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[ २ ] आज एक प्रमु महावीर के शासन में उन्हीं के तत्त्वज्ञान और फिलोसॉफी को मानने वाले जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानक वासी, तेरह पन्थी श्रादि फिकों में और उसके भी अनेक प्रभेदों में बटे हुए हैं। उन सब जैनों के तीर्थकर ( इष्ट देव), नवकार मन्त्र (इष्ट जाप्य) और तत्वज्ञान में कोई फर्क नहीं है । बिल्कुल एक वाच्यता होते हुए भी क्रिया कांडों की, परम्परा की विभिन्न मान्यताओं को प्रधानता देकर परस्पर में लड़ रहे हैं। पत्तों के लिये हम मूलों को छेद रहे हैं।
दिगम्बर भाई कहें कि, श्वेतम्बरों के महावीर ने मांस खाया और श्वेताम्बर कहें कि, दिगम्बरों ने स्त्री-शूद्रों के अधिकार छीन लिये, ब्राह्मणत्व को अपनाया इत्यादि से महावीर को कलंकित किया। इस प्रकार पारस्परिक विसंवाद से अजैनों को हँसने का,
आपके ईष्टदेव महावीर प्रभु को और जैन श्रागम ग्रंथों ( तत्वज्ञान ) को कलंक देने का मौका मिलता है। अपने आपको विद्वान् मानने वाले, शासन के हितैषी कहलाने वाले, शास्त्र के मर्मज्ञ मानने वाले श्रोप स्वयं ही उन प्रतिस्पर्धि के कुल्हाड़े के हाथे हो जाते हैं।
क्या श्वेतम्बरों का महाबीर और दिगम्बरों का महाबीर भिन्न है ? कर्मफिलॉसोफी और तत्वज्ञान में फर्क है ? कभी नहीं। अधिक से अधिक इतना कह सकते हो कि, हम एक ही पिता के पृथक २ पुत्र हैं। उन्हीं वीर परमात्मा के निर्दिष्ट मोक्षमार्ग को पहुँचने के भिन्न २ मार्ग मात्र हमारे पूर्वज प्राचार्यो ( जो कि, छग्रस्थ ही थे, भले ही हमसे कुछ अधिक बुद्धिमान होंगे) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com