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एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। सभी फिर्के के जैन भगवान् की वाणी को अनेकार्थ युक्त तो मानते ही हैं। फिर इन्हीं शब्दों को एकार्थी मान लेना भगवान् की वाणी का अपमान करना, या अपनी तुच्छता बताना या अपनी हठवादी बुद्धि का प्रदर्शन नहीं है ? . अधिक तो क्या कहें ! एक सीधी-सादी बात है कि, याज्ञिकादि अनेक प्रकार की हिंसा को रोक कर अहिंसा का झण्डा ऊठाने वाले, पकाये हुए मांस में भी समुच्छिम जीवों की उत्पत्ति मनाने वाले, पृथ्वी-वाणी-वनस्पति जैसी जीवनावश्यक बस्तुओं के सचित भक्षण में हिंसा बताने वाले, अप्रतिप्राती आयुष्य वाली देह धारण करने वाले प्रमु महावीर पशु-पक्षी का मांस का भक्षण कर ही कैसे सके ? जैन धर्म का नाम श्रवण करने वाले को विधर्मी भी इसे मंजूर नहीं कर सकता । तो बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि, इन्हीं महावीर के पुत्र दिगम्बर जैन भाइयों को यह कैसे सूझी?
ऐसा भी मान लिया जाय कि, दिगम्बर भाइयों को श्वेताम्बर सूत्रों पर आक्षेप करना था, तो भी क्या आज तक किसी श्वेताम्बरीय साधु या श्रावक की हिंसा की और प्रवृत्ति देखी ? यदि श्वेताम्बरी लोग उक्त शब्दों का पशु-पक्षी अर्थ करते तो वे अवश्य मांसाहारी हुए होते परन्तु ऐसा आज तक देखने में नहीं पाया है।
मुझे सम्पूर्ण विश्वास है कि, दिगम्बर भाई इस रेवती दान समालोचना को पढ़कर अपने मन्तव्य को सुधार लेंगे और श्वेताम्बरीय जैन भाई भी रेवती दान के शब्दों का. परमार्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com