहने वाली स्वतंत्र अर्थात् गृह स्वामिनी है। उपर्युक्त दोनों रेवती पृथक २ ग्रामों की रहने वाली होने के कारण पृथक २ ही हैं। उपासक दशा सूत्र में वर्णन की हुई "रेवती" मांसाहारिणी, क्रूर, हिंसक और अधमिणी है, जिसको पंडितजी भी स्वीकार करते हैं । परन्तु भगवतो सूत्र में वर्णन की हुई रेवती श्री भगवान महावीर स्वामो के चरणों में भक्तिभाव रखने वाली और सिंह अणगार को दान देनेवाली धर्मज्ञ है। उपासक दशा सूत्र में जिस रेवती का वर्णन आया है वह मर कर नरक में गई है और सिंह अणगार को दान देनेवाली जिस रेवती का वर्णन भगवतो सूत्र में आया है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ९० ] वह यहाँ से काल करके स्वर्ग में जानेवाली बताई है । इन दोनों के सूत्र पाठ इस प्रकार से हैं। "तएणं सा रेवइ गाहावइणी अंतोसत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्ट दुहट्ट वसट्टा कालमा से कालंकिच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलूएच्चूए नरए चउरासोई वाससह ठिइएसु नेरइएसुनरइएत्ताए उबवरणा" पहा०८:२७ ।। "तएणं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्व सुद्धणं जाव दाणेणं सोहे अणगारे पडिलाभिए समाणेदेवाउए निबध्धे जहा 'विजयस्स जाव जम्म जीवियफले रेवतीए गाहा वतिणीए।" भग १५-१० इन दोनों पाठों से बाचक वर्ग तथा पण्डितजी अच्छी तरह से समझ गये होंगे कि, उपासक दशा सूत्र में वर्णन की हुई रेवती ने देवता का आयुष्य बांधा और अपना जन्म सफल किया । इससे यह भी आशा की जा सकती है, कि अब पण्डितजी को भी दोनों रेवतियों को पृथक २ समझने के कारण अपनी मोटी आपत्ति दूर करने में देर न लगेगी। आगे पण्डितजो लिखते हैं कि, यदि यह मांस भक्षण न करतो होती तब तो कपोत, कुक्कुट शब्दों का अर्थ बनस्पति रूप किसी प्रकार किया जाता । इस लेख से यह तो भली भांति विदित होता है, कि इन शब्दों का वनस्पति अर्थ होना तो पण्डितजी को भी मान्य है । अब विचारणीय यह है कि, वहां वनस्पति अर्थ है या नहीं। इसका समाधान अधो लिखित है कि देवता का आयुष बांधने वाली भगवती सूत्र ने वर्णन की हुई रेवती मांसाहार करने वाली नहीं, यह तो दो और दो चार जैसी बात है। क्योंकि श्वेताम्बर सिद्धांतों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९१ ] मांसाहार से नरक का आयु बांधना माना है, भगवती सूत्र में वर्णन की हुई रेवती का देवायुष बांधना कथित है अतः उसके घर मांसाहार होना यह किसी प्रकार भी नहीं हो सकता। __ सातवीं आशंका में पण्डितजी लिखते हैं कि परिवासित (बासी) शाक भोजन दूषित एवं अभक्ष बतलाया है इत्यादि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में बाईस अभक्ष्य कहे गये हैं। उन्हों में बासी शाक तथा अन्नादिको किसी ने भी अभक्ष्य नहीं माना, (देखिये दिगम्वरी पंडित दौलतरामजी कृत क्रियाकोष नाम की पुस्तक ) इसमें बाईस अभक्ष्यों के नाम इस प्रकार गिनाए गए हैं। १ ओला, २ घोल बड़ा, ३ निशि भोजन, ४ बहु बीजा, ५ बेंगण, ६ सेंधाणा, ७ बड, ८ पीपल, ९ ऊमर, १० कठुमर, ११ पाकर जो फल होय, १२ अजाण ॥ १२ कन्दमूल, १४ माटो, १५ विष, १६ आमिष, १७ मधु, १८ माखन अरु, १९ मदिरा पान ॥ फल, २० तुच्छ, २१ तुषार, २२ चलितरस, ये जिनमत बाईस बखाण ।। इन बाईस अभक्ष्यों में बासी शाक तथा अन्नादि का कहीं जिक्र नहीं है। यदि चलित रस शब्द से बासी अन्नादि ग्रहण कर लिया जाय तो यह ठीक नहीं । क्योंकि इसका अर्थ यह है कि, जिस वस्तु से वर्णगन्ध रस स्पर्श बदल गये हों यानी सड गया हो वह अभक्ष्य है । चाहे वह रात वासी हो या उसी दिन का बना हुआ क्यों न हो, यह रसविक्रिया ऋतु परत्वेन पृथक २ होती है । ग्रीष्म ऋतु में जो वस्तु एक रात्रि से बिगड जाती है वही शरद ऋतु में दो दिन तक नहीं बिगडती, और वर्षा ऋतु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९२ ] में वही प्रातः काल से शाम तक बिगडे बिना नहीं रहती, इस लिये इसमें समय का नियम नहीं हो सकता । अभक्ष्यता में केवल यह देखना योग्य है कि रस चलित हुआ है या नहीं? यदि रस चलित हो गया है तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों आम्नायों में अभक्ष्य है। यदि रस चलित नहीं हुआ है तो अभक्ष्य नहीं । इस प्रमाण से अब यह भी प्रकट हो गया होगा कि दोनों आम्नाय केवल वासी अन्नादि को अभक्ष्य नहीं ठहराते, प्रत्युत चलित रस वाली वस्तु को अभक्ष्य ठहराते हैं। तो रेवती की बहराई हुई बासी वस्तु चलित रस न होने से आदेय है और उसी का सिंह मुनिने दान लिया है। इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं होता। आठवीं आशंका में पण्डितजी लिखते हैं कि भगवती सूत्र एक गद्यमय है, उसमें पद्यों के समान अक्षर संख्यापूर्ण करने की कोई कठिनाई नहीं थी, जो ग्रन्थकार को कुष्माण्ड, बीजपूरक सरीखे सरल वनस्पति सूचक शब्द छोड़कर कुक्कुट, कपोत सरीखे पक्षी बाचक शब्द लिखने पड़े___इसका उत्तर यह है कि, कितनेक शब्द ऐसे हैं जो कि देशाचार के अनुसार रूढि गत होते हुए भी कितने ही अर्थों के प्रतिपादक होते हैं। जैसे कि “सूआ" शब्द शुकपक्षी (तोता) के अर्थ में प्रयुक्त होता हुआ भी रूढि की तरह ही सूआ नामक शाक के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। सूआ शाक है जो पालक शाक के साथ प्रायः बनाया जाता है, उसको बेचनेवाले पुकारते हैं कि लो "सूत्रा पालक" उससमय प्राहक शीघ्र ही यह समझ जाते हैं कि सूआ का साग बेचनेवाला पुकारता है । न कि सूत्रा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] (शुक पक्षी) बेचनेवाला। देश काल की विशेषता से कोई २ शब्द अपने अर्थ की मर्यादा से बदल कर अन्यार्थ प्रतिपादक हो जाता है, अर्थात् यदि कोई शब्द किसी देश विशेष में किसी समय पक्षिविशेष वाचक प्रसिद्ध है तो वह ही शब्द किसी अन्य समय में या किसी अन्य देश में वनस्पति विशेष का वाचक होकर प्रसिद्धि पा लेता है। इसी प्रकार बहुत संभव है कि सूत्रकार के, समय में किसी देश में वनस्पति के अर्थ विशेष में अधिक प्रसिद्ध होने के कारण ही इन शब्दों का प्रयोग हुआ हो । और सूत्रकारों के लिये यह भी नियम है कि "सूत्रकारा नियोगपर्यनुयोगानहींअर्थात सूत्रकार से यह पूछने का किसी को अधिकार नहीं है कि, अमुक शब्द की योजना क्यों की और अमुक शब्द की क्यों न की । यह व्याकरण प्रसिद्ध नियम सब सूत्रकारों के साथ लागू है। इसलिए इस विषय में तर्क करना अति तर्क है यानि तक की मर्यादा से बाहिर है । अपना कर्तव्य तो यह है कि जिस शब्द का प्रयोग किया है वह प्रमाण पूर्वक उचित अर्थ में घटता है या नहीं ? इस बात पर विचार करना। पंडितजीने यह भी प्रकट किया है कि भगवती सूत्र के इन शब्दों का सीधा सरल अर्थ बदलना ठीक नहीं, जब की वृत्तिकार श्री अभय देव सूरि भी एक पक्ष में उनका अर्थ पक्षी वाचक भी करते हैं-इसका उत्तर यह कि, वृत्तिकार श्री अभय देव सूरीने उक्त शब्दों का अर्थ पक्षो वाचक किया ही नहीं। यह उत्तर रेवतीदान समालोचना ३१ वां और ३२ वां श्लोक उनकी टीका से स्पष्ट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९४ ] मालूम हो जायगा और वृत्ति के आशय सममने में भी किसी प्रकार की अडचन प्रतीत न होगी। समालोचना के दूसरे पैराग्राफ में पंडितजो ने लिखा है कि "किन्तु उसके घर मार्जार के लिये जो वासी (रातभर रक्खा हुआ) कुक्कुट मांस है इत्यादि ।" ___इसमें मार्जार के लिए यह चतुर्थी विभक्तिका अर्थ पंडितजी ने कहां से लिया । रेवतीदान समालोचना में तो कहां भी मार्जार के लिए वासी रक्खा हुआ ऐसा अर्थ नहीं किया ! इस प्रकार स्वयम मनः कल्पित अर्थ लिखने की पंडितजी के लिए क्या आवश्यकता प्रतीत हुई ? वास्तव में तो टीका में ही बताया गया है कि, यह शब्दार्थ मात्र है भावार्थ आगे सष्ट होगा। यदि पंडितजी को समालोचना ही करना थी तो प्रथम निबन्ध में लिखा हुआ उक्तः का निश्चित भावार्थ देखने के पश्चात् समालोचना करना चाहिये था । अपूर्ण समालोचना करके उक्त वाक्य का विपरीत अर्थ कर पाठकों को शंकाशोल बनाने का प्रयत्न नहीं करना था । मार्जार और कडए इन शब्दों का अर्थ रेवतीदान समालोचना के ब्यालीसवें और तेतालीसवें श्लोक में स्पष्ट दिखला दिया गया है । पाठक वर्ग तथा पंडितजी उस अर्थ को वहां से देख ले और उसी के अनुसार चतुर्थी समास के स्थान पर यदि तृतीया तत्पुरुष अर्थानुसन्धान करे तो श्रेष्ट है। ( 'जैन प्रकाश' से उद्धत) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन गुरुकुल ब्यावर का निवेदन यदि आप व्यवहारिक, धार्मिक एवं औद्योगिक शिक्षा के द्वारा अपने पुत्र को सशक्त, धर्म प्रेमी एवं स्वाश्रयी बनाना चाहते हैं तो अपने बच्चों को गुरुकुल में भेजिये प्रवेश की योग्यता-हिन्दी ३ या गुजराती ४ किताब पढ़े हुए, ८ से ११ वर्ष की उम्र तक के, निरोग, बुद्धिमान बच्चे किसी प्रान्त या जाति के हों वे गुरुकुल में ७ वर्ष के लिए प्रविष्ट हो सकेंगे । मासिक रु. १०), ७), ५) यथाशक्ति भोजन खर्च देकर या फ्री भर्ती करा सकेंगे। शिक्षण क्या २ मिलेगा ? भाषा ज्ञान-हिंदी, गुजराती, इंग्लिश, संस्कृत, प्राकृतादि । बौद्धिक कला-सम्पादन कला, वक्तत्व, व्यापारिक शिक्षा,संगीतादि। औद्योगिक-सिलाई, छापाखाना, बाइन्डिग, होजियरी आदि । श्रापका कर्तव्य गुरुकुल को हर प्रकार सहायता देना, मकान बनवा देना, स्थायी कोष बढ़ावा, अमुक मितियों का खर्च देना, और अपने बच्चों को गुरुकुल में मेजना आपका कर्तव्य हैं। यदि आपकी सर्व प्रकार से सहानुभूति व सहायता होती रही तो थोड़े अर्से में ही जैन-गुरुकुल, ब्यावर जैन विद्यापीठ बन सकेगा। पत्र-व्यवहार का पताः मंत्री, जैन-गुरुकुल, ब्यावर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षादायी सुन्दर सस्ती ___.. और उपयोगी पुस्तकें । 10- १-जैन शिक्षा-भाग 1 -) | १८-मोक्ष की कुञ्जी २ भाग)। २-जैन शिक्षा-भाग २ ) १९-आत्माबोध भाग १-२.३ ।) ३-जैन शिक्षा-भाग ३ =) २०-आत्मबोध भाग २-३ =) ४-जैन शिक्षा-भाग ४ (सचित्र) | २१-काव्य विलास ॥ २२-परमात्म प्रकाश ५-जैन शिक्षा-भाग ५ ।) २३-भाव अनुपूर्वि ६-बालगीत २४-मोक्ष नी कुंची बेभाग 1) ७-आदर्श जैन २५-सामायिकप्रति प्रश्नोत्तर) ८-आदर्श साधु २६- तत्वार्थाधिगभसूत्रम् =) ९–विद्यार्थी व युवकों से २७-आत्मसिद्धि ) १०-विद्यार्थी की भावना -) २८-आत्मसिद्धि और सम्यक्तव)। ११-सुखी कैसे बनें ? २०-धर्मों में भिन्नता ॥ १२-धन का दुरुपयोग ॥ ३०-जैनधर्म पर अन्य धर्मों का १३- रेशम व चर्बी के वस्त्र ) प्रभाव १४-पशुबध कैसे रुके ? ॥ | ३१-समकित के चिह्न १ भाग)। १५-आत्म-जागृति-भावना ।) ३२-समकित के चिह्न २ भाग)॥ १६- समकित स्वरूप भावना ) ३३-सम्यकत्त्व के आठ अंग .) १७-मोक्ष की कुञ्जी १ भाग ३) ३४-महावीर और कृष्ण ) व्यवस्थापक:आत्म-जागृति-कार्यालय, ठि. जैन-गुरुकुल, ब्यावर. नथमल लूणिया द्वारा आदर्श प्रेस (कैसरगंज डाक बाने के पास ) अजमेर में छपी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 15 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com