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रेवतो-दान-समालोचना
वीर भगवान् ने दूसरा यह वाक्य कहा था। मूल पाठ-"अस्थि से भचे पारियासिए मज्जार कडाए कुक्कुड मंसए तमाहराहि ।" यह दूसरे वाक्य का समुदित अर्थ है ॥ ५१ ॥
इस अर्थ की निदोपता
इस अर्थ में न कोई अनुचितता है, न दोष है और न कोई आगम-विरोध ही है। अतः यह अर्थ संगत है ।। ५२॥
मांस अर्थ करने से 'दुवेसरीरकडए' इन तीन शब्दों का परस्पर संबंध का न बनना, नरक आदि गति की प्राप्ति, स्वर्ग आदि सुगति की अप्राप्ति तथा मांसाहार का निषेध करने वाले आगम-वाक्यों से विरोध, आदि जो जो अनेक दोष आते हैं, उनमें से एक भी दोष वनस्पति-अर्थ करने से नहीं रहता। अतः वनस्पति अर्थ ही सर्वथा संगत है। इसमें ज़रा भी असंगति या अनुपपत्ति नहीं है ॥ ५२ ।।
मांसार्थ का परित्याग करके, वनस्पति अर्थ की सिद्धि होने में रेवती द्वारा दिये हुए दान की पूर्ण शुद्धता निश्चित होती है ॥ ५३॥
रेवती के द्वारा दिये हुए दान की परीक्षा करने के लिए प्रारंभ किये हुए इस निबंध में, अगला पिछला संबंध देखते हुए शब्दार्थ का विचार करने से, मांसार्थ का निराकरण करके वनस्पति-अर्थ की सिद्धि होने से यह सप्रमाण निश्चित है कि रेवती के द्वारा दिया हुआ दान अशुद्ध नहीं
बल्कि पूर्ण शुद्ध था ॥ ५३ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com