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रेवती - दान - समालोचना
झरनामगोत्र बाँधा मूलपाठ इस प्रकार है: - समणस्स भ० महावीरस्स तिव्यंसि णवहिं जोवेहिं तित्थगरणामगोतं कम्मे णिव्वतिते सेणिएणं.....
"रेवतीएणं सु० ६९१ पृ० ४५५ |
रेवती के द्वारा दिया हुआ पदार्थ यदि प्राणी का मांस होता तो -यह पाठ संगत नहीं होता क्योंकि मांस अशुद्ध द्रव्य है और उसकी अशुद्धता अभी बतलाई जा चुकी है । दूसरी बात यह है कि यदि रेवती ने प्राणी-मांस दिया होता तो देवायु का बन्ध और तीर्थङ्करनाम - गोत्र कर्म का बन्ध भी न होता, क्योंकि स्थानांग आदि सूत्रों में मांसाहार को नरकायु का कारण बताया है । तात्पर्य यह है कि कपोत आदि शब्दों को प्राणी-मांस अर्थ का प्रतिपादक माना जाय तो द्रव्यशुद्धि और देवायु का बंध, यह दोनों बातें नहीं बन सकतीं ॥ २१ ॥
मांस अर्थ मानने पर 'कडए' शब्द का अनन्वय
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संबंध नहीं घटता, क्योंकि
कडए शब्द का 'मांस' के साथ - मार्जार के द्वारा मांस का निष्पादन नहीं किया जाता है। यदि मार्जार के द्वारा छेदा या खाया हुआ, ऐसा 'कडए' शब्द का लाक्षणिक अर्थ लिया जाय तो वाक्यार्थ की असंगति स्पष्ट हो है । ऐसा पदार्थ दान देने योग्य नहीं हो सकता ।। २२-२३ ॥
'मज्जारकडर कुक्कुड मंसए' इस वाक्य में 'मार्जारेण कृतम् (मार्जार के द्वारा किया हुआ) इस प्रकार तृतीया तत्पुरुष समास करने पर मार्जारकृत का अर्थ मार्जार द्वारा निष्पादित होता है । यह अर्थ असंभव
है, क्योंकि मार्जार शस्त्र आदि से सकता । मार्जार के पास शस्त्र होते कि दाँत और डाढ़े आदि ही मार्जार के के मांस को निष्पादन करता एवं भक्षण
कथन और बे सिर पैर का है। क्योंकि ऐसो वस्तु तो दान के योग्य हो
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कुक्कुट मांस का ही नहीं हैं ।
निष्प दन नहीं कर यदि कोई यह कहें शस्त्र हैं और उन्हीं से वह कुक्कुट करता है । सो यह लाक्षणिक