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________________ रेवती-दान-समालोचना मांसार्थ होना चाहिए या नहीं, इस प्रकार की पर्यालोचना के बिना यथार्थ अवाय ज्ञान भी नहीं हो सकता। शब्द के समान अर्थ सुना, किन्तु उसका विचार पूर्वक निश्चय नहीं किया, पूर्व पक्ष का ऐसा भाशय निकलता है। इससे प्रतीत होता है कि टीकाकार ने पूर्व पक्ष का आदर नहीं किया। सुना जाने वाला वह अर्थ कौनसा है, यह भी साफ़-साफ़ नहीं बताया है। किन्तु दूसरे पक्ष को विस्तार से स्पष्ट कहा है और वह उत्तर पक्ष के रूप में लिखा है। अतः वहाँ पूर्व पक्ष का खण्डन होने से उत्तर पक्ष की ही विशिष्टता सिद्ध होती है ॥३१॥ _दोनों पक्षों में से दूसरे पक्ष की प्रधानताःटीकाकार ने इस शैलीसे स्वयं ही दूसरे पक्ष की प्रधानता स्वीकार की है और व्यंग रूपसे प्रथम पक्षकी गौणता स्थापितकी है ॥३२॥ पूर्व पक्ष को संक्षिप्त और उत्तर पक्ष को विस्तृत कहने, पूर्व पक्ष में निरादर करने और उत्तर पक्ष का आदर करने, पूर्व पक्ष को बिना किसी हेतु के कहने और उत्तर पक्ष को सहेतुक कहने रूप शैली से, वनस्पति-अर्थ को मानने वाले उत्तर पक्ष की प्रधानता स्वीकार की है और मांसार्थ मानने वाले प्रथम पक्ष की गौणता सिद्ध की है। वह गौणता यद्यपि पंचमी विभक्ति रूप शाद्विक कथन करके नहीं किन्तु अपने मनोभाव रूप हेतु से सिद्ध की है। यदि टीकाकार का आशय प्रथम पक्ष को स्वीकार करने का होता तो वह द्वितीय पक्ष की भाँति प्रथम पक्ष को भी विस्तार से और साथ ही हेतु के साथ स्पष्ट रूप से स्थापित करते। मगर उन्होंने ऐसा नहीं दिखलाया है, इस कारण टीकाकार का आशय विद्वान लोग स्वयं ही समझ सकते हैं। बस, इतना कहना ही पर्याप्त है ॥३२॥ टीकाकार का स्पष्ट आशय और भी इन्हीं टीकाकार (श्री अभयदेव सूरि) ने स्थानाङ्गसूत्र की टीका में अपना आशय फलाहार में स्पष्ट बताया है। इसी कारण भगवती की टीका में वही बात दोहराई नहीं है ॥३३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035225
Book TitleRevati Dan Samalochna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Maharaj
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Vir Mandal
Publication Year1935
Total Pages112
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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