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________________ रेवती-दान-समालोचना ४९ rrrrrrrrrrrrwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmrrrrrn टीकाकार का आशय केवल अनुमान गम्य ही नहीं किन्तु स्थान्तर में स्पष्ट उल्लिखित भी है अर्थात् स्थानाङ्ग नामक तृतीय अङ्ग सूत्र के नवम स्थान की टीका में भगवती टीकाकार अभयदेव सूरि ने ही कुक्कुटमासादि शद्ध फलार्थवाचक हैं, मांसार्थ वाचक नहीं हैं ऐसा अपना आशय स्पष्ट प्रगट किया है। जैसे कि "तू नगर में जा और रेवती नामक गृहपत्नी ने मेरे लिए जो दो कूष्माण्ड (कोला) के फल संस्कार करके तैयार किए हैं-उससे प्रयोजन नहीं है किन्तु उसके घर में दूसरा मार्जार नाम का वायु की निवृत्ति करने वाला कुक्कुट मांसक अर्थात् बिजौराफल का गर्भ है वह ले आ; उससे हमारा प्रयोजन है। (स्थानाङ्गसूत्र-नवम स्थान सू० ६९१,५० ४५६ ४५७) इस कारण से टीकाकार ने भगवती की टीका में फिर यही बात नहीं बतलाई ।' क्योंकि स्थानाङ्ग सूत्र की टीका पहले बनाई गई है और वहाँ पर यही बात स्पष्ट बतलाई गई है अतः यहाँ पर पुनरुक्ति करने में भाई नहीं इस कारण वहाँ से अनुसन्धान करने का टीकाकार का भाशय है ॥ ३३ ॥ उक्त शब्दों के वनस्पति अर्थ की सिद्धिः अब इन शब्दों की वनस्पति अर्थ की वाचकता में स्व-पर शास्त्रों के स्पष्ट प्रमाण दिखलाये जाते हैं ।। ३४ ॥ अथ भब्द का अर्थ है-इसके अनन्तर । अर्थात् म.सार्थ पक्ष का सण्डन करने के अनन्तर प्रकृत शब्द वनस्पति अर्थ के वाचक हैं, यह बात सिद्ध की जाती है। इन शब्दों का वनस्पति अर्थ वैद्यक के सुश्रुत आदि अन्यों में तथा वैद्यक कोष में प्रसिद्ध है। जैन सूत्रों में भी कहीं कहीं यह अर्थ पाया जाता है। अतः पूर्व पक्ष के हिमायतियों के लिए प्रज्ञा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035225
Book TitleRevati Dan Samalochna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Maharaj
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Vir Mandal
Publication Year1935
Total Pages112
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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