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________________ रेवती-दान-समालोचना ३३ पाठ मांसार्थ का समर्थन करने के लिए उपयोग नहीं किये जा सकते, क्योंकि मांसादि का निषेध करने वाले स्थानाङ्ग भगवती निशीथादि आगमपाठों से ये पाठ बाधित हैं। यदि यह कहो कि द्वितीय श्रतस्कन्ध के पाठों के द्वारा ही दूसरे आगमों के पाठ का बाध विनिगमना (एक पक्ष की युक्ति) के अभाव से क्यों न हो, तो यह कथन ठीक नहीं । क्यों. कि आचाराङ्ग द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पाठ स्थविरों ने प्रथम श्रुतस्कन्ध से लेकर उद्धृत किया है और नियुक्तिकार ने उसका बहिरङ्गत्व प्रतिपादन किया है। 'वहिरंग विधि से अन्तरङ्ग विधि बलवान होती है' इस नियम के अनुसार मांसादि बोधक पाठों का बाध होने पर विनिगमना हो जाती है। उन द्वितीय श्रुतस्कन्ध गत पिण्डेषणाध्ययन संलग्न पाठों का होना विचारणीय है । इसलिये वहिरंग उन पाओं का अस्तित्व ही सन्देहास्पद है । वे पाठ स्वयं अस्थिर होते हुए किस प्रकार मांसार्थ साधक हो सकते हैं अर्थात् किसी प्रकार भी नहीं । आगम विरोध बताकर प्रकृत प्रकरण से विरोध दिखाते हैं: इसने-रेवती गाथापत्नी ने-द्रव्य शुद्ध दान से देवायु का बंध किया इतना ही नहीं बल्कि तीर्थङ्करनामगोत्र को भी बाँधा । यदि मांस अर्थ लिया जाय तो यह दोनों बातें नहीं बन सकती हैं॥ २१ ॥ गाथापत्नी रेवती ने सिंह अनगार के लिए जो द्रव्यशुद्ध दान दिया था, उसके प्रभाव से उसने उसी समय देवायु और तीर्थङ्करनाम गोत्र का बन्ध किया। यह उसी प्रकरण में लिखा है। वह पाठ इस प्रकार है-तएणं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं तवस्सिसुद्धणं तिकरणसुद्धणं पडिगाहगसुद्धणं दाणेणं सोहे अणगारे पटिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध।” स्थानागसूत्र में रेवती ने तीर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035225
Book TitleRevati Dan Samalochna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Maharaj
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Vir Mandal
Publication Year1935
Total Pages112
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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