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रेवती-दान-समालोचना
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विचार करने से यह विदित हो जाता है कि टीकाकार का क्या विचार है ? उन्होंने पूर्व पक्ष ( मांसाथ पक्ष ) को कितना स्वीकार किया है? और उत्तर पक्ष (वनस्पति-अर्थ) को उतना ही या उससे अधिक स्वीकार किया है ? कितनी आलोचना करके पूर्व पक्ष के अर्थ का निश्चय किया है और उत्तर पक्ष के विषय में कितनी आलोचना की है ? इस प्रकार सूक्ष्म रीति से विचार करने पर उनका आशय जरूर मालूम हो जाता है। ॥ ३० ॥
पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष की न्यूनाधिकताः
पूर्व पक्ष को संक्षेप में कहा है और कोई हेतु नहीं दिया, अतः पूर्व पक्ष को उन्होंने स्वीकार नहीं किया किन्तु उत्तर पक्ष विस्तार से और स्पष्ट रूप से बताया है ॥ ३० ॥
'श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते' (सुने जाने वाले अर्थ को ही कोई मानते हैं ) इस एक वाक्य के द्वारा ही पूर्व पक्ष का निर्देश कर दिया है। इसमें कोई भी हेतु नहीं दिखाया और न साधक-बाधक प्रमाण ही दिये हैं। इसका कुछ परामर्श भी नहीं किया। बहुत संक्षेप में ही
यह मत दिखा दिया है। 'श्रयमाणमेवार्थ मन्यन्ते' यह वाक्य भी उस पक्ष की विचार शून्यता का दिग्दर्शन कराता है; क्योंकि अर्थ कहीं सुना नहीं जाता-शब्द ही सर्वत्र सुना जाता है । "शब्द सुनने के बाद ईहा-पर्यालोचना (विचार) होता है । ईहा के अनन्तर अवाय होता है और तब अर्थ का निश्चय होता है। मतिज्ञान का यह सामान्य नियम है। मगर यहाँ अर्थ का सुना जाना कहा है सो यह कैसे ठीक हो सकता है ? शब्द और अर्थ सर्वथा मित्र नहीं हैं-कचित् अभिन्न हैं अतः यहाँ अभेद की अपेक्षा से अर्थ का सुना जाना कहा है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो उसमें ईहा नहीं होनी चाहिए । ऐसी हालत में 'मांसार्थ युक्त है या नहीं,
दूसरे शास्त्रों में मांसार्थ के बाधक प्रमाण का सद्भाव है अतः यहाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com