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* ॥णमोत्थुणं समणस्स भगवभो महावीरस्स ॥ * श्री आगमोद्धारक आनन्दसागरसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः * शिव-तिलक-मनोहर गुरामाला प्राचीन चैत्यवंदन स्तुति स्तवन सज्झाय संग्रह
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ॐ स्वर्गीय परम पूज्य तिलकश्रीजी महाराज की विदुषी शिष्या
वयोवृद्ध श्री मनोहरश्रीजी महाराज के सदुपदेश से
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* जैन श्वे. धर्मोत्तेजक महिला मण्डल * पीपली बाजार उपाश्रय, इन्दौर ने प्रकाशित किया
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प्रथमावृत्ति
कीमत १:५०
महा सुदी पूर्णीमा, विक्रम सं. २०२०
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मुद्रकः-शांति प्रिन्टर्स बाघमारिया बगीचे के पीछे इन्दौर-२
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॥णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ गों श्री आगमोद्धारक आनन्दसागरसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः
शिव-तिलक-मनोहर गुरामाला प्राचीन चैत्यवंदन स्तुति स्तवन सज्झाय संग्रहा।
स्वर्गीय परम पूज्य तिलकश्रीजी महाराज की विदुषी शिष्या वयोवृद्ध श्री मनोहरश्रीजी महाराज के सदुपदेश से
जैन श्वे. धर्मोत्तेजक महिला मण्डल पीपलो बाजार उपाश्रय, इन्दौर ने प्रकाशित किया
कीमत
प्रथमावृत्ति । १०००
महाँ सुदी पूर्णीमा विक्रम सं. २०२० ।
१-५०
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मुद्रकः-शांति प्रिन्टर्स बाघमारिया बगीचे के पीछे इन्दौर-२
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-: दो शब्द :प्रिय पाठकों, .
हमारी बहुत दिनों से यह भावना थी कि हिन्दी अक्षर में ऐसी कोई पुस्तक नहीं हैं । जिसमें पुराने आचार्यो की बनाई हुई स्तुति, स्तवन, सज्झाय वगैरा हो । हमारी इस विनंती को स्वीकार कर पूज्य वयोवद्ध साध्वीजी श्री मनोहर श्रीजी महाराज सा. ने हिन्दी अक्षर में “शिव-तिलक-मनोहर गुणमाला” नामक पुस्तक तैयार कर प्रकाशित करवाई है आशा है हिन्दी अक्षर जाननेवाले पाठकगण इससे लाभ उठावेगें। ____ इस पुस्तक के छपाने में पूरी सावधानी बरती गई है, फिर भी दृष्टि दोष से कोई त्रुटि रह गई हो तो पाठकगण सुधारकर पड़े।
. प्रकाशक श्री आगमोद्धारक आनन्दसागर सूरिश्वरजी गुरुभ्योनमः
[राग-जल] श्री श्रानन्दसागर सूरिराया, अहोमहा पुण्य से पाया। अपूर्व ज्ञान को धरते, संशय भवि जीव का हरते ॥ जिन्हों से वादी भी डरते, न कोई सामना करते ॥ आनन्द०॥१॥ आगम की वाचना दीनी, मुनि गण भाव से लीनी। आगमोद्धार को किया, अपूर्व लाभ जिनने लिया ॥२॥ रक्षण महा तीर्थ का किया, अमारी दान को दिया। राजा को बोध भी करते, पाप सभी जीव का हरते ॥३॥ आगम मन्दिर को किया, अक्षय आगम को किया। ऐसे गुरुराज को ध्यावे, नरक तिर्यंच मिट जावे ॥४॥
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ध्यानों में स्वर्ग सिधावे, अचरज इस काल में आवे । वन्दन गुरुदेव को मेरा, कहे त्रैलोक्य शिशु तेरा ॥ ५ ॥
परम पूज्य शिव तिलक गुरुभ्योनमः
[राग-कुमार गाँव में प्रभुजी आवे ] भावे प्रणमुहृदये समरु, गुणवंत गुरुराया। गुरु बिना श्रा जीवन पंथे, नहीं कोई शीतल छाया ॥ गुर्जर रम्य देशे पुनीत भूमिये रामपुरा की हरियाली ॥ रत्न वीरों को खान भरी, जन्मे गुरु शिव पुण्य शाली ॥१॥ भावे प्रणम् ।। संसार लागे खारो, चारित्र लागे प्यारो । करवा सफल अघतारो, करी निश्चय एक धारो । संयम है दिव्य सथवारो ॥२॥ राधनपुर नगरे, आयु बावीस बरसे । दीक्षा का भाव प्रगटाया। शिवश्रीजी गुरु चरणे, जीवन अरप्यो अति चंगे ॥ नाम प्रमाणे गुण विकसावे, शिष्यो भ्रमर बनि आवे । सौरभ जाने दिगन्त प्रसरे, तिलकश्रीजी गुरु होवे ॥३॥ अजब वैरागी, अजोड़ महा ज्ञानी । रत्न त्रैय प्रेम से ध्यावे । विनय भक्ति सुन्दर भावे, गुरु शिव पाट दीपावे ॥४॥ अद्भूत सुखकारी, मुद्रा मनोहारी, जाने शान्ति को करनारी, समताधारी गुरुवर का, वियोग हमको है दुखदायी ॥५॥ दो हजार नव की साले, पोपवदी एकादशी स्वर्ग सिधावे ॥ मनोहर शिव्या प्रशिष्या, मिली गुरु गुण गावे सभी भावे ।
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परम पूज्य मनोहरश्रीजी गुरुभ्यो नमः
मालव देशका मोघा मानवन्ता हो । गुरुराज इन्दौर का हीरत्ना ॥ हो मालव का दिवता ॥ हाँ रे शान्त गुरु राज, इन्दौर का हीरत्ना ॥टेकबांकाखेड़ी की भूमि रसाली, जिहा जन्म्याँ गुरुजी महा पुण्यशाली, धन्य पिताजी लक्ष्मण भाई धन्य माताजी मानकु अरबाई हो० ॥१॥ उन्नीसो गुण पचास की साले । आसोज शुक्ल अष्टमी शुभ गुरु वारे ॥ हो०॥२॥ अनुक्रम यौवन पाम्याँ गुरुजी । धर्म की अति लागनी लागी ॥ हो०३ ॥ सुन्दरबाई महिलाश्रम प्रधानाध्यापि का रहीने । बीस वर्ष धर्म शुभ कार्य करीने
हो०॥४॥ आगमोद्धारका उपदेश सुनी । संसार की असारता जाणी ॥हो०॥५॥राज नगर से गुरुजी बुलाया। इंदौर शहर में प्रवेश कराया ॥हो०॥६॥ मध्यप्रदेश इन्दौर नगरे। उन्नीसो चौरासी की साले ॥हो॥७॥ फागुण सुदी ५ दिने । पन्यास विजय सागरजी हस्ते दीक्षा धारे हो०॥८॥ गुरु तिलक श्रीजी की शिष्या सुहावे । मनोहर श्रीजी गुरु पाठ दीपावे ॥हो०॥९॥ दीक्षा लेकर विचरया देश विदेशे । बुझयो आपने मालव देशे हो०॥१०॥ गुरु मनोहर श्रीजी नाम है आपका । नाम प्रमाणे गुण है आपका हो। ॥११॥ दो हजार बीस की साले । शिष्या प्रशिष्या मिली गुरु गुण गावे ॥हो०॥१२॥
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परम पूज्य स्वर्गीय चारित्र चुडामणी तिलकश्रीजी महाराज की
जय मोहरी
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जन्म सं. १६४९ आसोज सुदि ८ गुरुवार बांकाखेड़ी
★ दीक्षा सं. १६८४ फागुन सुदी ५ गुरुवार इन्दौर ★ LablaskaakoslokaokaoliSNOONGSIMMONSGENGENGINGONGENICONGREDIOGAays
ॐ परम पूज्य विदुषी शिष्या मनोहरश्रीजी महाराज
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मालव देशदीपकःपरम पू. वयोवृद्ध साध्वीजी मनोहरश्रीजी म.की
जीवन ज्योति इच्छा जागी आज फिर, करके यही विचार । मनोहरश्रीजी महाराज का, जीवन लिखू विचार ॥ संयम को ग्रहणकर आपने, किस प्रकार धर्म दीपाया है। भवभीरु महिलाओं को, सच्चे दिल से अपनाया है।
श्री जैन श्वेताम्बर धर्मोतेजक महिला मंडल इन्दौर कि आग्रह भरी विनंती से हम पूज्य गुरुदेव का संक्षेप में जीवन चरित्र लिखने को उत्सुक हुये है:
बाल्यावस्था __पूज्य गुरुदेव का जन्म मध्य-प्रदेश का प्राचीन तीर्थ श्री मक्सीजी के पास वांकाखेड़ी में श्रीमान लक्ष्मणजी संकलेचा अओसवाल की धर्मपत्नी श्रीमती मानकुवरबाइ कि कुक्षी से मिती आसोज सुदी आठम गुरुवार संवत् १९४९ को प्रातःकाल दस बजे जन्म हुआ और नाम मिश्रीबाई रखा गया। माता पिता ने प्रेम पूर्वक लालन पालन किया। पू. गुरूदेव कि दो बड़ी बहिन उनके नाम रूपाबाई और दोलीबाई था, एक भाई थे उनका नाम हजारीमलजी था। इनको छोटी अवस्था में छोड़कर माता पिता स्वर्ग गये फिर इनकी बड़ी बहिन ने इनका रक्षण किया।
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[२]
- तरुण अवस्था धारा नगरी में श्रीमान् कपूरचन्दजी के सुपुत्र हजारीमलजी मडलेचा के साथ ११ वर्ष कि अवस्था में लग्न हुआ, इस समय तक इन्होंने कुछ भी ज्ञान संपादन नहीं किया था। परन्तु छोटी उम्र में ही धर्म का अनुराग था
और सत समागम से धर्म कार्य करते थे। सिर्फ १॥ वर्ष के अल्पकाल में हो १३ वर्ष की उम्र में पति श्रीमान् हजारीमलजी का स्वर्गवास हो गया, इस दुःख कि अवस्था में श्रीमान् गणपतजी वैद्य जो पूज्य गुरुदेव के बहनोई थे
और बहिन रूपाबाई ने इनका संरक्षक किया पैसा होते हुये भी तरुण अवस्था जो संरक्षक न होये तो मनुष्य उल्टे मार्ग पर चढ़ जाते हैं । परन्तु माता तुल्य बहिन ने बहुत दीर्घ दृष्टि सोचकर इन्दौर में दोनों भाई बहिन को अलग मकान लेकर रखा फिर व्यवहारीक शिक्षण सरकारी स्कूल में प्रारम्भ करवाया और दो साल में चौथी क्लास कि परीक्षा दी और सरकारी कन्या पाठशाला नं. १ में मास्टर नी का स्थान प्राप्त किया और आगे व्यवहारिक विद्याभ्यास चालु रखा मिडिल कि परीक्षा से उत्तीर्ण होकर हिन्दी प्रथमा विगेरे कि परीक्षा दी और धार्मिक अभ्यास श्रीमती सौभागवती जड़ावबाई छाजेड़ कि शुभ प्रेरणा से उनके ही पास में पंच प्रतिक्रमण, नवस्मरण, चार प्रकरण, तत्वार्थस्त्र
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[३]
छः कर्म ग्रन्थ, वृहत संग्रहणी, क्षेत्र समास आदि का मूल अर्थ सहित अभ्यास किया। सरकारी स्कूल में १० वर्ष पढ़ाने का कार्य किया उसके पीछे श्रीमती जड़ावबाई ने अपने पति दानवीर सेठ बालचन्दजी छाजेड़ को कहा कि अपने इन्दौर शहर में धार्मिक पढ़ाई कि विशेष आवश्यकता है, इसलिए अपनी तरफ से धार्मिक पाठशाला खोलनी चाहिये जिससे बहिनों और बालीकानों को धार्मिक और व्यवहारिक ज्ञान का दान देना चाहिए । सेठ साहेब ने अपनी पत्नी का वचन स्वीकार किया। अपनी भोजाई सुन्दरबाई के नाम से महिला आश्रम खोला फिर सेठजी ने श्रीमती मिश्रीबाई को सरकारी स्कूल से तबदीली करवा के हेड मिस्ट्रेस कि जगह पर नियुक्त किये । पूज्य गुरुदेव ने अपने बुद्धि बल से ५ मास्टरनी अपने हाथ नीचे रखकर खूब ज्ञान दान दिया और धर्म कि वृद्धि कि, इस पद पर १० वर्ष रहकर श्री जैन श्वेताम्बर धर्मोतेजक महिला मंडल की स्थापना करी और इसी महिला मंडल के नाम लायब्ररी की स्थापना भी करवाई । बहिनों को सद्उपदेश देकर टीप कराई और अष्टापद पर्वत कि रचना करवा के श्री आदिनाथजी के मन्दिर में प्रतिष्ठा कराई और उपाश्रय कि भी विशेषकर जरुरत थी फिर गुरुदेव ने बहिनों से टीप करवाकर ७०००) रु. इक? किये इस वक्त सेठ
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[४] बालचन्दजी ने पिपलीबाजार में सुन्दरबाई महिला श्रम के लिये मकान ले रखा था, परन्तु ५०००) रु. मकान वाले के देने बाकी रहे थे यह बात मालूम होने से बहिनों की टीप में से ५०००) रु. इस शर्त पर दिये के ऊपर हमेशा के लिये हमारा उपाश्रय नीचे आपका स्कूल रहेगा, इस बात को सेठानी सुन्दरबाई विगेरा ने स्वीकार करी जो २०००) रू. टीप के रहे थे उन रुपयों से जीतमलजी छाजेड़ द्वारा नीचे स्कूल लायक ऊपर उपाश्रय लायक मकान सुधराया, नीचे शुभ मूहू त देखकर स्कूल चालु कराया और ऊपर बहिनों का धर्म कार्य करना शुरु हुआ, उपाश्रय का शुभ नाम जैन श्वेताम्बर धर्मोतेजक महिला मंडल रखा, ऐसे अनेक धर्म कार्य संसारी पने में किये व कराये ।
व्रत अंगीकार इसके सिवाय और भी सत समागम से व्रत आदि धर्म कार्य में दिनों दिन वृद्धि होती गई । पहिले प्रात्म शुद्धि के लिये भव आलोयणा ली, नवपदजी अोली, वीस स्थानक की अोली, २४ जिन के कल्याणक, ज्ञान पंचमी, ग्यारस, रोहिणी तप, वर्धमान तप की २५ अोली आदि शुभ व्रत किये बारा व्रत ग्रहण किये इन व्रतों का शक्ति प्रमाणे उजमणा किया।
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[ ५ ]
उपधान में चारित्र भावना
सं. १९७६ में रतलाम में परमोपकारी आगमोद्धारक आचार्य देवेश श्री सागरानंद सूरिश्वरजी म. सा. की अध्यक्षता में बड़े उत्साह पूर्वक उपधान तप किया और माल पहनी, टोली, नवकारसी, पूजा, प्रभावना का अच्छा लाभ लिया आचार्य देवेश कि वैराग्य भरी देशना सुनकर दीक्षा लेने का अभिग्रह धारण किया । तीर्थ यात्रा और संघ भावना
श्री १००८ श्री सिद्धाजलजी कि पंचतीर्थी, केशरीयाजी कि यात्रा तीन बार कि, समेत शिखर, पावापुरी, जेसलमेर, गोडवाड़ पंच तीर्थी आनन्द पूर्वक करके दिल को संतोषित किया इसके बाद करेड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ में एक देहरी लेकर श्री आदिनाथ भगवान की मूर्ति स्थापन कि इसके पीछे एक दिन वीस स्थानक का रास बांचते बांचते संघ भावना हुई, उसी समय श्रभिग्रह लिया कि मांडवगढ़ का छरी पालता चतुविध संघ निकालना । देवगुरु के पसाय से यह मनोरथ थोड़े ही समय में पूर्ण हुए। श्री १००८ आमोद्धारक के पट्टधर परम पूज्य पन्यास विजयसागरजी म. सा., उपाध्याय परम पूज्य क्षमासागरजी म. सा. आदि ठाणा और साध्वी हेमश्रीजी म. प्रबोधश्रीजी म. आदि ठाणा इन्दौर पधारे । प्राचीन मांडवगढ़ तीर्थ की यात्रा का
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[ ६ ]
निमंत्रण किया । संवत् १९८१ पोष शु. ४ को मांडवगढ़ की ओर प्रस्थान किया। संघ में लगभग चार सौ श्रावक श्राविका थे, २५ बैलगाड़ी, प्रभुजी की प्रतिमा, बैंड बाजा, पुलिस विगेरा और भोजन आदि का पूरा प्रबन्ध था । आनन्दपूर्वक संघ तीर्थ स्थान में पहोंचा । १००८ श्री सुपार्श्वनाथजी, शांतिनाथजी प्रभु के दर्शन पूजन, अंगरचना भक्ति भाव करता हुआ संघ तीन दिन ठहरा । आप श्री ने पोष शु. १० मी को परम पूज्य पन्यासजी म. और वि संघ के समक्ष में तीर्थ माल पहनी फिर आनन्दपूर्वक श्री संघ को इन्दौर में लाकर श्रीफल की प्रभावना देकर श्री संघ को विदा किया ।
चतु
श्री भगवती दीक्षा
ऐसा वैराग्यमय जीवन बिताते हुए भाई-बहिन की आज्ञा लेकर श्री आगमोद्धारक आचार्य देवेश के शिष्यरत्न परम पूज्य पन्यासजी विजयसागरजी म. और पूज्य उपाध्याय क्षमासागरजी म. सा. का चौमासा इसी इन्द्रपुरी में ही था । कोई साध्वीजी का परिचय नहीं होने से उनके कहे अनुसार अहमदाबाद पांजरापोल उपाश्रय में परम पू. बाल ब्रह्मचारी शिवश्रीजी म. सा. के शिष्य रत्न परम पू. तिलकश्रीजी म. सा. वहां विराजमान थे । उनको विनंती कि आप मालव देश में पधारो और प्राचीन तीर्थ कि यात्रा
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[७]
करते हुए मेरे को दीक्षा देकर अपनी शिष्या बनाकर कृतार्थ करो। आप श्रीजी ने विनंती स्वीकार करके अपनी शिष्या रत्न परम पू. हेमश्रीजी म. तथा प्रशिष्या तपस्वी तीर्थश्री जी म. तथा बाल ब्रह्मचारी बाल दीक्षित पूज्य रंजनश्रीजी म. आदि ठाणा चार इन्दौर पधारे और फागुन शुदि पंचमी गुरुवार सं० १९८४ में खूब धूमधाम से अट्ठाई महोत्सव करवाकर पू. पन्यास विजयसागरजी म. सा. के अध्यक्षता में परम पू १००८ श्री तिलकश्रीजी म. सा. के शिष्या हुए । चतुर्विध संघ के समक्ष में आप श्रीजी का संसारी नाम मिश्रीबाई का परिवर्तन करके पूज्य गुरुदेव का नाम मनोहरश्रीजी प्रकाशित किया। आप श्रीजी के साथ में श्रीमति मेंदीबाई जो हमेशा साथ में धर्म ध्यान करते थे उन्होंने भी उसी दिन दीक्षा ली।आप श्रीजी के पहले शिष्या हुए नाम गुणश्रीजी रखा और दोनों गुरु :शिष्या को पन्यासजी म. के पास दशवकालिक योग में प्रवेश कराये । यहां इन्दौर में वैशाख शु. ११ सं० १९८५ में बडी दीक्षा गुरु शिष्या की हुई। इसके बाद आपने गुरुदेव के साथ उज्जैन, मक्सी की यात्रा करते हुये महिदपुर पधारे ।
गुरुदेव के चातुमास वि. सं. १९८५ का चौमासा महिदपुर में आपने गुरुदेव के साथ किया, वहाँ पर संस्कृत का अभ्यास चालु
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[८] किया और बहिनो की तिलक पूजा मंडल की स्थापना की। वि. सं. १९८६ का चौमासा राजगढ़ में आपने गुरुदेव के साथ किया और वहां पर दूसरी शिष्या हुई उनका नाम संयमश्रीजी रखा । वि. सं. १९८७ का चौमासा सुरत आपने गुरुदेव के साथ किया। परम पूज्य गच्छाधिपति माणिक्यसागर सुरीश्वरजी के पास उतराध्यान सूत्र के योगवहन किये । संवत १६८८ का चौमासा अहमदाबाद में किया वहां परम पूज्य आगमोद्धारक का चौमासा था। उनकी निश्रा में प्राचारांग का योगवहन किया। आपने पू. गुरुबेन हेमश्रीजी म. सा. प. रंजनश्रीजी म. आदि ठाणा १३ के साथ चौमासा बाद सिद्धगिरीराज पधारे ।
आनन्द पूर्वक नवाणु यात्रा की, आस पास की पंचतीर्थी, भावनगर, घोघा, तलाजा आदि कि यात्रा करते हुए चैत्री पूनम सिद्धगिरी कि की, वहां से विहार करके खंभात, झगडीया तीर्थ की यात्रा करते हुये सुरत अपने गुरुदेव कि निश्रा में पहोंचे । सं० १९८६ का चौमासा सुरत में गुरु महाराज के पास किया और गरुम.के पास दशवकालिक सूत्र बांचा व अर्थ किया । चौमसे में सेठानी सुन्दरबाई विगैरा इन्दौर से
आये और मालवा तरफ विहार करने की विनंती करी । इससे गुरु महाराज कि आज्ञा लेकर चौमासे बाद मालवा तरफ विहार किया । डभोई, छाणी, विगैरा कि यात्रा करते
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[ ] इन्दौर पधारे । सं० १९९० का चौमासा इन्दौर में हुवा
और चौमासा में वर्द्धमान तप का पाया डलवाया । वीस स्थानक तप विगैरा बहीनों को कराया । सुन्दरबाई महिलाश्रम में ९ त्रस्टी बनवाये । वे सज्जन इस संस्था का बराबर व्यवस्था कर रहे हैं । चौमासा संपूर्ण होने पर देवास मक्सीजी, शाजापुर, सारंगपुर होते नलखेडो पधारे । वहां पर अनेक प्रकार से उपदेश देते हुवे श्रावक-श्राविकाओं ने व्रत पच्चखान का अच्छा लाभ लिया । फागण चौमासी करके आगर तरफ पधारे । वहां पर नवपदजी कि ओली 'विगैरे तप का उजमणा कराया। इसके पिछे पिपलोन गांव में गये । वहां ३५ घर के श्रावक-श्राविकाओं को उपदेश देकर व्रत पच्चखाण प्रभु पूजा आदि धर्म कार्य में मजबूत बनाये । इसके बाद आगर श्रीसंघ कि अत्यंत आग्रह भरी चौमासे कि विनंती होने से सं० १९९१ का चौमासा आगर हुवा । चौमासे में धर्म उपदेश देकर अनेक प्रकार के व्रत पच्चखाण वितराग देव की सेवा पूजा में ५०-६० घर को अत्यन्त दृढ़ बनाये । वहां पर फुलकुंवरबाई नाम की श्राविका को गुरुदेव की वैराग भरी वाणी सुनकर चारित्र लेने कि शुभ भावना हुई । चौमासा पूर्ण होने पर बड़ौत, डग, परासली, विगैरा कि यात्रा करी ।
बोल्या गाँव में मंदिर कि प्रतिष्ठा कराई । वहां पिप
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[१०] लोन में मंदिर की प्रतिष्ठा और ध्वजा-दंड-कलश विगैरा चढ़ाने कि विनंती आई । इस अवसर पर प. पू. आचार्य देवेश चन्द्रसागर सूरीधरजी महाराज तथा परम पूज्य देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी महाराज विगैरा १७ ठाणा रतलाम में विराजमान थे । पिपलोन संघ को प्राचार्य महाराज की विनंती करने भेजा और आप श्री पिपलोन पधारे । मंदिरजी कि प्रतिष्ठा उजमणा विगैरा आनंद पूर्वक करवाया । बहिन फुलकुंवरबाई कि दीक्षा हुई नाम फल्गु श्री रखा। तीसरी शिष्या हुई, इसके बाद विहार करते हुवे देवास आये और संघ ने चौमासा कि विनंती कि सं० १९९२ का चौमासा देवास में हुवा । वहां उपदेश सुनाकर श्रावक-श्राविकाओं को व्रत पच्चखान भगवान कि सेवा पूजा में भव्य आतमाओं को जोड़े । चौमासा पूर्ण होने पर इन्दौर पधारे। यहां से गुजरात तरफ विहार कियो । अहमदाबाद में फल्गुश्रीजी को योग बडी दीक्षा दिलवाकर, गुरु महाराज लिमडी होने से आप श्री लिमडी पधारे । सं० १९६३ का चौमासा लिमडी हुवा । चौमासा पूर्ण होने पर साधीयों को चौमासा करने के लिये गिरीराज कि और बिहार किया अनुक्रमे गिरिराज पहोंचकर १३ ठाणा को नवाणु यात्रा का प्रारंभ किया । सं. १९९४ का चौमाया गिरिराज में हुआ वहां साज़ी के मासखमण सोलभत्ता विगैरे तपस्या व प. पू. आगमोद्धारक की देशना आनंद पूर्वक श्रवण
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[११] करी । चौमासा संपूर्ण होने पर गुरु महाराज की सेवा में जाने का निश्चय किया और अहमदाबाद कि ओर विहार किया । सं० १९९५ का चौमासा अहमदाबाद गुरुमहाराज के साथ किया । इन्दौर की श्राविकाओं कि आग्रहभरी विनंती होने से गुरुदेव से आज्ञा ली और परम पूज्य रंजनश्रीजी महाराज ने अपनी शिष्या निपुणाश्री जी तथा प्रवीणश्री जी को भी इन्दौर विहार करने कि अाज्ञा दी । गामानुगाम विहार करते हुए चार ठाणा के साथ इन्दौर पधारे । सं० १९६६ का चौमासा इन्द्रपुरी में हुआ यहां पर साधु महाराज का चौमासा नहीं होने से व्याख्यान आदि का लाभ अच्छा मिला। इसके पश्चात परम पूज्य चन्द्रसागर सूरिश्वरजी महाराज सा० की आज्ञा हुई कि तुम उज्जैन चौमासा करके बहिनों को धर्म कार्य में लगाओ वहां भी साधु महाराज का चौमासा नहीं होने पर सं० १९९७ का चौमासा उज्जैन हुआ और व्याख्यान धर्म कार्य का अच्छा लाभ हुआ इसके पीछे गुरु महाराज की आज्ञा हुई कि गुजरात की ओर विहार करो उज्जैन से विहार करके इंदौर पधारे यहां पर केशवलाल भाई नागदीपुर वाला की पुत्र वधू शान्ता बेन कि बहुत दिन से दीक्षा की भावना थी शुभ अवसर देखकर केशवलाल भाई ने दीक्षा देने कि रजा दी। परम पूज्य पन्यासजी मंगल विजयजी महाराज के
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[१२]
अध्यक्ष में धूमधाम पूर्वक इन्दौर में दीक्षा हई और नाम सुमनश्रीजी रखा गया आप साहेबजी कि चौथी शिष्या योग बड़ी दीक्षा नूतन साध्वी को करवा कर गुरुदेव की आज्ञा प्रमाणे गुजरात कि ओर विहार किया । परन्तु बांसवाडे के संघ का चौमासे का अति ग्रह होने से १६६८ का चौमासा बाँसवाडे में किया वहां अजान पर्गदा होने से सद् उपदेश द्वारा वीतराग देव का धर्म की प्राप्ती करवाई फिर चौमासा पूर्ण होने पर केशरियाजी तीर्थ कि यात्रा करते हुये अहमदाबाद पधारे सं० १९९९ का चौमासा गुरुदेव की निश्रा में किया । चौमासा पूर्ण होने पर गिरी - राज कि तरफ बिहार किया कारण कि परम पूज्य श्रागमोद्धारक आचार्य देवेश श्री श्रागम मन्दिर कि प्रतिष्ठा कराने वाले हैं । इस शुभ अवसर पर पालीताना पधारे वहां इन्दौर से सेठानी सुन्दरबाई देपालपुर से चम्पाबाई देवास से अमृतबाई वैरागी आत्मा प्रतिष्ठा में आये और परम पूज्य श्रामोद्धारक की निश्रा में इन तीनों बहिनों कि दीक्षा हुई
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नुक्रमे नाम सुबोधोजी, चतुरश्रीजी इन्दुश्रीजी दिये । बड़ी दीक्षा योग गिरीराज में हये आप साहेबजी कि सात शिष्या हुये । प्रतिष्ठा आदि आनंद पूर्वक करके गुरुदेव अहमदा बाद थे साहेबजी उनकी निश्रा में आये सं० २००० का चौमासा वह पर हुआ । चौमासा पीछे गुरुम. की आज्ञा
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[१३] लेकर आबुजी, तारंगाजी, कुंभारियाजी, गोडवाढ की पंच तीर्थी करते उदयपुर चितौडगढ कि यात्रा करते हुये मंदसौर प्रतापगढ़ विगैर होते हुये रतलाम आये । इन्दौर श्रीसंघ कि आग्रह भरी विनंति होने पर २००१ का चौमासा वहां किया । अनेक प्रकार का धर्म कार्य करते करवाते चौमासा पर्ण किया । गामानुगाम बिहार करते हुए रतलाम श्रीसंघ की अति आग्रह भरी विनंति स्वीकार करते हये २००२ का चौमासा वहां किया और बहिनों को पूजा आदि का शिक्षण कर तिलक पजामहिला मंडल कि स्थापना कि चौमासे बाद अहमदाबाद तरफ बिहार किया कारण कि पू. तपस्वी तीर्थश्रीजी म. के १००मी ओली का ओच्छव था सं० २००३ का चौमासा अहमदाबाद गुरुदेव की छाया में किया चौमासा बाद गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करके साध्वीयों को नवाणु यात्रा चौमासा आदि कराने के लिये गिरीराज पहोंचे सं. २००४ का चौमासा वहाँ किया वहां पर फल्गु श्रीजी, सुमनश्रीजी और इन्दुश्रीजी आदि के मासखमण सोलभत्ता आदि तप करवाये पीछे खंभात, झगडिया, काबी, गंधार की यात्रा करते हुए सुरत पहोंचे। कारण की वहां परम पूज्य आगमोद्धारक आचार्य देवेश ताम्र आगम मन्दिर कि प्रतिष्ठा कराने वाले थे और आनन्दपूर्वक प्रतिष्ठा महोत्सव धूमधाम से हुआ फिर वहां के
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[१४] श्रीसंघ कि चौमासा कि आग्रह भरी विनंती होने पर और आगमोद्धारक सूरिजी की वांचना का लाभ देखकर संवत् २००५ का चौमासा सुरत में हुआ। चौमासा पूर्ण होने पर गामानुगाम विहार करते गुरुणीजी महाराज अहमदाबाद थे वन्दन करने के लिये वहाँ पधारे । गुरु महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके मालवा की ओर विहार किया। सं. २००६ का चौमासा इन्दौर में किया। चौमासा पश्चात गामानुगाम विहार करते सं. २००७ का चौमासा उज्जैन में हुआ वहां चौमासा में व्याख्यान आदि अनेक धर्म कार्य करते हुये तिलक-मनोहर पूजा महिला मंडल कि स्थापना करवाई । चौमासा पीछे गामानुगाम विहार करते आगर पधारे वहां का मन्दिर जल गया था इसलिये मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिये गांव में १५०००) रु. की टीप करवाई और शिखर बंध मन्दिर का कार्य चालु हुआ । श्रीसंघ की अतीव आग्रह भरी विनंती होने पर सं २००८ का चौमासा आगर में हुआ वहाँ उजमणे विगैरे अनेक धर्म कार्य कराते चौमासा पूर्ण हया । गामानुगाम विहार करता उज्जैन में तत्वज्ञश्री कि दीक्षा सुमनश्रीजी के नाम से हई और ऋजुताश्रीजी कि फल्गुश्रीजी के नाम से हई । इन्दौर में नवपदजी कि ओली, वीस स्थानक तप आदि का उजमणा वाले बहिनों-भाईयों की विनंती होने पर इन्दौर पधारे ।
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[१५] उजमणा पीछे श्री संघ की चौमासा की विनंती होने पर २००९ का चौमासा इन्दौर में हुआ । चौमासा बाद देपापुर में अनेक प्रकार की तपस्या का उजमणा होने से देपालपुर पधारे । वहां उजमणा करवाया और कमलप्रभा श्री, हेमप्रभाश्री की दीक्षा इन्दुश्रीजी के नाम से हुई वहां से विहार करते अनुक्रमे महिदपुर पधारे कारण के नवपदजी का पट शिखरजी के पट की प्रतिष्ठा तपस्या विगैरे का उजमणा आनंद पर्वक करवाया। श्री संघ की आग्रह भरी विनंती स्वीकार करके २०१० का चौमासा महिदपुर हुआ चौमासा में व्याख्यान धर्म कार्य करते चौमासा पर्ण किया गामानुगाम विहार करते रतलाम पधारे वहां से सुश्रावक रतिचंदजी बौराना ने भोपावर का संघ निकाला भोपावर में श्री शांतिनाथ भगवान के दर्शन करके राजगढ़ पधारे । कारण के परम पूज्य आचार्य देवेश चन्द्रसागरजी वहां पधारे उनकी निश्रा में १० नूतन साध्वीयों की बड़ी दीक्षा दशवकालिक का जोग करवाया। वहां बांसवाड़ा श्री संघ की अतीव आग्रह भरी विनंती होने से २०११ का चौमासा बांसवाड़ा में किया वहां धर्म कार्य व्याख्यान का लाभ लेते चौमासा पूर्ण किया और केशरीयाजी की यात्रा के लिये विहार किया बड़ा गांव, सावरा होकर आसपुर पधारे वहाँ पूज्य त्रैलोक्यसागरजी महाराज विगैरे ने उपधान की
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[ १६ ]
माल का उत्सव करवाया वहां के श्री संघ की विनंती स्वीकार करके ओच्छव में ठहरे वहां से विहार करते केशरीयाजी पहोंचे वहां आनन्द पूर्वक दर्शन करते हुये उज्जैन कि ओर विहार किया कारण के सुश्रावक बागमलजो ने नयापुरा मन्दिर की प्रतिष्ठा व सिद्धाचलजी के पट की प्रतिष्ठा तपस्या का उजमणा में पधारने की विनंती कि और उज्जैन पधारे और महोत्सव शुरु हुआ । पूज्य आचार्य देवेश चन्द्रसागरजी कि निश्रा में वहां पर दीक्षार्थी बहिनों फूलकुंवर बेन, दाखाबेन और सुन्दरबेन विगैरा कि ७ दीक्षा आचार्य म. के अध्यक्षता में हुई अनुक्रमे विवेकश्रीजी, सुदक्षाश्रीजी और सुन्दाश्रीजी विगैरा नाम प्रकाशित किया । आप साहेब की ११ शिष्या हुई विहार करते आगर के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने के लिए पधारे और वहां नूतन दीक्षित को आचार्य महाराज ने जोग में प्रवेश करवाया । वहां आनन्द पूर्वक प्रतिष्ठा करवाकर मक्सीजी की यात्रा की व देवास होते हुए इन्दौर पधारे और नूतन सात साध्वीयों कि बड़ी दीक्षा परम पूज्य आचार्य चन्द्रसागरसूरिजी कि निश्रा में इन्दौर में हुई । आचार्य देवेश ने हिंगनघाट की ओर विहार किया । परम पूज्य पन्यासजी मंगलविजयजी म. का चौमासा इन्दौर हुआ और २३ साध्वीयों का उतराध्यान आचारांग का जोग
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[१७] पूज्य पन्यासजी म. के पास करवाने के लिये २०१२ का चौमासा इन्दौर ३२ ठाणा के साथ हुआ। दोनों सूत्रों का योग और चौमासा आनन्द पूर्वक पूर्ण हुआ फिर अंतरिक्षजी की यात्रा करने के लिये १९ ठाणा ने खानदेश कि ओर विहार किया महू, बडवाह, खंडवा, बुहरानपुर, मल्कापुर, वालापुर अनुक्रमे अंतरिक्षजी पहोंचे अंतरीक्ष विगैरा की यात्रा करते हुए सुरत की ओर विहार किया कारण के परम पूज्य रंजनश्रीजी म. सुरत में ५२ छोड का उजमणा का महोत्सव करवाते थे वहां कि विनंती होने पर आकोला, अमलनेर, जलगांव, नंदनवार, व्यारा, वारडोली, वाजीपुर की यात्रा करते हुए सुरत पधारे । परम तपस्वीजी म. का अति आग्रह होने से दो मास वहां रुके गच्छाधिपति म. के व्याख्यान आदि का लाभ लेकर नूतन साध्वीयों को नवाणु चौमासा करवाने के लिए पालीताणा कि ओर विहार किया। सं. २०१३ का चौमासा गिरीराज में किया । पालीताणा शत्रुजय विहार में ठहरे
आनन्द पूर्वक नवाणु यात्रा चौमासा किया और करवाया। पालीताणा से विहार करके राणपुर, वाडवान, उपरियाला जी, भोयणीजी, शेरीसाजी, शंखेश्वराजी, बामजू, रामपुरा आदि की यात्रा करते हुए अहमदाबाद पधारे। परम प. तपस्वीजी म. को वन्दन व मन्दिरों के दर्शन करके मालवा
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.[१८]
की ओर विहार किया। धोलका, धंधुका, मातर, खेड़ा की यात्रा करते हुए रतलाम पधारे वहां रतिचन्दजी बोराना ने नवपदजी का उजमणा करवाया और श्रीसंघ की विनंती होने से सं० २०१४ का चौमासा रतलाम घुघरीया के उपाश्रय में हुआ । यहां अनेक प्रकार का तप, जप, व्याख्यान विगैरा धर्म कार्य का लाभ मिला चौमासा बाद विहार करके बदनावर ठहरते हए बड़नगर में नवपदजी की
ओली आदि तपरया, उजमणा निमित्त श्रीसंघ ने विनंती कि इसलिए बड़नगर पधारे संघ ने चौमासा के लिए आग्रह किया सं० २०१५ का चौमासा बड़नगर में किया। व्याख्यान आदि धर्म कार्य का लाभ मिला । चौमासा बाद इन्दौर कि तरफ विहार किया। गौतमपुरा नवपदजी की अोली करवाकर देपालपुर में अक्षय तीज करी । स्वास्थ्य ठीक न होने से इन्दौर पधारे । मोतीझरा की व्याधि होने से सं० २०१६ का चौमासा इन्दौर में हुआ। चौमासा बाद मांडवगढ़ में परम पूज्य गणि धर्मसागरजी म. तथा अभयसागरजी म. की निश्री में मन्दिर की प्रतिष्ठा महोत्सव में आप साहेबजी पधारे और आनन्द पूर्वक प्रतिष्ठा होने पर नाल्छा में मन्दिरजी की प्रतिष्ठा करवाकर दिगठान में दो मन्दिरों की प्रतिष्ठा आनन्द पूर्वक करवाकर हांसलपुर होते बेटमा पधारे वहां नवपदजी की अोली की आराधना
म. कीणि धर्मया । चौमा
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[१६] करवाकर वहां से इन्दौर पधारे । सं० २०१७ का चौमासा इन्दौर में हुआ । चौमासा में साधु महाराज नहीं होने से व्याख्यान आदि का लाभ लिया। चौमासा बाद परम पू. रंजनश्रीजी म. सा. शिखरजी जाते उज्जैन पधारे, उनको वन्दन करने के लिए उज्जैन पधारया । श्रीसंघ की चौमासा विनंती होने पर सं० २०१८ का चौमासा उज्जैन में हुआ व्याख्यान आदि धर्म कार्य करते चौमासा समाप्त किया। परम प० आचार्य देवेश कि निश्रा में केशरियाजी मन्दिर की प्रतिष्ठा वैशाख सुदि १० को होने वाली थी। इसलिए वहां स्थिरता रखी और प्रतिष्ठा के समय में पांच बालिकाओं कि धूमधाम से छोटी बड़ी दीक्षा हुई इसके बाद चन्द्रावल मन्दिर प्रतिष्ठा होने पर आप साहेबजी वहां पर पधारे और आनन्द पूर्वक प्रतिष्ठा करवाते हुए हातोद होते हुए इन्दौर पधारया । सं० २०१९ का चौमासा इन्दौर में हुआ । परम पू. आचार्य चन्द्रसागर सूरिश्वरजी
और पू. आचार्य देवेन्द्रसागर सूरिश्वरजी म. सा. का चौमासा इन्दौर में होने से आपश्री का व्याख्यान, वन्दन और ओघ नियुक्ति कि वांचना आदि का अच्छा लाभ मिला । जंघा का बल खीन होने से और श्री संघ की अति
आग्रह भरी यह विनंती हुई कि अब आप साहेबजी से विहार नहीं हो सकता इसलिये इन्दौर शहर को पावन करो
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[२०]
और यहां स्थिरता करके भव्य जीवों का उपकार करो । इससे २०२० का चौमासा इन्दौर में ही हुआ और परम पू. गणिवर्य लब्धिसागरजी म. सा. परम पू. सूर्योदयसोगरजी म. सा. परम पू. त्रैलोक्यसागरजी म. सा. वगैरा ६ ठाणा का संघ की आग्रह भरी विनंती से आप साहेब का चौमासा इन्दौर में हुआ । नवीन साध्वी १७ ठाणा के उत्तराध्यन आचारंग का जोग करना था । आप साहेब से विनंती कि सब साध्वीयों को बड़ा जोग करावो । पू. विर्य ने विनंती स्वीकार करी और दोनों योग आनन्द पूर्वक सर्व साध्वियों को आराधन करवाये और योग के कारण यहाँ पर प साहेबजी की निश्रा में २२ ठाणा ने चौमासा किया । श्री संघ ने उत्साह पूर्वक जोग वाली 1 साध्वयों की विनय भक्ति करी ।
हाल में आपश्री की शिष्या प्रशिष्या लगभग ५० ठाणा आपकी आज्ञा प्रमाणे मालवा विगैरे ३० छोटे बड़े गांवों में विहार करते हुए और चौमासा करके भव्य जीवों को धर्म मार्ग पर ला रहे हैं ।
* शिवमस्तु सर्व जगतः *
लेखक शिष्या प्रशिष्या
॥ जीवन चरित्र समाप्तम् ॥
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,
अनुक्रमसिका क्रमांक विषय पृष्ट | क्रमांक विषय पृष्ठ भगवान के सामने बोलनेकी स्तुति १२० संभवनाथ का चैत्यवदन १५ चैत्यवन्दन के पहिले बोलने का पद २ | २१ अभिनन्दन नाथ का, .. १५ चैत्यवन्दन-संग्रह
| २२ सुमतिनाथ का , १ शंखेश्वर पार्श्वनाथ चैत्यवंदन २ | २३ पद्मप्रभु स्वामी का ,, २ रोहिणी तप का ,
| २४ सुपार्श्वनाथजी का , ३ दिवाली का
२५ चन्द्रप्रभ स्वामी का ४ सिद्धक्रचजी का
| २६ सुविधि जिन ५ अरिहंतादिक का
२७ शीतल जिन ६ सिद्धचक्रजी का ,
२८ वासुपूज्य जिन ७ सिद्धाचलजी का
| २६ शान्ति जिन ८ पुंडरीक स्वामी का ,
७,३० मल्ली जिन ९ सीमंधर स्वामी का
| ३१ नेमिनाथ जिन १० पर्व पर्युषण का ८ ३२ पार्श्व जिन ११ पर्व पर्युषण का
९ ३३ महावीर जिन १२ पर्व पर्युषण का
३४ चोवीस जिन १३ वीस स्थानक तप
३५ उपदेशक .. का काउस्सग्ग
स्तुति संग्रह १४ दूज का
१ आदिनाथजी की स्तुति १५ सौभाग्य पंचमी का , १२/ २ आदिनाथजी की स्तुति २२ १६ अष्टमी का
१३ ३ नेमिनाथजी की , १७ एकादशी का
१३ ४ पार्श्वनाथजी की , १८ ऋषभदेव का
१२ ५ महावीरस्वामी की , १९ अजितनाथ का , १५/ ६ पंचमी की
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क्रमांक विषय ७ पंचमी की स्तुति ८ ग्यारस की , ९ सिद्धचक्रजी की १० सिद्धचक्रजी की ११ पर्युषण को १२ पर्युषण की १३ रोहिणी की १४ अष्टमी की १५ सीमधरस्वामी की , १६ बीज की , १७ शान्तिनाथजी की , १८ शंखेश्वर पार्श्वनाथजी ,, १९ शान्तिनाथजी की , २० सिद्धाचलजी की , २१ दिवाली की , - स्तवन-संग्रह १ आदिनाथजी का स्तवन २ अजितनाथजी का , ३ सुमतिनाथजी का , ४ पद्मप्रभु का ५ सुपार्श्वनाथजी का ६ चन्दाप्रभुजी का , ७ सुविधिनाथ जी ८.संभवनाथजी का ,
पृष्ठ | क्रमांक विषय पृष्ठ २७ ९ अन्नतनाथजी का स्तवन ४८ २८ १० धर्मनाथजी का , ४९ ३० ११ कुथुनाथजी का , ३१ १२ ऋषभदेव का , ५० ३२ १३ अभिनन्दनस्वामी का ,, ३३ १४ सुविधिनाथजी का , ३४ १५ श्रेयांसनाथजी का , ५३ ३५ १६ अरनाथजी का , ३६ १७ मल्लीनाथजी का ३७ १८ नेमनाथजी का , ३७ १९ सुपार्श्वनाथजी का , ३६ २० विमलनाथजी का , ३६. २१ नमिनाथजी का , ४० २२ महावीरस्वामी का , ४४/ २३ चन्दा प्रभुजी का "
२४ पद्मप्रभुजी का , २५ शीतलनाथ जी का , | २६ वासुपूज्यजी का ,
| २७ शान्तिनाथजी का , २३/२८ गोड़ीपार्श्वनाथजी का,
२९ आखातीज का , ४५/३० नवपदजी का , ४६ ३१ सिद्धाचलजी का , ४७ ३२ आदिनाथजी का , ४८ ३३ महावीर स्वामी का , ६५
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क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय पृष्ठ ३४ पर्युषण का स्तवन ६९ ८ सिद्धचक्रजी की सज्झाय १३४ . स्तवन के ढालिये हवीश स्थानक की , १३५ १ दिवाली का स्तवन
७० १० नवपद जी की , २ बीज का स्तवन
७९/११ सिद्धपद की , १३६ ३ पंचमी का स्तवन ८२ १२ आचार्य की , १३७ ४ अष्टमी का स्तवन ८८ १३ उपाध्याय की , १३८ ५ अष्टमी का स्तवन
१४ तत्र प्रथम व्याख्यानस ६ मौन एकादशी का स्तवन ९४
प्रथम सज्झाय १३९ ७ रोहिणी तप का स्तवन . १००/१५ अथ द्वितीय व्याख्यान, १४० ८ महावीर भगवान का
१४२ सत्तावीश भव का स्तवन १०६ १६ , चतुथे ,
| १७ यशोदा विलाप , १४३ ९ सिद्धचक्रजी का रतवन ।
| १८ सीता महासती की, १० श्री महावीर भगवान का पंच कल्याणक का स्तवन ११६
१९ मरण की
१४५
, ११ महावीर स्वामी का
२० नंदिषेण मुनि की , १४६
२१ अनाथी मुनि की , हालरीयु
१४७ २२ सनतकुमार __सज्झाय-संग्रह
- चक्रवती की , १४८ १ पार्श्वनाथ की सज्माय १२५ २३. जम्बुस्वामी की " १४९ २ बीज की
१२६ २४ कल्याणमुनि विरचित, १५० ३ पांचम की
१२७ २५ आत्मबोध की , १५१ ४ अष्टमी की
१२९ २६ तप की , १५२ ५ एकादशी की , १२९ २७ बार भावना की , ६ रोहिणी की
१३१ २८ बार भावना की , १५४ ७ सिद्धचक्रजी की , १३२/२९ चन्दनबाला की , १५५
१४४
१२२॥
१५३
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१७०
क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय ३०महावीर स्वामी की सभाय १५६ गहली-संग्रह ३१ समकीतना सड़सठ बोलनी , १५८/
१ भगवान महावीर ३२ समकित की , १५९/
. स्वामी की गहूँली ३३ विजय सेठ विजया
२ उपदेश की गहूँली सेठानी की ,
३ गहूँली ३४ दमयन्ती की ,
४ ग₹ली ३५ सुलसा श्राविका की,
५ विहार की गहूँली ३६ नवपदाधिकारे चरण
६ नवपद की गहूँली सितरीकरणसितरी, ७ ग₹ली ३७ सती द्रौपदीजी की ,
१६६ ८ पर्व पर्दूषण की गहूँली ३८ हंसलानी की , १६७ ३९ दीवाली पर्व की , ४० अन्तराय की , १६९
१७१ १७२ १७३ १७३ १७४
१७६
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॥ श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥ * भगवान के सामने बोलने की स्तुति ® . श्री तीर्थराज विमला चल नित्य वन्दो,
देखि सदानयणथी जिम पूर्ण चन्दो। सेवे मली सुर नरोवर नाथ जेने,
... धोरी सदा चरण लंछन माही तेने ॥१॥ श्रेयांशने घर विसे रस इक्षु लिधो,
भिक्षाग्रहि निज प्रपौत्र सु पात्र कीधो । माता प्रत्ये विनय भाव धरी प्रभुये,
अप्यु अहो विमल केवल भीविभुऐ ।।२।। सुण्याहसे पुज्याहसे निरख्याहसे पण को क्षणे,
हे जगतबन्धु चित्तमां धार्या नहि भक्ति पणे। जन्म्यो प्रभुते कारणे दुख पात्र आ संसार मा,
हा भक्ति ते फलतीनथी जे भाव सुन्या चारमा ॥३॥ जे द्रष्टि प्रभु दर्शन करे ते द्रष्टिने पण धन्य छे,
जे जीभ जिनवरने स्तवे ते जीभने पण धन्य छे। पीये मुदा वाणी सुदा ते कर्ण युगने पेण धन्य छे,
तुज नाम मंत्र विशद धरे ते हृदयने नित धन्य छे ॥४॥ सहु आत्मना शिरदार हे जगदीश तु एकज सदा,
मुझने मल्यो तु सकल मनने द्रष्टि आपे संपदा । हे नाथ निज सेवक गणी मुझने स्वीकारो स्नेहथी,
तुलना धरू हुँ ताहरी उत्कर्ष पामुजेह थी ॥५॥
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चैत्यवन्दन के पहिले बोलने का पद सकल कुशल वल्ली पुष्करावर्त मेघो । दुरित तिमिर भानु कल्पवृक्षो-पमानः ॥ भवजल निधि पोतः सर्वे संपत्ति हेतुः ।
सभवतु सततंवः श्रेयसे शांतिनाथ श्रेयसे पार्थ नाथः । १ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिन चैत्यवन्दन ॐ नमः पार्श्वनाथाय, विश्व चिंतामणी यते । ॐ हीं धरणेन्द्र रोट्या, पद्मा देवी युतायते ॥१॥ शान्ति तुष्टि महापुष्टि, धृति कीर्ति विधायि ने । ॐ ही द्विड् व्याल वैताल, सर्वाधि व्याधि नाशिने ॥२॥ जया जिताख्या विजयाख्या, पराजितयान्वितः। दिशां पाले गृहै ये, विद्यादेवी भिरन्वितः ॥३॥ ॐ असिया उसाय, नमस्तत्र त्रेलोक्य नाथतां । चतुःषष्ठिः सुरेन्द्रास्ते, भाषते छत्र चामरैः ॥४॥ श्री शंखेश्वर मंडन, पाच जिन प्रणतकल्प तरकल्प । चूरय दुष्ट व्रातं, पूरय में वांछितं नाथ ॥ ५ ॥
२ श्री रोहिणी तप का चैत्यवन्दन रोहिणी तप आराधिये, श्री श्री वासुपूज्य । दुःख दोहग दूरे टले, पूजक होये पूज्य ॥१॥
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श्रष्ट प्रकार घोतियार उठीने से
[३] पहेला कीजे वासक्षेप, प्रह उठीने प्रेमे ।। मध्यान्हे करी धोतिया, मन वच काया खेमे ॥ २ ॥ अष्ट प्रकारनी रचीये, पूजा नृत्य वाजिंत्र । भावे भावना भाविये कीजे जन्म पवित्र ॥३॥ त्रिहूं काल लई धूप दीप, प्रभु आगल कीजे । जिनवर केरी भक्ति शु, अविचल सुख लीजे ॥ ४ ॥ जिनवर पूजा जिन स्तवन, जिननो कीजे जाप । जिनवर पदने ध्याइये, जिम नावे संताप ॥ ५ ॥ कोड कोड फल दीये, उत्तर उत्तर भेद।। मान कहे इन विध करो, जिम होये भवनो छेद ॥६॥
३ दीवाली का चैत्यवन्दन त्रीस वरस केवली पणु, विचर्या महावीर । पावापुरी पधारीया, जिन शासना धीर ॥ १ ॥ हस्तीपाल नृप राय तो, रजुका सभा मझार । चरम चौमासु त्यां रहा, लेही अभिग्रह सार ॥ २ ॥ काशी कोशल देशना जानी लाभ अपार । स्वामी सुनी सहु आवीया, वंदने निरधार ॥३॥ सोल पहोर दीधी देशना, धना राय अढार । दीधी भवि हित कारणे, पिधी तेहीज पार ॥४॥ देवशर्मा बोधन भणी, गोयम गया सुजान, कार्तिक अमावास्या दिने, प्रभु पाम्या निर्वाण ॥॥
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[४] भाव उद्योत गयो हवे, करो द्रव्य उद्योत। इम कही राय सर्वे मली, कीधी दीपक ज्योत ॥६॥ दीवाली तिहांथी थई, जगमांही प्रसिद्ध । पद्म कहे आराधतां, लहीये अविचल रिद्ध ॥७॥
४ श्री सिद्धचक्रजी का चैत्यवन्दन पहले दिन अरिहंतनु, नित्य कीजे ध्यान । बीजे दिन वली सिद्धर्नु, कीजे गुणगान ॥१॥ आचारज त्रीजे पदे, जपतां जय जयकार । चोथे पदे उवज्झायना, गुण गावो उद्धार ।।२।। सकल साधु वंदो सही, अढीद्वीपमा जेह । पंचम पद आदर करी, जपजो धरी ससनेह ॥३॥ छठ पदे दर्शन नमो, दरिशण अजुअालो । नमो नाणपद सातमे, जिम पाप पखालो ॥४॥ आठमे पद आदर करी, चारित्र सुचंग । नवमे पद बहु तप तणो, फल लीजे अभंग ॥५॥ ऐणी परे नवपद भावशुए, जपतां नव नव कोड । पंडित 'शान्तिविजय' तणो, शिष्य कहे करजोड ॥६॥
५ श्री अरिहंतादिक चैत्यवन्दन अरिहंत देवा चरणोनी सेवा, पंदर भेदे सिद्धि पद मेवा। आयरिय उवझाय सर्व साधुना नाम,
ए पंच योगे कर प्रणाम ॥१॥
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[५] बार देवलोके नव अवेयके, पांच अनुत्तर पाताल लोके । ति.लोकमांहे जे जिन नाम,
ए पंच योगे करुं प्रणाम ॥२॥ अतीत अनागतने वर्तमान, संप्रतिकाले वीस विहरमान । उत्कृष्टकाले एकसो सित्तेर नाम,
ए पंच योगे कर प्रणाम ॥३॥ शाश्वता भुवन जे जिनना कहीये,
शाश्वति प्रतिमाशु नाम लहीये । शाश्वता अशाश्वता जे अभिराम,
ए पंच योगे करुं प्रणाम ॥४॥ दीठा न दीठा श्रवणे न सुणी,
भेट्या न भेट्या भावे जे भणीया । "ज्ञानविमल" कहे प्रभु समरथदेवा,
____ भवभव होजो तुम नाथ सेवा ॥५॥ ६ श्री सिद्धचक्रजी का चैत्यवन्दन श्री सिद्धचक्र आराधिए, आसो चैतर मास । नव दिन नव आंबिल करी, कीजे अोली खास ॥१॥ केसर चंदन घसी घणा, कस्तूरी बरास । जुगते जिनवर पूजिया, जिम मयणा श्रीपाल ॥२॥ पूजा अष्ट प्रकारनी, देववन्दन त्रणकाल । मंत्र जपो त्रणकाल ने, गुणणुतेरह हजार ॥३॥
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[६] कष्ट टल्यु उंबर तणु, जपतां नवपद ध्यान । श्री श्रीपाल नरिंद थया, वाध्यो बमखो वान ॥४॥ सातसो कोढी सुख लह्या, पाम्या जिन आवास । पुण्ये मुक्ति वधू वर्या पाम्या लील विलास ॥५॥
७ श्री सिद्धाचल का चैत्यवन्दन सिद्धाचल शिखरे चढी, ध्यान धरो जगदीश । मन वच काय एकग्रशु, नाम जपो एकवीश ॥१॥ शत्रुञ्जयगिरी वंदीये, बाहुबली शिव ठाम । मरुदेवने पुंडरिकगिरी, रैवतगिरी विसराम ॥२॥ विमलाचल सिद्धराजजी, नाम भगीरथ सार, सिद्धक्षेत्रने सहस्त्र कमल, मुक्ति निलय जयकार ॥३॥ विमलाचल शतकूटगिरी, ढंकने कोडी निवास । कदंबगिरी लोहित नमु, ताल ध्वज पुण्यरास ॥४॥ महाबल दृढ शक्ति सही, ए एकवीशे नाम । साते शुद्धि समाचरी, नित्य कीजे प्रणाम ॥५॥ दृग्ध शून्यने प्रविधि दोष, अति परिणति जेह । चार दोष छंडी भजो, भक्ति भाव गुण गेह ॥६॥ मानव भव पामी करीए, सद्गुरु तीरथ जोग । श्री शुभवीरने शासने, शिवरमणी संयोग ॥७॥
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[७] ८ श्री पुंडरीक स्वामी का चैत्यवन्दन
आदिश्वर जिनरायनो, गणधर गुणवन्त । प्रगटनाम पुंडरीक जास, महीमाए मंहत ॥१॥ पंच कोडी मुनिशु, अनसन तिहां कीध। .. शुक्लध्यान ध्याता अमूल, केवल तिहां लीध ॥२॥ चैत्री पूनमने दिन, पाम्या पद महानंद । ते दिनथी पुंडरीकगिरी, नाम दान सुखकंद॥३॥
९ श्री सीमंधर स्वामी का चैत्यवन्दन सीमंधर जिन विचरता, सोहे विजय मोझार । समवसरण रचे देवता, बेसे पर्षदा बार ॥१॥ नवतत्त्वनी दीये देशना, सांभली सुरनर कोड । षट द्रव्यादिक वर्णव, ले समकित करजोड ॥२॥ इहां थकी जिन वेगला सहस तेत्रीश शत एक । सत्तावन जोजन वली, सत्तर कला सुविशेष ॥३॥ द्रव्य थकी जिन वेगला, भावथी हृदय मोझार । तिहुकाले वंदन करु, श्वास माहें सो वार ॥४॥ श्री सीमंधर जिनवरुए, पूरे वांछित कोड । कांतिविजय गुरु प्रणमतां, भक्ति बे करजोड ॥५॥
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१० श्री पर्व पर्युषण का चैत्यवन्दन
पर्व पर्युषण गुण नीलो, नवकल्पि विहार । चार मासांतर थीर रहे, एही अर्थ उदार ॥१॥ अषाढ शुदि चौदश थकी, संवच्छरी पचास । मुनिवर दिन सितेरमे, पडिक्कमतां चौमास ||२|| श्रावक पण समता धरी, करे गुरुनां बहुमान । कल्पसूत्र सुविहित मुखे, सांभले थई एक तान || ३ || जिनवर चैत्य जुहारिये, गुरुभक्ति विशाल । प्राय अष्ट भवांतरे, वरीये शिव वरमाल || ४ || दर्पणथी निज रुपनो, जुवे सुदृष्टि रुप । दर्पण अनुभव अर्पणे, ज्ञान रमण मुनि भूप ||५|| आत्मस्वरूप विलोक्तां ए. प्रगट्यो मित्र स्वभाव | राय उदायी खामणां, पर्व पर्युषण दाव || ६ || नव वरखान पूजी सुनो, शुक्ल चतुर्थी सीमा । पंचमी दिन वांचे सुणी, होत्र विरोधीनिमा ॥७॥ ए नहि पर्वे पंचमी, सर्व समानी चौथे । भवभीरु मुनि मानसे, भाख्यु रिहाना || || श्रुत केवली वचना सुनी, लही मानव अवतार । श्रीशुभवीरने शासने, होवे जय जयकार ||९||
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११ श्री पर्व पर्युषण का चैत्यवन्दन
सकल पर्व शृंगार हार, पर्युषण कहीये । मंत्र मांहि नवकार मंत्र, महीमा जग लहीये ॥१॥ आठ दिवस अमार सार, अट्ठाई पालो । आरंभादिक पीर हरी, नरभव अजवालो ||२॥ चैत्य परिपाटी शुद्ध साधु, विधि वन्दन जावे । अट्टम तप संवच्छ, पडिकमनुं भावे ॥३॥ साधर्मिक जन खामणा ए, त्रिविधि सु कीजे । साधु मुख सिद्धांत क्रांत, वचनामृत रस पीजे ॥४॥ नव व्याख्याने कल्पसूत्र, विधि पूर्वक सुणीये । पूजा नव प्रभावना, निज पातिक हणीये ॥ ५॥ प्रथम वीर चारित्र बीज, पार्श्व चरित्र अंकूर 1 नेम चरित्र प्रबंध खंध, सुख सम्पति पूर ॥६॥ ऋषभ चरित्र पवित्र पत्र, शाखा समुदाय । स्थिवरावली बहु कुसुमपूर सरिखो कहवाये ॥७॥ समाचारी शुद्धता ए, वर गंध वखानो ।
शिव सुख प्राप्ती फल सही, सुर तरु सम जानो ||८|| चौद पूर्वधर श्रीभद्रबाहु, जेने कल्प उद्धरीयो । नवमा पूर्व थी युग प्रधान, आगम जल दरीयो ||९ ॥ सात वार श्री कल्पसूत्र, जे सुने भवि प्राणी । गौतम ने कहे वीर जिन, परणे शिवराणी ॥१० ॥
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कालिका सूरि कारणे ए, पजुषण कीधा । भादवा सुदि चौथमां, निज कारज सिध्या ॥ ११ ॥ पंचमी करनी चौथमां, जिनवर वचन प्रमाणे । वीर थकी नव से अंशी, वरसे ते जाने || १२ | श्रीलक्ष्मीसागरसूरिश्वरु ए, प्रमोद सागर सुखकार । पर्व पजुषण पालतां, होवे जय जयकार ||१३|| १२ श्री पर्व पर्युषण का चैत्यवन्दन
कल्प तरुवर कल्पसूत्र, पूरे मन वांछित । कल्प धरे धुरथी सुनो, श्री महावीर चरित्र ॥ १ ॥ क्षत्रिय कुन्डे नरपति, सिद्धार्थ राय ।
राणी त्रिशला तणी कुखे, कंचन समकाय ॥२॥ पुष्पोत्तर वर थी चवीया ए, उपज्या पुण्य पवित्र । चतुरा चउदह सुपन लहे, जमन्या विनय विनीत ॥३॥
१३ वीसस्थानक तप ना काउस्सग्ग का चैत्यवन्दन
चौवीश पर पीस्तालीसनो, छत्रीश नो कहीये ।
दस पचवीश सतावीश नो, काउसग्ग मन धरीये ॥ १ ॥ पंच सडसठि दशवली, सित्तेर नव पण वीस । बारड बीस लोगस्स तनो, काउसग्ग घरो गुणीस ||२||
वीस सतर इगवन्न, द्वादशन पंच ।
इनी परे काउसग्ग जो करे, तो जाये भवसंग ॥३॥
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[११] अनुक्रमे काउसग्ग मनधरो, गुणी लेज्यो वीस । वीस स्थानक इम जानिये, संक्षेप थी लेस ॥४॥ भावधरी मनमां घणो ए, जो एक पद आराधे । जिम उत्तम पद पनने, नमी निज कारज साधे ॥५॥
१४ दूज का चैत्यवन्दन दुविध धर्म जेने उपदिश्यो, चौथा अभिनंदन । बीजे जन्मया जे प्रभु, भव दुःख निकंदन ॥१॥ दुविध ध्यान तुमे परिहरो, आदरो दोय ध्यान । एम प्रकाश्यो सुमति जिने, ते चविया बीज दिन ॥२॥ दोय बंधन राग द्वष, तेहने माने तजीये। मुझ पर शीतल जिन कहे, बीज दिन शिव भजीये । ३॥ जीवाजीव पदार्थ नु, करी नाण सुजाण । बीज दिने वासूपुज्य परे, लहो केवल नाण ॥४॥ निश्चय नय व्यवहार दोय, एकान्ते न ग्रहीये । अरजिन बीज दिने च्यवी, एम जन आगल कहीये ॥५॥ वर्तमान चौवीशीये, एम जिन कल्याण । बीज दिने केई पामीया, प्रभु नाण निर्वाण ॥६॥ एम अनन्त चोवीशीये, हुया बहु कल्याण । जिन उत्तम पद पाने, नमर्ता होये सुखखान ॥७॥
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१५ सौभाग्य पंचमी का चैत्यवन्दन
श्री सौभाग्य पंचमी तणो, सयल दिवस शणगार । पांचे ज्ञान ने पूजिये, थाय सफल अवतार ॥१॥ सामायिक पोसह जीवसे, निरवद्य पूजा विचार । सुगंध चूर्णादिक थकी, ज्ञान ध्यान मनोहार ॥२॥ पूर्व दिशि उतर दिशि पीठ रची त्रण सार । पंच वर्ण जिन बिंब ने, भापीजे सुखकार ॥३॥ पंच पंच वस्तु मेलवी, पूजा सामग्री जोग । पंच वर्ण कलशा भरी हरीये दुःख उपभोग || ४ || यथा शक्ति पूजा करो, मति ज्ञान ने काजे । पंच ज्ञान मां धुरे का श्री जिन शासन राजे ॥५॥ मति श्रुत विण होवे नहीऐ, अवधि प्रमुख महा ज्ञान । ते माटे मति धुरे का, मति श्रुत मां मतिमान ॥६॥ क्षय उपशम आवरण नो, लब्धि होये समकाले । स्वाम्यादिक थी अभेद छे, पण मुख्य उपयोग काले ॥७॥ लक्षण भेदे भेद छे, कारण कारज योग ।
मति साधन श्रत साध्य छे, कंचन कलश संयोग ॥ ८ ॥ परमातम परमेसरुये, सिद्ध सकल भगवान | मतिज्ञान पामी करी, केवल लक्ष्मी निघान ॥६॥
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[१३]
१६ अष्टमी का चैत्यवन्दन
महा सुदि श्रामने दिने, विजया सुत जायो । तेम फागण सुदि ठमे, संभव चंवी आव्यो ॥ १ ॥ चैतर बढ़नी आठमे, जन्मया रिषभ जिंगद | दिक्षा पण ए दिन लही, हुआ प्रथम मुनिचन्द ||२|| माधव सुदि आठ दिने आठ कर्म कर्या दूर | अभिनंदन चोथा प्रभु, पाम्या सुख भरपूर ॥३॥ एहि आठम उजली, जनम्या सुमति जिंणद । आठ जाति कलशे करी, न्हवरावे सुर इन्द ||४॥ जनम्या जेठ वदि आठमे, मुनिसुव्रत स्वामी । नेम आषाड सुदि ठमे, अष्टमी गति पामी ||५|| श्रावण वदनी आठमे, नमि जनम्या जगभाण | तेम श्रावण शुद्धि आठमे, पास जिनु निर्वाण ॥ ६ ॥ भाद्रवा वदि आम दिने, चविया स्वामी सुपास । जिन उत्तम पद पद्म ने, सेव्या थी शिववास ॥७॥
१७ एकादशी का चैत्यवन्दन
शासन नायक वीर जी, प्रभु केवल पायो । संघ चतुर्विध स्थापवा, महसेन बन आयो ॥ १ ॥ माघव सित ऐकादशी, सोमिल द्विज यज्ञ । इन्द्रभृति आदि मल्या, एकादश विज्ञ ॥२॥
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[१४] एकादश से चउगुणो, तेहनो परिवार । वैद अर्थ अवलो करे, मन अभिमान अपार ॥३॥ जीवादिक संशय हरीये, एकादश गणधार । वीरे थाप्या वंदीये, जिन शासन जयकार ॥४॥ मल्ली जन्म अर मल्ली पास, वर चरण विलासी । रिषभ अजित सुमति नमी, मल्लि घन घाती विनाशी ॥१॥ पद्म प्रभ शिव वास पास, भव भवनां तोडी। एकादशी दिन आपनी, ऋद्धि सघली जोडी ॥६॥ दशक्षेत्रे त्रिहुं कालना, त्रण से कल्याण । वर्ष अग्यार एकादशी, आराधो वरनाण ॥७॥ अगीयार अंग लखावीये, एकादश पाठां । पुजनी ठवणी वींटणा, मशी कागल काठां ॥८॥ अगीयार अव्रत छंडीये, वहो पडिमा अगीयार । क्षमा विजय जिन शासने, सफल करो अवतार ॥॥
१८ श्री ऋषभदेव का चैत्यवन्दन आदि देव अरिहंत, धनुष पांचसो काया । क्रोध मान नहीं लोभ काम, नहीं मृषा न माया ॥१॥ नहीं राग नहीं द्वोष, नाम निरंजन ताहरु । दीढुवदन विशाल, पाप गयु सवि माहीं ॥२॥ नामे हुँ निर्मल थयो, जपूंजाप जिनवर तणो । कवि रिषभ इणी परे उच्चरे, आदिदेव महिमा घणो ॥३॥
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[१५]
१९ श्री अजितनाथ का चैत्यवन्दन अजित नाथ अवतार, सार संसारे जानु । जेणे जीत्या मद आठ, इस्यो अरिहंत वखाणु ॥१॥ राज रिद्धि परिवार छोडी, जेणे दीक्षा लीधी । टाली कर्म कषाय, शिव नारी वस कीधी ॥२॥ अंनत सुखमां झीलतो, पूजी कर्म आठे खपो । कवि रिषभ इम उच्चरे, अजित नाथ नित्ये जपो ॥३॥
२० श्री संभवनाथ का चैत्यवन्दन संभव जिन सुकुमाल, शियल संयमधारी। वाणी गंग विशाल, सुने नरपति ने नारी ॥१॥ अनंत ज्ञान जस बुद्धि, बंध कर्मना कापे । समयों सुख निवास, मुक्ति गढ हेला आपे ॥२॥ त्रीजो जिन त्रिभुवन बडो, भक्ति नवि चूको कदा। कवि ऋषभ इम उच्चरे, संभव जिन सेवो सदा ॥३॥ २१ श्री अभिनंदननाथ का चैत्यवन्दन अभिनंदन जिनदेव, सेव जस सुरपति सारे । संवर रायनो पुत्र, सकल दुःख सोय निवारे ॥१॥ तुबंधव तुतात, पाप तुज जाये नाठा । द्रारिद्र दुःख दौर्भाग्य, सोय पण जाये नाठा ॥२॥ गुण अनंत ताहरा प्रभु, त्रिभुवन नहीं को तुज समो । कवि रिषभ इणी परे उच्चरे, अभिनंदन जिनवर नमो॥३॥
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[१६] २२ श्री सुमतिनाथ का चैत्यवन्दन सुमतिनाथ सुख वास, दास हुं भव भव हारो। कर विनती एक, आवागमन निवारो ॥१॥ सेवकनी करो सार, पोर पहेलां उतारो । क्रोध मान मद लोभ, सोय उपजतां वारो ॥२॥ देव निरंजन नाम तुह, तुझ नामे निश्चय तर्यो । कवि रिषभ इणी परे उच्चरे, सुमतिनाथ पूजा करो॥३।। २३ श्री पद्मप्रभु स्वामी का चैत्यवन्दन पद्मप्रभ छट्ठा भया, वर्णे प्रभु राता। धर राय कौसंबी धणी, सुसीमा जस माता ॥१॥ कमल लंछन अढीसो धनुष, शिव सम्पति दाता । त्रीश लाख पूरव आयु, त्रिभुवन नो त्राता ॥२॥ चोत्रीश अतिशय विराजता ए, सेवे सुरनर क्रोड । विनय विजय उपाध्यायनो, रुप नमे करजोड ॥३॥ २४ श्री सुपार्श्वनाथजी का चैत्यवन्दन जग तारण जिन सातमा, प्रतिष्ठित राय नंद । पृथ्वी मात उरे धर्यो, मुख पर्णिमा चन्द ॥१॥ बीस लाख पुरव आयु, बसो धनुष देह दीपे । स्वस्तिक लंछन श्री सुपार्श्व, अरियण ने जीपे ॥२॥ जन्म स्थान वाराणसी ए, देह कनक ने वान । रुप विजय कहे साहिबा, यो शिवरमणी ठाम ॥३॥
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[१७] २५ श्री चन्द्रप्रभ स्वामी का चैत्यवन्दन महसेन मोटो राजीओ, सती लक्ष्मणा नारी । चन्द्र समुज्जव वदन क्रांति, जनम्यो जय कारी ॥१॥ चन्द्र पुरी नयरी जेहनी, चन्द्र लछंन कहीये । चन्द्र प्रभ जिन आठमा, नामे गह गहीये ॥२॥ दोढ सो धनुष नु जिन तनु ए, दश लाख पूर्व आय । रुप विजय प्रभु थी, दिन दिन दौलत थाय ॥३॥
२६ श्री सुविधि जिन चैत्यवन्दन सुविधि भली विधी सेवतो, भव भावठ भंजे । सुग्रीव राय सुत सेवतां, दुश्मन नवि गंजे ॥१॥ मगर लछंन मन मोहतो, नयरी काकंदी। दोय लाख पूरव आय, बोले जय बन्दी ॥२॥ एकसो धनुष वर देहडी, उज्जवल वर्ण अपार । रुप विजय कहे भवि नमो, वामा माता मल्हार ॥३॥
२७ श्री शीतल जिन चैत्यवन्दन भदिलपुर, दृढ़रथ राय, नंदा पटराणी। शीतल जिनवर जन्मतां, जगकीर्ति गवाणी॥१॥ श्री वत्स लछंन ने धनुष, देह सुवर्ण समानी । एक लाख पूर्व आयुमान, कहे केवल नाणी ॥२॥ सुख दायक दशमा सदा ए, दे दौलत भरपूर । रुप विजय कहे भवि नमो, प्रह उगमते सर ॥३॥
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[१८] २८ वासुपूज्य जिन चैत्यवन्दन वासव पूजित वासू पूज्य, तनु विद्र मवान । राणी जया वासू पुज्य राय, कुल तिलक समान ॥१॥ चंपा नयरी जनमीयो, सीतेर धनुष देह । वर्ष बहोतेर लाख आयु, कीधो भव छेह ॥२॥ यम महिष लछंन मीसे, सेवे जेहना पाय । मान विजय प्रभु नाम थी, भव भव पातक जाय ॥३॥
२९ श्री शान्ती जिन चैत्यवन्दन शान्तीकरण श्री शान्ती जिन, जेने मारी निवारी । अचिरा कुखे उपन्यो, मृग लछंन धारी ॥१॥ गजपुरी राजा विश्वसेन, कुल मुगट नगीनो । चालीश धनुष प्रमाण देह, मैं साहिब कीनो ॥२॥ सोवन वर्ण तनु राज तो ए, वर्ष लाख जस आय । मान विजय वाचक भणे, जिन नामे सुख थाय॥३॥
३० श्री मल्ली जिन चैत्यवन्दन मल्लि जिणेसर मोह मल्ल, जिने जीत्यो हल्ल । हल्ल मल्ल करतां शुभ, प्रणमे जस गल्ल ॥१॥ मिथिला नयरी कुभुराय, कुल कमल विकासी । प्रभावती राणी जन्मयो, नीलुत्पल भासी ॥२॥ धनुष पण वीस उजात तनु ए, कुभं लछंन वर पाय । वर्षे पंचावन सहस आय, मान लहे सुपसाय ॥३॥
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[१६] ३१ श्री नेमिनाथ जिन चैत्यवन्दन भाव धरी भवियां भजो, श्री नेमि जिंनद । समुद्र विजय राणी शिवा, मन मोहन चन्द ॥१॥ जस दश धनु तनु मान वान, उमद्या धन सरिखो । शंख लंछन सोहामनो, देखी ने हरखो ॥२॥ जीवित वर्ष सहसनुए, सोरीपुर उत्पन्न । मान कहे जिनवर नमे, नर नारी ते धन्य ॥३॥
३२ श्री पार्श्व जिन चैत्यवन्दन पास जिंणद सदा जपो, मन वंछित पूरे । भव भय भावठ भंजणो, दुःख दोहग चूरे ॥१॥ अश्वसेन नृप कुल तिलो, वामा सुत शस्त । वाणारसी ए अवतो, काय नव हस्त ॥२॥ नील वर्ण तनु फणी ए, जीवित जस शत वर्ष । मान विजय प्रभु नाम थी, पामे परिगल हर्ष ॥३॥
३३ श्री महावीर जिन चैत्यवन्दन श्री वर्धमान जिन भान आण, निज मस्तक वहीये । सिंह लछंन परे सर्वदा, जस चरणे रहीये ॥१॥ क्षत्रीय कुंड ग्राम नयर, सिद्धार्थ भूप । त्रिशला राणी उदर हंस, हेम वान अनूप ॥२॥ जीवित बहोतेर वर्ष नुए, सात हाथ तनु मान । मान विजय वाचक करे, जिनवर ना गुणगान।।३।।
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[२०] ३४ श्री चौवीस जिन चैत्यवन्दन आदिनाथ अजितदेव, संभव गुण भंडार । अभिनंदन सुमति नमु, पद्म प्रभ सुखकार ॥१॥ स्वामी सुपार्श्व सोहामणा, चंद्रप्रभु जिनराज । सुविधि शीतल सेविये, श्री श्रेयांस सिरताज ॥२॥ वासुपूज्य विमल विभु अनंत धर्म अरिहंत । श्री शान्ती प्रभु सोलमा,आवे भवनो अंत ॥३॥ कुथु अर संभारतां, दुरित सकल मिट जाय । मुनि सुव्रत नमि नेमिनाथ, आनंद मंगल थाय ॥४॥ पाश्वनाथ त्रेवीशमा, वर्धमान जिन भाण । चौवीशे चित्त धारतां, लहीये क्रोड कल्याण ॥५॥
___३५ उपदेशक चैत्यवन्दन क्रोधे कांई न नीपजे, समकित ते लुटाय । समता रसथी झीलीए, तो वेरि कोई न थाय ॥१॥ वहाला शु वढीए नहीं, छटकी न दीजे गाल । थोडे थोडे छडीए, जिम छंडे सरोवर पाल ॥२॥ अरिहंत सरखी गोठडी, धर्म सरीखो स्नेह । रत्न सरीखां बेसणां, चंपक वर्णी देह ॥३॥ चंपके प्रभुजी न पूजीया, न दीधुमुनि दान । तप करी काया न शोषवी, किम पामशो निर्वाण ॥४॥
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[२१] आठम पाखी न ओलखी, एम करे शुथाय । उन्मत्त सरखी मांकडी, भोय खणंती जाय ॥५॥ प्रांगण मोती वेरीया, वेले विटाणी वेल । हीरविजय गुरु हीरलो, मारु हेडुरंगनी रेल ॥६॥
१ आदिनाथजी की स्तुति का जोडा (राग-रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम) श्री शत्रुजय मंडण रिसह जिंणद पापतणो उन्मले कंद । मरुदेवी मातानो नंद, ते वंदु मन धरी आनंद ॥१॥ त्रण चोवीशी विहुत्तर जिना, भाव धरी वंदु एक मना। अतीत अनागत ने वर्तमान, तिम अनन्त जिनवर धरो ध्यान ।। जेहमा पंच कह्या व्यवहार, नय प्रमाण तणा विस्तार । तेहना सुनवा अर्थ विचार, जिम होय प्राणी अल्प संसार ।३। श्री जिनवरनी आणा धरे, जग जसवाद घणो विस्तरे । श्रीज्ञान विमलसूरि सानिध्य करे, शासन देवी संकट हरे ॥४॥
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[२२]
२ आदिनाथजी की स्तुति का जोडा
(राग - त्रिमल केवल ज्ञान कमला, कलित त्रिभुवन हितकरं ) अति सुघट सुंदर गुण पुरंदर, मंदरुप सुधीर । न कर्म कदली दलन दंती, सिंधुसम गंभीर ॥ नाभिराया नंदन वृषभ लंछन, ऋषभ जगदानंद | श्री राजविजयसूरींद तेहना, वंदे पद अरविंद ॥१॥ सुरनाथ सेवित, विबुध वंदित, विदित विश्वाधार । दोय सामला, दोय उजला, दोय नीलवर्ण उदार ॥ जासुद फूल समान दोई, सोल सोवन वान । श्री राजविजयसूरिराज, अहोनिश घरे तेहनु ध्यान ॥ २ ॥ ज्ञान महातम रुप रजनी, वेगे विद्धसन तास । सिद्धान्त शुद्ध प्रबोध उदयो, दिनकर कोडी प्रकाश ॥ पद बंध शोभित तत्व गर्भित, सूत्र पीस्तालीश । अति सरस तेहना अर्थ प्रकाशे, श्रीराजविजयसूरिश ॥३॥ गजगामिनी अभिराम, कामिनी दामीनिसी देह | सादु कमल नयणि विपुल, वयणि चक्केसरी गुणगेह || श्रीराजविजयसूरींद पाये, नित्य नमति जेह |
देह - उदयरत्न वाचक, जैन शासन विघ्न निवारो तेह ||४||
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[२३]
३ नेमिनाथजी का स्तुति का जोडा
(राग - विमल केवल ज्ञान कमला कलित त्रिभुवन हितकरं ) गिरिनारी गिरिवर नेमि जिनवर, विश्व सुखकर देव । ज्योतिष व्यंत्तर भुवनवासी, जाकी सारे सेव || यदुवंश दीपक मदन जिपक, बावीसमो नेमिनाथ । भावे भवि भजो भुवन हितकर, मुगति केरो साथ ॥ १ ॥ प्रथम जिनवर सिद्धी पाम्या, अष्टापद गुणवंद | वासुपूज्य चंपा रैवताचल, नेमि राजुलकंत ॥
नयरी पापा वीरसामी, समेत शिखर गिरीराज । तिहां वीश जिनवर मुगति पाम्या, तास प्रणमु पांय ॥ २ ॥ अरिहंत वाणी सुणो प्राणी चित्त जाणी सार । सिद्धांत दरीयो रयण भरियो, भविकजन सुखकार ॥ आगम आराधी भाव साधी, नारी नर वलि जेह । स्वर्गना सुख भोगवी पछी, परमपद लहे तेह ||३॥
बिका देवी यक्ष गोमेध, नेमि सेवा सारता । जिन धर्म वासित भविक जनना, दुरित दूर निवारता ॥ श्री पुण्यविजय उवज्झाय, सेवक भक्ति नामी शीश । गुण विजय करजोडी जंपे, पूरो संघ जगी ॥४॥
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[ २४ ]
४ पार्श्वनाथजी की स्तुति का जोडा
(राग - श्री शत्रु जय तीरथ सार)
परम प्रभु परमेस जिंद, परमसुखाकर शिवसुख कंद, प्रणमु पास जिणंद | परम दयाल दयानिधिचंद, परमधरम परकास दिणंद, पेख्या परमानंद ॥ पूजित सूरनर पय अरविंद, आणा हे सिरे इंद नरिंद, सेवे सकल मुदि । वामा देवी केरो नंद, जरा निवारी जितायो गोविंद, टाले भव भय कंद || १ ||
रण अटवी उजाड उबेखी, कांटी भरु टले नहिं लेखी, थलमा थानक रेखी | सुंदर सुरत सुगुण सुवेखी, मूरत मीठी जाणे विशेखी, निरखे सहु अनमेखी ॥ अभिगम पांचे चितमा वेखी, प्रणित करे पचांग गवेखी, मोझा मुखड देखी । मनु जन्म सफलो इम लेखी, समकित शुद्ध सुरंग सुखी, पवित्र थया प्रभु पेखी ||२||
गोडीपारसजी बहुगुण खाणी, वीशमो तीर्थकर जाणी, आव्या इन्द्र इन्द्राणी | सुरनर कोडी मिल्या मंडाणु, त्रिगडे तोरण श्रेणि बंधाणि, परषदा बार भराणी ॥ जगगुरु तखत आव्या हित जाणी, योजन मान वखाणे वाणी, निसुणे सहु भव्य प्राणी । श्रतम अन्तर अमिय समाणि अस्थि मजामांहि भेदानी, शिव सुखनी सहि नाणी ||३||
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सुरपति धरणेन्द्रनी देवी, पउमावई अपच्छर सुरसेवी, प्रभु गुण गीत थुणेवी । सजी सोले सनगार साहेली, अमर दीव्यांबर अंग धरेवी, गजगति चाल चलेवी ॥ जे जिन ध्यान धरे नित्यमेवी, तेहना वांछित सयल पूरेवी विघ्न हरे ततखेवी ॥ माता माहरी अरज मानेवी मेघविजय गुरु, सुजस वरेवी, भाणनी जयत करेवी ॥४॥
५ महावीरस्वामी की स्तुति का जोडा
(राग-जिन शासन वछित पूरण देव रसाल)
शासन नो नायक जिनवर श्री महावीर, सिंह अंक मनोहर, सोवन वरण शरीर । प्रभु नाम जपंता दुरगति दूर पलाय, महिमा जग वाधे नामे, नवनिध थाय ॥१॥
___ चोवीशे जिनवर मुगति तणा दातार, संजम गुण भरीया, तरीया भवि संसार । आनंद सुख लीला विलसे तिहा महाराज, भवि भाव धरीने, वंदो ते जिनराय ॥२॥
इन्द्र भूति गणधर विनवे वीरजिणंद, मुगति कदि जाउ, ते भारवो जिनचंद । सामि तव भाखे मोह तजो निरधार, होशो तुमे त्यारे, मुगति वधु भरतार ॥३॥
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[२६] सिद्धायिका देवी संघ ने सानिध्य कारी, नरपति सहु प्रणमे, गुण गावे नरनारी । पंडित गुरु मोहन दीपे कान्ती सवाई, शीशु कृष्ण पयंपे, दोलत देजो सवाई ॥४॥
६ पंचमी का स्तुति का जोडा
(गग-शत्रुजय तीरथ सार) श्री जिन नेमि जिनेश्वर सामी, एक मने आराधो धामी, प्रभु पंचम गति पामी । पंचरुप करे सुरसामि, पंच वरण कलशे करे नामी, सवि सुरपति शिव कामी ॥ जन्म महोत्सव करे इन्द्र इन्द्राणी, देवतणी ए करणी जाणी, भक्ति विशेष वखाणि । नेमजी पंचमी तप कल्याणी, गुणमंजरी वरदत्त परे प्राणी, करो भाव मन प्राणी ॥१॥
अष्टापदे चोवीश जिणंद, समेतशिखरे शुभ वीस भवि वंद, शत्रुजय आदि जिणंद । उत्कृष्टा सतरीसय जिणंद, नवकोडि केवली ज्ञानदिणंद, नवकोडी सहस मुणिंद ॥ संप्रति वीस जिणंद सोहावे, दो कोडि केवली नाम धरावे, दो कोडि सहस मुनि कहावे । ज्ञान पंचमी आराधो भावे, नमो नाणस्स जपता दुःख जावे, मन वांछित सुख थावे ॥२॥
श्री जिनवाणी सिद्धांते वखाणी, जोयण भूमि सुणो सवि प्राणी पीजिये सुधा समाणी । पंचमी एक विशेष वखाणि,
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[२७] अजुाली सघली ए जाणी, बोले केवल नाणी ॥ जाव जीव एक वर्षे करेवी, सौभाग्य पंवमि नामे लेवी, प्रत्येक मासे ग्रहेवी पंच पंच वस्तु देहरे ढोवी, एम साडा पंच वर्षे करेवी, आगम वाणि सुणेवी ॥३॥
सिंह गमनि सिंहलंको विराजे, सिंहनाद परे गुहिर गाजे, वदन चंद परे छाजे । कटिमेखला नेउर सुविराजे, पाये घुघरा छमछम बाजे, चालती बहुत दिवाजे ॥ गढ गिरनार तणी रखवाल, अंब लुब जूति अंबा वाल, अति चतुरा विचाल । पंचमी तपसी करत संभाल, देवी लाभविमल सुविशाल, रत्नविमल जयमाल ॥४॥
७ पंचमी की स्तुति का जोडा
(राग-वीर जिनेश्वर अति अलवेसर) पंच रुप करी मेरु शिखर गिरी, जन्म महोत्सव जेहनो जी। सोवन कलशे इन्द्र करे जग, मोटो महिमा तेहनो जी । पंचमीगति पोहता नेमीसरु, भगते जे आराधे जी । तेहने पंचमी नो तम करताअविचल मंगल वाधे जी॥१॥ इन्द्रिय पंच महा पंचानन श्री; जिने ते वस करीया जी। किरिया पंच रहित जे जिनवर, पंच नाण परिवरिया जी ।।
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[२८] पंच भोग छंड्या जगमांहि, पंच महाव्रत धारी जी। पंचमीनो तप करता अमने, होजो शिवसुख कारी जी ॥२॥ आगम नो आगम प्रतित्य, दुःख विषधर विष नासे जी । जे नर नारी भाव धरीने, एहिज मंत्र उपासे जी॥ जीवदया मिरमल जलदरीयो, उपसम रसथी भरीयो जी। तेथी पंचमी तप जगमांही, सवि भवियण आचरीयो जी ॥३॥ रुम झुम रुम झुम झांजर चरणे, शरणे आव्या राखे जी। अंबाई देवी सुरनर सेवी, वयणे मधुरु भाखे जी ॥ लब्धिवंत महाजश मोटो, सेवक जन आधारा जी। पंचमीनो तप करता देवी, हर्या विघन हमारा जी ॥४॥
८ ग्यारस की स्तुति का जोडा
(राग-श्री शत्रुजय तीरथ सार) वीर जिनने पूछे गणधारी, गौतम नामे पर उपकारी, निसुणे सुर नरनारी । कहुं भगवन एक वचन विचारी, मागसर अग्यारस सुखकारी, कुणे किधी कुणे धारी ॥ श्री जिन कहे सांभल अणगारी, अंग थकी सवी आलस वारी, उपसम रस मन ठारी । वासुदेव त्रण खंड भोक्तारी, डेढसय कल्याण किर कारी, सारी तेणे ए तवि संभारी ॥१॥
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[ २९ ]
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मौन अग्यारसी महिमा जाणी, कृष्ण आगले नेमिनाथ वखाणी, मनमांहि धरो शुभ प्राणी | अतीत अनागत ने वर्तमानी, नेउ जिनना हुआ कल्याणी, अवर न एह समाणी || मागसिर शुदि ग्यारसनी ठाणी, वरसी वारु दिन मन आणी, पर्वमांही पटरानी । महायश प्रमुख नाम शुम प्राणी, वारे करम अगनिनि छाणी, पापपंक विसराणी || २ ||
आगम मांही अरथ संभाली, गणधर देवे कही रढीयाली, ग्यारसी अजुवाली । भावधरी जिने प्रतिपाली, तेह घरी ऋद्धी वृद्धि सुविलाशी, गुण गाए सुर आली ॥ मौन करी आठ पहोर मनवाली, राग द्वेष सवि दूरे टाली, तपफल हुए टंकशाली । श्री जिन नामे पाप पखाली, पहेरी पवित्र वस्त्र विलासी, व्रत लिये पौषधशाली ||३||
मौन अग्यारसी दिन जे ध्याई, विधीपूर्व जिननाम गणाई, सुकृत भंडार भराई | वर्धमान जिनवर गुण गाई, सिद्धायिका मातंग जक्षराई, नामे विघन पलाई || एह सानिध्य संपूरण आय, पाप ताप संताप न थाय, वाधे बहु जस वाय । चविह संघ मनवांछित पाय, दुःख दोहग दुरगति सवि जाय, कहे राजरत्न उवज्झाय ॥ ४ ॥
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[३०] ९ सिद्धचक्रजी की स्तुति का जोडा
(राग–वीर जिनेसर अति अलबेसर) सकल सुरासर नर विद्याधर, भक्ति थकी जे सुणीये जी। वांछित पूरण सुरतरु हुँति, अधिकी महिमा सुणीये जी ॥ रोग सोग सवि संकट चूरण, जस गुण पार न मुणिये जी। सिद्धचक्र गुण भवियण अहनिश,
नित नित मुखथी गुणिये जी ॥१॥ कंचन कोमल वरणि केई, घन सामल रुचि देहा जी । कहा स्फटिक परवाला रुचिवर, पंच वरण गुण गेहाजी ॥ सत्तरीसय भरतैरावत, पंच पंच महाविदेहा जी। सिद्धचक्रनो ध्यानज ध्यावो, कर्म थया थाशे छेहाजी ॥२॥ अरिहंत सिद्ध आचारज वाचक, साधुतणा समुदाया जी । दर्शन ज्ञान चारित्र तप निर्मल, नवपद शिवपद ध्याया जी। सिद्धचक्रनो महिमा दाख्यो, शिवसाधन निपाया जी। एह विना अवर दूजो नवि लहिये,जसगुण कह्यान जाया जी॥३॥ विमल यक्ष सुर सानिध्यकारी, ग्रह गण सविदिशीपाला जी। चक्केसरी अमरि ने दिशीकुमरि, श्रुतदेवी रखवाला जी ॥ सिद्धचक्र मंत्र अधिकारी, टाले मोहना चाला जी । ज्ञान विमल प्रभु प्राण वहंता, करता मंगल माला जी ॥४॥
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[३१] १० सिद्धचक्र की स्तुति का जोडा
(राग-श्री शत्रुत्रय तीरथ सार) श्री सिद्धचक्र सेवो भवि लोका, धन कन कंचन केरा योगा, मन वांछित लहो भोगा । दुष्ट कुष्ट सवि जावे रोगा, जावे सघला मनथी शोगा, सीझे सयल संयोगा ॥राय राणा मां ने दरबार, धन धन जपे सयल संसार, सोहे बहु परिवार । नवपद महिमा म्होटो कहिये, एहने ध्याने अहो. निश रहिए, शिवसुख संपती लहिए ॥१॥
मध्यदले जिनवर चोवीश, हुआ अने होशे जगदीश, वाणी गुण पेंतीस । अतिशय सोहे जस चोत्रीश, माया मान नही जश रीश, सोहे सयल जगीश॥ कंचन वाने सोल विराजे, दोय राता दोय धवला छाजे, श्यामला दोय विराजे। दोय निला इम सवि जिनराज, धवले ध्याने ध्यावो आज, श्री सिद्धचक्र सुख काज ॥२॥
दोष अढार रहित भगवंत, आठे भेदे सिद्ध महंत, आचारज गुणवंत । पंचवीश गुणे उवज्झाय, सतावीश गुणे मुणीराय, समकित भेद कहाय ॥ नाण चरण तप भेदे ध्यावो, आसौ चैत्रीशु मन लावो, नव दिन पावन थावो । आगम भाषित ए जिनवाणि, सुणी आराधो सिद्धचक्र प्राणी, एह साची गुणखाणि ॥३॥
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[३२] श्री सिद्धचकनी जे रखवाली, चक्केसरी देवी रतनाली, पगे नेउर वाचाली । कटिमेखल खलके कटि देशी, मन मंथर चाले शुभ वेसी, सोहे नाभि निवेशी ॥ उदर हृदय . कर करज विराजे, मुखथी चंदो गयणे भाजे, सघली शोभा
छाजे । श्री विजयप्रभसूरीश सहाई, कुगल सागर वाचक सुखदाई, उत्तम शिष्य सवाई ॥४॥
११ पर्युषण की स्तुति का जोडा
(राग-धीरजिनेश्वर अति अलवेसर) सुकृत करणी उदय करीने, मानवभव मैं पायो जी। श्रावकने कुले साधुने योगे, श्री जिन सही जे ध्यावो जी ॥ पर्व पजुषन पुण्ये पामी, लाहो लीजे विशेखे जी । त्रिकरण शुद्धे किरिया पाले, तेह सुकृतने लेखे जी ॥१॥ अष्ट प्रकारी पूजा करीने, भाव धरी मन गमते जी। पवित्राई धणि शुद्ध पदारथ, भजो भविक जिन भगते जी ।। पोसह कीजे दानज दीजे, चउविह संघसुजुगते जी । पर्व पजुषन पाले जे नर, आवखु बांधे सुगते जी ॥२॥ वीर चरित्र कल्याणक सुपरे, प्रवचनना गुण सुणिये जी। च्यवन जन्म दीक्षा केवल पद, इत्यादिक वर्णवीये जी ॥
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[३३] थिरावली ने समाचारी, लहता सुख वहीये जी। छट्ट अट्ठम तप करता भवियण, शिवपदनां फल लहिये जी ॥३॥ इणी परे पर्व पजुसन करीये, पाप तिमिर परिहरिये जी । संवत्सरी दिन खामणा खामी, शत्रु मित्र सम गणिये जी ।। शाशनदेवी सानिध्यकारी, संघतणी रखवाली जी। बुध विवेक सेवक इम हर्षने, यो नित रंग रसाली जी ॥४॥
१२ पर्युषण की स्तुति का जोडा
(राग-श्री शत्रुजय तीरथ सार) पामी पर्व पजुसण सार, सत्तर भेदी जिनपूजा उदार, करीए हरख अपार । सदगुरु पास धरी बहु प्यार, कल्प सूत्र सुणिए सुखकार, बालस अंग उतार ॥ धरम सारथीपद सुपनां चार, सुपनपाठक आव्या दरबार, वीर जनम अधिकार । दीक्षा ने निर्वाण विचार, षट् व्याख्यान अनुक्रमे धार, सुणतां होय भवपार ॥१॥
नमि सुव्रत मल्लि अरकंत, कुंथु शान्ति ने धर्म अनंत, विमल वासुपूज्य संत । श्री श्रेयांस शीतल भगवंत, सुविधि चन्द्र सुपार्श्व भदंत, पद्म सुमति अरिहंत ॥ अभिनंदन संभव गुणखाण, अजितनाथ पाम्या निरवाण, ए चीश
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[ ३४ ]
अंतर मान | पास मिसर जगदीशान, रीषभचरित्र क प्रधान, सातमु एह वखाण ||२||
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आठ गणधर स्थविर गणिजे, नवमें वारसा समाचारी लीजे, नव वखाण सुखिजे । चैत्यपरिपाटि विधिश किजे, यथाशक्ति तप तपीजे, आश्रव पंच तजीजे ॥ भावे मुनि वरने बंदीजे, संवत्सरी पडिकमणु कीजे, संघ सकल खामिजे । श्रागम वयण सुधारस पीजे, शुभ करणी सवि अनुमोदिजे, नरभव सफल करींजे ||३||
मणिमां जिम चिंतामणि सार, पर्वतमा मेरु उदार, तरुमा जिम सहकार । तिर्थंकर जिम देव मां सार, गुण गणमां समकित श्री कार, मंत्रमाही नवकार | मतमां जिम जिनमत मनोहार, पर्व पजुषन तिम विचार, सकल पर्व शणगार । पारणे स्वामी भक्ति प्रकार, माणेकविजय विधन अपहार, देवी सिद्धाई जयकार || ४ ||
१३ रोहिणी की स्तुति का जोडा
(राग - वीर जिनेसर अति अलवेसर)
शीवसुख दायक नायक ए जिन, सेवे चोसठ इंदा जी । वासुपूज्य जिन ध्यान स्मरण थी, नित नित होय आणंदा जी ।।
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[३५]
रोहिणि तप जगमां प्रति म्होटो, खोटो नहीं लगार जी । अनुभव ज्ञान सहित आदरतां, लहिए भव भय पार जी ॥ १ ॥ स वीसमें दिन वे रोहिणी, तिरा दिन करो उपवास जी । द्रव्य भाव जिन पुजो चोवीश, केसर कुसुम बरास जी ॥ धूप अगर गौघृत दीप पूरी, वृक्ष अशोक रसाल जी । ते तले वासुपूज्य प्रतिमा थापी, पूजो भावे त्रिकाले जी ॥२॥ सात वरस सात मास ए तपनो, मान कहे जिनराय जी । पडिकमणु देववंदन किरियां, निर्मल मन वच काय जी ॥ भूमि शयन ब्रह्मव्रत तप पूरे, उजमणु निज शक्ते जी । दर्शन नाग चरण आराधी, साधो श्रुत नियुक्ते जी || ३ || रुमकुम करती संकट हरती, धारती समकित वाली जी । चंडाई देवी जिनपद सेवी, शाशननी रखवाली जी ॥ रोहिणी तप आराधे भवियां, भाव थकी मन साचे जी । तेल कान्ती अधिक जस जगमां, जो जिन भक्ते राचे जी ॥४॥
१४ अष्टमी की स्तुति का जोडा
(राग - वीर जिनेश्वर अति अलवेसर)
वीर जिनेश्वर कहे भवि भावे, अष्टमी व्रत आदरिये जी । ठमे अनर्थदंड निवारी, आठे मद परिहरिये जी ॥
पोरनो होर पोसो, आठमने दिन करिये जी । माठ प्रवचन माता पाली, अष्ट महासिद्धी वरीये जी ॥१॥
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[३६] संभव वीर सुपास ए जिनना, आठमे च्यवन कल्याण जी । आद्य अजित नमि सुव्रत सुमति, ए आठमे जनमीया जाण जी। चैतर वदि आठमें आदीसर, लहे दीक्षा महानाण जी । पास नेमी अभिनंदन आठमे, पद पाम्या निर्वाण जी ॥२॥ चन्द्रानन वारिषेन आठमे, अष्टमें द्वीप पूजीजे जी । अष्ट प्रकारी पूजा रचीने, अट्ठाई महोत्सव कीजो जी ॥ आठमे स्नात्र अट्ठोत्तरी कीजे, अष्ट करम छेदीजे जी । आठमो अंग उपांग ए आठमे, सांभली शिवपद लीजे जी ॥३॥ शशी वयणि मृग नयणि सुन्दर, देवी सिद्धाई सारी जी । मातंग जक्ष महाबली सुरगुण, सेवित समकितधारी जी ॥ विजयप्रभसूरि ध्यान धरी सदा, शासन सानिध्यकारी जी। प्रेमविबुद्ध शीश दर्शन देजो, सुख संपती हितधारी जी ॥४॥
१५ श्री सीमंधर स्वामी की स्तुति का जोडा श्री सीमंधर देव सुहंकर, मुनि मन पंकज हंसाजी । कुंथु अरजिन अंतर जन्म्या, तिहुअण जस परशंसा जी ॥ सुव्रत नमि अंतर वलि दीक्षा, शिक्षा जगत निराशजी । उदय पेढाल जिनांतरमां प्रभु, जाशे शिववहु पास जी ॥१॥ बत्रीश चउसट्ठी चउसट्ठी मलिया, इगसयसहि उक्किट्ठा जी । चउअड अम डली मध्यम काले, वीश जिनेश्वर दिट्ठा जी ।।
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[३७] दो चउ चार जघन्य दश जंबु, धायई पुष्कर मोझार जी । पूजो प्रणमो आचारांगे, प्रवचन सार उद्धारे जी ।। २ ।। सीमंधर वर केवल पामी, जिनपद खवण निमिचे जी । अर्थनी देशना वस्तु निवेषन, देता सुणत विनीते जी ।। द्वादश अंग पूरव पुत रचिया, गणधर लब्धि विकसियाजी । अपज्जवसिय जिनागम बंदो, अक्षय पदनां रसिया जी ॥३॥ प्राणारंगी समकित संगी, विविध भंगी व्रतधारी जी । चउविह संघ तिरथ रखवाली, सहु उपद्रव हर नारी जी । पंचांगुली सूरि शासन देवी, देती जश तस प्रऋद्धि जी । श्री शुभवीर कहे शिवसाधन, कार्य सकलमां सिद्धी जी ।४।
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१६ बीज की स्तुति का जोडा अजवाली बीज सुहावे रे, चंदा रूप अनुतम लावे रे । चंदा विनतडी चित्त धरजो रे, सीमंधर ने वंदना कहजो रे।। वीश विहरमान जिनने वंदु रे, जिन शासन पूजो आणंदु रे। चंदा एटलु कामज करजो रे, सीमंधर ने वंदना कहेजो रे ॥२॥ सीमंधर जिननी वाणी रे, ते तो अमिय पान समाणि रे । चंदा तम सुणि हमने सुणावो रे, भव संचित पाप गमावो रे॥३॥ सीमंधर जिननी सेवा रे, ते तो शासन भासन मेवा रे । चंदा होजो संघना त्राता रे, गज लंछन चंद्र विख्यातारे।।४।।
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[३८] १७ शान्तिनाथ भगवान की स्तुति का जोडा
(राग-नगरी नगरी द्वारे २ ढुडेरे सांवरिया) सकल सुखाकर प्रणमीत नागर, सागर परे गंभीरो जी। सुकृत लतावन सिंचन घनसम, भविजन-मनतरु कीरो जी ॥ सुर नर किन्नर असुर विद्याधर, वंदित पद अरविंद जी। शिवसुख कारण शुभ परिणामे, सेवो शान्ति जिणंद जी ॥१॥ सयल जिनेसर भुवन दिनेसर, अलवेसर अरिहंता जी । भविजन कुमुद संबोधन शशीसम, भयभंजन भगवंता जी । अष्टकरम अरि दल अति गंजन, रंजन मुनिजन चित्ता जी । मन शुद्धे जे जिनने आराधे, तेहने शिवसुख दित्ता जी ॥२॥ सुविहित मुनिजन मानसरोवर, सेवित राजमरालो जी। कलिमल सकल निवारण जलधर, निर्मल सूत्र रसालो जी ॥
आगम अकल सुपद पदे शोभित, उंडा अर्थ अगाधो जी। प्रवचन वचनतणि जेरचना, भविजन भावे अाराधोजी ॥३॥ विमल कमल दल निर्मल लोयण, उल्लसित करे ललिताणी जी। ब्रह्माणीदेवी निरवाणी, विघ्न हरण कण यंगी जी । मुनिवर मेघरत्न पद अनुचर, अमररत्न अनुभावे जी। निर्वाणीदेवी प्रभावे, उदय सदा सुख पावे जी ॥४॥
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[३९] १८ शंखेश्वर पार्श्वनाथजी की स्तुति का जोडा
(राग–मनोहर मूर्ति महावीर तणी) श्री शंखेश्वर पासजी, प्रभु पुरो वंछीत आश जी । प्रभु पोष वदी दशमी जनमिया, चोसठ इन्द्र महोत्सव कीया॥१॥ शत्रुजय तीरथ ध्याइए, आबु देखी नवनिधि पाइए । समेत शिखर तीरथ वंदीए, अष्टापदनामे आणंदीये ॥२॥ समोसरणे बेठा पासजी, प्रभु नीलवरण तनु खासजी । पांत्रीश वाणी गुणे करी, सहु सांभले देशना हितकरी ॥३॥ पास चरण कमल सदा सेवति, धरणीधर ने पद्मावती । पंडित कुवर विजय तणो, कहे रविविजय वंछीत दीयो ॥४॥
१९ शांतिनाथ भगवान की स्तुति का जोडा
(राग-रघुपति राघव राजाराम) अचिरासुत वंदु मन रली, दुःख दोहग जाय सब टली । मन वंछित पहुँचई संपदा, सो शान्ति जिणंद सेयु सदा॥१॥ ऋषभ शन्ति जिन पुजइ, नेमि पास तणा गुण लीजिइ । चउविसमा वीरजिनेसरु, इम वन्दु सकल जिणेसरु ॥२॥ भव पार ताप निवारणि, सुख संपत्ति सोहग कारजी। संसार समुद्र एह तारणि, इसी वाणी शांति जिणंदनी ॥३॥ संघ सुपसन्न वंछित कारणी, शासनदेव हितदायिणी । श्री हीरविजयसूरिसरु, बुध रत्नविजय शीश जयकरु ॥४॥
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[४०] २० सिद्धाचलजी की स्तुति का जोडा
(राग श्री शत्रुजय तिरथ सार) विमलाचल तीरथ नोराया, सुरनर'प्रणमे जेहना पाया, दीठे दुरगत पलाया । शत्रुजामहातम ऋषभ जिन आया, पुंडरीक पांचसे कोडी साह सुहाया, ध्यान धरीसि घाया ॥ तियंचगण जे पापे भरीया, ते पण शेत्रुजे सेजे तरीया, इम बहु शिवपुर परिया । सकल सुरासुर पूजित काया, भविजन भावे ए गिरी ध्याया, तेहना वंछित थाया ॥१॥
तातवाणी सुणि भरतजी राया, संघ लेई सिद्धाचल आया, उलट अंग भराया। शत्रुज कनकप्रसाद कराया, मणिमय आदि जिनना थपाया, त्रिभुवन नाम रखाया ॥ सुनंदा सुमंगला मरुदेवी माया, ब्राह्मी सुदरी बहिनी नव्वाणु भाया, शेत्रुजे तस बिंव भराया । अतित अनागत तीरथराया, वर्तमान जिन वंदु पाया, विहरमान चित्त ध्याया ॥२॥
रायणरुख तले सुरनरराया, रचीय समोसरण सखदाया, तिहां बेठा जिनराया । इंद चंद्र किन्नर चार निकाया, बारे परखदा अर्थ सुणाया, सूत्र रचे गणधर राया ।। अंग इग्यार उपांग दश दोया, नंदी अनुयोग मूल चारे होया, छछेद विशेषे जोया । दश पइन्ना मूलमूत्र सुणाया, भविक लोकने फलदाया, सांभलता पाप गमाया ॥३॥
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[ ४१] कवडजन करे दिनराया, शत्रुजे सानिध शिवपददाया, गोमुख चक्क सरी राया । चंपक वरणी जेहनी काया, पिहरन नव रंग वेष बनाया, नाभि नंदन शिवमाया । श्री विजय देव सरि पाट सोहाया, श्री विजय प्रभसूरि पाट बधाया, अमृत वाणि सुणाया।हर्ष विजय कवि शिश सवाया, दर्भावतिमां सिद्धाचल गाया, लक्ष्मी विजय सुखपाया॥४॥
२१ दिवाली की स्तुती का जोडा
(राग-बीर जिनेसर अति अलवेसर) सुखर पुखर प्रोपग श्रोपाई, क्षत्रियकुड पुर राया जी । सिद्धारथ पटरानी त्रिशला, पुत्र चरम जिनराया जी ॥ संजम लेई कर्म खपेई, केवल कमला लेई जी। तीरथ थापी बहोतेर वरसे, पावापुर पावेइ जी ॥१॥ हस्तीपाल राजाई लेखक , शालाई चोमासे जी । सोल पहोर उपदिसी अमास्ये, निशि सा कार्तिक मासेजी ॥ शिवरमणि परण्या जिनवीर, भाव उद्योत अभावे जी । दव्य उद्योते दिवाली दिठी, ते जिन वंदु भावे जी ॥२॥ हस्तीपाल सानिधे घर घर, दीवाली प्रगटाई जी। मेराइया सर नर ने नारी, दिवई तिमिर मिटाई जी ।
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[४२] लब्धि निधान गुरु गोतम पाम्या, केवल ज्ञान प्रभाते जी । सकल लोक हरख्या सुख संपत, विलसे सूत्र सिद्धांते जी ॥३॥ विष्णुकुमर सानिधि घर घर, भट्टारक जोहार जी । वीर निर्वाण उपवासी भाई, बीजे करे आहार जी ॥ वाचक श्रुतसागर संतिसागर, वीर चरित्र एम भाखे जी । जय कल्याण करे सहु संघनी, सिद्धायिका परभावे जी ॥४॥
ACASA १ आदिनाथजी का स्तवन ऋषभ जिणंद ने वंदना नित करीये हो भविकजन सुखकार । नयरी अयोध्या नाथने जस लांछन हो वर वृषनुसार ॥ऋषभ०॥१॥ मरूदेवी नंदन दीपता नाभि भूपना हो कुलमांही आधार । कंचन कांति शरीरनी निज तेजे हो दिन मणि अनुकार ऋषभ०॥२॥ इन्द्र चन्द्र दिनेंद्रादि देव पूजना होजे उत्तम नाथ । गोमुख जक्ष चकेसरी शासन देवथी हो जेह पुजितनाथ ॥ऋषभ०॥३॥ जुगला धर्म निवारीयो चार सहस्त्रथी हो व्रत लीधु छ सार । चउरासी सहस साधु थी जस सेवित हो पय कमल उदार ॥ऋषभ०॥४॥ आनन्ददाता जिनवरु जे नाथजी हो दान दया भंडार । सौभाग्य पदने आपता जेणे लीधु हो मुक्ति विमल सार ॥ऋषभ०॥५॥
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[४३] २ अजितनाथजी का स्तवन अजित जिणंद ने सेवो भविजन भाषशु, मंगल माला जे आपे जग नाथ जो । गज लांछन विजया नंदन सोहा मणा, ज्ञान दिवाकर विनीता नगरी नाथ जो॥अजित०॥१॥ जित शत्रुभूमिपति कुलमां चन्द्रमा; कंचन वरणी दीपे उत्तम देह जो । सादा चार सो धनुषनी ऊँची देहड़ी, भविजन वेल समूहने सिंचन मेह जो ॥अजित०॥२॥ एक सहस संवेगी पुरुषनी साथशु, संयम लीधु भवसागरमा पोत जो । एक लाख साधु परिवारे शोभता, लोकालोक ने देखे केवल ज्योत जो ॥अजित०॥३॥ अानन्द दायक जिन संपति विराजता, पंचागु गणधरथी सेवित पाय जो । बहोतेर लाख पुरवनु आयु पालीने, आठ करमने जीती शिवपुर जाय जो ॥अजित०॥४॥ ज्ञानमणि उद्योते बहु वली दीपता, दोष रहितने दान दया भंडार जो । सौभाग्य पदना दाता समता सुदरु, मुक्तिविमल पद सुख प्रापे श्री कार जो ॥अजित०॥१॥
३ सुमतिनाथजी का स्तवन सुमति जिणेसर साहिबोरे, सुमति तणो दातार. सेवंता संपद मिले रे, कुमति तणो परिहार ॥ जिणंदराय माहरे तुमसु नेह, जिम वष्पियड़ा मेह. जिणंदराय आवो, मुजमन गेह ॥जिणंदा॥१॥
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[४४]-- त्रिगड़े बेठा सोहियेरे, उदयाचल जिन भाण । दुरित तिमिर दुरे हरे रे, अनुपम केवल नाण ॥जिणंद॥२॥ रत्न सिंहासन बेसणेरे, छत्र त्रय शिर सार । चन्द्र किरण परे उजलारे, चामर ढले जयकार ॥जिणंद।।३।। वाणी योजन गामिनी रे, सरस सुधारस सार । देव ध्वनी तिहाँ दीपतोरे, भविजन मन सुखकार ॥जिणंद॥४॥ अशोक वृक्ष सुर तरु समोरे, नव पल्लव शीतल छांय । देवे दुंदुभि गयणां गणेरे, गाजे प्रभु सुपसाय ॥जिणंद।।५।। फुल पगर परिमल भरे रे, महेके दश दिशीसार । पंडित मेरूविजय तणोरे विनित विजय जयकार|जिणंद।।६।।
४ पद्मप्रभु का स्तवन हो अविनासी शिववासी सुविलासी सुसीमानंदना, छो गुणरासी तत्व प्रकाशी खासी मानो वंदना। तुमे धरनर पति ने कुले आया, तुमे सुसीमा राणीनाजाया। छप्पन दिशी कुमरी हुलराया हो॥१॥ सोहम सुरपति प्रभु घर आवे, करी पंच रूप सुरगिरिलावे । तिहां चोसठ हरि भेला थावे हो०॥२॥ कोड़ि साठ लाख उपर भारी, जल भरीया कलसा मनोहारी । सुर नवरावे समकित धारी हो०॥३॥
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[४५] थय थुइ मंगल करी घर लावे, प्रभुने जननी पासे ठावे । कोड़ी बत्रीश सोवन वरसावे ॥हो०॥४॥ प्रभु देहड़ी दीपे लालमणि, गुण गावे श्रेणी इन्द्र तणीं। प्रभु चिरंजीवो त्रिभुवन धणी ॥हो॥५॥ अढ़ीसे धनुष ऊँची काया, लही भोगनी राज्य रमा जाया । पछी संजम लही केवल पाया हो०॥६।। तीरथ वरतावी जगमाह, जन निस्तार्या पकरी बाँहे । जे रमण करे निज गुण माहे ॥हो०॥७॥ अम वेला मौन करी स्वामी, किम बेठा छो अंतरजामी । जग तारक विरूदे लगे खामी हो०॥८॥ निज पाद पद्य सेवा दीजे, निज समवड़ सेवकने कीजे । कहे रूपविजय मुजरो लीजे हो०॥६।।
५ सुपार्श्वनाथजी का स्तवन निरखी निरखी तुज बिंबने रे, हरखित हुए मुज मन्न, सुपास सोहामणा । निरविकारता नयन माँ रे, मुखड़े सदा सुप्रसन्न सुपास सोहामणा ॥१॥ भाव अवस्था साँभरे रे, प्रतिहारज नी शोभ सुपास सोहामणा । कोड़ी गमे देवा सेवारे करताँ मुंकी लोभ, सुपास सोहामणा ॥२॥ लोकालोकना सवि भावारे, प्रतिभासे परतक्ष, सुपास ,
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[ ४६ ]
सोहामणारे । तोहे न राचे नवि रुसेरे, नवि अविरतिनो पक्ष, सुपास सोहामणा || ३ || हास रति अरति नहि रे नहीं भयशोक दुगंछ, सुपास सोहामणा । नहि कंदर्प कदर्थनारे, नहि अंतराय नो संच, सुपास सोहमणा ||४|| मोह मिथ्यात निद्रा गई रे, नाठा दोष अदार सुनास सोहामणा । चोत्रीश अतिशय राजतोरे, मुलातिशयचार, सुपास सोहामणा ॥ ५॥ पांत्रीश वाणी गुणे करीरे, देतो भवि उपदेश सुपास सोहमणा । इम तुज विने ताहरेरे, भेदनो नहि लवलेश सुपास सोहामणा ||६|| रूपथी प्रभु गुण साँभरेरे, ध्यान रूपस्थ विचार सुवास सोहामणा । मानविजय वाचक वंदेरे, जिनप्रतिमां जयकार सुपास सोहामणा ||७||
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६ चन्द्र प्रभुजी का स्तवन
चन्द प्रभुजी नी चाकरी, मने लागे मीठी । जगमाँ जोड़ी जेहनी, कहाँ दीसे न दीठी ॥ प्रभुजी ने चरणे, माहरू मनडु ललचाणु । कोण छे बीजो एणे जगे, जोइने पलटाणु ॥ चन्द्र० ॥ १ ॥ कोड़ी करे पण अवरको, कोई काम न आवे । सुरतरू फूले मोहियो, कोण क सुहावे || चन्द्र० ॥२॥ जिम जिम निरखु नयनडे, तिम हैयुं उल्लेसे । एक घड़ी ने अंतरे, मुज मनडु तर से || चन्द्र० ॥३॥
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[ ४७ ]
मुज प्रभु मोहन वेलड़ी, करुणाशु भरीया । प्रभुता पुरे त्रीभुवने, गुण मणिना दरिया || चन्द्र० ||४|| सहेजे सो माहरो साहिबो, मल्यो शिवनो साथी । सहेजे जीत्यो जगतमां, प्रभुनी सेवा थी ॥ चन्द्र० ||५|| विमलविजय गुरुरायनो, शिष्य कहे करजोड़ी । रामविजय प्रभु नामथी, लहे संपदा कोडी | चन्द्र० ||६|| ७ सुविधिनाथजी का स्तवन
ताहरी अजबशी योगनी मुद्रारे, लागे मने मीठीरे । एतो टाले मोहनी निद्रारे, परतक्ष दीठीरे ॥ लोकोत्तर थी जोग नी मुद्रा व्हाला मारा, निरुपम आसन सोहे । सरस रचित शुक्ल ध्याननी धारे, सुर नरना मन मोहे रे || लागे || १ || त्रिगड़े रतन सिंहासनेबेसी, ( व्हाला मारा) चिहुँ दिशी चामर ढलावे । अरिहंत पद प्रभुतानो भोगी तोपण जोगी कहावे रे || लागे ० ||२|| अमृत भरणी मीठी तुज वाणी, ( व्हाला मारा) जेम आषाढ़ो गाजे । कान मारग थर हियड़े बेसी, संदेह मनमा भाँजे रे || लागे ० ॥ ३ ॥ कोड़ि गमे उभा दरबारे, ( व्हाला मारा) जय त्रण भुवन नी रिद्धि तुज आगे, दीसे || लागे ० || ४ || भेदलहुँ नहि जोग जुगतिनो, ( व्हाला मारा ) सुविधि जिणंद बतावो । प्रेमशु कांति कहे करी करुणा मुज मन मंदिर श्रावोरे || लागे ० ॥५॥
मंगल सुर बोले । इम तृण तोले रे
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[४८] ८ संभवनाथजी का स्तवन (राा-अजित जिणंदशु प्रीतडी-ए देशी) भव तारण संभव प्रभु, नीत नमीये हो नव नव धरी भावके नवसर नाटक नाचीये । वली राचीये हो पुजा करी चाव के सेना नंदन वंदिजे ॥१॥ दुःख दोहग दुरे करे, उपगारी हो मही महीमावंत के । भंगवंत भक्त वच्छल भलो, साई दीठे हो तन मन विकसंत के ॥सेना०॥२॥ अपराधीते उद्धर्या, हवे करीये हो तेहनी केही वातके । मुज वेला श्रालस धरे, किमविणसी हो जिननी तुम धात के ॥सेना०॥ ॥३॥ उभा अोलग कीजिये, वली लिजीये हो नित प्रत्ये तुम नाम के । तोपण मुजरो नवि लहो केता दिन हो इम रहे मनठाम के सेना०॥४॥ इम जाणीने कीजीये, जग ठाकर हो चाकर प्रतिपालके । तु दुःख तापने टालया, जयवंतो हो प्रभु मेघ विशाल के सेना०॥५॥
९ अनन्तनाथजी का स्तवन (राग-तमे पहु मित्री रे साहिबो-ए देशी)
ज्ञान अनंत अनंतनुं दरिशन चरण अनंत, सरस कुसुम वरसे घणां । समवसरण सुमहंत, अतिशय दीसे जिननाधना ॥१॥ नव पल्लव देवे रच्यो, तरुवर नाम अशोक ।
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[४]
देई प्रदक्षिणा देवने, वाणी सुणे सविलोक ॥अति०॥२॥ चाणी जोजन गामिनी, सुरनर ने तिरीयंच । ध्वनि मधरी ध्वनि मधरी प्रति बुझवे, कहे संसार प्रपंच ॥अति ॥३॥ चिहुँ दिशिवर चामर ढले, सुरपति सारे छे सेव । मणिमय कनक सिंहासने, बेठा देवाधिदेव ॥अति॥४॥ पुठे भामंडल झलहले गाजें दुदुभि गाज । छत्र त्रयीशिर उपरे, मेघाडंबर साज ॥अति०॥५॥
१० धर्मनाथजी का स्तवन ( राग-ऋषभ जिणंदा ऋजिणंदा ऐ देशी ) धरम जिनेश्वर केसर वरणा, अलवेसर सरवांगी सरणा । ए चिंतामणि वांछित करना, भज भगवंत भुवन उद्धरना ॥१०॥१॥ नवले नूरे चढ़ते शुरे, जे जिन भेटे भाग्य अंकुरे । प्रगट प्रभाव पुन्य पडुरें, दारिद्र दुःख तेहना प्रभु चुरे ॥३०॥२॥ जे सेवे जिन चरण हजूरे, तास घरे भरे धन भरपुरे । गाजे अंबर मंगल तुरे अरियण ना भय भाजे दुरे ॥३०॥३॥ मंगलगाजे शोभित सिंधुरे, जन सहु गाजे सुजस सपुरे । गंज्यो जाय नवीण ही करूरे, अरति थाय न काइ अणुरे ॥१०॥४॥ जिम भोजन होय दाल ने कुरे, जीपे ते रण तेज शूरे । मेघ तणा जल नदीय भुरे ।। मोहने सुर लखमी पुरे ॥१०॥शा
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[५०] . - ११ कुंथुनाथजी का स्तक्न
(राग-साँभल जो मुनि संजम रागे ए देशी)
आवो रे मन महेल हमारे, जिम सुख बोल कहाय रे । सेवक ने अवसर सर पुछो, तो वाते रात विहाय रे ॥प्रा०॥ ॥१॥ अपराधी गुणहीणा चाकर, ठाकुर नेह निवाजेरे । जोते भवर, नरा दिशी दोरे. प्रभु इण बात लाजे रेश्रा०॥ ॥२॥ कुथु जिणेसर सरखा सांइ, पर उपगारी पुरारे । चित्त वंता चाकर नवि तारे, तोश्या अवर अधुरारे ॥प्रा०॥३॥ मुज अनुचरनी माम वधारो, तो प्रभु व्हेला पधारोरे । ऊंची नीची मत अवधारो, सेवक जन्म सुधारो रे ॥०॥४॥ श्री नामे जननी धन्य जिननी, जिणे जन्म्यो तुज्ञातारे । मेघ तणी परे मोटा नायक, दीजे शिव सुख शातारे ॥प्रा०॥५॥
___ १२ ऋषभदेव का स्तवन (लाड़ी लो लाखेणी लाड़ी वखाणो आयो ए देशी)
सईयां ऋषभ जिणंद सुमन लाग्यु, चोल तणी परे रंग लागे रे। मोरू मन रातु ए, प्रभु रागे जेहबु हीर कीरमजी रागे है । रात दिवस जे प्रभु मुख भागे, मीन ज्यु रमे नीर अथागे हे ॥स०॥१॥ मेहे मोरा चंद चकोरा, जिम कोयल वली सहकारा हो । तिम प्रगटे बहु नेहा मेरा, ऐह
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[ ५१]
'मुरित सु अधिकेरा है ॥ स ० || २ || शोभा देखी प्रभु मुख फेरी, आंखड़ली उल्लसे अधिकेरी है । जाणु जे कीजे सेवा भलेरी, टाले दूर भवनी फेरी है || स०|| ३ || मोहन मुरति मोहन गारी, ऐ सम नहीं जग उपकारी है। एहीज साची कामणगारी, जिणे वश करी मुगति ठगारी हे ॥० ॥४॥ जिम जिम देख नयननिहारी, तिम मुझ मन लागे प्यारी हे । एह मुरति देखी मनोहारी, दरिशननी जाऊ बलिहारी है | | ० ||५|| नाभी नरेसर कुल अवतारी, मरूदेवी माता जे तारी है । सुनंदासुमंगला वरी जेणे नारी, युगला धर्म निवारी है || स ० || ६ || राज्यनी रीति जेणे विस्तारी, निरमलवर केवलधारी हे । शेत्र जा गिरिवर प्रभु पाऊ धारी, महिमा अनंत धारी हे || स०||७|| ऋषभ जिनेसर मुरति सारी, शेत्रु'जा गिरिवर शोभाकारी है । केसर विमल कहे जे नरनारी, प्रणमे ते जग जयकारी हे ||स||८||
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१३ अभिनन्दन स्वामी का स्तवन
(राग - सुण जिणवर शेत्रुजा धणीज ए देशी)
निरमल नाण गुणे करीजी, तु जाणे जग भाव । जग हितकारी तु जयोजी, भवजल तारण नाथ || जिणेसर सुख अभिनंदन जिणंद, तुझ दरिशन सुखकंद || जि० सु० ॥१॥ तुज दरिशन मुज वालहुंजी, जिम कुमुदिनी मन चंद ।
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[५२] जिम मोरो मन मेहलोजी भमरा मन अरविन्द जि०म०॥ ॥२॥ तुम विण कुण छे जगत माँजी, ज्ञानी महा गुण जाण । तुम ध्यायक मुज महेरथीजी, हितकरी द्यो बहुमान जि.सु.।। ॥३॥ तुझ हेत थी मुझ साहीबाजी, सीझे पाँछित काज । तिण हेते तुज सेवीयेजी, महेर करो महाराज ॥ज.सु.॥ ॥४॥ सिद्धारथा उर हंसलोजी, संवर नृप कुल भाण। केसर कहे तुज हेत थीजी, दिनदिन कोड़ी कल्याण जि.सु.॥५॥
१४ सुविधिनाथजी का स्तवन
(राग-बंध समयचित चेतीये-ए देशी) सुविधि जिणेसर साँभलो, तु प्रभु नवनिधिदाय, साहिबजी । तुज सुपसाये साहिबा, मन वांछित फल थाय ॥सासु०॥१॥ तु साहिब समरथ लही, बीजा सु केही प्रेम ॥सा.॥ छोड़ी सरोवर हंसलो, छील्लर रीझे केम
सा.सु.॥२॥ रयण चिंतामणि पामिने. कुण काचे लोभाय ॥सा.॥ कल्पतरू छाँया लही, कुणं चावल कने जाय ॥सा.॥ ॥सु०॥३॥ थोड़ी ही अधिकी गणु सेवा तुमची देव ॥सा.।। करे गंगाजल विंदुओ, निरमल सर नितमेव ।सा.सु.॥४॥ समरथ देवा सिरतिलो, गुणनिधि गरीब निवाज ॥सा०॥ मोहे निवाजो मायाकरी, साहिब सुविधि जिनराज ॥सा.सु.।। ॥५॥ तुज चरणे मुज मन रमे, जेम भ्रमर अरविन्द सा.।। केसर कहे सुविधि जिना, तुम दरिशन सुखकंद।सा.सु.॥६॥
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१५ श्रेयांसनाथजी का स्तवन
(राग–अरिहंत पद ध्यातो थको-ए देसी)
श्री श्रेयांस जिन साँभलो, सिंहपुर नगर निवासी रे । तुम सेवा मुज मनवसी, गज मन रेवा जेसीरे ॥श्री०॥१॥ जो आपो तुम सेवना तो, मन हरख न मायरे । कस्तुरी अंबर वही, जिम अधिकी मह मायो रे ॥श्री०॥२॥ गिरा जननी सेवना, कदीय न निष्फल थायरे। हरि रयणायर सेवतां, लच्छी लही सुखदाय रे ॥श्री०॥३॥ रिसहेसर सेवा थकी, नमि विनमी नृप नाथरै । हर सेवत गंगा लह्यो, हर सिर उत्तम ठायरे ॥श्री०॥४॥ तिम प्रभु तुज सेवा थकी, सीझे वांछित आशोरे । तुज सुपसाये साहिबा, लहीये लील विलासोरे ॥श्री०॥५॥ लोह चुमक ज्यु माहरो मन लाग्यो तुम साथ रे। तिम जो मोसु तुमे मिलो, तो मुगति मुझ हाथ रे ॥श्री०॥६॥ मन मोहन मुज विनती, श्री श्रेयांस जिन स्वामी रे । यो प्रभु तुम पय सेवना, केसर कहे शिरनामी ॥श्री०॥७॥
१६ अरनाथजी का स्तवन _ (राग-पुखलबई विजये जयोरे-ए देशी)
कवि कुमुद वन कौमुदी रे, समरी शारद माय । अरम : करू अरजिन भणी रे, भावधरी मन माय, जिणंदराय
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[ ५४ ]
धारो
| तु प्रभु पुरण आश | जिणंदराय० ॥ १ ॥ तुं समरथ त्रिहुँ लोक मारे, गिरूओ गरीब निवाज | तुझ सेवा थी साहिबो रे, सीझे वांछित काज जिणंदराय || २ || शिव सुखदायक तु जयोरे, भव भय भंजनहार । तुजमुज मन नेहलोरे, चातक जिम जल धार जिणंदराय || ३|| तुज पद पंकज फरसथी रे, निरमल श्रतम होय । लोह सोवनता जिम लहे रे, वेधक रस थी जोय जिणंदराय || ४ || तुज प्रणमीजे पूजीये रे ते दिन सफल विहाण । तुज हित थी प्रभु मुंज तणु रे जीवित जन्म प्रमाण जिण दराय ||५|| अंतरजामी माहरारे, अरज करू कर जोड़ | भगते तुम पद सेवना रे, द्यो मुझ एहीज कोड़ जिण दराय || ६ || सुखदायक त्रिभुवन धणीरे, भव जल तारण नाव | केसर विमल इम विनवेरे, पर जिन भक्ति प्रभाव जिणंदराय
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||७||
Jafo anche se fo
१७ मल्लीनाथजी का स्तवन
(राग - तुज शासन अमृत मीठु संसारमां नवी दीठु रे मन मोहन स्वामी) सेवो भवियण मल्ली जिणेसर, भाव भगती मण भाणी रे, मारो जिनजी सोहावेरे । गंगोदक जल कुंभ भरी भरी, स्नान करो भवि प्राणी रे मारो जिन मनोहारी ॥ १ ॥
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[५५] केसर चंदन भरीय कचोली, आणि फूल चंगेरी रे मारो. नव नव अंगे पूजो मुरति मल्लि जिनेसर केरी रे ॥मा०॥ ॥२॥ देवाधिदेव तणी पुजा, कीजे आठ प्रकारी रे, मारो० तेतो आठ महा सिद्धी प्रापे, आठे करम निवारी रे ॥मा०॥ ॥३॥ धन ते दीहा जीहा ते धन, जेणे प्रभु गुण गाइजे रे, मारो० जिणे प्रभु देखी हरख लहीजे, सो नयणाँफल लीजे रे मा०॥४॥ जिण नयणे दीठो ए जिनवर, तेहीज जिन हैये वहीये रे, मारो० धन ते हैडुनयन थकीपण अधिक कृतारथ कहीये रे ॥मारो०॥५॥ ते धन हाथ जेणे प्रभु पूजे, ते धन सिर जेणे नमीये रे मारो० जिण गुण गातां मक्ति करतां, शिव रमणी शु रमीये रे ॥मारो०॥६॥ शिवसुखकरी, भवभयहारी, मुरति मोहन गारी रे मारो० कहे केसर नित सेवा कीजे, मल्लि जिनेसर केरी रे ॥मारो॥
१८ नेमनाथजी का स्तवन (राम-तेरी शहनाई बोले-गुज उठी शहनाई)
साँभल स्वामी चित्त सुखकारी, नवभव केरी हुँ तुज नारी रे। प्रीति विसारी का प्रभु मोरी, क्यु रथ फेरी जानो छोरी ॥१॥ तोरणा आवीशु मण जाणी, परिहरी माहरी प्रीति पुराणी । किम वन साधे व्रत लीये आधे, विण
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[५६]
अपराधे श्ये प्रतिबंधे ॥२॥ प्रीतीकरी जे किम तोड़ी जे, जेणे जस लीजे ते प्रभु कीजे । जाण सुजाणज ते जाणी जे, वातज कीजे ते निवहीजे ॥३॥ उत्तम ही जो आदरी छड़े, मेरू महिधर तो किम मंडे । जो तुम सरीखा सयणज चुके तो किम जलधर धारा मुके ॥४॥ निगुणा भुलो तेतो त्यागे, गुण विण निवही प्रीति न जाये । पण सुगुणा जो मुली जाये, तो जगमां कुण हे कहेवाये ॥५॥ एक पखी पण प्रीति निवाहे, धन धन ते अवतार आराहे । इम कहीं नेमशु मली एक तारे, राजुल नारी नइ गिरनारे ॥६॥ पुरण मनमाँ भाव भरेई, संजमी होई शिवसुख लेइ । नेमशु मलीयां रंगे रलीयां, केशर जंपे वंछित फलियां ॥७॥
१९ सुपार्श्वनाथजी का स्तवन
(राग–अजित जिणंद शुप्रीतड़ी ए देशी) श्री सुपार्श्व जिन साहिबा, सुणो विनती हो प्रभु परम कृपाल के । समकीत सुखड़ी आपी ए दुःख कापीये हो, जिन दीनदयाल के ॥ श्री सु०॥१॥ मौनधरी बेठा तुमे निचिंता हो प्रभु थइने नाथ के । हुँ तो आतुर अति उता. वलो, मागु छु हो जोड़ी दोय हाथ के श्री सु०॥२॥ सुगुणा साहिब तुम बिना कुण करसे हो सेवक नीसार के ।
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[५७] आखर तुम हीज प्रापशो तो शाने हो करो छो वार के ॥श्री सु०॥३॥ मनमाँ विमाशी शु रह्या अंश ओछु हो ते होय महराज के । निरगुण ने गुण आपतां ते वाते हो नहीं प्रभु लाज के ॥श्री स०॥४॥ मोटा पासे मांगे सहु कुण करशे हो खोटानी आश के । दाताने देतां वधे घणु कृपण ने हो होय तेह नो नाश के ॥श्री सु०॥॥ कृपाकरी सामुजो जुओ तो भांजे हो मुज कर्म नी जाल के, उत्तर साधक उभां थकां, जिम विद्या हो सिद्ध हो तत्काल के ॥श्री सु०॥६॥ जाणु आगल कहेवु किप्यु, पण अरथी हो करे अरदास के । श्री खिमा विजय पय सेवतां, जस लहीये हो प्रभु नामे खास के ॥श्री सु०॥७॥
२० विमलनाथजी का स्तवन
(राग-सभव जिनवर विनती–ए देशी) विमल जिनेसर वंदी ए, कंदीये मिथ्या मूलो रे । प्रानंदीये प्रभु मुख देखी ने, तो लहीये सुख अनुकूलो रे ॥वि०१॥ विमल नाम के जेहनु, विमल देसण सोहे रे । विमल चारित्र गुणे करी, भवियणनो मन मोहे रे ॥वि०२।। विमल बुद्धि तो उपजे, जो विमल जिनेसर ध्यायरे । विमल चरण प्रभु सेवतां, विमल पदारथ पाय रे ॥वि०३।। विमल कमल दल लोयणां, वदन विमल ससी सोहे रे ।
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[ ५८ ]
विमल वाणी प्रभुनी सुणी, भव्य जीव पड बोहेरे || वि०४ || विमल जिहां तस जाणीये, जे विमल जिणंद गुण गावेरे । श्री खिमाविजय पय सेवतां, विमल जस बहु पावे रे || वि०५ ॥
२१ नमिनाथजी का स्तवन
(राग - सुमतिनाथ गुण सु ं मिलीजी - ए देशी) raataमाँ जिन लेजी, अरज करू कर जोड़ | आठ अरिए मुंज बाँधीजी, ते भव बंधन छोड़ । प्रभु प्रेम धरी ने अवधारो अरदास || १|| ए अरथी अलगा रह्यो जी, अवर न दीसे देव । तो किम तेहन जाचीयेजी, किम करू तेहनी सेव || प्रभु ०२ || हास्य विलास विनोद मांजी, लीन रहे सुर जेह । आपे रिगण वश पड्याजी, अवर उगारे किम तेह || प्रभु ०३ ॥ छत ते होय तिहां जाचीये जी, छते किम सरे काज | योग्यता विण जाचताजी, पोते गुमावे लाज ॥ प्रभु०४ ॥ निश्चय छे मन माहरेजी, तुमथी पामीश पार । पण मुख्यो भोजन समेजी, भाणे न टके लगार || प्रभु०५|| ते माँटे कहुँ तुम भणीजी, वेगे की जे सार । आखर तुमहीज श्रापशोजी, तो शी करो हवे वार || प्रभु०६ || मोटा ना मन मां नहिजी, अरथी उतावलो थाय । श्री खिमा विजय गुरु नामथी जी, जग जस वांछित पाय || प्रभु०७
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[५९]
२२ महावीरस्वामी का स्तवन (राग-तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी-ए देशी)
वीर वड़ धीर महावीर मोटो प्रभु, पेखतां पाप संताप नासे। जेहना नाम गण धाम बहु नाम थी, अविचल लील हैये उल्लासे ॥वी०१॥ कर्म अरि जीपतो दीपतो वीर तु, घोर परिषह सहे मेरू तोले । सुरे बल परखीयो रमतकरी निरखीयो, हरखीयो नाम महावीर बोले ॥वी० २॥ साप चंडकोशियो जे महा रोषीयो, पोषीयो ते सुधा नयन पुरे। एवड़ा अवगुण शा प्रभु मे कर्यां, ताहरा चरण थी राखो दूरे ॥वी०३॥ शुल पाणी सुरने प्रति बोधीयो, चंदना चित चिंता निवारी । महेरकरी घरे पहोता प्रभु जेहने, तेह पाम्या भव दुःख पारी ॥वी०४॥ गोतमादिक ने लइ प्रभु तारवा, वारवा यज्ञ मिथ्यात्व खोटो । तेह अगीआर परिवार शु बुझवी, रूझवी रोग अज्ञान मोटो ॥वी०५॥ हवे प्रभु मुज भणी तु त्रिभुवनधणी, दास अरदास सुणी सामु जोवो ।
आप पद प्रापतां आपदा कापतां, ताहरे अंश अोछुन होवे ।।वी०६॥ गुरु गुणे राजता अधिक दिवाजता, छाजता जेह कलिकाल माहे । श्री खिमा विजय पय सेव नित्यमेव लही, पामीये समरस सुजस त्याहें ॥वी०७॥
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[ ६० ]
२३ चन्द्रप्रभुजी का स्तवन (राग - तमे बहु मैत्री रे साहिब - ए देशी) चन्द्रप्रभ जिन साहिबा रे, शरणागत प्रतिपाल । दर्शन दुर्लभतुम त, मोहन गुण मणि माल ॥ च०१ ॥ साचो देव दयाल वो, सहजानन्दनु धाम । नामे निधि संपजे, सीझे वांछित काज ॥ च०२ || ध्येय पले रे ध्यावत, ध्याता ध्यान प्रमाण । कारणे कारज नीपजे, एवी आगम वाण ॥ च०३ || परमातम परमेशरू, पुरूषोत्तम प्रधान । सेवक नी सुणी विनती कीजे आप समान ॥ च०४ || श्रद्धा भाषण रमणता, आणी अनुभव अंग | निरागी शुरे नेह लो, होय अचल अभंग | | ०५ || चन्द्र प्रभ जिन चित्त थी, मुकु नही जिनराज । मुन त घरमांहे खेंचीयो, भक्त में सातराज ॥ च०६ || गुण निधि गरीब निवाज छो, करुणा निधि कीरपाल । उत्तम विजय कविराजनो, रतन लहे गुणमाल ॥ च०७॥
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२४ पद्मप्रभुजी का स्तवन
(राग - मेरे साहिब तुम ही हो - ए देशी)
सकल मंगल पर सदन जे, पद्य प्रभु जिन पूजा । त्रिभुवन पति तुजने तजी, दिल कुण करे दूजा || स० ॥ १ ॥ श्रज्ञा एक प्रभुतणी, सवि कामना साधे | बीजुशु गांठे बांधीये,
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[६१] चिंतामणी लाधे ॥स०॥२॥ प्राण जे अहनी उत्थापशे, मानव मतिहीना। ते ऊंचा केम अावशे, दुःख देखने दीना ॥१०३॥ सेवे जे शुधे मने, चरणे चित लाई। नरनारी जिन नित्य नमे, धन्य तेहनी कमाइ ॥स०॥४॥ वाचक उदयनी विनती, परिकरने पुरे । महाराज लेजो मानीने, सदा उगते सूरे ॥स०॥॥
२५ शीतलनाथजी का स्तवन
(राग–मारे दिवाली थई आज-ए देशी) मुज मनड़ा मां तु वस्यो रे, ज्यु पुष्पोमां वासरे । अलगो न रहे एक घड़ी रे, सांभलरे सातो सास । तुमशु रंग लाग्यो, रंग लाग्यो सातेधात । तुमशु रंग लाग्यो त्रिभुवन नाथ ॥तु०॥१॥ शीतल स्वामी जे दिन रे, दीठो तुज देदार रे । ते दिन थी मन मांहरू, प्रभु लाग्युताहरीलार ॥तु०॥२॥ मधुकर चाहे मालतीरे, चाहे चंद चकोरे रे। तिम मुज मनने ताहरी, लागी लगन अति जोर ॥तु०॥३॥ भरे सरोवर उलटे रे, नदियां नीर न माय । तो पण जाचे मेघकुरे, जेम चातक जग माय ॥तु०॥४॥ तेम जगमांही तुम विना रे, मुज मन कोय रे । उदयवदे पद सेवना रे, प्रभु दीजे सनमुख होय ॥तु०॥५॥
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[६२] २६ वासुपूज्यजी का स्तवन
__ (राग-ए तीरथ तारू-ए देशी) वासुपूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, मेतो पुन्ये सेवा पामी रे। शिवपुरना वासी मुज मन मंदिर अंतरजामी, श्रावी वसो शिवगामी रे, ॥शि०॥१॥ अहो निश साहिब प्राणा पालु, कर्म रिपु मद भालु रे ।।शि०॥ विषय कषाय कंटक सवि टालु, शुचिता घर अजुभालु रे ॥शि०॥२॥ उपशम रस छटकाव करावं, मैत्री पटुकुल बिछाऊ रे, शि० भगति निके तकीये बनाऊ, समकित मोती बधाऊ रे शि०॥३॥ आगम तत्व चंदरवा बांधु, बुद्धि दोरी तिहां साधु रे शि० बोधि बीज प्रभु थी मुज लाध्यु, चरण करण गुण वाधुरे ॥शि०॥४॥ नय रचना मणि माणेक ओपे, भक्ति शक्ति नवि गोपे रे शि० अनुभव दीपक ज्योत आरोपे, पाप तिमिर सवितोपेरे ॥शिव॥५॥ मुज मन मंदिर साहिब आया, सेवक बहु सुख पाया रे शि. भगते रीझे त्रिभुवन राया, न्याय सागर गुण गाया रे ॥शिव०॥६॥
२७ शांतिनाथजी का स्तवन (राग-विमल जिन दीठाँ ओयण आज-ए देशी)
अाज थकी में पामीयो रे, चिंतामणि सम ईश । सफल मनोरथ पूरवारे, उदयो विशवा वीश । भविकजन सेवो शांति
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[६३] जिणंद ॥१॥ मोटा ना मनमाँ नहिं रे, सेवकनी अरदास । इण बाते जुगतुं नहिं रे, जेहशु बाँधी प्राश ॥०॥२॥ साहिब थी दुरे रह्या रे, को नवि सीझे काम । तो पण नजरे निहालताँ रे, को नवि लागे दाम भ०॥२॥ो लग कीजे ताहरी रे, अहनिश उभा बार । तोपण तुरीझे नहि रे, अछे कवण विचार ॥भ०॥४॥ उपरली वातों किया रे, नावे मन विशवास । आप रूपे आणी मिलो रे, जिम होवे लील विलास ॥०॥५॥ दृढ़ विशवास करी कहुँ रे, तुहीज साहिब एक । जो जाणो तो जाणजोर, मुज मन एहीज टेक ॥०॥६॥ शान्ति जिनेसर साहिबा रे, विनतड़ी अवधार । कहे कवियण आजथी रे, अंतर दूर निवार भ० ७॥
२८ श्री गोड़ी पार्श्वनाथजी का स्तवन __(राग - राजगृही नगरी नो वासी--ए देशी)
जय गोड़ी पास जिणंदा, प्रणमे सुरनर नागिदारे । जिनजी अरज सुणो, शरणागत सेवक पालो । जग तारक विरूद संभालो रे जिनजी०॥१॥ तुम सरखो अवर दीखावो जइ कीज़ तेह शुदावोरे । जिनजी० वसुधानो ताप शमावे, कुण जलधर विण वनदावे रे ॥जिनजी०॥२॥ निरगुण पण चरणे वलग्या, किम सरसे कीधा अलगारे जिनजी० पत्थर पण तीरथ संगे, जुनो तरता नीर तर गरे |जिनजी० ३॥
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[३४] लीम्बादिक चंदन थाय, लही मलयाचलनो वायरे, जिनजी० पामा पारस संयोग; लोह कंचन जाति अभोग रे ॥जिनजी॥ ॥४॥ चेतन पारिणामिक भव्य, तुम्ह दरशन फरशन भव्य रे जिनजी० ज्ञान गोरस चरण जमावे, जिन विजय परम पद पावे |जिनजी॥५॥
२९ आखातीज का स्तवन श्री रिखब वरसोपवासी, पुरवनी प्रीत प्रकाशी । श्रेयास बोले शाबाशी, बाबाजी विनती अब धारोरे, मारे मंदिरीये पाऊ धारो ॥बाबाजी० १॥ शेलड़ी रस सुझतो व्होरो, नाथजी न करवो न्होरो । दरिशन प्रति आपो दोरोवाबाजी ॥२॥ प्रभु ए तव मांडी पसली,आहार लेवानी गति असली । प्रगटि नव दुर्गति वसली ॥बाबाजी॥३॥ अजुआली त्रीज वैशाखी, पंच दिव्य थता सुर साखी । एतो दान तणी गति दाखी ॥बाबाजी० ४॥ युगादि पर्व जाणो, आखा त्रीज नामे वखाणो । सहु कोई करे गलमाणो बाबाजी०॥५॥ सहस वरसे केवल पायो, एक लाख पुख अर आयो । पछी परम महोदय पायो ।बाबाजी० ६॥ अम उदय वंदे उवज्झाया, पुजोजी रिखबना पाया। जेणे आदि धर्म उपाया बाबाजी० ७॥
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[६५] ३० नवपदजी का स्तवन
(राग–महा विषम काले-ए देशी) अलवेलानी जोऊ वाटड़ी रे, महारी खसी खसी जाये पाटलीरे । जाणी घेवर केरी माटली रे ॥१०॥ प्रेम धरी ने परखीये रे अंतर भावे हरखीये रे । नेक नजर थी निरखीये रे ॥१० १॥ नवपद ने मनमां धरो रे, शिव सुन्दरी सहजे वरो रे । प्रदक्षिणा फेरा करो रे ।।अ० २॥ पहेले पद अरिहंत नारे, गुणगावो भगवंतना रे । कर्म चुरो जेम संतना रे ॥१० ३॥ बीजे पदे सिद्ध शोभता रे, त्रण भुवनमां नहीं नहीं लोभता रे । तुमे कोई उपर नहीं कोपतारे ॥ ४॥ त्रीजे पदे सुख पामीये रे, आचारज शीश नामीये-रे । अष्ट कर्म दुःख वामीय रे ॥१० ५॥ चौथे पद उवज्झायने रे, समरे संपति थायने रे। दुःख दोहग सहु जायने रे ॥अ०६॥ पंचमुपद सुखे वरोरे, साधु सकल हिये धरोरे । भव समुन्द्र सहेजे तरो॥०-८॥ समकित सरखी सुन्दरी रे, खटपट ने मुंको परि रे । सहेजे शिव सुन्दरी वरी रे ।।अ० ९।। ज्ञान चारित्र ने तपनो रे, चउद मुँवनमाँ खपनो रे। नवपद बिना नहिं जपनो रे ॥१०२१०॥ नवपद निश्चे जाणीये रे, शिव सुन्दरी सुख माणीये रे । शुभवीर विजय नी वाणीये रे॥११॥
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३१ सिद्धाचलजी का स्तवन
(राग-महा विषम काले--ए देशी) सिद्धाचल सिद्ध सुहावरे, अनंत अनंत कहावे रे । भेद पंदरथी शिव जावे रे, गुण अगुरु लघु निपजावे रे ॥ विमलाचल वेगे वधावो रे, गिरीराज तणा गुण गावो रे जो होवे शिवपुर जावो रे ॥विमला ॥१॥ जितारी अभिग्रह लीधो रे, दिन सात में भोजन कीधो रे। शुकराजा ए राज्य ते लीधु रे, शत्रुजय नाम ते दीधु रे ॥वि० २॥देव दानव इण गिरि आवे रे, जिनराजनी पूजा रचावे रे । शत्रुजयमां नाच नचावे रे, योगा वंचक फल ते पावे रे ॥वि० ३॥ विद्याचारण मुनि वरीयो रे, मर्कट फल जल संचरीया रे।
आकाश पवन से चलीया रे, देखी हेमगिरी हेठा उतरीया रे ॥ वि० ४॥ प्रभु देखी आनंद पावे रे, जिनराज ने शीश नमावे रे । देव साथे भावना भावे रे, पछी इच्छित स्थानके जावे रे ॥वि० ॥ ज्ञान दर्शन जेहथी लहीये रे, श्रावक ना गुणते कहीए रे। संसार ने तीरे रहिए रे, जैन शाशन तीरथ कहीए रे ॥वि० ६॥ सहु तीरथनो ए राजा रे, सुरज कुंडे जल ताजा रे । नहाता जन आनंद साजा रे, हुप्रो कुकड़ो ते चंद राजा रे ।.वि० ७॥ ए तीरथ भेटन काजे रे, गुजरातनी संघ समाजे रे । पंथे पंथे विशामा
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[६७] छाजे रे, गिरी देखी वधाव्या उल्लासे रे॥वि०८॥अढार तिहोत्तर वर्षे रे, मागसर वदि तेरस दिवशे रे । भैय्या आदिश्वर उल्लासे रे, जाणु भवजल पार उतरसे रे ॥वि० ९॥ गिरी देखी लोचन ठरीया रे, चकेश्वरी चीर केशरीया रे । जाय केतकी वृक्ष लहेरीयारे, शंत्रुजय नदी जल भरीया रे ॥वि० १०॥ राय भरत रतन बिंब ठावे रे, चकेश्वरी यात्रा करावे रे। ते त्रीजे भवे शिव जावे रे, शुभवीर वचन रस गावरे ॥वि० ११॥
३२ आदिनाथजी का स्तवन मोरो आतमराम मोरा आतम, कुण दिन शत्रुजय जासु । शत्रुजय केरी पाज चढंता, ऋषभ तणा गुण गाशु रे॥मोरा० १॥ ए गिरीवर नो महिमा सुणी, हृदये समकित वस्यु। जिनवर भाव सहित पूजीने, भव भव निर्मल थाशु रै॥मोरा० २॥ मन वच काय निर्मल करीने, सुरज कुडे न्हाशु । मरू देवीनो नंदन निरखी, पातिक दूर पलाशुरे ॥मोरा० ३॥ इण गिरी सिद्ध अनंता हुआ, ध्यान सदा ते ध्याशु । सकल जन्ममा ए मानव भव, लेखे करिये सरासुरे ॥मोरा० ४॥सुरवर पूजित पद कज रज, लिलवटे तिलक चढाशु। मनमा हरखी डुगर फरशी, हयडे हरखीत थाशु रे ॥मोरा० ५॥ समकित धारी आयो साथे, सद्गुरु समकित लाशु । छरी पाली पाप पखाली,-दुर्गति दूर पलाशु
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[६८] रे ॥मोरा० ६॥ श्री जिन नामी समकित पामी, लेखे त्यारे गणाशु । ज्ञान विमल सूरी कहे धन धन ते दिन, परमानंद पद पाशुरे ॥मोरा० ७॥
३३ महावीरस्वामी का स्तवन सकल सुरासुर सेवित साहिब, अनिश वीर जिणंद । सुरकान्ता शची नाटक पेखत, पण नहीं हर्ष आणंद ॥ हो जिनवर तु मुज प्राण आधार ॥ जग जनने हितकार, हो जीनवर तु मुज प्राण आधार ॥१॥ दानवीर तपवीर जिनेश्वर, कर्म रिपुहत वीर । तेणे कारण अभिधान तमारू, युद्धवीर गंभीर हो०॥२॥ तुसिद्धारथ सुत सिद्धारथ, नहीं सुत मात्र अबीह । हरि लंछन गत लंछन साहिब, चउविह धर्मनीरीह हो० ३॥ संघ चतुर्विध स्थापना कीधी, चउगइ पंथ विहाय । पंचम नाणे पंचम गतिए, वीर जिणंद सधाय हो०॥४॥ सोल पहोर प्रभु देशना वरसी, फरसी विभु गुण ठाण । पंधन छेदन गति परिणाम, चरम समय निर्वाण हो० ॥५॥ स्वाति नक्षत्रे शिवपद पाम्या, दीवाली दिन तेह । वीर वीर गौतम वीतरागी, त्रुट्यो बंधन स्नेह ॥हो०॥६॥ खिमा विजय शुभ सुख लहीये, वीर कहे वीर ध्यान । करता सुर सुख सौख्य महोदय, लीला लहेर वितान हो॥७॥
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[६६] ३४ पर्युषण का स्तवन प्रभु जिणंद विचारी, भाख्या पर्व पजुषण भारी । आखा वर्ष माँ ए दिन मोटा, अाठे नहि तेमा छोटा रे । ए उत्तम ने उपकारी भा० १॥ जेम औषध माँहे कहिए, अमृत ने सारु लहीए रे, महामन्त्र माँ नवकार ||भा० २॥ तारागण माँ जेम चन्द्र, सुरवर माँहे जेम इन्द्र रे, सतीयो माँ सीता नारी |भा० ३॥ वृक्ष माँहे कल्प तरु सारो, एम पर्व पजुषण धारो रे, सूत्र माँ कल्प भव तारी भा० ४॥ ते दिवसे राखी समता, छोड़ो मोह माया ने ममता रे, समता रस दिलमाँ धारी भा० ५॥ जो बने तो अठाई कीजे, वली मास खमाण तप लीजे रे, सोल भत्तानी बलीहारी ॥भा० ६॥ नहि तो चोथ छ? तो लहीए, वली अट्ठम करी दुःख सहीए रे, ते प्राणी झुज अवतारी ॥भा० ७॥ नव पूर्व तणो सार लावी, जेणे कल्पसूत्र बनावी रे, भद्रबाहु वीर अनुसारी भा० ८॥ सोना रूपा ना फुलड़ा धरीए, ए कल्प नी पूजा करीए रे, ए शास्त्र अनुपम भारी
मा० ९॥ सुगरू मुख थी ते सार, सुणो अखंड एकवीश वार रे, जुवे अष्ट भवे शिव प्यारी भा० १०॥ गीत गान वाजिंत्र बजावे, प्रभुजी नी आँगी रचावे रे, करे भक्ति वार हजारी ॥भ० ११॥ एवा अनेक गुणाना खाणी, ते पर्व पजुषणा जाणी रे, सेवो दान दया मनोहारी भा० १२॥
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[७०] १ दिवाली का स्तवन के ढालिया
दोहा श्री श्रमण सङ्घ तिलकोपमं गौतम, भक्ति प्रणिपत्य पादार विन्दं । इन्द्र भुति प्रभव महंसो मोचकं, कृत कुशल कोटि कल्याणकंदं ॥
_ ढाल पहली ( राग-रामगिरी) मुनि मन रंजणो, सयल दुख भंजणो, वीर वर्धमानो जिणंदो । मुक्ति गति जिम लही, तिम कहुँ सुण सही, जिम होय हर्ष हैयडे आणंदो।मु० १॥ करीय उद घोपणा देशपुर पाटणे, मेष जिम दान जल बहुल वरसी । धण कगण मोतीयां झगमगे जोतीयां, जिन देई दान इम एक वरसी ।मु० २॥ दोय विण तोय उपवास आदे करी, मागशीर कृष्ण दसमी दहाड़े । सिद्धि साम्हा थइ वीर दिक्षा लइ, पाप संताप मूल दूर कहाड़े ॥मु. ३॥ बहुल बंभग धरे पारणु सामिए, पुण्य परमान मध्यान्ह कीधु। भुवन गुरु पारणा पुण्य थी बंभणे, आप अवतार फल सयल लीधु।मु० ४॥ कर्म चंडाल गोशाल संगम सुरो, जिणे जिन उपरे घात मांड्यो । एवड़ो वैर ते पापीया से कर्यो, कर्म कोढि तुहिज सबल दंड्यो ।मु० ॥ सहज
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[७१] गुण रोपीयो नामे चंडकोषीयो, जिन पदे श्वान जिम जेह विलगी । तेहने बुझवी उद्धर्यो जगपत्ति, कीध लो पाप थी अति हे अलगो ।मु० ६॥ वेश्यामां त्रियामं लगे खेदीयो, भेदीयो तुझ नवि ध्यान कुभो । शूलपाणी अन्नाणी अहो बुझव्यो, तुझ कृपा पार पामे न संभो ॥१० ७॥ संगमे पीडियो प्रभु सजल लोयणे, चिंतवे छुटश्ये किम ए हो। तास उपर दया एवडी शी करी, सापराधे जने सबल नेहो ।मु० ८॥ इम उपसर्ग सहेता तरणी मित वरस, सार्ध उपर अधिक पक्ष एके । वीर केवल लघुकर्म दुःख सविदह्य, गह गासुर निकर नर अनेके ।।मु० ९॥ इन्द्रभुति प्रमुख सहस चउदश मुनि, साहुणी सहस छत्रीश विहसी । प्रोगण सठ सहस एक लाख श्रद्धालुपा, श्राविका त्रिलाख अढ़ार सहसी ।मु० १०॥ इम अखिल साधु परिवार शु परवयों, जलधि जंगम जिश्यो गुहिर गाजे । विचरता देश परदेश निय देशना, उपदिशे सयल संदेह भांजे ॥१० ११॥
ढाल दूसरी (राग-भात का डंका देशी) ___ हवे निय प्राय अंतिम समे, जाणीय श्री जिनराज रे । नयरी अपापाये प्रावीयां, राय समाज ने ठाय रे ॥ हस्ती पालग राये दिठला, आवीयड़ा अंगण बार रे। नयण कमल दोय विहसीयां, हरसीला हैइडा मझार रे ॥१॥ भले भले
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[७२] प्रभुजी पधारिया, नयन पावन कीधां रे । जनम सफल आज अमतणु, अह्मधरे पाउला दीधां रे ॥ राणी राय जिन, प्रणमीयां मोटे मोतीयड़े वधावीरे। जिन सन्मुख कर जोडीय, वेठला आगले आवी रे ॥२॥ धन अवतार अमारडो, धन दिन आजनो एहो रे । सुर तरु आंगणे मोरीओ, मोतीयडे वुठलो मेहो रे ॥ आशु अमारडेअ एवडो, पुरव पुन्य नो नेहो रे। हैडलो हैजे हरसियो, ज्यो जिन मलीयो संजोग रे ॥३॥ अति आदर अवधारिए, चरम चोमासलु रहिआरे । रायराणी सुरनर सेवे, हियडला मांहे गह गहि
आरे ॥ अमृत थी अतिमीठडी सांभली देशना जिननी रे । पाप संताप परोथयो, शाता थई तन मननी रे ॥४॥ इन्द्र
आवे आवे चन्द्रमां, आवे नरनारीना वृद रे । त्रिण प्रदक्षिणा देइकरी, नाटिक नव नवे छंदो रे ॥ जिनमुख वयणनी गोठडी, तिहां होये अति घणी मीठी रे । ते नर तेहज वर्ण वे, जिण निज नयणले दिठी रे ॥५॥ इम आणंदे,अतिक्रम्या श्रावण भाद्रवो आसो रे । कार्तिक कोढीलो अनुक्रमे, आवियडो कार्तिक मासो रे ॥ पाखी पर्व पनोतलु, पोहतलु पुण्य प्रवाहीरे । राय अढ़ार तिहां मिल्यां, पोसह लेवा उच्छाहि रे॥६॥ त्रिभुवन जन सवि तिहां मिल्या, श्री जिन वंदन कामो रे । सहेज संकीर्ण तिहांथयो, तिल पडवा नहि ठामो रे ॥ गोयम स्वामी समोवडी, स्वामी सुधर्मा तिहा बेठा रे । धन
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[ ७३] धन ते जिने आपणे लोयणे जिनवर दिठां रे ॥७॥ पुरण पुन्यना औषध, पौषध व्रत वेगे लीधां रे। कार्तिक काली चौदशे, जिन मुखे पच्चखाण कीधां रे ॥ राय अढार प्रमुख घणे, जिन पगे वांदणा दीधा रे। जिन वचनामृत तिहां घणे, भवियणे घट घट पीधां रे ॥८॥
ढाल तीसरी (राग-मारु) श्री जगदीश दयालु दुःख दूर करे रे, कृपा कोडी तुज जोडी । जगमां जगमां रे कही ए केहने चीरजी रे ॥१॥ जग जनने कुण देशे एहवी देशना रे, जाणी निज निरवाण । नवरसरे नवरसरे सोल पहोर, दिये देशना रे ॥२॥ प्रबल पुण्य फल संसूचक सोहामणा रे, अज्झयणां पण पन्न । कहियारे कहियारे महिआं, सुख सांभली होय रे ॥३॥ प्रबल पाप फल अज्झयणां तिम टेटलां रे, अणपुछयां छत्रीस । सुणतारे सुणतांरे भणतां, सविसुख संपजे रे ॥४॥ पुण्यपाल राजा तिहां धर्म कयांतरे रे, कहो प्रभु प्रत्यक्ष देव । मुजनेरे मुजनेरे सुपन अर्थ सवि साचलो रे ॥५॥ गज वानर, खीर, द्रम, वायस, सिंह घडो रे, कमल बीज एम
आठ । देखीरे देखीरे सुपन संशय मुज मन हुप्रो रे ॥६॥ उखर बीज कमल अस्थानके सिंहनुरे, जीव रहित शरीर । सोवनरे सोवनरे कुंभ मलिन ए शुघटे रे ॥७॥ वीर भणे
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* ७४ ]
भूपाल सुणो मन स्थिर करी रे, सुमि अर्थं सुविचार | हैडेरे हैडेरे धरज्यो धर्म धुरंधरु रे ||८||
ढाल चौथी
(राग - संतानोमहावीरना)
"
श्रावक सिंधुर सारिखा, जिन मतना रागी । त्यागी सह गुरु देव धर्म, तत्वे मति जागी || विनय विवेक विचारवंत, प्रवचन गुण पूरा । एहवा श्रावक होय से, मतिमंत सन्ग ||१|| लालचे लागा थोडिले सुखे राची रहिश्रा । घर वा आशा अमर, परमारथ दुहि ।। व्रत वैराग थकि नहिं, कोई लेशे प्राये । गज सुपने फल एह, नेह नवि मांहो मां ||२|| वानर चंचल चपल जाति, सरखा मुनि मोटा । आगल होस्ये लालची, लोभी मन खोटा | आचारज ते चार हिरा, प्राये परमादी । धर्म भेद करस्यें घर्णा, सहर्ज स्वारथ वादी || ३ || को गुणवंत महंत संत, मोहन मुनि रुडा । मुख मीठा मायाविया, मनमहे कूडा ॥ करस्ये मांहोमांहे वाद, पर वादें नासे । बीजा सुपन तणो विचार एम वीरका ||४|| कल्पवृक्ष सरीखा होस्ये, दातार भलेरा देव धर्म गुरु वासना, वरि वारिना वेरा । सरल वृक्ष सविने दिए, मनमां गहगहता ॥ दाता दुर्लभ वृक्ष राज, फल फुले हता ॥ ५ ॥ कपटी जिनमत लिंगीया, वली बब्बुल सरीखा ।
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[ ७५ ]
खीर वृक्ष आडा थया, जेम कंटक तिखा ॥ दान देयंता वारसी, अन्य पावन पात्री । त्रीजा सुपन विचार को, जिनधर्म विधात्री ||६|| सिंह कलेवर सारिखो, जिनशासन सलो | अतिदुर्दान्त गाह निय, जिमबायक जमलो || पर शासन सावज, अज ते देखी कंपे । चोथा सुपन विचार इम, जिन सुखी जंपे ||७|| गच्छ गंगाजल सारिखो, मुकी मति होगा। मुनि मन राचे छिल्ल रे, जेम वायस दीया || वंचक आचारज अनेक. तेणे भुलवीया । ते धर्मांतर श्रादरे, जडमति बहु भवीया ||८|| पंचम सुपन विचार एह, सुणीयो राजाने । छठे सोवन कुंभ दीठ, मयलो सुणी काने || को को मुनि दरिसण चारित्र, ज्ञान पुरण देहा । पाले पंचाचार चारु, ड़ि निज गेहा || ९ || को कपटी चारित्रवेश. लेइ विप्रतारे । मइलो सोवन कुंभ जिम, पिंड पापे भारे ।। छडा सुपन विचार एह, सातमे इंदिवर । उकरडे उत्पत्ति थई, ते शु कहो जिनवर || १०|| पुण्यवंत प्राणी हुस्ये, प्रायः मध्यम जात । दाता भोक्ता रुद्धिवंत, निर्मल अवदात || साधु साधु जति वदे, तव सरीखा कीजे । ते बहु भद्रक भवियणे, स्यो घोलंभो दीजे ||११|| राजा मंत्री परे सुसाधु, पोपु गोपी चारित्र सुद्ध राखसे सवि पाप विलोपी || सप्तम सुपन विचार वीर, जिनवरे इम कहीयो । अष्टम सुपन तो विचार, सुखी मन गहगहीयो ||१२||
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[७] न लहे जिन मतमात्र जेह, तेह पात्र न कहीए। दिघार्नु परभव पुण्य फल, कांइ न लहीए ॥पात्र अपात्र विचार भेद, भोला नवि लहेस्ये । पुण्य अर्थे ते अर्थ, आथ कुपात्रे देहस्ये ॥१३॥ उखर भुमि दृष्ट बीज, तेहनो फल कहीए। अष्टम सुपन विचार एम, राजा मन ग्रहीए । एह अनागत सवि सरुप, जाणी तेणे काले । दीक्षा लीधो वीर पास, राजा पुन्य पाले ॥१४॥
ढाल पांचवी (राग-गोडी) इन्द्रभुति अवसर लही रे, पुछे कहो जिनराय । श्यु पागल हवे होयस्ये रे, तरिण तरण जहाजोरे ।। कहे जिनवीरजी ॥१॥ मुज निर्वाण समय थकी रे, त्रिहुवरसे नत्र मास । माठेरो तिहाँ बेसश्ये रे, पंचम काल निरासो रे ॥२॥ बारे वरसे मुज थकीरे, गौतम तुझ निरवाण। सोहम वीशे पामशेरे, वरसे अखय सख ठाणो रे ॥कहे ० ॥३॥ चउसठ वरसे मुज थकी रे, ज.बु ने निरवाण | प्राथमसे आदित्य थकी रे, अधिकु केवल नाणो रे ॥कहे ॥४॥ मनपज्जव परमावधि रे, क्षय उपशम मन आण | संयम त्रिण जिनकल्पनीरे, पुलागा हारग हाण रे ॥कहे०॥५॥सिजभव अठाणवेरे करश्ये दसवैालिय । चौद पुर्वि भद्रबाहुथी रे, थास्ये सयल विलय रे ॥कहे०॥६॥ दोय शत पनरे मुज थकी रे,
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[७७ । प्रथम संघयण संठाग । पूर्वणु उगते नवि हुस्ये रे, महाप्राण नवि झागो रे ॥कहे ०||७|| चउत्रयपने मुज थकी रे, होस्ये कालिकसूर । करस्ये चउथी पजु णे रे, वरगुणरयणनो पूरो रे ॥कहे०॥८|| मुजथी पण चोराशीये रे, होस्ये वयरकुमार । दस पुर्वि अधिका लीअो रे, रहस्ये तिहाँनिरधारो रे ॥कहे०॥९॥मुज निर्वाण थकी छसेरे, वीस पछी वनवास । मुफी करसे नगरमाँ रे, आर्य रक्षित मुनि वासो रे ॥कहे ॥१०॥ सहस्त्र वर्ष मज थकी रे, चौदपूर्व विच्छेद ज्योतिष अण मिलतां हुसे रे, बहुल मताँतर भेदो रे ॥कहे०॥११॥ विक्रमथी पंच पंचाशीए रे, होस्ये हरिभद्र सूरि । जिन शासन उजवाल शेरे, जेहथी दुरियाँ सवि दूरो रे ॥कहे०॥१२॥ द्वादश सत सित्तर समेरे, मुझथी मुनि सूर हीर ) बप्पभट्टसरी होस्ये रे, ते जिनशासन वीररे ॥कहे०॥१३॥ मज प्रति विंब भरावसे रे, आमराय भूपाल । सार्थ त्रिकोटि सोवन तणो रे, तास वयणथी विशालो रे ॥कहे०॥१४॥ षोडस शत प्रोगणोतरे रे, वरसे मुजथी मुणिंद । हेमसूरी गुरु होयस्येरे, शासन गयण दिणंदो रे ॥कहे०॥१५॥ हेमसूरि पडिवोहसे रे, कुमारपाल भूपाल । जिन मंडित करस्ये मही रे, जिनशासन प्रतिपालो रे ॥कहे ०॥१६॥ गौतम नबला समयथी रे, मज शासन मन मेल । माँहोमाँहे नवि होस्ये रे, मच्छ ग्रलागल केलो रे कहे।
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[७८] ॥१७॥ मुनि मोटा मायाविया रे, वेढीगारा विशेष । आप सवारथ बसी थया रे, ए विंडंबस्ये वेद्यो रे ॥कहे०॥१८॥ लोभी लखपति होयस्ये रे, जम सरिखा भूपाल । सज्जन विरोधी जन हशेरे, नवी लजालु दयालो रे ॥कहे ०।१९।। निर्लोभी निरमाइया रे, सुधा चारीत्रत । थोडा मुनि महियले होसे रे, सुण गौतम गुणवंत रे ॥कहे० २०॥ गुरु भक्ती शिष्य थोडलां रे, श्रावक भक्ति विहीण । मात पिताना सुत नहीं रे, ते महिलाना आधिनो रे ॥कहे०॥२१॥ दुप्पसह सूरि फलगुसिरी रे, नागिल श्रावक जाग । सञ्चसिरी तेम श्राविका रे, अंतिम संघ वखाणयो रे कहे ०१॥२२॥ वरस सहस एक विंशति रे, जिन शासन विख्यात । अविचल धर्म चलावशे रे, गौतम आगल वातो रे ।।कहे.२३॥ दुषमे दुषमा कालनी रे, ते कहिए शी वात । कायर को हैडलोर, जे सुणता अवदातो रे ॥कहे ०॥२४॥
___ ढाल छठी (राग-पिउडो घर आवे) मुजशु अविहड नेह बाध्यो, हेज हैडा रंगे । दृढ़ मोह बंधण सबल बांध्यो, वज्र जिम अभंग ॥ अलगा थया मुज थकी एहने, उपजसे रे केवल निय अंग के, गौतम रे गुणवंता ॥१॥ अवसर जाणी जिनवरे, पुछिया गोयम स्वाम । दोहग दुखिया जीव ने, आविये आपण काम ॥ देवशर्मा
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[७९] बंभणों, जई वुझवो रे, एणे ढुकडे गामके ॥गौ०२॥ सांभली वयण जिणंदनु आणंद अंग न माय । गौतम बे कर जोडी, प्रणम्या वीर जिनना पाय ॥ पांगर्या पूरव प्रीतथी, चउनाणी रे भनमाँ निरमाय के गौ०॥३॥ गौतम गुरु तिहाँ
आवीयाँ, वंदवित्रो ते विप्र । उपदेश अमृत दीधलो, पीधलो, तेणे क्षिप्र ॥ धसमस करतों बंभणे, बारि वागी रे थइ वेदन विप्र के गौ०॥४॥ गौतम गुरुना वयणलां, नविर्या तेणे कान । ते मरी तस शिर कृमि गयो, कामनीने एक तान ॥ उठीया गोयम जाणीयो, तस चरीत्रो रे पोताने ज्ञानके ।।गौ०॥५॥
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२ बीज का स्तवन के ढालीया
दोहा सरस वचन रस वरसती, सरसती कला भंडार । बीज तणो महिमा कहुं, जिम कह्यो शास्त्र मोझार ॥१॥ जम्बु द्वीपना भरतमाँ, राजगृही उद्यान । वीर जिणंद सलोपर्या, वांदवा आव्या राजन् ॥२॥ श्रेणिक नामे भूपति, बेठा बेसण ठाय । पूछे श्री जिनरायने, यो उपदेश महाराय ॥३॥ त्रिगड़े बेठा त्रिभुवन पति, देशना दिये जिनराय । कमल सुकोमल पाखंडी, एम जिन हृदय सोहाज ॥४॥
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[८०] शशि प्रगटे जिम ते दिने, धन्य ते दिन सुविहाण । एक मने अाराधता, पामे पद निर्वाण ॥५॥
ढाल पहली कल्याणक जिनना कहुं, सुण प्राणीजीरे । अभिनंदन अरिहंत, ए भगवंत भवि प्राणीजीरे ॥ माघ सुदी बीजने दिने, सुण प्राणीजीरे । पाम्या शिव सुख सार, हरख अपार भवि प्राणीजीरे ॥१॥ वासुपूज्य जिन बारमा, सुण प्राणीजीरे । एहज तिथे थयु नाण, सफल विहाण भवि प्राणीजीरे ।। अष्ट कर्म चूरण करी, सुण प्राणीजीरे । अवगाहन एकवार, मुक्ति मोझार भवि प्राणीजीरे ॥२॥ अरनाथ जिनजी नमु, सुण प्राणीजीरे । अष्टादशमां अरिहंत, ए भगवंत भवि प्राणीजीरे ॥ उजवल तिथी फागणनी भली, सुण प्राणी जीरे । वरीया शिव बधु सार, सुन्दर नार भवि प्राणीजीरे ॥३॥ दशमा शीतल जिनेवरु, सुण प्राणीजीरे । परम पदनी ए वेल गुणनी गेल, भवि प्राणीजीरे ।। वैशाख वदी बीजने दिने, सुण प्राणीजीरे । मुक्यो सरवे ए साथ सुरनर नाथ, भवि प्राणीजीरे ॥४॥ श्रावण सुदीनी बीज भली, सुण प्राणीजीरे । सुमतिनाथ जिनदेव सारे सेव, भवि प्राणीजीरे ॥
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[ = १ ]
एणि तिथीए जिनजी तणा, सुण प्राणीजीरे । कल्याणक पंच सार भवनो पार, भवि प्राणीजीरे ॥ ५॥
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ढाल दूसरी
1
जगपति जिन चोवीशमोरे लाल । ए भाख्यो अधिकार रे भविकजन || श्रेणिक आदे सहु मल्यारे लाल । शक्ति त अनुसार रे भविकजन || भाव धरीने सांभलोरे, आराधो वरी खंतरे भविकजन || भाव० ९ ॥ दोय वरस दोय मासनीरे लाल, श्राराधो धरी हेतरे भविकजन । उजमणु विधिशु करोरे लाल, बीज ते मुक्ती संकेतरे भविकजन ||भाव० २ || मार्ग मिथ्या दूरे तजोरे लाल । श्रराधो गुणना थोकरे भविकजन || भाव० ३ || वोरनी वाणी सांभलीरे लाल । उळरंग थया बहु लोकरे || भविकजन भाव० ४ ॥ एणी बीजे के तर्यारे लाल । वली तरसे के करसे संगरे भविकजन || भाव० ५ ॥ शशी सिद्धि अनुमानथीर लाल । शैल नागधर अंक भवि जन || भाव० ६ ।। अषाढ़ शुदि दशमी दिनेरे लाल । ए गायो स्तवन रसाल रे भविकजन || भाव० ७ || नवलविजय सुपसायधीरे लाल । चतुरने मंगल मालरे भविकजन || भाव० ८ ॥
कलश
इम वीर जिनवर सयल सुखकर, गायो अति उलट भरे । अपाड़ उजवल दशमी दिवसे, संवत ढार अठठोत्तरे ||
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[ ८२]
बीज महिमा म वर्णव्यो, रही सिद्धपुर चोमासए । जेह भविक भावे भणे गुणे, तस घरे लील विलास || १ ||
३ पंचमी तिथी का स्तवन ढाल पहली
प्रणमी पार्श्व जिनेश्वर प्रेमशु, श्रणी उलट अंग चतुर नर | पंचमी तप महिमा महियल घणो, कहेशु सुखजोरे रंग चतुर नर || भाव भले पंचमी तप कीजिये || १ || हम उपदेशे हो नेमि जिनेश्वरु, पंचमी करजोरे तेन चतुर नर । गुण मंजरी वरदत्त तणीपरे, आराधे फल जेम चतुर नर ॥ भा० २ ॥ जंबुद्वीपे भरत मनोहरु, नयरी पदमपुर खास चतुर नर । राजा अजितसेनाभित्र तिहां कणे, राणी यशोमति तास चतुरनर || भा० ३ ॥ वरदत्त नामे हो कुंवर तेहनो, कोढे व्यापीरे देह चतुर नर । नाग विराधन कर्म जे बांधीयु, उदये श्राव्यु रे तेह चतुर नर ॥ भा० ४ || तेरो नयरे सिंहदास गृहीवसे, कपूरतिलका तसं नारी चतुर नर । तस बेटी गुण मंजरी रोगिणी, वचने मृगीरे खास चतुर नर ॥ भा० ५ ॥ चउनाणी विजयसेन सूरीश्वर, आव्या तिपुर जाम चतुर नर । राजा सेठ प्रमुख वन्दन गया, सांभली देशना ताम चतुर नर || भा. ६ ॥
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[८३] पूछे तिहां सिंहदास गुरू प्रत्ये, उपज्या पुत्री ने रोग चतुर नर । थइ मुगी वली परणे को नहिं, ए शा कर्मना भोग चतुर नर ॥ भा० ७ ।। गुरू कहे पूरव भव तमे सांभलो, खेटक नयर वंसत चतुर नर ।श्री जिनदेव तिहां व्यवहारीओ, सुन्दरी गृहिणीनो कंत चतुर नर ।। भा० ८॥ बेटा पाँच थया हवे तेहने, पुत्री अति भली चार चतुर नर । भणवा मूक्या पांचे पुत्रने, पण ते चपल अपार 'चतुर नर ।भा.९॥
००००००००००००००००
ढाल दूसरी ते सुत पांचे हो के, पठण करे नहीं । रमतां रमतां हो के, दिन जाये वही ।शीखवे पंडित हो के, छात्रने शीख कगे। आवी माताने हो के, कहे सुत रुदन करी ॥१॥ मात अध्यारु हो के, अमने मारे घणु । काम अमारे हो । के, नहीं भणवा तणु॥ शंखणी माता हो के, सुतने शीख दीये । भणवा मत जाजो हो के, शुकंठ. शोष कीये ॥२॥ तेडवा तुमने हो के, अध्यारु आवे । तो तस हणजो हो के, पुनरपि जिम नावे ॥ शीखवी सुतने हो के, सुन्दरीए तिहां । पाटी पोथी हो के, अग्निमा नांखी दिया ॥३॥ ते वात सुणीने हो के, जिनदेव बोले इस्यु। फीट रे सुन्दरी हो के, काम कयु कीस्यु । मूरख राख्या हो के, ए सर्व पुत्र तमे । नारी बोली हो के, नकि जाणु अमे ॥४॥
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[८४] मूरख मोटा हो के, पुत्र थया ज्यारे । न दीये कन्या हो के, कोइ तेहने त्यारे॥ कंत कहे सुण हो के, ए करणी तुमची। वयण न मान्या हो के, ते पहेला अमची ॥५॥ एम वात सुणीने हो के, सुन्दरी क्रोधे चढ़ी । प्रीतम साथे हो के, प्रेमदा अतिहि बढ़ी ।। कंते मारी हो के, तिहां काल करी । ए तुम बेटी हो के, थइ गुण मंजरी ॥६॥ पूर्व भवे एणे हो के, ज्ञान विराधियु । पुस्तक बाली हो के, जे कर्म बांधीयु॥ उदये आव्यु हो के, देहे रोग थयो। वचने मुगी हो के, ए फल तास लह्यो ॥७।
ढाल तीसरी निज पूरव भव सांभली, गुण मंजरीए तांहि ललना। जाती स्मरण पामियु, गुरूने कहे उत्साह ललना ।। भविका ज्ञान अभ्यासीये ॥१॥ ज्ञान भलो गुरूजी तणो, गुणमंजरी कहे एम ललना । सेठ पूछे गरूने तिहां, रोग जावे हवे केम ललना ॥ भ० ॥२॥ गुरू कहे हवे विधि सांभलो, जे कह्यो शास्त्र मोझार ललना । कार्तिक सुदी दिन पंचमी, पुस्तक आगल सार ललना ॥ भ० ॥३॥ दीवो पंच दीवेट तणो, कीजिए स्वस्तिक सार ललना । नमो नाणस्स ग़णणु गणो, चोविहार उपवास ललना ॥ भ० ॥४॥ पडिकमणां दोय कीजिए, देववन्दन त्रणकाल ललना । पाँच बरस पाँच
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[८५]
मासनी, कीजिए पंचमी सार ललना ।। भ० ॥५॥ तप उजमणुपारणे, कीजिए विधिनो प्रपंच ललना । पुस्तक आगल मूकवा, सघलां वानां पाँच ललना ॥ भ० ॥६॥ पुस्तक ठवणी पुजणी, नवकारवाली प्रत ललना ) लेखण खडीमा दाभड़ा, कवली पाटी जुक्त ललनाभ०॥७॥ धान्य फलादिक ढोइए, कीजिए ज्ञाननी भक्ति ललना । उजमणु एम कीजिए, भावथी जेवी शक्ति ललना ॥ भ० ॥८॥ गरू वाणी एम सांभली, पंचमी कोधी तेह ललना । गुण मंजरी मुगी टली, निरोगी थइ देह ललना ॥ भ० ॥९॥
ढाल चौथी राजा पूछे साधुनेरे, वरदत्त कुमरने अंग। कोढ रोग ए कीम थयोरे, मुज भाखो भगवन्त,
सद्गुरूजी धन्य तमारू ज्ञान ॥१॥ गुरू कहे जंबुद्विपमारे, भरते श्रीपुर गाम । वसुनामा व्यवहारीअोरे, दोय पुत्र तस नाम ॥ सद् ॥२॥ वसुसार ने वसुदेवजीरे, दीक्षा लीए गुरू पास । लघु बंधव वसुदेवनेरे, पदवी दीए गुरू तास ॥ सद् ॥३॥ पंच सहस अणगारनेरे, आचारज वसुदेव । शास्त्र भणावे खंतशुरे, नहीं आलस नित्य मेव ।।सद्॥४॥ एक दिन सूरि संथारीयारे, पूछे पद एक साध । अर्थ कहियो तेहने वलीरे, आव्यो बीजो साध ॥सद्॥शा
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[८६] एम बहु मुनि पद पूछवारे, एक आवे एक जाय । श्राचारजनी उंधमारे, थाय अति अन्तराय ॥ सद्० ॥६॥ सूरि मने एम चितवेरे, क्या मुज लाग्यु पाप । शास्त्र में ए अभ्यासीयारे, तो एटलो संताप । सद् ॥७॥ पद न कहुं हवे केहनेरे, सघला मूकु विसारी । ज्ञान उपर एम आणीोरे, त्रिकरण क्रोध अपार ||सद्॥८॥ बार दिवस अण बोलीभारे, अक्षर न कह्यो एक । अशुभ ध्याने ते मरीरे, ए सुत तुज अविवेक ।। सद्० ॥९॥
ढाल पाँचवीं वाणी सुणी वरदत्तेजी, जातिस्मरण लह्म । निज पूर्व भव दीठोजी, जेम गुरूए का॥ वरदत्त कहे तव गुरूनेजी, रोग ए केम जावे । सुन्दर काय होवेजी, विद्या केम आवे ॥१॥ भाखे गुरुजी भली भातजी, पंचमी तप करो । ज्ञान आराधो रंगेजी, उजमणु करो ॥ वरदत्ते ते विधि कीधीजी, रोग दूरे गयो । भुक्त भोगी राज्य पालीजी, अन्ते सिद्ध थयो ॥२॥ गुण मंजरी परणावीजी, शाह जिनचन्द्रने । सुख भोगवी पछी लीधुजी, चारित्र सुमतिने॥ गुणमंजरी वरदत्तजी, चारित्र पालीने । विजय विमाने पहोचाजी, पाप प्रजालीने ॥३॥ भोगवी सुर सुख तिहांजी, चविया दोय सुरा । पाम्या जम्बु विदेहजी, मानव अवतारा।।
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[८७] भोगवी राज्य उदारजी, चारित्र लीये सारा । हुवो केवलज्ञानीजी, पाम्या भवपारा ॥४॥
ढाल छठी जगदीश्वर नेमीश्वरू रे लोल, ए भाख्यो संबंध रे सोभागी लाल । बारे पर्षदा आगलेरे लोल, ए सघलो परबन्ध रे सोभागीलाल || नेमीश्वर जिन जयकरुरे लोल ॥१॥ पंचमी तप करवा भणी रे लोल, उत्सक थया बहु लोक रे सोभागी लाल । महापुरुषनी देशना रे लोल, ते कीम होवे फोक रे सोभागी लाल ॥२॥ कार्तिक सुदि जे पंचमी रे लोल सौभाग्य पंचमी नाम रे सोभागी लाल । सौभाग्य लहीए एहथी रे लोल, फले मन वांछित काम रे सोभागीलाल ॥३॥ समुद्रविजय कुल सेहरो रे लोल, ब्रह्मचारी शिरदार रे । मोहनगारी मानिनी रे, रुड़ी राजुल नारी रे सोभागी लाल ॥४॥ते नवि परणी पद्मिणीरे लोल, पण राख्यो जेणे रंगरे सोभागीलाल । मुक्ति महेलेमां बेहु मल्या रे लोल, अविचल जोड़ अभंग रे सोभागी लाल ॥५॥ तेणे ए माहात्म्य भाखीयुरे लोल, पांचमनु परगट रे सोभागी लाल । जे सांभलतां भावशुरे लोल, श्री संघने गहग्रह रे सोभागी लाल ॥६॥
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[ ८८]
कलश एम सयल सुखकर सयल दुःखहर, गायो नेमि जिणेसरो । तपगच्छ राजा वड़ दिवाजा, विजयानंद सूरीश्वरो ॥ तस चरण पद्म पराग मधुकर कोविंद कुवर विजय गणी। तस शिष्य पंचमी स्तवन भाखी, गुणविजय रंगे मुनि ।।
४ अष्टमी तिथी का स्तवन के ढालीया
दोहा पंच तीर्थ प्रणमु सदा, समरी शारद माय । अष्टमी स्तवन हरखे रचु, सुगुरू चरण पसाय ॥१॥
ढाल पहली हारे लाला जंबुद्वीपना भरतमाँ, मगध देश महंत रे लाला । राजगृही नयरी मनोहरू, श्रेणिक बहु बलवंत रे लाला || अष्टमी तिथी मनोहरू ॥ १ ॥ हारे लाला चेलणा राणी सुन्दरू, शीलवन्ती शिरदार रे लाला । श्रेणिक शुद्ध बुद्ध छाजता, नामे अभय कुमार रे लाला ।।अ०॥२॥हारे लाला वर्गणा आठे मीटे एहथी, अष्ट साधे सुख निधान रे लाला अष्ट मद भंजन वज्र छ, प्रगटे समकित निधान रे लाला ॥ अ० ॥ ३॥ हारे लाला अष्ट भय नासे एहथी, अष्ट बुद्धि तणो भंडार रे लाला । अष्ट प्रवचन माता संपजे,
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[८६] चारित्र तणे आगार रे लाला || अ० ॥ ४ ॥ हारे लाला अष्टमी आराधन थकी, अष्ट कर्म करे चकचुर रे लाला । नव निधि प्रगटे तस घरे, संपूर्ण सुख भरपूर रे लाला ॥ अ० ॥ ५ ॥ हारे लाला अड द्रष्टि उपजे एहथी, शिव साधे गुण अनुप रे लाला । सिद्धना आठ गुण संपजे, शिव कमला रूप स्वरूप रे लाला । अ० ॥ ६ ॥
ढाल दूसरी जीहो राजगृही रलियामणी, जीहो विचरे वीर जिणंद । जीहो समवसरण इंद्र रच्यु, जीहो सुर असुरनो वृन्द ।। जगत सहु वन्दो वीर जिणंद ॥ १॥ जीहो देव रचित सिंहासने, जीहो बेठा श्री वर्धमान । जिहो अष्ट प्रतिहारज शोभता, जिहो भामंडल अपमान ॥ ज० ॥२॥ जीहो अनंत गुणे जिनराजजी, जीहो पर उपकारी प्रधान । जीहो करुणा सिंधु मनोहरु, जीहो त्रिलोके जिन भाण ॥ ज० ॥ ३ ॥ जिहो चोत्रीश अतिशय विराजता, जीहो वाणी गुण पांत्रीश । जिहो वारे पर्षदा भावशु, जिहो भक्त नमावे शीश ॥ ज० ॥ ४ ।। जीहो मधुर ध्वनि दीए देशना, जीहो जिमरे अषाहोरे मेह । जीहो अष्टमी महिमा वर्ण वे, जीहो जगबन्धु कहे तेह ।। ज० ॥ ५॥
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[६०]
ढाल तीसरी रुडी ने रढियाली प्रभु तारी देशनारे, ते तो एक जोजन लगे संभलाय | त्रिगड़े विराजे जिन दीए देशना रे, श्रेणिक वन्दे प्रभुना पाय ।। अष्टमी महिमा कहो कृपा करी रे, पूछे गोयम अणगार । अष्टमी आराधन फल सिद्धिनु रे ॥१॥ वीर कहे तपथी महिमा एहनो रे, ऋषभ जन्म कल्याण । ऋषभ चारित्र होय निर्मलु रे, अजितनु जन्म कल्याण ॥ अ० ॥ २॥ संभव च्यवन त्रीजा जिनेश्वरु रे, अभिनन्दन निर्वाण । सुमति जन्म सुपार्थ च्यवन छ रे, सुविधि नमि जन्म कल्याण ॥१०॥ ॥३॥ मुनि सुव्रत जन्म अति गुण निधि रे, नेमि शिव पद लहसार । पार्श्वनाथ निर्वाण मनोहरु रे, ए तिथी परम अाधार ॥ अ० ॥ ४ ॥ उत्तम गणधरु महिमा सांभली रे, अष्टमी तिथी प्रमाण । मंगल पाठ तणी गण मालिका रे, तस घर शिव कमला प्रधान ॥ अ० ॥ ५॥
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ढाल चौथी काउस्सग्गनी नियुक्तिए भाखे, महानिशीथ सूत्रे रे । ऋषभ वंश दृढ़ वीरजी आराधी, शिवसुख पामे -पवित्रे रे
श्री जिनराज जगत उपकारी ॥१॥
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[१] ए तिथी महिमा वीर प्रकाशे, भविक जीवने भासे रे । शाशन तारु अविचल राजे, दिन दिन दोलत वासे रे ।।२।। त्रिशला नंदन दोष निकंदन, कर्म शत्रु ने जीत्या रे । तीर्थंकर महंत मनोहर, दोष अढार निवा रे ॥श्री० ३॥ मन मधुकर वर पदकज लीनो, हरखी निरखी प्रभु ध्याउंरे। शिवकमला सुख दीए प्रभुजी, करुणानंद पद पाउं रे ॥४॥ वृक्ष अशोक सुर कुसुमनी वृष्टि, चामर छत्र विराजे रे । प्रासन भामंडल जिन दीपे, दुंदुभी अंबर गाजे रे ॥५॥ खंभात बंदर अति मनोहर, जिन प्रसाद घणा सोहे रे । विंब संख्यानो पारज न लहुं, दरिसण करी मन मोहे रे ॥६॥ संवत अढार प्रोगण चालीश वरसे, आश्विन मास उदार रे। शुक्ल पक्ष पंचमी गुरुवारे, स्तवन रच्युछे त्यारे रे ॥७॥ पंडित देव सौभाग्य बुद्धि लावण्य, रत्न सौभाग्य तेणे नामरे। घुद्धि लावण्य लीयो सुख संपूर्ण,श्रीसङ्घने कोड कल्याणरे ॥८॥
५ अष्टमी तिथी का स्तवन के ढालिया
दोहा जय हंसासणी शारदा, वरदाता गुणवंत । माता मुज करुणाकरी, महियल करो महंत ॥१॥ सोल कला पूर्ण शशी, निर्जित एणे मुखेण । गजगती चाले चालती, धारती गुणवर श्रेण ॥२॥
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[१२] कवि घटना नव नविकरे, केवल आणी खंत । माता तुज पसाउले, प्रगटे गुण बहु भांत । ३।। माता करु तुज सान्निधे, अष्टमी स्तवन उदार । शत मुखे जीभे को स्तवं, तुज गुण नावे पार ॥४॥
ढाल पहली अष्टमी तिथी भवि पाचरो, स्थिर करी मन वच कायारे । ध्यान धरमर्नु ध्याइए, टालीए दुष्ट अपायरे ।। अ० १॥ पोसह पण धरीए सही, समता गुण आदरीयेरे । राज्य कथादिक वरजीए, गणीजन गुण आचरीएरे ॥१० २॥ पट लेश्या माँहे कही, आर त्रिहुं अप्रशस्तर । वरजो सज्जन दूर ए, धरो निहुँ अन्त प्रशस्तरे ॥अ० ३॥ शल्य त्रिहुं दुरे तजो, वरजो कुमति कुनारीरे । सदगति केरी निवारीका, दुर्गति केरी ए बारीरे ॥१० ४॥ रमीए सुमति नारीसु, करीए दान सहाय रे । मैत्री प्रमोद करूणादिक, धरीए दिल सुखदायरे ॥अ० ५॥ वाचना पृच्छना तिम वली, अनुप्रेक्षा धर्म संगरे । परावर्त्तना पंच भेद ए, करीए धरी मन रंगरे ||अ०६॥ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणी, वेदनीय तेमरे। मोह आयु नाम गोत्रए, आठमु अन्तरायरे ॥१० ७॥ ए अष्ट कर्म विनाशिनी, अष्टमी तिथी जिन भाखीरे । आराधनादिकए क्रिया, मानव गति एक साखीरे ।।अ० ८॥
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[६३]
ढाल दूसरी बासठ मार्गणा द्वाररे प्रभुजीए कह्या, सुन्दर सुललित वयणथीए । तेहमा दश द्वाररे मोक्ष जिनेश्वर कद्या, अवरमा नवि लह्याए ॥१॥ तिण कारण दिव्य मोक्षरे, कारण सुख तणा पामे मानव भव थकीए । दुलहो दश द्रष्टांतरे लहिये मनुजभव, हारो मत विषय थकीए ॥२॥ पंच भरत मझाररे पंच ऐरवत, पंच महाविदेहमाँ ए । पनर कर्मभूभीरे नाणी जिनवरे, धर्म कह्यां नहीं अन्यमाए ॥३॥ क्रोध मानने माया लोभ तिम वली, ए चारे दुःख दाईया ए । अप्रत्याख्यानादि करे करता भेद ए, सोल होए तजो भाइआए ॥ ४ ॥ थोड़ा पण ए कषायरे कीधा दुःख दीए, मित्रानन्द तणी परे ए । ते माटे तजो दुररे हृदय थकी वली, जेम अनुक्रमे शिवसुख वरोए ॥ ५ ॥ अष्टमी तिथी आराधेरे अष्ट प्रवचन, माता आराधक कहुं ए । अनुक्रमे लहे निर्वाणरे ए तिथी आराधे, मुक्ति रमणी सन्मुख जुवे ए॥६॥ अभय दान सुपात्ररे अष्टमी पर्वणी, दीजे अढलक चित्तशुए । पामे बहुली ऋद्धिरे परम प्रमोदशु, लीजे लाहो वितशुए ॥७॥
कलश श्री पार्श्वजिन पमाय इणियरे, संवत सतर अढार ए । बैशाख सुदी वर अष्टमी दिन, कुमति दिनपति वार ए ।
कार
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[६४] श्री शुभविजय उवझाय जयकर, शिष्यगंग विजय तणो । नय शिष्य पभणे भक्ति रागे, ल.ह्यो आनन्द अति घणो ।।
६ मौनएकादशी का स्तवन के ढालिया
दोहा
शांतिकरण श्रीशांतिजी, विघ्नहरण श्रीपास । वागदेवी विद्या दिए, समरूधरी उल्लास ॥ जादवकुल शिर सेहरो, ब्रह्मचारी भगवंत । श्रीनेमीश्वर वंदीये, तेहना गुण अनन्त ॥
__ ढाल पहली नयरी निरूपम नामद्वारामती दीपतीरे, धनवन्त धर्मी लोक देवपुरी जीपतीरे । यादव सहित गदाधर राज करे जिहारे, उपगारी अरिहंत प्रभु अाव्या तिहारे ॥१॥ अंतेउर परिवार सहित वंदन गयारे, प्रदक्षिणा देइ त्रण प्रभु आगल रह्यारे । देशना दीये जिनराज सुणे सहुभावीयारे, अरिहा अमृतक यण सुणी सुख पावीयारे ॥ २ ॥ हरि तव जोड़ी हाथ प्रभुने एम कहेरे, सकल जंतुना भाव जिनेश्वर तु लहेरे । वरस दिवसमा कोइक दिन भाखीयेरे, थोड़े पुण्ये जेहथी अनन्तफल चाखीयेरे ॥ ३ ॥
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[६५]
दोहा
प्रभु नेमी तव हरिने कहे, मौन एकादशी जाण । कल्याणक पंचाशत, शुभ दिवसे चित्तप्राण ॥ वासुदेव वलतु कहे, दोढसो कल्यागक केम । अतीत अनागत वर्तमान, इणीपरे भावे नेम ।।
ढाल दूसरी महाजस सर्वानुभुतिनी भविकजन, कीजे श्रीधर सेवहो। नेमी मल्लि अरनाथ ने भविकजन, राखो वंदन टेवहो... ॥१॥ नाथ निरंजन साचो सज्जन, दुःखनो भंजन । मोहनो गंजन बंदीए भविकजन, एहीज जिनवर देवहो ।।२। स्वयंप्रभु देवश्रुत उदयनाथ भवि०, साचो शिवपुर साथहो । अकलंक शुभंकर बंदीए भवि०, साचो श्रीसप्तनाथ हो ॥ नाथ० ॥ ३ ॥ ब्रह्मद्र गुणनाथ गांगीक भवि०, सांप्रत श्री मुनिनाथहो । विशिष्ट जिनबर वंदीए भवि०, एहीज धर्मनो नाथहो ॥ नाथ० ॥ ४ ॥ सुमृदु श्रीव्यक्तनाथ जे भवि०, साचो कलाशत जाण हो । अरण्यवास श्रीयोग जे भवि०, श्री अयोग चित्त आणी हो । नाथ० ॥ ५ ॥ परमनाथ सुधारती भवि०, कीजे निष्केश सेवहो । सर्वारथ हरिभद्रजी भवि०, मगवाधिप देवहो ॥ नाथ० ॥ ६॥ प्रयच्छ अक्षोभ जिनवर भवि०, मयलसिंह नितु वन्दीएहो । दिनरुक धनद प्रभु नमो भवि०, पौषध समरस कंद हो ॥७॥
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[१६]
दोहा
जिन प्रतिमा जिनवाणीनो, मोटो जग श्रोधार.।'
जीव अनंता जेहथी, पाम्या भवनो पार ॥ नाम गोत्र श्रवणे सुणी, जपे जे जिनवर नाम । आठ कर्म अरि जीतीने, पामे शिवपुर ठाम ॥
ढाल तीसरी श्री प्रलंबहो चारित्रनिधि देवके, प्रशमराजीत जिन वंदीए । श्री स्वामी कहो विपरीत प्रासादके, वंदी पाप निकंदीए ॥ श्री अघटीत हो ब्रह्मणेंद्र जिनराजके, ऋषभचन्द्र चित्त आणीए । पश्चिममा हो भरत मौझार के, त्रण चोवीसी जाणीए ॥ १ ॥ श्री दयांत हो अभिनंदन पूज्यके, रत्नेश नाथ त्रिभुवन धणी। श्याम कोष्टजहो जरुदेव दयाल के, अति पार्श्व कीर्ति घणी ॥ नंदीपेण हो व्रतधर निर्वाणके, संवंता संकट टले । जम्बुद्वीपे हो चउवीसी त्रणके, सेवंता संपत्ति मले ॥ २ ॥ श्री सौंदर्य हो त्रिविक्रमनाथके, नरसिंह सेवो सही । श्री खेमंत हो संतोषित देवके, कामनाथ वन्दो वही ॥ मुनीनाथ हो जिनवर चन्द्रदाहके, दिलादित्य चितमां धरो । खंड घातकी हो पूर्व ऐरावत मांहीके, त्रण चोवीशी मंगल करो ।। ३ ।। अष्टाहिक हो श्रीवणीकनाथ के, उदयज्ञान सेवो सुखने । तमोकंद हो श्री सायकाक्षदेवके, क्षेमंत वांदी
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[६] हरो दुःखने । श्री निर्वाणी कहो श्रीजिनरवीराजके, प्रथम नाथ श्रीशिवसाथ छे । पुष्करवर हो चोवीशी प्रणके, त्रण जातनो नाथ छे ॥ ४ ॥ श्रीपुरुरवा हो अव बोध विवेकके, विक्रमेंद्र जिनवर नमो । श्री सुशांति हो हरदेव मुणींदके, नंदीकेश मुज गम्यो । महामृगेन्द्र हो श्री अशोचित्तके, धर्मेन्द्रनाथ नाथाय नमो । धातकी खंडे हो ऐरवत क्षेत्रके, त्रण चोवीशी चरणे नमु॥ ५ ॥ श्री अश्ववृन्द हो कुटीलक वंदीके, वर्धमान मुज मन रम्यो । श्री नंदीकेश हो श्री धर्मचन्द्रके, विवेक मुज मनमां गम्यो । कलापक हो श्री विशोमनाथके, अरण्यनाथ कीर्ति घणी । पुष्करद्विपे हो चोवीशी त्रणके, त्रीश चोवीशी ते भणी ॥ ६ ॥
दोहा
नेमी जिनेश्वर उपदिश्यो, सदह्यो कृणु नरेश । वीर विमल गुरूथी लह्यो, में सुण्यो उपदेश ॥ १ ॥ काल अनंतो निर्गम्यो, अनंत अनंतीवार ।
आदि निगोदे हुँ भन्यो, केणे नवि कीधी सार ॥२॥ प्रभु दर्शन मुज नवि हुओ, नवी सुण्यो धर्म उपदेश। नाटकिया नाटक परे, बहुल बनाव्या वेष ।। ३ ।। अनुक्रमे नरभव लयो, उत्तम कुल अवतार । दुर्लभ दरिषण पामीने, तार प्रभु-मुज तार ॥ ४ ॥
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[८]
ढाल चौथी नेमीजिनेश्वर उपदिश्योरे लोल, अद्भुत एह अधिकार रे सुगुण नर । सांभलतां चित्त हरखीयोरे लोल, हुप्रो जय जय काररे सुगुण नर ॥ श्री जिन शाशन जग जयोरेलोल।। एहने नित्य थुणता थकारे लोल, टाले विषय विकाररे सुगुण नर । मंत्र तंत्र मणी औषधीरे लोल, सकल जंतु हितकाररे सु० ॥ श्री० ॥ १ ॥ रोगने सोग विजोगड़ारे लोल, नाशे उपद्रव दुःखरे सु० । सेवतां सुख स्वर्गनारे लोल, वली पामे शिवसुखरे सु०॥ श्री० ॥ २ ॥ आराधन विधि सांभलोरे लोल, चउत्थभत्त उपवासरे सु० । मौन ध्याने ध्यावतारे लोल, होय अघनो नाशरे सु० ॥ श्री० ॥ ॥ ३ ॥ अहोरत्तो पोसह करीरे लोल, जपीए जिनवर नामरे सु० । ऋद्धि वृद्धि सुख संपदारे लोल, लहीये शिवपुर ठामरे सु० ॥ श्री० ॥ ४ ॥ मागशुर सुद एकादशीरे लोल, अग्यार वरस वखाणरे सु० । मास अगीबार उपर क्लीरे लोल, ए तप पूर्ण प्रमाणरे सु० ॥ श्री० ॥ ५ ।। उजमणु करो भावथीरे लोल, शक्ति तणे अनुसाररे सु० | जिन पूजा संघ सेवनारे लोल, दान दीए सविचारर स० ॥श्री०॥ ॥ ६॥ पाटी पोथी पुठीयारे लोल, अगीयार अगीबार एम जाण सु० । सुव्रत सेउ तणी परेरे लोल, हुए गुणनी खाणरे सु० ॥ श्री० ॥ ७॥ तप किरिया कीधा घणारे
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[६]
लोल, पण नाव्यु प्रणिधानरे सु० । ते विण लेखे श्राव्यो नहींरे लोल, कास कुसुम उपमानरे सु० ॥ श्री० ॥ ८ ॥ काल अनंते मेलीआरे लोल, कर्म इंधण केइ तुसरे सु० । शुद्ध तप भले भावी लोल, ते करे कर्म चकचूररे सु० ॥ श्री० ॥ ९ ॥ दान शियल तप भावथीर लोल, उद्धरया प्राणी अनेक स० । आराधो आदर करीरे लोल, आणी अंग विवेक स० ॥ श्री० ॥ १० ॥ बार पर्षदा आगलेरे लोल, एम को नेमि स्वामीरे सु० । कृष्ण नरेसर सांभली रे लोल, पहोता निज निज धामरे सु० । श्री० ॥ ११ ॥
ढाल पाँचवी
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दुपम काले ए आलंबन, सुगुरु सदागम बाणीजी । तेहने संगे सह सुख पाम्या, भव मांहे भवि प्राणीजी ॥१॥ समकित दायक शुभ पंथ वाहक, गुरु गीतारथ दीवोजो । पशु टाली सुर रूप करे जे, तेहीज गुरू चिरंजीवोजी ॥२॥ गुरुकुल वासे रही त्यां लइए, विनय विवेक सुकिरियाजी । तेहनी सेवा करता थाये, पूरख ज्ञानना दरियाजी ||३|| ए स्तवन जे सुणसे भणसे, छोड़ी चित्तना चालाजी । सुरतरु सुरमणि सुरगिरी प्रगट्या, तस घर मंगल मालाजी ॥४॥ श्री वीर विमल गुरू सेवा करता, ऋषिकृत गुण ते गायाजी । विशुद्ध विमल कहे तेहनी संगे, पुरुषोत्तम गुण गायाजी ॥ ५॥
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[800]
७ रोहिणी तप विधि का स्तवन के ढालीया दोहा
सुखकर संखेश्वर नमो, शुभ गुरूनो आधार । रोहिणी तप महिमा विधि कहिशु भवि उपगार ॥१॥ भक्त पान कुत्सित दिए, मुनिने जाण अजाण । नरक तिर्यंचमां जीव ते, पामे बहु दुःख खाग || २ || ते पण रोहिणी तप थकी, पामी सुख संसार । मो गया तेहनो कहुं, सुन्दर ए अधिकार ||३|| ढाल पहली
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मघवा नगरी करी कंपा, अरिवर्ग थकी नहीं कंपा । या भरते पुरी छे चंपा, राम सीता सरोवर पंपा || पनोता प्रेमथी तप कीजे, गुरू पासे तप उचरिये ॥ १ ॥ वासुपूज्यना पुत्र कहाय, मघवा नामे तिहां राय । तस लक्ष्मीवती छे राणी, आठ पुत्र उपर एक जाणी ॥ प० ॥ २ ॥ रोहिणी नामे थई बेटी, नृप वल्लभस थई मोटी । यौवन वयमां जब आवे, तब वरनी चिंता थावे ॥ प० ॥३॥ स्वयंवर मंडप मंडावे, दूरथी राजपुत्र मिलावे । रोहिणी शणगार धरावी, जाणु चन्द्र प्रिया इहां श्रावी ॥४॥ नागपुर वीतशोक भूपाल, तस पुत्र अशोक कुमार । वरमाला कंठे ठावे, नृप रोहिणी ने परणावे || १० ||५||
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[ १०१ ]
परिकरसु सासरे जावे, अशोक ने राज्ये ठावे । प्रिया पुण्ये वधि बहु ऋद्धि, वितशोक दीक्षा लीधी ॥ ६० ॥ ६ ॥ सुख विलसे पंच प्रकार, आठ पुत्र सुता थई चार । रही दंपत्ति सातमे माले, लघु पुत्र रमाडे खोले ||१०||७|| लोकपालभिधाने बाल, रही गोखे जुए जन चाल ।
तस सन्मुख रोती नारी, गयो पुत्र मरण संभारी ||१०||८|| शिर छाती कुटे मली केती, माय रोती जलां जली देती । माथाना केश ते रोले, जो रोहिणी कंत ने बोले ||१०|| ९ || आज में नव नाटक दीठु जोता लागे बहु मीठु । नाच शीखी कोहाथी नारी, सुगी रोषे भर्या नृप भारी ॥ १० ॥ कहे नाच सीखो इणि बेला, लेइ पुत्र बाहिर दीए भोला । करथी बिछोडया ते चाल, नृप हाहा करे तत्काल || १० ||११|| पुरदेव वचेथी लेता भुंय सिंहासन करी देता ।
राणी हसती हसती जुए हेतु, राजाए कौतक दीठु ॥ १०१२ | लोक सघला विस्मय पाने, वासुपूज्य शिष्य वन ठामे । आव्या रूप सोवन कुंभ नाम, शुभवीर करें प्रणाम ||१० १३ ॥
ढाल दूसरी ( राग-चौपाईनी )
चउनाणी नृप प्रणमी पाय, निज राणीने प्रश्न कराय । श्री भवदुःख नवि जाण्या एह, ए उपर हुज अधिको नेह ॥ १ ॥
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[१२] मुनि कहे इण नगरें धनवंतो, धनमित्र नाम सेठजी हतो । दुगंधा तस बेटी थई, कुब्ज कुरूपा दुर्भगा भई ॥ २ ॥ योवन वय धन देता सही, दुर्भगपणे कोई परणे नहीं। नृप हणता कौतव शिष्येण, राखी परणावी सा तेण ॥ ३ ॥ नाठो ते दुगंधा लही, दान दियंतां सा वरे रही। ज्ञानीने परभव पूछती, मुनि कहे रैवतगिरि तट हती ॥४॥ पृथ्वीपाल नृप सिद्धिमति, नारी नृप वनमा क्रिडती । राय कहे देखी गणवंता, तपसी मुनि गोचरीए जता ॥५॥ दान दीयां घर पाछा वली, तव क्रीडा रसे रीसे बली । मूर्ख पणे करी बलते हैये, कडयो तुबड मुनिने दीए । ६॥ पारणु करतां प्राणज गया, सुरलोके मुनि देवज थया । अशुभ कर्म बांध्यु ते नारी, जाणी नृप काढ़े पुर बारे |७|| कुष्ट रोग दिन साते मरी, गइ छठी नरके दुःख भरी । तिरीय भवे अंतरता लही, मरीने सातमी नरकमां गई ॥८॥ नागण करभी ने कुतरी, उंदर गिरोली जलो शुकरी । काकी चंडालण भव लहो, नवकार मंत्र तिहां सदही ॥६॥ मरीने सेठनी पुत्री भई, शेष कम दुगंधा थई । मांभली जाति स्मरण . लही, श्रीशु नवीर वचन सदही ॥१०॥
. ढाल तीसरी दुर्गधा कहे साधुनेरे, दुःख भोगवीया अतिरेक । करुणा करीने दाखोएरे, जिम जाए पाप अनेकरे ॥१॥
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[१०३] जिम मुनि कहे रोहिणी तप करोरे, सात वरस उपर सात मास । रोहिणी नक्षत्रने दिनेरे, गुरुमुख करीए उपवा रे ॥गु० २॥ तपथी अशोक नृपनी प्रियारे, थइ भोगवी भाग विलास । वासुपूज्य जिन तीथेरे, तमो पामशो मोक्ष निवासरे ।।त० ३॥ उजमणे पुरे तपेरे, वासुपूज्यनी पडिमा भराय । चैत्य अशोक तरु तलेरे,अशोक रोहिणो चितरायरे॥१० ४॥ साहमीवच्छल पधरावीनेरे, गुरु वस्त्र सिद्धांत लखाय । कुमार सुगंध तणीपरेरे, दुष्कर्म सकल क्षय जायरे ॥दु० ५॥ साधु कहे सिंहपुरमांरे, सिंहसेन नरेसर सार । कनकप्रभा राणी तणोरे, दुगंधी अनिष्ट कुमार ॥दुर्ग० ६॥ पद्मप्रभुने पूछतारे, जिन जल्पे पूर्वभव तास । बार योजन नागपुरथीरे, एक शिला निलगिरी पासरे ॥२० ७॥ ते उपर मुनि ध्यानथीरे, न लहे आहेड़ी शिकार । गौचरी गत शिला तलेरे. कोप्यो धरे अग्नि अपाररे ॥को०८॥ शिला तपी रह्या उपरेरे, मुनि आहार करे काउस्सग्ग । क्षपकश्रेणी थये केवल रे, तत्क्षण पाम्या अपवर्गरे ।तत्०९॥ आहेड़ी कुष्टी थइरे, गयो सातमी नरक मझार । मच्छ मघा अहीं पांचमी, सिंह चोथी चित्र अवतार ।।सिं०१०॥ त्रीजी बिलाड़ो वीजीएर, धृा प्रथम नरक दुःख जाल । दुःखना भव भमी ते थयोरे, एक सेठ घरे पशुपाल।ए०११॥ धर्म लही दवमां बल्योरे, निंद्राए हृदय नवकार । श्रीशुभवीरना ध्यानथीरे, तुज पुत्र पणे अवतार ।।तु०१२।।
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[ १०४ ]
to चौथी
निसुणी दुर्गंधकुमार, जाति स्मरण पामतोरे । पद्मप्रभु चरणे शीष, नामी उपाय ते पूछतोरे ॥ प्रभु वयणे, उजमणे युक्त, रोहिणीनो तप सेवीयोरे । दुर्गंध प ग दुर, नामे सुगन्धी कुमार थयोरे ॥ रोहिणी तप महिमा सार, सांभलता नव विसरेरे ॥१॥ रही बात अधूरी एह, सांभलशो रोहिणीने भवरे । इम सुणी दुर्गंधा नारी, रोहिणी तप करे ओवेरे || सुगंधि लहि सुख भोग, स्वर्गे देवी सोहामणोरे । तुज कांता मघवा धुआं, चवि चंपाए थइ रोहिणीरे || २ || तप पुण्य तणे प्रभाव, जन्मथी दुःख नवि देखी ओरे । यति स्नेह कोस्यो एम साथ, राय अशोके वली पुछीयुरे ।। गुरु बोले सुगंधि राय, देव थह पुष्कलावतीरे । विजये थइ चक्री तेह, संजमघर हुआ अच्चुतपतिरे ||रो. ३ || विने यात अशोक, एक तपे प्रेम बन्यो घणोरे । सात पुत्रनी सुराज्यो बात, मथुरामां एक मांहणोरे || अग्नि शर्मा सुत सात, पाटलीपुर जइ भीक्षा भमेरे । सुनि पासे लेह वैराग, विचर्या साते रही संजमेरे ॥ रो. ४ || सौध में हुआ सुर सात, ते सुत साते रोहिणी तणारे । वैताढ्य भिल्ल चुल खेट, समकित शुद्ध सोहामणोरे || गुरुदेवनी भक्ति पसाय, धुर स्वर्गे थई देवतारे |
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[ १०५] लघु सुत आठमो लोकपाल, रोहिणीनो ते सुर सेवतारे॥॥ वली खेट सुता छे चार, रमवाने वनमा गइरे । तीहां दीठा एक अणगार, भाखे धर्म वेला थइरे ॥ पूछयाथी कहे मुनि भास, आठ पहोर तुम आयुछेरे। आज पंचमीनो उपवास, करशो तो फलदायीछेरे ॥रो. ६॥ धुजंती करी पचक्खाण, गेह अगासे जइ सोवतीरे । पडी बिजलीये वली तेह, धुर सुरलोके देवी थतीरे ॥ चवी थइ तुम पुत्री चार, एक दिन पंचमी तो करीरे । इम सांभली सहुं परिवार, वात पूर्वभानी सांभलीरे ॥रो. ७॥ गुरु वंदी गया निज गेह, रोहिणी तप करता सहुरे। मोटी शक्ति बहुमान, उजमणां वस्तु बहुरे ॥ इम धर्म करी परिवार, साथे मोक्षपुरी वरीरे । शुभवीरना शाशन मांहि, सुख फल पामो तप श्रादरीरे ॥८॥
कलश इम त्रिजग नायक मुक्ति दायक, वीर जिनवर भाखीयो । तप रोहिणीनो फल विधाने, विधि विशेषे दाखीयो । श्री क्षमाविजय जसविजय पाटे, शुभविजय सुमति धरो । तस चरण सेवक कहे पंडित, वीरविजयो जय करो ॥
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[ १८६] ८ महावीर भगवान का सत्तावीश भवका स्तवन
दोहा
श्री शुभविजय सुगुरु नमी, नमी पद्मावती माय । भव सत्तावीश वर्णवु, सुणतां समकित थाय ।। १ ॥ समकित पामे जीवने, भव गणती ए गणाय । जो बली संसारे भमे, तो पण मुगते जाय ॥ २ ॥ वीर जिणेसर साहिबों, भमियों काल अनंत । पण समकित पाम्या पछी, अंते थया अरिहंत ॥३॥
ढाल पहली पहले भवे एक गामनो रे, राय नामे नयसार । काष्ट लेवा अटवी गयो रे, भोजन वेला थाय रे प्राणी ! धरीये समकीत रंग, जिम पामीये सुख अभंग रे प्राणी ॥ १ ॥ मन चिंते महिमा नीलोरे, आवं तपसी कोय । दान दई भोजन करे, तो वांच्छित फल होय रे प्राणी० ॥ २ ॥ मारगे देखी मुनिवरा रे, वंदे देई उपयोग । पूछे केम भटको इहारे, मुनि कहे साथ विजोग रे प्राणी० ॥३॥ हरख भरे तेडी गयोरे, पडिलाभ्या मुनिराज । भोजन करी कही चाली एरे, साथ भेलां करूं आज रे प्रागी० ॥ ४ ॥ पगदंडी ए भेलाकर्या रे, कहे मुनि द्रव्य ए मार्ग । संसारे
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[१७] भूला भमों रे, मार्ग भाव अपवर्ग रे प्राणी० ॥ ५ ॥ देव गुरु अोलखाविया रे, दीधो विधि नवकार । पश्चिम महाविदेहमां रे, पाम्यो समकित सार रे प्रोणी० ॥ ६ ॥ शुभ ध्याने मरी सुर हुओरे, पहेला स्वर्ग मझार । पन्योपम आयु च्यवीरे, भरत घर अवतार रे प्राणी० ॥ ७ ॥ नामे मरीची योचने रे, संयम लीधो प्रभु पास । दुष्कर चरण लही थयो रे, त्रिदंडिक शुभवास रे प्राणी० ॥ ८ ॥
ढाल दूसरी नवो वेष रचे तेणी वेला, विचरे आदिश्वर भेला । जल थोड़े स्नान विशेषे, पग पावड़ी भगवे वेषे ॥ १॥ धरे त्रिदंड लाकडी महोटी, शिर मुन्डणने धरे चोटी। वली छत्र विलेपन अंगे, स्थुलथी व्रत धरतो रंगे ॥ २ ॥ सोनानी जनोई राखे, सहुँने मुनिमारग भाखे । समोसरणे पूछे नरेश कोई आगे होशे जिनेश ॥ ३ ॥ जिन जंपे भरत ने ताम, तुज पुत्र मरीची नाम । वीरनामे थशे जिन छेल्ला, आ भरते वासुदेव पहेला ॥ ४ ॥ चक्रवर्ती विदेह थाशे, सुणी आव्या भरत उल्लासे । मरीची ने प्रदक्षिणा देता, नमी वंदीने एम कहता ॥ ५ ॥ तमे पुण्याइवंत गणाशो, हरी-चक्री चरम जिन थाशो । नवि वंदु त्रिदंडिक वेष, नमु भक्ति वीर जिनेश ॥ ६ ॥ एम स्तवना करी घेर जावे, मरिची
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[ १०८] मन हर्ष न मावे । मारे त्रण पदवी नी छाप, दादा जिन चक्री बाप ॥ ७॥ अमे वासुदेव धुर थइशु, कुल उत्तम महारु कहीशु । नाचे कुल मदशु भराणो, नीच गोत्र तिहां बंधाणो ॥ ८ ॥ एक दिन तनु रोगे व्यापे, कोई साधु पाणी न ापे । त्यारे वंछे चेलो एक, तब मलीयो कपिल अविवेक ॥६।। देशना सुणी दीक्षा वासे, कहे मरिची लीयो प्रभु पासे । राजपुत्र कहे तुम पासे, दीक्षालेशु अमे उल्लासे ॥ १० ॥ तुम दरशने धरमनो व्हेम, सुणी चिंते मरिची एम । मुझ योग्य मल्यो ए चेलो, मूल कडवे कडवो वेलो ॥ ११ ॥ मरिची कहे धर्म उभयमां, लीये दीक्षा यौवन वयमां । एने वचणे वध्यो संसार, ए बीजो कह्यो अवतार ॥ १२ ॥ लाख चौराशी पूरव आय, पाली पंचमे स्वर्ग सधाय । दश सागर जीवित त्यांही, शुभवीर सदासुख मांही ॥ १३ ॥
ढाल तीसरी (राग-चौगईनी) पांचमे भव कोल्लाक सन्निवेश, कौशिक नामे ब्राह्मण वेष । असी लाख पूरव अनुसरी, त्रिदंडीयाने वेषे मरी ॥१॥ काल बहु भमियो संसार, थुणापुरी छट्ठो अवतार । बहोतेर लाख पूरवने प्राय, विप्र त्रिदंडिक वेष धराय ॥२॥ सौधर्म मध्यस्थितिए थयो, आठमे चेत्यै सन्निवेसे गयो ।
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[१६]
अग्निद्योत द्विज त्रिदंडियो, पूर्व श्रायुलाख साठे मूश्रो || ३ || मध्य स्थितिए सुर स्वर्ग ईशान, दशमे मंदिरपुर द्विज ठाण । लाख छप्पन पूर्व आय पुरी, अग्निभूति त्रिदंडिक मरी ॥४॥ श्रीजे स्वर्गे मध्यायु धरी, बारमे भवे श्वेतांचीपुरी । पूरव लाख चुम्मालीस आय, भारद्वाज त्रिदंडिक थाय ||५|| तेरमे चौथे स्वर्गे रमी, काल घणो संसारे भमी । चउदमें भव राजगृही जाय, चौत्रीस लाख पूरवने आय ॥ ६ ॥ थावर विप्र त्रिदंडी थयो, पांच मे स्वर्गे मरीने गयो । सोलमे भव क्रोड वरस समाय, राजकुमार विश्वभूति थाय ||७|| संभूति मुनि पासे अणगार, दुष्कर तप करी वरस हजार । मासखमण पारणे धरी दया, मथुरामां गोचरीए गया ||८|| गाये हराया मुनि पड्या धस्या, वैशाखनंदी पितरिया हस्या । गौ श्रृंगे मुनि गर्वेकरी, गयण उछाली धरती धरी ||९|| तपबलथी हो जो बलधणी, करी नियाणु मुनि अणसणी | सत्तरमे महाशुक्रे सुरा, श्री शुभवीर सत्तर
सागरा ||१०||
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ढाल चौथी
( राग नदि यमुना के तीरे उड़े दोय पंखीया - ए देशी ) अढारमे भवे सात सुपन सूचित सती, पोतनपुरी ए प्रजापति राणी मृगावती । तससुत नामे त्रिपृष्ठ वासुदेव
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.. [११०] निपना, पाप भणु करी सातमी नरके उपना ॥ १॥ वीसमे भव थई सिंह चौथी नरके गया, तिहाथी च्यवी संसारे भव बहुला थया । बाबीसमे नरभव लही पुण्यदशा वर्या, त्रेविसमें राज्यधानी मुकामे संचर्या ॥ २ ॥ राय धनंजय धारणी राणीय जनमीया, लाख चोराशी पूरव
आयु जीविया । प्रियमित्र नामे चक्रवर्ती दीक्षा लही, कोडीवरस चारित्र दशा पाली सही ॥३॥ महाशुक्र थइ देव इणे भरते चवी, छत्रिका नगरीए जितशत्रु नामे राजवी । भद्रा माय लख पचवीस वरस स्थिति धरी, नंदन नामे पुत्रे दीक्षा आचरी ॥ ४ ॥ अगियार लाखने अंशी हजार छस्से क्ली, उपर पीस्तालीस अधिक पण दिन रुली । वीशस्थानक मासखमणे जावज्जीव साधता, तीर्थकर नामकर्म तिहां निकाचता ॥ ५ ॥ लाख वरस दीक्षा पर्याय ते पालता, छब्बीसमे भव प्राणतकल्पे देवता । सागरवीसनु जीवित सुखभर भोगव, श्रीशुभवीर जिनेश्वर भव सुणजो हवे ॥ ६॥
०००००००००००cocco
ढाल पांचमी ( राग-गजरा मारूजी चाल्या चाकरी रे-ए देशी ) .
नयर महाणकुडमां वसेरे, महाऋद्धि ऋषभदत्त नामरे। देवानंदा द्विज श्राविका रे, पेट लीधो प्रभु विसराम रे
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[१११] ॥ पेट० ॥ १ ॥ ब्यासी दिवसने अंतरेरे, सुर हरिणगमेषी आय । सिद्धारथ राजा घरे रे, त्रिशला कूखे छटकाय रे ॥ त्रि० ॥ २ ॥ नवमासांतरे जनमिया रे, देवदेवीए ओच्छवकीध । परणी यशोदा यौवने रे, नामे महावीर प्रसिद्ध रे । ना० ॥ ३ ॥ संसारलीला भोगवी रे, त्रीस वर्षे दीक्षा लीध । बार वर्षे हुआ केवली रे, शिववहुनु तिलक शिर दीध रे ।। शि० ॥ ४ ॥ संघ चतुर्विध स्थापीयो रे, देवानंदा ऋषभदत्त प्यार । संयम देई शिव मोकल्यां रे, भगवती सूत्रे अधिकार रे । भ० ॥५॥ चोत्रीस अतिशय शोभता रे, साथ चौद सहस अणगार । छत्रीस सहस ते साधवी रे, बीजा देवदेवी परिवार रे ॥ बी० ॥ ६॥ त्रीस वरस प्रभु केवली रे, गाम नगर ते पावन कीध । बहोंतेर वर्षनु आउखु रे, दीवालीए शिवपद लीध रे ।। दि० ॥ ७ ॥ अगुरु लघु अवगाहने रे, कीयो सादि अनंत निवास । मोहराय मल्ल मूलशु रे, तन मन सुखनो होय नाश रे ॥ तन० ॥ ८॥ तुम सुख एक प्रदेशनुरे, नवि मात्र लोकाकाश । तो अमने सखीया करो रे, अमे धरीये तमारी आश रे । अमे० ॥ ९॥ अखय खजानो नाथनो रे, मैं दीठो गुरु उपदेश ।.लालच लागी साहिबारे, नवि भजीए कुमतिनो लेश रे । नवि० ॥१०॥ म्होटानो जे आशरो रे, तेथो पामीए लील विलास । द्रव्य भाव शत्रु हणी रे, शुभवीर सदा सुखवाम रे ॥शुभ०॥११॥
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[ ११२ ]
कलश
गणीस एके वरस छेक पूर्णिमा श्रावण वरो । मैं थुण्यो लायक विश्वनायक वर्द्धमान जिनेश्वरो || संवेग रंग तरंग झीले जस विजय समता वरो । शुभ विजय पंडित चरण सेवक वीर विजय जयकरो || १ ||
९ श्री सिद्धचक्रजी का स्तवन के ढालिया (राग - जीहो कुर बेठा गोखडे - ए देशी ) ढाल पहली
जिहो प्रणमु' दिन प्रत्ये जिनपति-लाला, शिव सुखकारी अशेष, जिहो सोई चैत्री तणो-लाला । अट्ठाई विशेष, भविकजन-जिनवर जग जयवार । जिहो जिहां नवपद आधार, भविकजन-ए कडी ॥ १ ॥ जिहो तेह दिवस याराधवा-लाला, नंदिश्वर सुर जाय । जिहो जिवाभिगम मांहे का जाला, करे अडदिन महिमाय ॥ भ० || २ || जिहो नवपद केरा यंत्रनी- जाला, पूजा कीजे रे जाप । जिहो रोग शोक सवि आपदा- लाला, ॥ भ० ॥ ३ ॥ जिहो अरिहंत सिद्ध उवज्झाय साधु ए पंच । जिहो दंसण नाण चारित्र तवोलाला, ए चउगुणनो प्रपंच ॥ भ० ॥ ४ ॥ जिहो ए
9
नासे
पापनो व्याप
श्राचारज - लाला,
1
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[ ११३ ]
नवपद आराधतां - लाला, चंपापति विख्यात । जिहो नृप श्रीपाल सुखी थयो-लाला, ते सुणजो अवदात ॥ भ० ॥
।। ५ ।।
ढाल दूसरी
(राग - कोई लो पर्वत धूलो रे - ए देशी )
मालव धुंर उज्जेणीए रे लोल, राज्य करे प्रजापाल रेसुगुण नर । सुरसुंदरी मयणासु दरी रे लोल, बे पुत्री तस चाल रे - सुगुण नर ॥ श्री सिद्धचक्र आराधीये रे लोल, जेम होय सुखनी माल रे सुगण नर || श्री ० | || पहेली मिथ्याश्रुत भली रे लोल, बीजी जिन सिद्धांत रे सुगुण नर । बुद्धि परीक्षा अवसरे रे लोल, पूछी समस्या तुरन्त रे सुगुण नर ॥ श्री सिद्धचक्र || २ || तूठो नृप वर आपना रे लोल, पहेली कहे ते प्रमाण रे सुगुण नर । बीजी कर्म प्रमाणथी रे लोल, कोप्पो ते तब नृप भाग रे सुगुण नर || श्री सिद्धचक्र ॥ || ३ || कुष्टि वर परणावीयो रे लोल, मयणा वरे घरी नेह रे सुगुण नर । रामा हजीय विचारिये रे लोल, सुन्दरी बिसे तुज देहरे सुगुण नर || श्री सिद्धचक्र ॥ ४ ॥ सिद्धचक प्रभावथी रे लोल, निरोगी थयो जेह रे सुगुण नर । पुण्य पसाये कमला लही रे लोउ, बाध्यो घणो ससनेह रे सुगुण नर || श्री सिद्धचक्र || ५ || माउले बात ते जब लही रे
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[ ११४] लोल, वांदवा आव्यो गुरु पास रे सुगण नर । निज घर तेडि आवियो रे लोल, आपे निज आवासरे सुगुण नर ॥ श्री सिद्धचक्र ॥६॥ श्रीपाल कहे कामिनि सुणो रे लोल, हुं नाउ परदेशरे सगण नर । माल मता बहु लावशु रे लोल, पुरीशु तुम तणी खंत रे सगुण नर ॥ श्री सिद्धचक्र ॥ ॥७॥ अवधि करीएक वरसनी रे लोल, चाल्यो नृप परदेशरे सगण नर । सेठ धवल साथे चाल्यो रे लोल, जल पंथे सुविशेषरे सुग़ण नर ॥ श्री सिद्धचक्र ॥ ८ ॥
ढाल तीसरी (राग-इडर आंबा आंबली रे-ए देशी ) परणी बब्बर पति सुता रे, धवल मुकाव्यो ज्यांह । जिनहर बार उघाडतारे, कनककेतु बीजी त्यांह । चतुरनर श्री श्रीपाल चरित्र ।। ए आंकणी ॥ १ ॥ परणी वस्तुपालनी रे, समुद्र तटे आवंत । मकरकेतु नृपनी सुता रे, वीणा वादे रीजंत ॥ चतुर नर ॥ २ ॥ पांचमी त्रैलोक्य सुन्दरी रे, परणी कुब्जा रूप । छट्ठी समस्या पूरती रे, पंच सखीशु अनूप ॥ चतुर नर ।। ३ ॥ राधावेधी सातमी रे, आठमी विष उतार । परणी आव्यो निज घरे रे, साथे बहु परिवार ॥ चतुर नर ॥४॥ प्रजापाले सांभली रे, परदल केरी वात । खंधे कुहोडी लेइ करी रे, मयणा हुई विख्यात |चतुर नर।।
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[ ११५] ॥ ५ ॥ चंपा राज्य लेई करी रे, भोगवी कामित भोग । धर्म आराधी अवतयों रे, पहोतो नवमें सुरलोक ॥चतुर नर।।
ढील चौथी (राग-कंत तमाखु परीहरो-ए देशी) एम महिमा सिद्धचक्रनो, सुणी आराधे सुविवेक मोरे लाल । नव दिन नव आंबिल करी रे, गणणु तेर हजार मोरे लाल ॥ श्री सिद्धचक्र अाराधीए ॥ १ ॥ अडदल कमलनी थापना, मध्ये अरिहंत उदार मोरे लाल । चिहुं दिशे सिद्धादिक, चउ विदिशे चउ गुणधार मोरे लाल ॥ श्री सिद्धचक्र ॥ २ ॥ वे पडिकमणां जंत्रनी, पूजा देववंदन त्रिकाल मोरे लाल । नवमें दिन सुविशेषथी, पंचामृत कीजे पखाल मोरे लाल || श्री सिद्धचक्र ॥ ३ ॥ भूमि शयन ब्रह्म विधि धारणा, रुधी राखो त्रण जोग मोरे लाल गुरु वैयावच्च कीजिए, धरो सद्दहणा भोग मोरे लाल ॥ श्री सिद्धचक्र ॥ ४ ।। गुरु पडिलाभी पारीए, साहम्मिवच्छल पण होय मोरे लाल । उजमणां पण नव नवां, फल धान्य रयणादिक ढोय मोरे लाल । श्री सिद्धचक्र ।। ॥५॥ इह भव सवि सुख संपदा, परभवे सवि सुख थाय मोरे लाल । पंडित शान्तिविजय तणो, कहे 'मानविजय' उवज्झाय मोरे लाल ॥ श्री सिद्धचक्र ॥ ६ ॥
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[११६] १० श्री महावीर भगवान का पंचकल्याणक
दोहा शाशन नायक शिवकरण, वंदु वीर जिणंद । पंचकल्याणक तेहनां, गाशुधरी आणंद ॥१॥ सुणतां थुणतां प्रभु तणा, गुण गिरुवा एक तान । ऋद्धि वृद्धि सुख संपदा, सफल होय अवतार ॥२॥
ढाल पहली ( राग-बापड़ी सुण जीभ लड़ी-ए देशी ) सांभलजो ससनेही सयणा, प्रभुजी ना चरित्र उल्लासरे। जो सांभलसे प्रभु गुण तेहनां, समकित निर्मल थाशे रे ॥ सा० ॥१॥ जंबुद्वीपे दक्षिण भरते, माहाणकुड ग्रामे रे । रिखबदत्त ब्राहाण तसनारी, देवानंदा नामे रे ॥ सा० ॥ २ ॥ आषाढ सुदि छठे प्रभुजी, पुष्पोत्तरथी चवियारे । उतरा फाल्गुनी जोगे आवी, तस कूखे अवतरियो रे ॥ सा० ॥ ३ ॥ तेणी रयणी सा देवानंदा, सुपन गजादिक निरखे रे। परभाते सुणी कंत रिखबदत्त, हैडा मांही हरखे रे ॥ सा० ॥ ४ ॥ भाखे भोग अर्थ सुख होशे, होशे पुत्र सुजाण रे। ते निसुणी सा देवानंदा, कीधु वचन प्रमाण रे ॥ सा० ॥ ५ ॥ भोग भला भोगवती विचरे, एहवे अचरिज होवेरे । कार्तिक जीव सुरेश्वर हरखे,
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[११७ ]
अवधे प्रभुने जोवे रे ।। सा० ॥ ६ ॥ करी वंदन ने इन्द्र सन्मुख, सात आठ पग आवे रे । शकस्तव विधि सहित भणीने, सिंहासन सोहावे रे ।। सा० ॥ ७ ॥ संशय पडिया एम विमाशे, जिन चक्री हरि रामरे। तुच्छ दारिद्र माहणकुल नावे, उग्र भोग विना धामे रे ॥ सा० ॥८॥ अन्तिम जिन माहणकुल आव्या, एह अछेरु कहिये रे। उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अनंती, जातां एहवु लहिये रे ॥ सा० ॥ ९ ॥ एणी अवसर्पिणी दश अच्छेरां, थया ते कहिये तेहरे । गर्भ हरण गोशाला उपसर्ग, निष्फल देशना जेह रे ॥ सा० ॥ ॥१०॥ मूल विमाने रवि शशि आव्या, चमरानो उत्पातरे। ए श्री वीर जिनेश्वर वारे, उपन्या पंच विख्यातरे ॥सा०॥ ॥ ११ ॥ स्त्री तीर्थ मल्ली जिनवारे, शीतल ने हरिवंश रे। ऋषभ अट्ठोत्तरसो सिध्या, सुविधि असंयति शंसरे ॥१०॥ ॥१२॥ शंख शब्द मलीया हरि हरिशु, श्री नेमीश्वरने वारे । तेम प्रभुजी नीच कुले अवतरिया, सुरपति एम विचारे रे ।। सा० ॥ १३ ॥
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ढाल दूसरी (राग - नदी यमुना के तीर) भव सत्तावीस थूलमांहि तीजे भवे, मरिची क्रीयो कुलनो मद भरत यदा स्तवे। नीच गोत्र कर्म बांध्यु तिहां तेहथी,
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[११८]
अवतरिया माहण कुल अंतिम जिनपति ॥ १ ॥ अतिशे अघटतु एह थयु थाशे नहिं, जे प्रसवे जिनचक्री नीच कुले नहिं । एह मारो ओचार धरूं उत्तम कुले, हरिणगमेषी, देव तेडाव्यो एटले ॥ २ ॥ कहे माहणकुंड नयर जइ उचित करो, देवानन्दा कूखेथी प्रभुने संहरो । नयर क्षत्रिय कुड़ राय सिद्धारथ गेहिनी, त्रिशलाराणी धरो प्रभु कूखे तेहनो ॥ ३ ॥ त्रिशला गर्भ लइने धरो माहणी उरे, ब्यासी रात वसीने का तेम सुर करे । माहणी देखे सुपन जाणे त्रिशला हर्या, त्रिशला सुपन लहे तब चौद अलंकर्या ॥ ४ ॥ हाथी वृषभ सिंह लक्ष्मी माला सुन्दरूँ, शशी रवि ध्वज कुंभ पद्म सरोवर सागर । देव-विमान रयणपुज अग्नि विमल हवे, देखे त्रिशलामाताके पियुने वीनवे ॥ ५ ॥ हरखे राय सुपन पाठक तेडावीया, राजभोग सुत फल सुणो तेह वधावीश्रा। त्रिशलाराणी विधिशु गर्भ सुखे वहे, माय तणे हित हेतके प्रभु निश्चल रहे ॥६॥ माय धरे दुःख जोर विलाप घणा करे, हे मैं किंधा पाप अघोर भवांतरे । गर्भ हयों मुज केणे हवे केम पामीए, दुःख कारण जाण्यु विचायु स्वामीए ॥ ७ ॥ अहो अहो मोह- विडंबना जालम जगत में, अणदीठे दुःख एवडु उपायु पलकमें। ताम अभिग्रह धारे प्रभुजी ते कहुं, माता पिता जीवता संजम नविग्रहुं ॥ ८॥ करुणा आणी अंग
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[ १६ ]
हलांव्यु जिनपति, बोले त्रिशना माता हैये घणु हिसती । हो मुज जाग्या भाग्य गर्भ मुज सलबल्यो, सेव्यो श्री जिन धर्म के सुरतरु जेम फल्यो ॥ ६ ॥ सखीयो कहे शिखामण स्वामीनी सांभलो, हलवे हलवे बोलो हसो रंगे चलो | एम आनंदे विचरतां दोहला पुरते, नव महिना ने साडा सात दिवस ते || १०|| चैत्र तणी सुदि तेरस नक्षत्र उतरा, जोगे जनम्या वीर के तव विकसी धरां । त्रिभुवन थयो उद्योतके रंग वधामणा, सोना रुपानी वृष्टि करे घेर सुरण || ११ | वे छप्पन्न कुमारीके ओच्छव प्रभु तणे, चल्यु रे सिंहासन इंद्र के घंटा रणझणे । मली मरनी कोड के सुरवर आवियो, पंचरूप करी प्रभुने सुरगिरि लावी || १२ || एक क्रोड साठ लाख कलश जलशु भर्या, किम सहेशे लघु वीर के इंद्र े संशय धर्मा | प्रभु अंगूठे मेरु चांप्यु अति घडघड्यो, गडगड्यो पृथ्वी लोक जगत जन लडथड्यो ॥ १३ ॥ अनंत बली प्रभु जाणी इंद्र खमावियो, चार वृषभना रूपकरी जल नामीयो । पूजी पर्ची प्रभुने माय पापे धरे, घरी अंगूठे अमृत गया नंदीश्वरे ॥ १४॥
की की की
ढाल तीसरी
( राग- हम चडी नी - देशी )
करे महोच्छव सिद्धारथ भूप, नाम ध दिन दिन बधे प्रभु सुर तरु, जेम रूपकला
वर्धमान । समान रे
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[१२०] । हम चडी ॥१॥ एक दिन प्रभुजी रमवा कारण, पूर बाहिर तव जावे । इन्द्र मुखे प्रशंसा सुणीने, तव मिथ्यात्वी सुर आवे रे ॥ ह० ॥ २ ॥ अहिरुपे विंटाणो तरुशु, प्रभुजी नाख्यो उछाली । सात ताडनु रुप कयु तब, मुष्टे नाख्यु वाली रे ॥ ३० ॥ ३ ॥ पाय लागीने ते सुर खामे, नाम धयु महावीर । जेवो इन्द्र वखाण्या स्वामी, तेहवो साहस धीर रे ॥ ह० ॥ ४ ॥ माता पिता निशाले मुके, आठ वरस ना जाणी । इन्द्र तणा त्यां संशय टाल्या, नव व्याकरण वखाणी रे ।। ह० ॥ ५ ॥ अनुक्रमे यौवन पाम्या प्रभुजी वर्या जशोदा राणो । अट्ठावीश वरसे प्रभुजी ना मात पिता निर्वाणी रे ॥ ह० ॥ ६ ॥ दोय वरस भाइने आग्रहे, प्रभु घरवासे वसिया । धर्म पंथ देखाडो एम कहे लोकांतिक उल्लसीया रे ॥ ह० ॥ ७ ॥ एक क्रोड साठ लाख सोनैया, दिन प्रत्ये प्रभुनी आपे । एम संवत्सरी दान दइने, जगना दारिद्र कापे रे ॥ह० ॥ ८ ॥ छंडी राज्य अंतेउर प्रभुजी, भाइये अनुमति दीधी । मागशर वदि.दशमी उत्तराए, वीरे दीक्षा लीधी रे ॥ ह० ॥९॥ चउनाणी तिण दिनथी प्रभुजी, वरस दिवस झाझे रे । चीवर अर्ध ब्रामणने दीधु, खंड खंड बे फेरी रे । ह० ॥ १० ॥ घोर परिसह साडा बारे, वरस जे जे सहियां । घोर अभिग्रह' जे जे धरिया, ते नवि जाये कहीया
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[१२१ ] रे ॥ ह० ॥ ११ ॥ शूलपाणी ने संगमदेवे, चंडकोशी गोशाले । दीधां दुःखने पायस रांधी, पग उपर गोवाले रे ॥ह० ॥ १२ ॥ काने गोपे खीला मार्या, काढतां मुकी राड़ी । जे सांभलतां त्रिभुवन काप्या, पर्वत शिला फाटी रे ॥ ह० ॥ १३ ॥ ते ते दुष्ट सहु उद्धरीया, प्रभुजी पर उपगारी । उडद तणां बाकुला लइने, चंदनवाला तारी रे ॥ ह० ॥ १४ ॥ दोय छमासी नव चवमासी, अढीमासी त्रणमाती । दोडमासी बेबे कीधां, छ कीधी बेमासी रे ॥ह० ॥ १५ ॥ बार मास ने पक्ष बोहोतेर, छठ बसे ओगणत्रीश वखाणु । बार अष्ठम भद्रादि प्रतिमा, दिन दोय चार दश जाणु रे । ह० ॥ १६ ॥ एम तप कीधो बारे वरसे, विण पाणी उल्लासे । तेमां पारणा प्रभुजी ए कीधां, त्रणशे अगणपच्चास रे ॥ ह० ॥ १७॥ कर्म खपावी वैशाखमासे, शुदि दशमी शुभ जाण । उत्तरायोगे शाली वृक्ष तले पाम्या केवलनाण रे ॥ ह० ॥१८॥ इन्द्रभूति आदि प्रतिबोध्या, गणधर पदवी दीधी । साधु साध्वी श्रावक श्राविका, संघ स्थापना कीधी रे ।। ह० ॥ १६ ॥ चौद सहस अनगार साधवी, सहस छत्रीश कहीजे । एक लाखने सहस गुगसाठी, श्रावक शुद्ध कहीजे रे ॥ ह० ॥ ॥ २० ॥ तीन लाख अढार सहस वली, श्राविका संख्या जाणी । त्रणशे चउदश पूर्वधारी, तेरशे श्रोहीनाणी रे
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. [१२२] ।। ह० ॥ २१ ॥ सात सयांते केवलनाणी, लब्धिधारी पण तेता। विपुलमतिया पांचशे कहीया, चारशें वादी जित्यां रे ॥ ह० ॥ २२ ॥ सातशें अंतेवाशी सिध्या, साधवी चौदर्श सार । दिन दिन तेज सवाई दीपे, प्रभुजीनो परिवार रे ॥ ह० ॥ २३ ॥ त्रीस वरस घरवासे वसीया, बार वरस छद्मस्थे । त्रीस वरस केवल बेंतालीश, वरस ते समणामधेरे ॥ ह० ॥२४॥ बरस बहोतेर केरु आयु, वीर जिणंदनु जाणु । दीवाली दिन स्वाति नक्षत्रे, प्रभुजीनो निर्वाण रे ॥ ह० ॥ २५ ॥ पंचकल्याणक एम वखाण्यां, प्रभुजीना उल्लासे । संघ तणे आग्रह हरख भरीने, सुरत रही चोमासु रे ॥ ह० ॥ २६ ॥
कलश इम चरम जिनवर सयल सुखकर, थुण्यो अति उलट धरी। अषाढ उज्वल पंचमी दिने, संवत् सत्तर तीहोंतरें ॥ भाद्रवा शुद पडवा तणे दिन, रविवारे उलट भरो । श्री विमल विजय उवज्झाय पंकज, भमर सम शुभ शिष्यए । रामविजय जिनवर नामे, लहिये अधिक जगीश ए ॥१॥
००००००००००००००००
११ महावीर स्वामी का हालरीयु
माता त्रिशला भुलावे पुत्र पालणे, गावे हालो हालो हालरुबानां गीत । सोना रुपाने वली रत्ने जडियु पालणु,
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[१२३] रेशम दोरी घुघरी वागे छुम छुम रीत ॥ हालो हालो हालो हालो मारा नंदने ॥ १॥ जिनजी पास प्रभुथी वरस अढीसें अन्तरे, होशे चोवीसमो तीर्थकर जिन परिमोण । केशीस्वामी मुखथी एवी वाणी सांभली, साची साची हुई ते मारे अमृत वाण ॥ हा० ॥ २ ॥ चौदे स्वप्ने होवे चक्री के जिनराज, वित्या बारे चक्री नहीं हवे चक्रीराज । जिनजी पास प्रभुना श्री केशीगणधार, तेहने वचने जाण्या चोवीसमा जिनराज ॥ हा० ॥ ३ ॥ मारी कुखे आव्या तारण तरण जहाज, मारी कुखे अाव्या त्रणभुवनो शिरताज | मारी कुखे आव्या संघ तीरथनी लाज, हुं तो पुण्य पनोती इन्द्राणी थइ आज हा०॥४॥ मुजने दोहलो उपन्यो जई बेसुगज अंबाडीए, सिंहासन पर बेसुचामर छत्र धराय । ए सहु लक्षण मुजने नंदन ताहरा तेजना, ते दिन संभारु ने आनंद अंग न माय ॥ हा० ॥ ५ ॥ करतल पगतल लक्षण एक हजार ने आठछे, तेहथी निश्चय जाण्या जिनवर श्रीजगदीश । नंदन जमणी जंघे लंछन सिंह विराजतो, मैं तो पहले सुपने दीठो वीसवावीस । हा० ॥ ६ ।। नंदन नवला बंधव नंदिवर्धनना तमे, नंदन भोजाइअोना देवर को सुकुमाल | हससे भोजाइअो कही दीयर माहरा लाडका, हससे रमशे ने वली चूटी-खणशे गाल, हससे रमशे ने वली टुसा देशे गाल | हा० ।।७|| नंदन नवलो चेडा राजाना भाणेज छो,
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[ १२४ ] नंदन मामलीयानाभाणेज सकुमाल, हससे हाथे उच्छाली कहिने नाहना भाणेजा, अांखो जीने वली टपकु करशे गाल ॥हा॥८॥ नंदन मामा मामी लाशे टोपी आंगला, रत्ने जडीयां झालर मोती कसबी कोर । नीलां पीलांने वली रातां सर्वे जातिनां, पहेरावशे मामी महारा नंदकिशोर ॥ हा० ॥ ९ ॥ नंदन मामा मामी सुखलडी बहु लावशे, नंदन गजुवे भरशे लाडु मोतीचूर । नंदन मुखडां जोइने लेशे मामी भामणां, नंदन मामी कहेशे जीवो सुख भरपूर ॥ हा० ॥ १० ॥ नंदन नवला चेडामामानी साते सती, मारी भत्रीजी ने बेन तमारी नंद । ते पण गुजे भरवा लाखणसाइ लावशे, तुमने जोइ जोइ होशे अधिको परमानंद ॥ हा० ॥ ११ ॥ रमवा काजे लावशे लाख टकानो घुघरो, वलो सूडा मेना पोपटने गजराज । सारस हंस कोयल तीतरने वली मोरजी, मामी लावशे रमवा नंद तमारे काज ॥ हा० ॥१२॥ छप्पन कुमरी अमरी जलकलशे नवरावीया, नन्दन तमने अमने केली घरनी मांहे । फुलनी वृष्टि कीधी योजन एकने मंडले, बहु चिरंजीवो अाशीष दीधी तुमने त्यांहे ॥ हा० ॥ १३ ॥ तमने मेरुगिरीपर सुरपतिए नवरावीया, नीरखी हरखी सुकृत लाभ कमाय । मुखडा उपर वारु कोटी कोटी चन्द्रमा, वली तन पर वारु ग्रहगणनो समुदाय ॥ हा० ॥ १४ ॥ नन्दन नवला भणवा
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[ १२५ ]
निशाले पण मुकशु, गज पर अंबाडी बेसाडी मोहटे साज । पसली भरशु श्रीफल फोफल नागरवेलशु, सुखलडी लेशु निशालीयाने काज ॥ हा० || १५ || नन्दन नवला महोटा थाशोने परणाशु, बहुवर सरखी जोडी लावशुं राजकुमार । सरखा वाइ वेवाणोने पधरावशु, वरबहुं पोंखी लेशु जोई जोने देदार || हा० ||१६|| पीयर सासरा मारा बेहु पख नंदन उजला, मारी कुखे आव्या तात- पनोता नन्द | माहरे आंगणे वृठा अमृत दुधे मेहुला, मारे प्रांगण फलिया सुरतरु सुखना कन्द || हा० ॥ १७ ॥ इणि परे गायुं माता त्रिशला सुतनु पारण, जे कोइ गाशे लेशे पुत्र तणा साम्राज्य । बीलीमोरा नगरे वर्णव्यु वोरनु होलरु, जय जय मंगल होजो दीपविजय कविराज ॥ हा० ॥ १८ ॥
१ श्री पार्श्वनाथ की सज्झाय
काशी देश वणारसी सुखकारे, अश्वसेन राजन् प्रभु उपकारी रे । पटराणी वामासती सुबकारीरे सुरुपे रंभा समान ॥ प्र०॥
॥ १ ॥ चौद सुपन सुचित भला सु०, जन्म्या पास कुमार प्र० । पौष वदी दशमी दिने सु०, सुर करे श्रच्छव सार ॥ प्र० ॥ २ ॥ देहमान नव हाथनु सु०, नील वरण मनोहर
ין
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[ १२६] प्र० । अनुक्रमे जोबन पामीया सु०, परणी प्रभावती नार ॥प्र० ॥३॥ कमठ तणो मद गालीयो सु०, काट्यो जलतो नाग प्र० । नवकार सुणावी ते कियो सु०, धरण राय महा भाग ॥ प्र० ॥ ४ ॥ पोषवदि एकादशी सु०, व्रत लइ विचरे स्वाम प्र० । वड तले काउस्सग्ग रह्या सु०, मेघमाली सुर ताम ।। ३० ॥ ५ ॥ करे उपसर्ग जल वृष्टि नो सु०, आव्यु नाशिका नीर प्र० । चुकया नहीं प्रभु ध्यानथी सु०, समरथ साहस धीर ।। प्र० ॥ ६॥ चैत्र वदी चोथने दिने सु०, पाम्या केवलनाण प्र० । चउविह संघ थापी करी स०, आव्या समेतगिरि ठाण ॥ प्र० ।। ॥७॥ पाली आयु सो वर्षनुसु०, पहोता मुक्ति महंत प्र० । श्रावण शुद्धि अष्टमी दिने सु०, कीधो कर्मनो अंत ॥प्र० ॥ ८ ॥ पास वीरने आंतरु सु०, वर्ष अढीसें जाण प्र० । कहे माणेक जिनदासने सु०, कीजे कोटि कल्याण ॥ प्र० ॥९॥
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२ श्री बीज की सज्झाय बीज कहे भवी जीवने रे लोल, सांभलो आणी रीजरे सुगुणनर । सुकृत करणी खेतमां रे लोल, वावो समकीत बीज रे सुगुणनर ॥ १॥ धरजो धर्मशु प्रीतडी रे लोल, करी निश्चय व्यवहार रे सु० । इह भव परभव
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[१२७ ] भवोभवे रे लोल, होवे जय जयकार रे सुगुणनर ॥ २ ॥ क्रिया ते खातर नाखीए रे लोल, समता दीजे खेड रे सु. । उपशम नीरे सीचीए रे लोल, उगे समकित छोड रे सुगुणनर ॥ ३ ॥ वाड करो सन्तोषनी रे लोल, ते पाखल तस ढोर रे सु०। व्रत पच्चखाण चोकी ठवो रे लोल, वारजो कर्म रूपी चोर रे सुगुण नर ॥ ४ ॥ अनुभव केरी मंजरी रे लोल, मोरे समकित वृक्ष रे सु० । श्रुत चारित्र फल उतरे लोल, ते फल चाखजो शिष्य रे सुगुणनर ॥ ५ ॥ ज्ञानामृत रस पीजीए रे लोल, स्वाद ल्यो सम तंबोल रे सु० । एणे रसे सन्तोष पामशो रे लोल, लेशो भवनिधि कुल रे सुगुण नर ॥ ६॥ इण विधी बीज तुमे सदहो रे लोल, छांडी रागने द्वष रे सु० । केवल कमला पामीए रे लोल, वरीए मुक्ति सुविवेक रे सुगुण नर ॥७॥ समकित बीज जे सद्दहे रे लोल, ते टाले नरक निगोद सु० । विजय लब्धि सदा लहो रे लोल, नित्य नित्य विविध विनोद रे सुगुणनर ॥ ८ ॥
३ श्री पांचम की सज्झाय अनंत सिद्धने करुं प्रणाम, हैडे समरु सद्गुरु नाम, ज्ञान पंचमीनी कहुं सज्झाय, धर्मो जनने हुई सुखदाय ॥१॥ जगमांहि एक ज्ञानज सार, ज्ञान विना जीव न
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[ १२८] लहे पार । देवगुरु धर्म नवि ओलखे, ज्ञान विना कर्म विष थई ॥३॥ नवतत्वादिक जीवविचार, हैडा उपर देयसार । साधु श्रावकनो शुद्ध आचार, ज्ञान लहि जीव भवनो पार ॥ ३ ॥ आत्मा आठ प्रकारना कह्या, समकित दृष्टि ते सद्दया । द्रव्य आत्मा पहेलो जाण, बीजे कषाय आत्मा प्रधान ॥ ४ ॥ जोग आत्मा त्रीजे सही, उपयोग आत्मा चोथो अहिं । ज्ञान आत्मा पांचमो सार, दर्शन आत्मा छटो धार ॥ ५ ॥ चारित्र आत्मा सातमो वरो, वीरज आत्मा अष्टम मन धरो । चार ज्ञेय उपादेय दोय, हेय दोयं उत्तमने होय ॥ ६ ॥ जिनवर भाषित सर्व विचार न लहे ज्ञान विना निरधार । ज्ञान पंचमी आराधे भली, विधि महित नर दूषण वली ।। ७ ॥ वरदत्त गुणमंजरीने जुत्रो, कर्म बंधन पूरव भव हुओ। गुरु वचने अाराधी सही, सौभाग्य पंचमी मन गहगही ॥८॥ रोग गयो सुख पाम्या बहु, ए अधिकार प्रसिद्ध शु कहुं । संयम लेइ विजयंते जाय, एकावतारी ते वेउ थाय ॥ ९॥ महाविदेह मांही ते अवतरी, सयम लेइ शिवनारी वरी । एणी पेरे.
आराधे ज्ञान, ते पामे निश्चय निर्वाण ॥ १० ॥ मानव भव लेइ करो धर्म, जीम तुम छुटे सघलां कर्म । ऋद्धि कीर्ति वाधे घणी, अमृत पदना थावो धणी ॥ ११ ॥
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[ १२६ ] ४ श्री अष्टमी की सज्झाय श्री सरस्वती चरणे नमी, आपो वचन विलास भवियण । अष्टमी गुण हुं वर्णनु, करी सेवक ने उल्लास भवियण ॥ १ ॥ अष्टमी तप भावे करो, आणी हर्ष उमेद भवियण । तो तुमे पामशो भव तणो, करशो कर्मनो छेद भवियण ॥ अ० ॥ २ ॥ अष्ट प्रवचन ते पालिये, टालीए मदनां ठाम भवियण । अष्ट प्रतिहार्य मनधरी, जपीए जिन नाम भवियण ॥ अ० ॥ ३ ॥ एहवो तप तुमे आदरो, घरो मनमां जिनधर्म भवियण । तो तुमे छुटसो आपदा, टालशो चिहुँ गति मर्म भवियण ॥ अ० ॥४॥ ज्ञान आराधन एह थकी, लहीए शिव सुख सार भवियण । आवागमन जन नहि हुए, ए छे जग आधार भवियण ॥ अ० ॥ ५ ।। तीर्थकर पदवी लहे, तपथी नवे निधान भवियण । जुओ मल्लिकुमरी परे, पामे ते बहु गुण ज्ञान भवियण ॥ अ० ॥ ६ ॥ ए तपना छे गुण घणा, भांखे श्री जिन इश भवियण । श्री विजय रत्न सुरीदनो, वाचक देव सुरीश भवियण ।। अ० ॥ ७ ।।
५ श्री एकादशी की सज्झाय गोयम पूछे वीरने सुणो स्वामीजी, मौन एकादशी
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[ १३० ]
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कि कही । कि पाली कि आदरी । सुणो स्वामीजी, एह पूर्व दिन सही ॥ १ ॥ वीर कहे सुखो गोयम गुण गेहाजी, नेमे प्रकाशी एकादशी । मौन एकादशी निर्मली सुग्गो गोयमजी, गोविंद करे मलारसी || २ || द्वारामती नगरी भली सुणो ०, नव जोयण आराम वसी । छप्पन क्रोड़ जादव वसे सुणो०, कृष्ण विराजे तिणे नगरी ॥ ३ ॥ विचरंता विचरंता नेमजी सुणो०, आवी रह्या उज्वल सिखरे । मधुर ध्वनि दिये देशना सुखो०, भवियणने उपगार करे || ४ || भवअटवी भीषण घणी सुणो०, ते तरवा पंच पर्वी कही । बीजे वे विध धर्म सांचवो सुणो०, देश विरती सर्व विरती सही || ५ || पंचमी ज्ञान आराधिये सुणो, पंच वरस पंच मास वली । अष्टमी दिन अष्ट कर्मनी सुखो०, परभव आयुनो बंध करे || ६ || त्रीजे भागे नवमे भागे सुखो०, सत्तावीसमे भागे सही । अथवा अंतर्मुहुर्त्त समे सुगो०, श्वासाश्वासमां बंध करे || || माया कपट जे कैलवे सुगो०, नरक तिर्यंचनु' आयुष धरे । राग तणे वश मोहियो सुणो०, विकल थयो परवश पणे ||८|| करणी
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करणी नवी गणे सुणो ०, मोह तिमिर अंधकार पणे । मोहे मदधर्यो फिरे गो०, दे घूमरी घणु जार पणे ॥ ९ ॥ घायल जिम रहे घूमता सुखो०, का न माने नेह पणे । जीव रुले संसारमां सुणो ०, मोह कर्मनी सही जाणी
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[१३१] ॥ १० ॥ अल्प सुख सरसव जेवो सुणो०, तो तेने मेरु समान गणे । लोभे लंपट कहायो सणो०, नवि गणे ते अन्ध पणे ॥ ११ ॥ ज्ञानी विण कहो कुण लहे सुणो०, शुजाणे छद्मस्थ पणे । अष्टमी एकादशी चउदशी सणो०, सामायिक पोषह करे ॥ १२ ॥ धर्मने दिवसे कर्मनो सणो०, प्रारम्भ करे जे नरनारी । निश्चय सदगति नवि लहे सुणो०, अशुभ कर्मना फल छे भारी ॥ १३ ॥ पांच भरत पांच एरवते सुणो०, महाविदेह ते पांच भणी । कर्म भूमि सघली थई सुणो०, सुकल्याणक पंच सोय भणे ॥ १४ ॥ श्री विशाल सोमसूरीश्वर प्रभु सुणो०, तपगच्छ को सिरदार मुणि । तस गुरु चरण कमल नमो सुणो०, सुव्रत रुप सज्झाय भणी ॥ १५ ॥
६ श्री रोहिणी की सज्झाय श्री वासुपूज्य जीणंदनो ए, मघवासुत मनोहर । जयो पत रोहिणी ए, रोहिणी नामे तस सताए; श्री देवी माता मल्हार-जयो तप रोहणी ए, करे तस धन्य अवतार ॥ जयो तप ॥ १ ।। पद्म प्रभुना वयणथीए, दुर्गधी राजकुमार जयो तप.। रोहिणी तप करतां भवे ए, सुजस सगंध विस्तार ॥जयो. ॥ २ ॥ नरदेव सुरपद भोगवी ए, ते थयो
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[ १३२ ]
अशोक नरिंद ज.- + रोहिणी राणी तेहनी ए. दोयने तप सुखकन्द || ज. || ३ || दुरभिगंधा कामिनी ए, गुरु उपदेश सुरांत ज. । रोहिणी तप करी दुःख हरी ए, रोहिणी भव सुखन्त ॥ जं. ॥ ४ ॥ प्रथम पारणा दिन ऋषभनो ए, रोहिणी नक्षत्र वास ज । द्विविधे करी तप उच्चरो ए, सात वरस सात मात्र ॥ ज. ॥ ५ ॥ करो उजमगुं पूरण तप ए, अशोक तरु तले ठाय ज. । विंत्र रयण वासुपूज्यनु
ए, अशोक रोहिणी समुदाय ॥ जं. ॥ ६ ॥ एकसो एक मोदक भला ए, रुपा नागु समेत ज । सात सत्तावीस कीजिए ए, वेश संघ भक्ति हेत ॥ ज. ॥ ७ ॥ आठ पुत्र चारे सुताए, रोग शोक नवि दीठ ज । प्रभु हाथे संयम | ह्या ए, दंपती केवल दीठ ॥ जं. ॥ ८ ॥ कांति रोहिणी पति जीसीए, रोहिणी सुत समरुप ज । ए तप सुख संपत दीये ए विजय लक्ष्मीसूरि भूप ॥ ज. ॥ ९ ॥
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७ श्री सिद्धचक्रजी की सज्झाय सरस्वती माता मया करो, आपो वचन विलासो रे । मयणासुन्दरी सती गाइ शु, आणी हैड़े भावो रे ॥ १ ॥ नवपद महिमा सांभलो, मनमां धरी उल्लासो रे । मयणासुन्दरी श्रीपालने, फलीयो धर्म उदारो रे || नव. २ ||
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[ १३३] मालव देश मांही वली, उजेणी नयरी जामो रे । राज्य करे तिहां रोजियो, पुहवीपाल नरिंदो रे ॥ नव. ३ ॥ राय तणी मन मोहनी, धरणी अनोपम दोय रे। तास कुखे सुता अवतरी, सुरसुदरी मयगानी जोड़ रे ॥नर. ४॥ सुरसुन्दरी पंडित कने, शास्त्र भणी मिथ्यात्व रे । मयणासुदरी सिद्धांतनो, अर्थ लियो सुविचारो रे ।। नव. ५ ॥ राय कहे पुत्री प्रत्ये, हुं तुठो तुम जेहो रे । वांछित वर मागो तदा, आपु अनोपम जेहो रे ।। नव.:६।। सुरसुन्दरीए वर मागीयो, परणावी शुभ ठामो रे। मयणासुन्दरी वयणा कहे, कर्म करे ते होय रे ॥ नव. ७ ॥ कर्म तुमारे आवीयो, वरो वरो बेटी एहो रे । तात आदेशे कर ग्रह्यो, वरियो कुष्टी तेहो रे ॥ नव. ८ ॥ आंबिलनो तपादरी, कोढ अढारनो टालो रे । सदगुरु आज्ञा शिर धरी, हुप्रो राय श्रीपाल रे ॥नव. ह॥ तप प्रसादे सुख संपदा, प्रत्यक्ष स्वर्ग पहुतो रे । उपसर्ग सवि दूरे टल्या, पाम्यो सुख अनंतो रे ॥नव. १०॥ देश देशांतर भमी करी, आव्यो ते वरतांतो रे । नवराणी पाम्या भली, राज्य पाम्यो मन रंगोरे ।।नव. ११॥ तपगच्छ दिनकर उगीयो, श्री विजयसेन सुरीदो रे । तास शिष्य विमल एम विनवे, सतीयोने नामे आणंदोरे ॥१२॥
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[१३४] ८ श्री सिद्धचक्रजी की सज्झाय
गुरु नमतां गुण उपजे, बोले आगम वाण । श्री श्रीपालने मयणा, सदाये गुणखाण || श्री मुनिचन्द्र मुनीसर, बोले अवसर जाण ॥१॥ आयंबिलनो तप वरणव्यो, नवपद नवे रे निधान । कष्ट टले आशा फले, वाधे वसुधा वान ॥ श्री. २ ॥ रोग जाये रोगी तणा, जाये शोक संताप । व्हाला वृन्द भेला मले, पुन्ये वधे घटे पाप ॥ श्री. ३ ॥
आसो शुदि सातम थकी, तप मांड्यो तनुहेत । पुरो तप पूनम लगे कामिनी कंत समेत ॥ श्री. ४ ॥ चैतर सुदि सातम थकी, नव आयंबिल निरमाय । इम एकाशी आयंविले, ए तप पुरो थाय ॥ श्री. ५ ॥ राज्य नीकंटक पालतां. नव शत वरस वीलीन । देशविरति पणु पादरी, दीपाव्यो जग जैन ॥ श्री. ६ ॥ गज रथ सहस ते नव भला, नव लाख तेजी नुखार । नव कोड़ी पायदल भलु, नव नंदन नव नार ॥ श्री. ७ ॥ तप जप क्रिया उजवी, पाम्या नवमु स्वर्ग । सुर नरना सुख भोगवी, नवमे भव अपवर्ग ॥श्री.।। ॥८॥ हंसविजय कविरायनो, जिम जल उपर नाव । आप तर्या परने तारवे, मोहन सहज स्वभाव ॥ श्री. ९ ॥
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[ १३५ ]
९ श्री वीश स्थानक की सज्झाय
अरिहंता पहेले स्थाने गणीये, बीजे पद सिद्धाणं । त्रीजे प्रवचन, आचार्य चौथे, पांचमे पद थेराणं रे ॥ १ ॥ भवीयां वीश स्थानक तप कीजे, ओली वीश करीजे रे भ. । गुणणु एह गणीजेरे भ., जिम जिन पद पामीजे रेभ. ॥ नरभव लाहो लीजे रे भ. ॥ ए आंकणी ॥ उपाध्याय छ सव्व साहूणं, सातमे आठमे नाा । नवमे दर्शन दशमे वियरस, चारित्र अग्यारने जागरे ॥ भ. २ ॥ बारमे ब्रह्म व्रत धारीणं, तेरमे किरियाणं । चौदमे तप पद पंदरमे गोयम, सोलसमे नमो जिला रे । भ. ३ ।। चारित्तस्स सत्तरमे जपीए, अठ्ठारमे नाणस्स । ओगणीशमे नमो सुयस्स संभारो, वीशमे तित्थस्स रे || भ. ४ ॥ एकासणादि तप देववन्दन, गराणु दोय हजार । सत्य विजय बुध शिष्य सुदर्शन, जंपे एह विचार रे ॥ भ. ॥ ५ ॥
१० श्री नवपदजी की सज्झाय
( नणइलनी - ए देशी. अरिहंत प्रथमपदनी सज्झाय ) वारी जाउं श्री अरिहंतनी, जेहना गुण छे बार मोहन । प्रतिहारज आठ छे, मूल अतिशय चार मोहन.
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[ १३६ ]
॥ वारि. १ || वृक्ष कुसुमनी वृष्टि, दिव्य ध्वनि वाण मोहन । चामर सिंहासन दुंदुभि, भामंडल छत्र वखारा मोहन. ॥ वारि २ || पूजा अतिशय छे भलो, त्रिभुवन जनने मान मोहन | वचनातिशय योजन गामी, समजे भवि असमान I मोहन || वारि. ३ || ज्ञानातिशय अनुत्तर तथा संशय छेदणहार मोहन | लोकालोक प्रकाशता, केवल ज्ञान भंडार मोहन | वारि, ४ ॥ रागादिक अन्तररिपु, तेहनो कीधो अन्त मोहन | जिहां विचरे जगदीश्वरु, तिहां साते इति शमन्त मोहन. | वारि. ५ ॥ एहवा अपायापगमनो, श्रति शय अति अद्भुत मोहन । अहर्निश सेवा सारता, कोड़ि | गमे सर हूंत मोहन ॥ वारि ६ ॥ मार्ग श्री अरिहंतनो, दरिये गुण गेह मोहन । चार निक्षेपे वांदीये, ज्ञान विमल गुणा गेह मोहन || वारि, ७ ॥
११ श्री सिद्धपद की सज्झाय
नमो सिद्धाणं वीजे पदे रे लाल, जेहना गुण छे आठ रेहुं वारि लाल । शुक्ल ध्यान अनले करी रे, बाल्या कर्म कुठार रे हुँ वारी लाल ॥ १ ॥ ज्ञानावरणी दये लघु रे लाल, केवलज्ञान अनंतरे हु० । दर्शनावरणी क्षय थी थारे लाल, केवल दर्शन कन्तरे हु ० ॥ ० ॥ २॥ अक्षय अनंत सुख सहजथी रे लाल, वेदनी कर्मनो नाश रे
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[१३७] हुं. । मोहनीय क्षये निर्मलुरे लाल, क्षायक समकित वासर ॥ हुं० न० ३ ।। अक्षय स्थिति गुण उपन्योरे लाल, आयु कर्म अभावरे हुं० । नाम कर्म क्षये निपन्योरे लाल, अरुपादिक गति भावरे ।। हुं० न० ४ ॥ अगुरु लघु गुण उपन्यो रे लाल, न रह्यो कोई विभावरे हुं० । गोत्र कर्मना नाशथी रे लाल, निज प्रगट्या जस भाव रे ।। हुं० न० ५ ॥ अनंत वीर्य आतम तणु रे लाल, प्रगट्यो अन्तराय नाश रे हुं० ।
आठे कर्म नाशी गया रे लाल, अनंत अक्षय गुणवास रे ॥ हुं० न० ६॥ भेद पन्नर उपवारथी रे लाल, अनंत परंपर भेद रे हुं० । निश्चयथी वीतरागना रे लाल, त्रिकरण कर्म उच्छेहरे ।। हुं० न० ७ ॥ ज्ञानविमलनी ज्योतिमां रे लाल, भासित लोकालोक रे हुं० । तेहनां ध्यान थको थशे रे लाल, सुखीया सघला लोक रे ॥ हुँ० न० ८ ॥
१२ श्री आचार्य पद की सज्झाय
प्राचारी आचार्यनोजी, त्रीजे पदे धरो ध्यान । शुभ उपदेश परुपताजी, कह्या अरिहंत समान सुरीश्वर ॥ नमतां शिव सुख थाय, भव भवना पातिक जाय ।। सू० १ ॥ पंचाचार पलावताजी, आपण ते पालंत । छत्रीश छत्रीश गुणेजी, अलंकृत तनु विलसन्त ॥ सू० न० २॥ दर्शन ज्ञान चारित्रनाजी, एकेक आठ प्राचार । बारह तप
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[१३८] आचारनाजी, इम छत्रीश उदार ॥ सू० न० ३॥ पडिरुपादिक चउदे अछेजी, वली दश विध यति धर्म । बारह भावना भावतांजी, ए छत्रीश मर्म ॥सू. न. ४॥ पंचेन्द्रिय दमे विषयथीजी, धारे नवविधि ब्रह्म । पंच महाव्रत पोपतांजी, पंचाचार समर्थ ॥ सू० न० ५ ॥ सुमति गुप्ति शुद्धि धरेजी, टाले चार कषाय । ए छत्रीश आदरेजी, धन्य धन्य तेहनी माय ॥ सू० न०६॥ अप्रमत्ते अर्थ भांखताजी, गणि संपद जे आठ । छत्रीश चउविनायादिकेजी, इम छत्रीश पाठ ॥ सू० न० ७॥ गणधर उपमा दीजिएजी, युग प्रधान कहाय । भव चारित्री तेहवाजी, तिहां जिन मार्ग ठराय ॥ सू० न० ८ ॥ ज्ञानविमल गुण राजताजी, गाजे शासन मांहै । ते वांदि निर्मल करोजी, बोधि बीज उच्छाह । सू० न० ९॥
१३ श्री उपाध्याय की सज्झाय चोथे पद उवज्झायनु, गुणवन्तनु धरो ध्यान रे । युवराज सम ते वह्या, पदमूरिने समानरे ॥ चोथे १ ॥ जे सूरि समान व्याख्यान करे, पण न धरे अभिमानरे । वली सूत्र अर्थनो पाठ दीये, भवि जीवने सावधानरे ॥चो. २॥ अंग इग्यार चउद पुर्व, जे वली भणे भगाये जेहरे । गुण पचवीश अलंकर्या, दृष्टिवादे अर्थना गेहरे ॥चो. ३॥
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[१३९] बहु नेहे अर्थ अभ्यासे सदा, मन धरता धर्म ध्यान रे । करे गच्छ निश्चित प्रवर्तक, दिये स्थविरने बहुमानरे ॥चो.४॥ अथवा अंग इग्योर जे वली, तेहना बार उपांग रे । चरण करणनी सित्तरी, जे धारे आपणे अंगरे ।।चो. ५॥ वली धारे आपणे अंग, पंचागी सम ते शुद्ध वाणी रे । नयगम भंग प्रमाण विचारने, दोखता जिन पाणरे ॥चो. ६।। संघ सकल हित करीया, रत्नादिक मुनि हितकार रे । पण व्यवहार परुपतां, कहे दस समाचारी आचाररे ॥चो.७॥ इन्द्रिय पंचथी विषय विकारने, वारता गुण गेह रे । श्री जिनशापन धर्म धुरा, निरवाहता शुचि देहरे ॥चो. ८॥ पंचवीसी पचविश गुणतणी, जे भाखी प्रवचन महिरे। मुक्ताफल सुक्तो परे, दीपे जस अंग उछाहरे ॥चो. ९॥ जस दीपे अति उच्छाहे, अधिक गुणे जीवथी एकतानरे । एहवा वाचक उपमान कहु, तेहथी शुभ ध्यानरे ॥चो.१०॥
१४॥तत्र प्रथम व्याख्यानस प्रथम सज्झाय प्रारंभ।
ढोल पहेली पर्व पजूषण आव्या, आनन्द अंगे न माय रे । घर-घर उत्सव अति घणा, श्री संघ आवीने जाय रे ॥१॥
पर्व पजुषण आवियां ........ ए आंकणी.
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[१४०] जीव अमारी पलावियें, कीजीये व्रत पच्चखाण रे । भाव धरी गरु वंदिए, सुणीए सूत्र वखाण रे ॥ पर्व० २॥
आठ दिवस एम पालीए, आरंभनो परिहारो रे। नावण धोवण खंडण, लेपण पीसण वारो रे ॥ पर्व० ३॥ शक्ति होय तो पच्चख्खीए, अठाई अति सारो रे। परम भक्ति प्रीति लाविए, साधुने चार आहारोरे ॥पर्व०४। गाय सोहागण सवि मली, धवल मंगल गीत रे। पकवाने करि पोषीए, पारणे साहमी मन प्रीत रे ।।पर्व ० ५॥ सत्तरभेदी पूजा रची, पूजिए श्री जिनराय रे । आगल भावना भाविए, पातक मल धोवाय रे ॥पर्व० ६॥ लोच करावे साधुजी, बेसे बेसणा मांडी रे । शिर विलेपन कीजिये, आलस अंगीं छडी रे ॥पर्व० ७॥ गज गति चाले चालती, सोहागण नारी ते आवे रे। कुंकुम चन्दन गहूंली, मोतिये चौक पूराने रे ।। पर्व० ८॥ रुपा मोहरें प्रभावना, करिए तव सुखकारीरे । श्रीक्षमाविजय कविरायनो, बुध माणिकविजय जयकारीरे ॥९॥ १५॥ अथ द्वितीय व्याख्यान सज्झाय ॥ (प्रथम गोवालीया तणे भवेजी-ए देशी )
ढाल तीसरी इन्द्र विचारे चित्तमांजी, ए तो अचरीज वात । नीच कुले नाव्या कदाजी, उत्तम पुरुष अवदात ॥
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[१४१] सुगुण नर जुत्रो जुत्रो कर्म प्रधान, कर्म सवल बलवान ।
सुगुणनर० जुत्रो० ए आंकणी ॥ १ ॥ आवे तो जन्मे नहींजी, जिन चक्री हरि रोम । उग्र भोग राजन कुलेजो, आवे उत्तम ठाम ॥ सु० २॥ काल अनंते उपनाजी, दश अच्छेरा रे होय । तिणे अच्छेरु ए थयुजी, गर्भ हरण दश माहे ॥सु. ३॥ अथवा प्रभु सत्यावीशमांजी, भवमां त्रीजे जन्म । मरीचि भव कुल मद कीयोजी, तेथी बाध्युनीच कर्म ॥सु०४॥ गोत्र कर्म उदये करीजी, माहण कुले उववाय । उत्तम कुले जे अवतरेजी, इंद्रि जीत ते थाय ॥ सु० ५ ॥ हरिणगमेषी तेड़ीनेजी, हरि कहे एह विचार । विप्र कुलेथी लई प्रभुजी, क्षत्रिय कुले अवतार ।। सु० ६॥ राय सिद्धारथ घर भलीजी, राणी त्रिशला देवी । तास कुखे अवतरियाजी, हरि सेवक तत्खेव ॥ सु० ७ ॥ गज वृषभादिक सुन्दरुजी, चौद सुपन तिणि वार । देखी राणी जेहवांजी, वर्णव्यां सुत्रे सार ॥ सु० ८॥ वणन करी सुपन तणुजी, मूकी बीजुवखाण। श्री.क्षमाविजय गुरु तणोजी, कहे माणक गुण खाण ।।सु. ९॥
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[१४२] १६॥ अथ चतुर्थ व्याख्यान सज्झाय ॥ ___(मन मोहनना रे लाल-ए देशी)
ढाल पांचमी धनद तणे आदेशथी रे, मन मोहना रे लाल । तिर्यग जभक देव रे, जग सोहना रे लाल ।। राय सिद्धारथने घरे रे म., वृष्टि करे नित्यमेव रे ज. ॥१॥ कनक रयण मणि रौप्यनीर म., धन कण भूषण पानरे ज. । वरसावे फल फूलनीरे म., नूतन वस्त्र निधान रे ज. ॥२॥ वाधे दोलत दिन प्रत्येरे म., तेणे वर्धमान हेत रे ज.। देशु नामज तेहनु रे म., मात पिता संकेत रे ज. ॥३॥ मातानी भक्ति करीरे म., निश्चल रह्या प्रभु ताम रे ज. । माता अरति उपनीरे म., शुथयो गर्भने आमरे ज. ॥४॥ चिंतातुर सहु देखीने रे म., प्रभु हाल्या तेणी वाररे ज. । हर्ष थयु सहु लोकने रे म., आनन्दमय अपाररे ज. ॥५॥ उत्तम दोहला उपजेरे म., देव पूजादिक भावरे ज. । पूरण थाये ते सहुरे म., पूरव पुण्य प्रभावरे ज. ॥६॥ नव मास पूरा उपरे रे म., दिवस सहाड़ा सात रे ज. । उच्च स्थाने ग्रह अवता रे म., वाये अन्कुल वातरे ज. ॥७॥ वसंत ऋतु मन मोहियारे म., जन मन हर्ष न मायरे ज. । चैत्र मात शुद्धि तेरशेरे म , जिन जन्म्या आधी रातरे ज.॥८॥
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[ १४३] अजुवालु त्रिहुं जग थयुरे म, वरत्यो जय जयकाररे ज. । चोथु वखाण पूरण इहां रे म., बुध माणक विजय हितकाररे
ज ॥९॥
१७ यशोदा विलाप की सज्झाय
( साहेबा वाहु जिनेश्वर विनवु) नणदल सिद्धारथ सुत सुंदरु, रुपनिधि बहु गुणवंत हो । न० त्रिशला कुखे अवतर्या, ए छे अम तणा कंत हो ॥१॥ नणदल थारो वीरो चारित्र लिये, तु केम लेवण देय हो । न० मारो मनायो माने नहीं, कांइ उपाय करेह नणदल | थारो० २ ॥ नणदल सुंदर भोजन सहु तज्यां, तज्या शणगार ने स्नान हो । नगदल बोलाव्या बोले नहीं, रात दिवस रहे ध्यान हो न०॥ थारो० ३॥ नणदल केइ केई वानां मे कर्या, केइ केइ कर्या रे उपाय हो । नणदल पण नवि भींजे चित्तशु, कोरडु मग कहेवाय हो न० ॥ थारो० ४ ॥ नणदल जाण्यु हतु खट खंडनु, पालशे राज्य उदार हो । नणदल हय गय रथ पायक घणा, होशे विविध प्रकार हो न० ॥ थारो० ५॥ नणदल छेल छबीला राजवी, करतां ऐहनी सेव हो । नप्रदल ते पण सहु स्थाने गया, जाणी निरागी देव होन० ॥थारो० ६॥
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[१४४] नणदल जन्म थयो जब एहनो, चोसठ इन्द्र मिलेय हो । नणदल मेरु शिखर न्हवराविया, भावथी भक्ति करेय हो न० ॥ थारो० ७॥ नणदल बाल्यु केहनु नवि गमे, चित्तमां कांइ न सुहाय हो । नणदल सवि शणगार अंगारड़ा, ए दुःख कोने कहवाय हो न० ॥ थारो० ८ ।। नण दल राणी यशोदा इम कहे, सुदर्शना ने बोल हो । भाभी व्हेने भाई समजाविया, पण प्रभु वीर अडोल हो न० ॥ थारो० ९॥ भवियण चोसठ इन्द्र तिहा मल्या, सुरनर कोड़ा कोड़ हो। भवियण पांच महाव्रत आचर्या, बाह्यान्तर ग्रंथो छोड़ हो । भवियण वीर जिनेश्वर जग जयो ॥ १० ॥ भवियणा बार वर्ष बहु तप तप्या, पाम्या केवल ज्ञान हो । भविया कर्म खपावा सिद्धि वर्या, पहोत्यांसास्वत स्थान हो भवियण ॥वीर जिनश्वर जग जयो ॥११॥ भवियण श्री महावीर जिणंदने, गातां उपजे उल्लास हो । भवियण हरख विजय कविरायनो, प्रीति विजय प्रभु दास हो भविया ॥वीर जिनेश्वर जग जयो ॥१२॥
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- १८ श्री सीता महासती की सज्झाय
(धोबीडा तुधोजे मननु धोतीयु रे-ए देशी )
जनक सुता सीता सती रे, रामचन्द्रनी घर नारी रे । कैकायी वर अनुभाव थी रे, पहोता वनह मोझार रे ॥१॥
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[ १४५ ]
शीलवंता सीता वंदीये रे || ए आंकणी । अति रुपे रावणे हरी रे, तिहां राख्यु शील अखंड रे । ररावण हणी लंका ग्रही रे, लक्ष्मण राम प्रचंड रे || शील २ ॥ अनुक्रमे अयोध्या या रे, कर्म वशे थयो दुःख रे । गर्भवन्ती वने एकली रे, मूकी पण थयुं सुख रे || शील ३ ॥ लव अंकुश सुत परगड़ारे, विद्यावन्त विशाल रे । अनुक्रमे दिव्ये उतर्या रे. जल थयुं अग्नी नी झाल रे || शील ४ ॥ दीक्षा ग्रही सुरपति थयां रे, अच्चुत कल्पे तेह रे । तिहांथी चवी भव अंतरे, शिव लेसे गुण गेह रे || शील ५ ! लव अंकुश हनुमानजी रे, राम लह्या शिव वास रे । रावण लक्ष्मण पामशे रे, जिन गणधर पद खास रे ।। शील ६ ।। पद्य चरित्रे एहनां रे, विस्तारे अधिकार रे ! ज्ञान विमल गुरु थी लह्यो रे, सुख संपति जयकार रे || शील ७ ॥
१९ श्री मरण की सज्झाय
सुण साहेली रे कहुं एक हृदयनी वातो, जरुर जीवने मरवु साचु | कंइ नथी बाध्यु भातुं मरवा टाणे रे, माराथी केम मराशे, शीं गति थासे, नरकमां केम रहेवासे ॥ १ ॥ सासु संताप्यारे, साधुने कांइ न प्राप्यु ं । हाथमा करवत लइने, मूल पोतानु काप्यु ॥ २ ॥ बे बालकडां
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[ १४६] रे, बाई मारा छे लाडकडां । अंगथी अलगां रहेशे, पोताना केम कहेवाशे ॥ म० ३ ॥ भर्या भास्यां रे, श्रा घर कोना कहेवाशे । मरवानी तो ढीलज नथी, आ घर कोने सोपशें ॥४॥ परवश थइने रे, पथारिये पडशु हतु त्यारे हाथे न दीधु, हवे शी गति थासे ॥ ५॥ श्वास चडशे रे, धबके आँख उघडशे । अहीथी उठातु नथी, भुख्यो केम चलाशे ॥ ६ ॥ यमदूत अावशे रे, एकदम भड़का बलशे । झाझा दुःखनी ज्वाला चड़शे, डचका केम लेवाशेजी ॥७॥ उदय रत्न कहे रे, सहु समजीने रहेजो । समज्या ते तो स्वर्गे पहोंच्या, बीजा गाफेल गोथा खाशे ॥८॥
२० श्री नंदिषेण मुनि की सज्झाय
(जगजीवन जग वालहो-ए देशी) रहो रहो रहो वालहा, का जावो छो रुठी लाल रे । जेहने तन धन सुपीए, तेहने न दीजे पुठी लाल रे ॥र०॥ ॥१॥ रात दिवस जे गुण जये, राखे नेह अपार लाल रे । ते माणस किम म्हेलीये, जो होय वांक हजार लाल रे ॥र० ॥ २ ॥ पाय पडु प्रभु वीनवु, हसता मा धारो रोश लाल रे । वाड़ गले जो चीभड़ां, केहने दीजे दोष लाल रे ॥र० ॥ ३ ॥ पांचशे नारी परिहरी, कीधी मुझ संभाल
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[१४७] लाल रे । दिन दिन प्रत्ये दश बुझवे, नंदिषण वाणी रसाल लोल रे ॥ २० ॥ ४ ॥ वार वरस सुख भोगवी, लीधो संजम भार लाल रे । विनय विजय उवज्झायनो, रुप विजय जयकार लाल रे ।। र० ॥ ५ ॥
२१ श्री अनाथीमुनि की सज्झाय
(प्रभु पास मुखडु जोवा-ए देशी) भंभसारे वनमां भमता, ऋषि दीठो रयवाड़ी रमतां । रुप देखीने मन रीझयो, भारे करमी पण भीज्यो ॥१॥ पाणि जोडीने इम पूछे, संबंध तमारे शु छ । नर नाथ हुं छु अनाथ, नथी कोइ माहरे नाथ ॥ २ ॥ हरखे जोडीने कहे हाथे, हुं थाउं तुमारो नाथ । नर नाय तु छे अनाथ, शुं मुझने करे छे सनाथ ॥ ३ ॥ मगधाधिप हुँ छु मोटो, शु बोले छे नृप खोटो । नाथ पणुतुनवि जाणे, फोगट शु आप वखाणे ॥ ४ ॥ वत्स देश कोशंबीनो वासी, राजपुत्र हुं छुविलासी । एक दिन महा रोगे घेर्यो, केणे ते पाछो न फेयों ॥ ५ ॥ मात पिता मुझ बहु महिला, वहेरावे आंशु नां वहेला । बडा बडा वैद्य तेड़ावे, पण वेदन कोई न हठावे ॥ ६ ॥ तेहवु देखी तव शूल, धार्यो में धर्म अमूल । रोग जाये जो आजनी रात, तो संयम लेउं प्रभात ॥ ७ ॥ इम चिंतवतां वेदन नाठी, बाकरी में
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[ १४८] गांधी काठी । बीजे दिन संयम भार, लीधो न लगाडी वार ॥८॥ अनाथ सनाथ नो वहेरो, तुझने दाख्यो करी चहेरो । जिन धर्म विना नर नाथ, नथो कोई मुगति नो साथ ॥ ६ ॥ श्रेणिक तिहां समकित पाम्यो, अनाथाने शिर नाम्यो । मुगते गयो मुनिराय, उदय रत्न वदे उबज्झाय ॥ १० ॥
- --.२२ श्री सनतकुमार चक्रवती की सज्झाय
( सुत सिद्धारथ भूपनो रे-ए देशी) सनतकुमार ऋषि राजियो रे, देवा तनु आधार । गोचरीये गुरु संचरे रे, धरतो पंचाचार रे धन ए मुनिवरु । जस जग विस्तार्यो चंग रे, गंगा निरमलो । जस दृढ करुणानो रंग, जाणे सहु सुख मलो ॥ १ ॥ चीणा कूर अजातणु रे, तक्र लयो आहार । छठ छ: पारणु मुनि करे रे, विचरे उग्र विहार रे ॥ धन० ॥ २ ॥ ए आहार कर्या थकी रे, प्रगट थया ते रोग । अहि आसइ मुनि इम करी रे, कर्म टले न विण भोग रे ॥ धन० ॥ ३॥ छठम दशमादिकेरे दुर्बल कीधु गात्र, एहवाजे मुनि जग अछे । ते अछे सुघलां पात्र रे, ते प्रणमु अहो रात्र रे ॥ धन० ॥ ॥४॥ कोटाले मुझ रोगडा रे, इम नवि वंछे चित ।
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[ १४६ ]
सनतकुमार मोटो मुनि रे, सुरपति गुण बोलंत रे ॥ धन० ॥ ॥ ५ ॥ हरि प्रणमे मुनि गुण सुणी रे, हरख्या बहुला देव । सुधन हर्ष पंडित कहे रे, धर्मी सुर करे सेव रे || धन० ६ ||
२३ श्री जम्बुस्वामी की सज्झाय
( जिहो विमल जिनेश्वर सुरु - ए देशी ) जिहो श्री सोहम पट राजीयो, जिहो जिन शासन शणगार । जिहो सोल वरपनो संयमी, जिहो चहती यौवन वार ॥ विरागी धन धन जंबुकुमार ॥ १ ॥ जिहो प्राण प्रिया प्रति बुझवी, जिहो सुकुलिगी ससनेह । जिहो गुणवन्ती गंगा जिसी, जिहो आठे सोवन देह || वि० २ ।। जिहो माता पिता मन चिंतवे, जिहो नंदन प्राण आधार । जो थकी अलगो थये, जियो थाशे कवण प्रकार
॥ वि० ३ ॥ जिहो घड़ी एक पुत्र वियोगनी; जिहो थाती वरस हजार । जिहो ते नानडियो विछड़ये, जिहो किम जाशे जमवार || वि० ४ ॥ जिहो पियरीया प्रेमदा तथा, जिहो पोतानो परिवार । जिहो पंच सया प्रति बुझन्या, जिहो प्रभवो पण तेणी वार || वि० ५ ।। जिहो भर जोबन धन भामिनी, जिहो हेजे करती होडी । जिहो हंसतां हेले परिहरी, जिहो कनक नवाणु कोड़ी ॥ वि० ६ ॥ जिहो
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[ १५० ]
सोभागी शिर सेहरो, जिहो भवियण कमल दिणंद | जिहो महिमासागर प्रभु सेवतां, जिहो नित नवलो आनंद ॥वि०
०७ ॥
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२४ श्री कल्याणमुनि विरचित सज्झाय
प्राणी काया माया कारमी, कूडो छे कुटुम्ब परिवार रे । जीवलड़ा समरण कीजे सिद्धनु, मारु मारु म कर रे मानवी, पंथ वहेवु पेले पार रे ॥ जीवलड़ा. स० ॥ १ ॥ प्राणी सहुने घलावे सांकल्या, मलीया छे मोहने संबंध रे । जीव प्राणी आयु क्षये अलगा थया, दीठो एवो संसारी धंधरे ॥ जी, स० ॥ २ ॥ प्राणी काष्ट परे रे काया बले, वली केश बले जिम घास रे जीव. । प्राणी मानवी मर्कट वैरागीया, वली पड़े माया विश्वास रे || जी. स० ॥ ३ ॥ प्राणी पड़ाह उड़े जीव उपरे, दोरी पवन बले लेइ जाय रे जीव. । प्राणी तूटी दोरी संधाय छे, उखु तूटयु न संधाय रे || जी. स० ॥ ४ ॥ प्राणी काचे कुभे पाणी केम रहे, हंस उड़ी जाये काय रे जीव. । प्राणी आशा तिघणी आदरे, थावा वालो तेहिज थाय रे ॥ जी. स० ॥ ॥ ५ ॥ प्राणी जेणे घरं नोबत गड़गड़े, गावें वली पट राग रे जीव. । प्राणी गोखे तेनने घूमता, शुन्य थये वली उड़े काग रे ॥ जी. स० ।। ६ ।। प्राणी एम संसार असार छे,
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[१५१ ] सारमा श्री जिन धर्म सार रे जीव. । प्राणी शांति समर समता धरी, चार तजी वली दरो चार रे ॥ जी. स० ॥ ॥७॥ प्राणी पांच तजो ने पांच भजो, व्रण जीपो त्रण गुणधार जीव. । प्राणी रयणी भोजन परिहरो, सात व्यसन तजो सुविचार रे ।। जी. स० ॥८॥ प्राणी रक्षा करो छे कायनी, सांभलो सदगुरु वाण रे जीव. । प्राणी साची शिखामण एह छे, एम कहे छे मुनि कल्याण रे ॥जी. स०॥ ॥६॥
२५ श्री आत्मबोध की सज्झाय
विरचित-रूपविजयजी हो सुण आतम मत पड़ मोह पंजर मांहे, माया जाल रे॥ धन राज्य जो बन रुप रामा, सुत सुता घर बार रे । हुकम होद्या हाथी घोड़ा, कारमो परिवार माया जाल रे ॥ हो० १॥ अतुल बल हरि चक्री रामा, भजो चित्त मदमत्त रे । कर जम बल निकट आवे, गलित जाये सत्त माया । हो० २ ।। पुहवीने जे छत्र परे करे, मेरु नो करे दंड रे । ते पण हाथ घसता गया, मूकी सर्व अखंड माया हो०॥ ॥३॥ जे तखत बेसी हुकम करता, पहेरी नवला वेष रे। पाघ शेला धरत टेढ़ा, मरी गया जमदेश माया ॥ हो० ॥ ॥४॥ मुख तंबोलने अधर राता, करतं नव नवा खेल
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[ १५२] रे । तेह नर बल पुण्य काठे, करत पर धर टेल माया. ॥हो० ५॥ भज सदा भगवन्त चेतन, सेव गुरु पद पद्य रे । रुप कहे कर धर्म करणी, पामे शाश्वत सम रे माया. ॥ हो० ६॥
२६ श्री तप की सज्झाय
विरचित-श्री उदयरत्नजी कीधां कर्म निकंदवा रे, लेवा मुक्ति निदान । हत्या पातिक छुटवारे, नहि कोइ तप समान । भविकजन तप सरखु नहि कोय ॥ १ ॥ उत्तम तपना योगथी रे, सुर नर सेवे पाय । लब्धि अठावीस उपजेरे, मन वांछित फल थाय ॥ भ० २ ॥ तीर्थकर पद पामीये रे, नासे सघला रोग । रुप लीला सुख साहेबी रे, लहिये तप संयोग ॥ भ० ३ ॥ अष्ट कर्मना श्रोथने रे, तप टाले तत्काल । अवसर लहीने तेहनोरे, खप करजो उजमाल ॥ भ० ४ ॥ ते शुछ संसारमा रे, तपथी न होवे जेह । मनमा जे जे इच्छीये रे, सफल फले सही तेह ।। भ० ५ ।। वाह्य अभ्यंतर जे कह्या रे, तपना बार प्रकार । होजो तेनी चालमा रे, जेम धन्नो अणगार ॥ भ० ६॥ उदयरत्न कहे तप थकी रे, वाधे सुजस सनूर । स्वर्ग होवे घर आंगणेरे, दुर्गति नासे दूर । भ० ७॥
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[१५३]
२७ बार भावना की सज्झाय
दोहा
पल पल छीजे आउखु, अंजिल जल ज्यु जेह । चलते साथें संबलो, लेइ सके तो लेह ॥१॥ लेये अचिंत्य गलसे ग्रही, समय सीचाणो प्रावि । शरण नहीं जिन वयण विण, तेणे हवे अशरण भावि ॥२॥
___ढाल दूसरी (राग-राम गिरी)
बीजी अशरण भावना, भोवो हृदय मोझार रे ।। धरम विना पर भव जतां, पापें न लहीश पार रे । जाइश नरक दुवार रे, तिहां तुज कवण आधार रे ॥१।। लाल सुरंगा रे प्राणीया, मूकने मोह जंजाल रे। मिथ्यामति सवि टाल रे, माया आल पंपाल रे ॥लाल०॥२।। माता पिता सुत कामिनी, भाई भयणिं सहाय रे ।। मेंमें करता रे अज परें, कमें ग्रह्यो जीव जाय रे । तिहां आड़ो कोई नवि थाय रे, दुःख न लीये कहें चाय रे ॥लाल०॥३॥ नंदनी सोवन डूंगरी, पावर नावी को काज रे ।। चक्री सुभूम ते जलधिमां, हायु खट खंड राजरे । बूड़यो चरम जहाजरे, देव गया सवि भाजरे, लोभे गई तस लाजरे, ला० ४॥ दीपायन दही द्वारिका, बलवंत गोविंद रामरे, राखी न शकयारे राजवी।
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[ १५४ ]
मात पिता सुत धामरे || तिहां राख्या जिन नाम रे, शरण कियो नेमि स्वाम रे । व्रत लेइ अभिराम रे, पोहोता शिवपुर ठाम रे || लाल ० ||५|| नित्य मित्र सम देहड़ी, सयणां पर्व सहाय रे । जिनवर धर्म उगारशे, जिम ते वंदनिक भाय रे || राखे मंत्रि उपाय रे, संतोष्यो वली राय रे । टाल्यां तेहना अपाय रे || लाल ० || ६ || जनम जरा मरणादिका, वयरी लागा छे केड़ रे । अरिहंत शरण ते आदरी, भव भम्रण दुःख फेड़ रे || शिव सुन्दरी घर तेड़ रे, नेह नवल रस रेड़ रे । साँची सुकृत सुर पेड़ रे || लाल० ॥७॥
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२८ बार भावना की सज्झाय दोहा
एम भव भव जे दुःख सहया, ते जाणे जगनाथ | भय भंजन भावठ हरण । न मल्यो अबिहड़ साथ ॥ १ ॥ तिण कारण जीव एकलो, छोड़ो राग गल पास । सवि संसारी जीवशु, धरि चित्त भाव उदास ॥२॥
ढाल चौथी (राग - गोड़ी )
चोथी भावना भवियण मन धरो, चेतन तु एकाकी
रे । आव्यो तिम जाइश परभव, बली इहां मूकी सवि बाकी
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[१५५] रे ॥१॥ मम करो ममता रे समता आदरो, आणो चित्त विवेको रे । स्वोरथियां सज्जन सहुए मल्यां, सुखदुःख सहेशे एको रे ॥मम०॥२॥ वित्त घहेंचण आवो सहुये मले विपत्ति समय जाय नासी रे । दव बलतो देखी दश दिशें पुले, जिम पंखी तरु वासी रे ॥मम०॥३॥ खट खंड नवनिधि चौद रयण धणी, चौसठ सहस्स सुनारी रे । छेहड़ो छोड़ी ते चाल्या एकलारे, हार्यो जेम जुआरी रे ॥मम०४॥ त्रिभुवन कंटक विरुद धरावतो, करतो गर्व गुमानो रे। त्रागा विण नागा तेहुँ चाल्या, रावण सरिखा राजानो रे ॥ मम० ॥५॥ माल रहे घर स्त्री विश्रामिता प्रेत वना लगे लोको रे । चय लगें काया रे, आखर एकलो, प्राणी चले परलोको रे ॥मम०॥ ६॥ नित्य कलहो बहु मेल देखिों , बहु पणे खट पट थाय रे । बलयानी परें विहरिस एकलो, एम बूझयो नमी रायो रे ॥मम०॥७॥
२९ श्री चन्दनबाला की सज्झाय
(नारे प्रभु नहि मानु-ए देशी) मारु मन मोहुंजी, इम बोले चंदनबाल मारु।। मुज फलीयो सुर तरु साल ॥मारु.॥ हुँ रे उमरड़े बेठी हुंती। अत्रम तपने अन्ते, हाथ डसकलां चरणे बेड़ी माहरा मननी
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[१५६] खंते ॥ मा० १॥ सेठ धनवाहे आणी दीधा, उड़द बाकुला त्यारे । एहवामां श्री वीर पधार्या, करवा मुज निस्तारे ॥ मा० २ ॥ त्रिभुवन नायक निरखी नयणे, हरखी चित्त मझार । हरख आंसु जल हुं वरसती, प्रति लाभ्या जयकार ॥ मा० ३ ॥ पंच दीव्य तव देव करे, शुचि वरसी कंचन धार । मानु उड़द अन्न देवा मिषे, वीर कर्या तिण वार ॥मा० ४॥ ज्ञानविमल प्रभुजीने हाथे, लीधो संजम भार । वसुमती तव केवल लहीने, पामी भवजल पार ॥ मा० ५॥
३० श्री महावीर स्वामी की सज्झाय
आधारज हुं तो एक मुने ताहरो रे, हवे कोण करशे रे सार । प्रीतड़ी हती रे पहेलो भव तणो रे, ते केम वीसरी रे जाय ॥ आ० १॥ मुजने मेल्यो रे टलवलतो इहां रे, नथी कोई आंसु लोवण हार । गौतम कहीने कोण बोलावशे रे, कोण करशे मोरी सार । प्रा० २ ॥ अन्तरजामी रे अणघट तुकयु रे, मुजने मोफलीयो गाम । अन्त काले रे हुँ समज्यो नहिं रे, जे छेह देशे सुजने आम ।। प्रा० ३ ।। गइ हवे शोभा रे भरतना लोकानी रे, हुं अज्ञानी रह्यो छु आज । कुमति मिथ्यात्वी रे जीम तिम बोलशे रे, कुण राखशे मोरी लाज || प्रा० ४ ॥ वली शूल पाणी रे अज्ञानी घणो रे, दीधु तुजने रे दुःख । करुणा आणी रे तेहना उपरे रे, आप्यु बहोलु रे सुख ॥ श्रा० ५ ॥ जे अइमुतो
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[ १५७ ]
रे बालकवीयो रे. रमतो जलश्यु रे तेह | केवल आपी रे, आप समो कीधो रे, एवड़ो सो तस स्नेह ॥ श्र० ६ ॥ जे तुज चरणे आवी डंसीयो रे, कीधो तुजने उपसर्ग | समता वाली रे ते चंडकोशियेरे, पाम्यो आठमो स्वर्ग || श्र० ७ || चंदनबाला रे उड़दना बाकला रे, पडिलाभ्या तुमे स्वामी । तेहने कीधी रे साहूणीमां वड़ी रे पहोचाड़ी शिव धाम ॥ श्र० ८ || दिन व्यासीना माता पिता हुवा रे, ब्राह्मण ब्राह्मणी दोय, शिवपुर संगी रे । तेहने ते कर्यो रे, मिथ्यामल तस धोय ॥ श्र० ९ ॥ अर्जुन माली रे जे महा पातकी रे, मनुष्यनो करतो संहार । ते पापीने प्रभु तमे उद्धर्यो रे, कीधो घणो सुपसाय ॥ श्र० १० ॥ जे जलचरी रे हुतो देड़को रे, ते तुम ध्यान सोहाय । सोहम वासी रे ते सुरवर कियो रे, समकित केरे सुपसाय ॥ श्र०|| ||११|| अधम उद्धार्या रे एहवा ते घणा रे, कहुं तस केता रे नाम । माहरे ताहरा नामनो आशरो रे, ते मुज फलशे रे काम ॥ श्र० १२ || हवे में जाएयु रे पद वीतरागनु रे, जो तें न धर्यो रे राग । राग गयेथी गुण प्रगट्या सर्वे
ते तुज वाणी महा भाग ॥ श्र० १३ || संवेग रंगी रे क्षपक श्रेणीये चढ्यो रे, करतो गुणनो जमाव | केवल पाम्या लोका लोकना रे, दोहा सघला रे भाव ॥ श्र० १४ ।। त्यां इंद्र वीरे जिन पदे थापीयो रे, देशना दीये अमृत
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[१५८] धार । पर्षदा बुझी रे आत्म रंग थी रे, वरीया शिव पद सार ॥ श्रा० १५ ॥
३१ समकीतना सड़सठ बोलनी सज्झाय ढाल छठी ( अभिनंदन जिन दरिशण तरसीए-ए देशी )
आठ प्रभावक प्रवचना कह्या, पावयणी धुरि जाण वर्तमान श्रुतना जे अर्थनो, पार लहे गुण खाण ॥ धन धन शासन मंडन मुनिवरा ॥ १ ॥ धर्म कथी ते बीजे जाणीए, नंदिषेण परे जेह । निज उपदेशे रे रंजे लोकने, भंजे हृदय संदेह ॥ धन० २ ॥ वादी बीजे रे तक निपुण भण्यो, मल्लवादी परे जेह । राज द्वारे जय कमला वरे, गाजतो जिम मेह ॥ धन० ३ ॥ भद्रबाहु परे जेह निमित्त कहे, परमत जीपण काज । तेह निमित्ती रे चोथो जाणीए, श्री जिन शासन राज ॥ धन० ४ ॥ तप गुण अोपे रे रोपे धर्म ने, गोपे नवि जिन आण । आश्रय लोपे रे नवि कोपे कदा, पंचम तपसी ते जाण ॥ धन० ५ ॥ छठो विद्या रे मंत्र तणो बलि , जिम श्री वयर मुणिंद । सिद्ध सातमो रे अंजन योगथी, जिम कालिक मुनिचन्द ॥ धन० ६ ॥ काव्य सुधारस मधुर अर्थ भर्या, धर्म हेतु करे जेह, सिद्धसेन परे राजा रीझवे, अहम वर कवि तेह ॥ धन० ७॥ जब नवि होवे प्रभावक एहवा, तव विधि पूर्व अनेक । जात्रा पूजादिक करणी करे, तेह प्रभावक छेक ॥धन० ८॥
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[१५६ ] ३२ समकित की सज्झाय ढाल आठमी ( धर्म जिनेसर गाऊ रंगशु-ए देशो )
लक्षण पांच कयां समकित तणां, धुर उपशम अनुकूल सुगुणनर । अपराधीशु पण नवि चित्त थकी, चिंतघीये प्रतिकूल सुगुणनर ॥ श्री जिन भाषित वचन विचारीये ॥ १॥ सुरनर सुख जे दुःख करी लेखवे, बंछे शिव सुख एक सु. । बीजु लक्षण ते अंगीकर, सार संवेग शु टेक सु. ॥ श्री० २ ॥ नारक चारक समभव उभग्यो, तारक जाणीने धर्म सु. । चाहे निकलवु निर्वेद, ते त्रीजु लक्षण मर्म सु. ॥ श्री. ३ ॥ द्रव्य थकी दुःखीयानी जे दया, धर्म हीणानी रे भाव सु. । चोथु लक्षण अनुकम्पा कही, निज शक्ते मन लाव सु. ॥ श्री० ४ ॥ जे जिन भाख्यु ते नहि अन्यथा, एहवो जे दृढ़ रंग सु. । ते आस्तिकता लक्षण पांचुमु, करे मंतिनो ए भंग सु. ॥ श्री० ५ ॥
३३ श्रीविजय सेठ विजया सेठानी की सज्झाय
ढाल पहली (स्त्री भरतारणो शीयल उपर भात्र) प्रह उठी रे पंच परमेष्ठि सदा नमु, मन शुद्ध रे जेने चरणे नित्य नमु। धुर तेहने रे अरिहंत सिद्ध वखाणि ये, ते पछी रे आचारज मन आणिये ॥१॥ आषिये मन भाव
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[ १६० ]
शुद्धे, उपाध्याय मन रली । जें पन्नर कर्म भूमि मांही, साधु प्रणमो तेह वली || जेम कृष्ण पक्षे, शियल पाल्यो ते सुणो । भरताने स्त्री विनय तेहनो, चरित्र भावे मे भयो || २ || भरत क्षेत्रे रे समुद्र तीरे दक्षिण दिसे, कच्छ देशे रेविजय सेठ श्रावक बसे । शील व्रत रे अंधारा पचनो लीयो, बाल पणमां रे एवो निश्चे मन कियो || ३ || ॥ ॥ मन कियो निश्चय तेणे एहवो, पक्ष अंधारे पालशु । धरि शीयल निश्वये एह रीते, नियम दुषण टाल ॥ एक छेय सुन्दर रुपे विजया, नामे कन्या तिहां वली । तेणे शुक्ल पक्षनो शीयल लीधो, सुगुरु जोगे मन रली ॥ ४ ॥ कर्म जोग रे मांहो मांहे ते वेहु तणो, शुभ दिवसे रे हुओ विवाह सोहामणो | तब विजया रे, सोल सणगार सजी करी पियु मन्दिर रे, पहोंची मन उलट धरी ।। ५ ॥ मन धरी उलट प्रगट पहोंची, पियु पासे सुन्दरी । ते देखी हरखी सेठ बोल्यो, आज तो छे आखड़ी || सुभ शीयल नीम छे, पक्ष अंधारो | तेहना दिन ऋण छे, ते नियम पाली शुक्ल पक्षे भोग भोगवशु पछे || ६ || एम सांभली रे, तत्र बिजया विखी थाये | पियु पुछे रे, कां चिंता तुजने थाये ॥ तव विजया रे, कहे शुक्ल पक्षनो में लियो । बाल पणमां रे, व्रत चोथो निश्रये कियो ॥ ७ ॥ कीयो निश्चे बाल पणमां, शुक्ल पक्ष व्रत पालशुं । उभय पक्ष हवे शीयल
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[ १६१ ]
पाली, नियम दुषण टालशुं ॥ तुमे अवर नारी परणीने, हवे शुक्ल पक्ष सुख भोगवो । कृष्ण पक्षे नियम पाली, अभिग्रह एम जोगवो ॥ ८ ॥ तव वलतो रे, तस भरथार कहे इस । ए संबंधी रे, हवे शंका नहि लाशो | तेह छांडी रे, शीयल सबल बेड पालशु ं । एह वारता रे, मात पिता ने न जणावशुं ॥ ९ ॥ मात पिता जब जाणशे, तव दिक्षा लेशु धरी दया । एम अभिग्रह लेइने, भाव चारित्री थया || एकत्र सया सयन करतां, खड्ग धारा व्रत धरे । मन वचन काया एकरी, शुद्ध शिवल बेउ चित्त धरे ॥१०॥
ढाल दूसरी
बिमल केवली ताम चंपा नयरीए, ततक्षण आवी समोसर्या ए । आणी अधिक विवेक श्रावक जिनदास, कहे विनय गुणे परवर्या ॥ ११ ॥ सहस चौराशी साधु, मुज घर पारणो । करे जो मनोरथ तो फले ए ॥ केवल ज्ञान अगाध कहे श्रावक सुखो, एह बात तो नवि बने ए ।। १२ ।। किहां एटला साधु किहां वली सुजतो, भात पाणी एटलो ए । तो हवे तेह विचार करो तुमे, जिम तिम दीघां फल हुवे एटलोये || १३ || छेय एक कच्छ देश, सेठ विजय वली, विजया भार्या तस घरे ए । भाव यति ग्रही भेख, तेहने
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[१६२ ] भोजन दीधे, फल हुवे एटलो ए ॥ १४ ॥ जिनदास कहे भगवन्त, तीण माहे एटलां गुण, कुण व्रत छ घणाए । केवली कहे अनन्त गुण तसु शोयलमा, कृष्ण शुक्ल पक्ष तणा ए ॥ १५ ॥
ढाल तीसरी केवली मुखे सांभली, श्रावक ते जिनदासो रे। कच्छ देशे हवे आवियो, पुरे ते मननी आशो रे ॥ १६॥ धन धन शीयल सुहामणो, शीयल समो नही कोई रे। शीयले सुरसा निध्य करे शीयले, शिव सुख होय रे ॥धन० १७॥ सेठ विजय विजया भणी, भक्ति शुभोजन दीई रे । सहस चोराशी साधुनो, पारणा नो फल लेइ रे ।। धन० १८ ॥ मात पिता जब पुछीयु, तेहनो शीयल वखाणे रे । केवली मुखे जीम सुण्यों तिम कहे तेह सुजाण रे ।। धन० १९॥ कृष्ण शुक्ल पक्ष दंपती, भोजन दे कोई भाव रे । सहस चौरासी साधुना, पारणानो फल पावे रे ॥ धन० २० ॥ मात पिता जब जाणीयो, प्रगट एह संबंध रे । सेठ विजय विजया वली, चारित्र लेइ प्रतिबन्ध रे॥ धन० २१ ।।
कलश केवलीनी पासे, चारित्र लेई उदार । मन ममता मृकी, पाले निरतिचार ।। अष्टकर्म खपावी, पाम्या केवलज्ञान । ते मुक्ति पोता, दंपती सुगुण सुजाण ॥ १॥ तेहना गुग्ण
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[ १६३]
गावे, भावे जे नरनार । ते शिव सुख पामे, पहोचे भवनो पार || नागोरी तपगच्छ, श्री चन्द्रकीर्ति सूरिराय । श्री हर्ष कीर्त्ति सूरि, जंपे तास पसाय || २ || जिम कृष्ण पक्षे शुक्ल पक्षे, शीयल पाल्यो निर्मलो । ते दंपतीना भाव शुद्ध, सदा सह गुरु सांभलो || जीम दुरित दोहग दूर जाये, सुख थाये बहु परे । वली धवल मंगल आवे वांछित, सुख कुशल घर अवतरे ॥ ३ ॥
३४ श्री दमयन्तीनी सज्झाय
( समुद्रपात मुनिवर जयो - ए देशी ) कुडिनपुर भीमनंदनी, दमयंती इति नाम सजनी । नयरी अयोध्या नो धणी, निषधांगज नलनाम सजनी ॥ शील सुरंग जे सती ॥ १ ॥ ए कणी || परणी निजा पुरवते, वने काउस्सग्गे रह्यो साधु सजनी. । तिलक प्रकाशे वंदीयो, गजमदथी गुण लाध सजनी ॥ शी० २ ॥ कुबेर साथै जुगटे रमते, हा राज्य सजनी । परदेशे दोय निसर्यां, सुते कीधो त्याज सजनी || शी० ३ || संकट सवी दूरे गया, बार वरसनी सीम सजनी । भावि शांति जिणंद नी, पड़ीमा पुजी नीम सजनी ॥ शी० ४ ॥ मासी मंदिर अनुक्रमे, कुब्ज रूपी त सजनी. । पुनरपि स्वयंवरने मिसे,
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[१६४] प्रावि मिल्यो एकथ सजनी. । शी० ५ ॥ पुनरपि राज्य मिले थके, लेवे संयम भार सजनी. । दंपति सौधर्मे गयां, नल थयो धनद सुरसार सजनी. ॥ शी० ६ ॥ तिहांथी चवी ने थई कनकवती गुण गेह सजनी.। वसुदेव परणी तिहो, उच्छव धनद करे तेह सजनी. ॥ शी० ७ ॥ दर्पण घर अवलोकतां, लही केवल थइ सिद्ध सजनी. । दमयंती मोटी सती नाम थकी नव निधी सजनी. ॥ शी० ८ ॥ नेमि चरित्र दशवैकालिके, वृतिमाही विस्तार सजनी । ज्ञान विमल गुण जे लहि, सतीयोमाँ सिरदार सजनी॥शी० ६॥
३५ श्री सुलसा श्राविका की सज्झाय
(अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी ए-देशी)
शील सरगी रे, सलसा महा ती वर समकित गुण धारीजी । राजग्रही पुर नागरथिक तणी, सुलसा नामे नारीजी ॥शी०॥१॥ नेह निविड़ गुण तेह दंपत्ति तणौ, समकित गुण थिर पेखीजी । इंद्र प्रसंसेर तस सत कारणे, आव्यो हरिणेगमेषीजी ।शो०॥२॥ ग्लान मुनि ने काजे याचीया, ओषेध कुंपा चारीजी । भग्न देखड्या पण नवि भावथी, उणिय धरीय लगारजी ॥शी०॥३॥ प्रगट थइ सुर सुत हेते दीये, गुटीकां तिहां बत्रीसजी । तस संयोगे रे
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[ १६५ ] बत्रीस सुत थया सकल कला सजगीशजी ॥शी०॥४॥ एक दिन वीर चम्पापुरी थकी, धर्माशीशी कहावेजी । अम्बड साथे रे परीक्षा ते कर, पण समकित भड़गाजी ॥शी०॥ ॥५॥ देश विरतीनोर धर्म समाचारी, सरलोक गइ तेहजी। निर्मम नाम र भवि जिन, होस्ये पंदरमो गुण गेहजी ॥शी०॥७॥ इणि पर दृढ़ मन समकित गुण, ज्ञान विमल सुपसायजी । ते धन धन जग मांही जाणिये, नामे नवनिधी थायजी ॥शी०॥८॥
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३६ श्री नवपदाधिकारे चरण सितरी
करण सितरी सज्झाय। (राग-तुज साथे नहीं बोलुम्हारावाला-ते मुजने वी०-ए देशी)
.....पंच महाव्रत दश विध यति धर्म, सत्तर संयम भेद पालेजी । वेयावच्च दश नव विध, ब्रह्म वड़ि भली अजुवाले जी ॥ १ ॥ ज्ञानादि त्रय बार भेदे, ता कर जे अनि दानेजी । क्रोधादिक चार नो निग्रह, ए चरण सित्तरी मानेजी ॥ २ ॥ चउविध पिंड वसति, वस्त्र पात्रह निर्दुषण ए लेवेजी । समिति पांच वली पडिमा, बारह भावना बारह सेवेजी ॥ ३ ॥ पचवीश पडिलेहन पण इंद्रिय, विषय विकार थी वार जी । त्रण गुप्ति ने चार अभिग्रह, द्रव्यादिक
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[ १६६ ]
संभार जी || ४ || करण सित्तरी एहवी सेवे, गुण अनेक वली धार जी । संयमी साधु ते तेहने कहीए, बीजा सवि नाम धार जी ॥ ५ ॥ ए गुण विणु प्रवृज्या बोली, आजी विकाते तोलेजी । ते षटकाय असंयमी जाणो, धर्मदास गणि बोलेी ॥ ६ ॥ ज्ञानविमल गुरु आण धरीने, संयम शुद्ध राघोजी । जिम अनोपम शिवसुख साधो जगमां सुजशे वाघोजी ॥ ७ ॥
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३७ सती द्रौपदीजी की सज्झाय
(राग - विमलगिरी क्यु ं न भये हम मोर )
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लज्जा मोरी राखो र देव खरी, द्रौपदी राणी य कर विनवे | कर दोय शीश धरी, द्यूत रसे प्रीतम मुज हार्या, वात करी न खरी रे || ल ० १ || देवर दुर्योधन दुःशासन, एहनी बुद्धि फरी । चीवर खेंचे भरी सभा में, मनमें द्वेष धरी रे || ल० २ ॥ भीषम द्रोण करणादिक सवे, कोरव भी भरी | पांडव प्रेम तजी मुज बेठा, जे हता जीव जुरी रे || ल० ३ || अरिहंत एक आधार श्रमार े, शीयल सुसंग घरी । पत राखो प्रभुजी इण वेला, समकित नंत सुरी रे || ल ० ४ ॥ ततखिण अष्टोत्तर शत चीवर, पूर्या प्रेम धरी । शासन देवी जय-जय वर बोले, कुसुमनी वृष्टि करे || ल ० ५ ।। शियल प्रभावे द्रौपदी
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[ १६७] राणी लज्जा लील वरी । पांडव कुन्तादिक हरख्या, कहे धन्य धीर धरी र ॥ ल० ६ ॥ सत्य शील प्रतापे कृष्णा, भवजल पार तरी । जिन कहे शीयल धरे तस जनने, नमी ये पाय पड़ी रे ॥ ल० ७॥
३८ श्री हंसला की सज्झाय वणजारो धुतारो कामण गारो, सुन्दर वर काया छोड़ चल्यो वणझारो । धुतारो कामण गारो, एनी देहड़लीने छोड़ चल्यो वणझारो ॥१॥ एणी रं कायामां प्रभुजी पांच पणीयारीरे, पाणी भरे छे न्यारी न्यारी सुन्दर० ॥२॥ एणी रे कायामां प्रभुजी, सात समुद्र रे तेनो ते निरखारो मीठो सुन्दर ॥ ३॥ एणी रे कायामां प्रभुजी नवसे नावड़ीयाँरे, तेनो स्वभाब न्यारो न्यारो सुन्दर० ॥४॥ एणी रे कायामां प्रभुजी पांच रंतन छे, परखे परखण वालो सुन्दर ॥५॥ खुट गयो तेल, ने बुज गई बत्तीयां रे । मंदिर में पड़ गयो अंधेरो सुन्दर ॥६॥ खश गयो थंभो ने पड़ गई देहीयारे, मिट्टीमां मिल गयो गारो सुन्दर० ॥७॥ आनन्दघन कहे, सुनो भाई साधुरे, आवागमन निवारो सुन्दर ॥८॥
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[ १६८] ३९ श्री दीवाली पर्व की सज्झाय दीवाली रढियाली पर्व सोहामणु, प्रेम धरीने आराधे नर नार जो । मन वचन काया नी स्थिरता केवली, जीवन ज्योत जगावे जय जय कारजो, दिवालो ॥ १ ॥ सुरपति नरपति सेवित तीर्थपति प्रभु, सिद्धारथ त्रिशला देवीना नंद जो, चोमासु छेल्लु करवाने पधारिया, पावापुरीमां घर घर वो अानन्द जो दीवाली ॥ २ ॥ चौदस दीवालीनो छठ तपादरी, पयकासन बेसी श्री भगवान जो । सोल पहोर सधी आपे मधुरी देशना, समवसरणमां करवा जग कल्याण जो ॥ दीवाली० ॥३। पंचावन अध्ययन पुन्य विपाकनां पंचावन पापनो फल विस्तार जो । अण पूछया छत्रीश सवालो दाखवे, उपदेशे आगम निगमनो सार जो दीवाली। ॥४॥ दीवालीनी राते छेल्ला प्होरमां, स्वाति चंद्र वर्धमान भगवान जो । नागकरणमां सर्वार्थ सिद्धि मुहू तमां, कर्मो तोड़ी पाम्या पद निर्वाण जो ॥दीवाली ५|| नव मल्ली की नव लच्छीवी त्रण गण राजवी, आहार पोसह लई सांभले धर्म रसाल जो । भाव उद्योत गयोने अंधारू थयु एम ए जाणी प्रगटावे दीपमाल जो ॥ दिवाली ॥६॥ पड़वे प्राःत काले गौतमस्वामी ने, प्रकटयु केवल ते ए पर्व प्रधान जो । बीजे जमाइया व्हेने नंदी राय ने, भाई बीजनु पर्व थयु ए प्रमाण जो ॥ दीवाली ॥८॥ त्यारथी पर्व दीवाली
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[ १६६ ]
प्रकटयु विश्वमां, वीर संभारण स्थिर बन्युं जगमाय जो । लोक लोक. तरमाँ छे पर्व ए मोटकु, उजवंता नर नारी सौ हरखाय जो || दिवाली ||८|| धर्मी जीव दिवालीनो छ उच्चर े, दीवाली नो पोसह कर बहुमान जो । वीर त्रिभुने चंदन पूजन जाप थी, भक्ति भाव श्राराधे एक तान जो | दीवाली | ||९|| महावीर सर्वज्ञ पारंगत, प्रभु गौतम स्वामी सर्वज्ञान नो कर जाप जो । ॐ ह्रीं श्री प्रारम्भे ने अंते नमः, माला वीस ए कापे सघला पाप जो ।। दीवाली ॥ १० ॥ दीवाली मां सूधो तप जप जे कर, लाख क्रोड़ फल पामे ते उजमाल जो । नबले वर्षे उत्सव रंग वधामणां, पद्मविजय 1 कर घर घर मंगल माल जों ।। दीवाली ॥११॥
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४० श्री अन्तराय की सज्झाय
सरस्वती माता दे नमि ने, सरस वचन देनारी । सानु स्थानक बोले, ऋतुवंती जे नारी अलगी रहेजे रे, ठाणांग सुत्रनी वाणी काने सुणजेरे ॥ १ ॥ मोटी आशातना ऋतुवंतीनी, जिनजी ए प्रकाशी। मलिनपण जे मन धारे, ते मिथ्यामति वासी अ० २ ।। पहेले दिन चंडालीणी सरखी, ब्रह्म घातिनी वली बीजे । पर शासन कहे धोषण त्रीजे, चोथे शुद्ध वदीजे ॥ श्र० ३ ॥ खांडी पीसी रांदी पियुने, पर ने भोजन पिरसें । स्वाद न होवे
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_ [१७० ] षट्रस दोसे, घरनी लक्ष्मी खीसे । अ० ४ ॥ चोथे दिवसे दरिशण सुजे, सातमे पूजा भणिये । ऋतुवंती मुनि ने पडिलाभे, सदगति सेजे हणिये । अ० ५॥ ऋतुवन्ती पाणी भरी लावे, जिन मंदिर जल आवे । बोधि बीज नवि पामे चेतन बहुत संसारी थावे ॥ अ०६॥ असज्झायमां जमवा बेसे, पांत बीचे मन हीसे । नाथ सर्व अभड़ावी जमती, दुरगति मां घणु भमशे ॥ अ० ७॥ सामायिक प्रतिक्रमणे ध्याने, सूत्र अक्षर नवि जोगी। कोई पुरुषने नवि अभडीये, तस फरसे तनु रोगी॥०८॥ जिन मुख जोतां भवमां भमिए, चंडालनी अवतार भुडण लुगण सांपीनी होवे, परभवे घणी वार ।।अ० ९॥ पापड़ बड़ी खेरादिक फरसी, तेनो स्वाद विनासी । आतम नो प्रातम छ साखी। हियड़े जो ने तपासी । अ० १० ॥ जाणी चोखाइ इम भणिये, समकित क्रिया शुद्धि । रिषभ विजय कहे जिन पाणथी, वेला वरसो सिद्धी । अ० ११ ॥
१ भगवान महावीर स्वामी की गहूँली
(राग-सांभलजों मुनि संयम रागे) त्रिशला नंदन वंदन करिये, जपिये श्री वर्धमान रे। भव दुःख हरवा शिव सुख वरवा, करिये नित्य गुणगान रे ॥ त्रिशला १ ।। जग उपकारी सहु सुखकारी, शासन ना
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[१७१] सुलतान रे । जन्म थतां जेणे सहुने आप्यु, पूरण शान्ति स्थान रे ॥ त्रिशला० २ ॥ बाल पणामां चरण अंगूठे, मेरु डिगायो जेने रे। आपण नमिये नेहे निशिदिन, ते भगवान महावीर रे ॥ त्रिशला० ३ ॥ आमलनी क्रीडामां नक्की श्राव्यो सुर अज्ञान रे। अतुल बल श्री जिननु जाणी, नाठो तजी निज मान रे ॥ त्रिशला० ४॥ संगम सुरना उपसर्ग थी, अखण्ड रह्या धैर्यवान रे । कर्म विचारे वांध्या
आंसु एने, पाडे प्रभु गुणवान रे॥ त्रिशला० ५॥ चंदन बाला सतिसुकुमाला, बाकुलानो दियो दान रे । लोहनी बेड़ी तोड़ी उद्धरी, उरमा धरी ने ध्यान रे॥त्रिशला० ६॥ गुण अनन्ता वीर प्रभु केरा, गावो मन आणंद रे । भक्ति भावे वीर चरणमां, 'मनोहर' छे तल्लीन रे ॥त्रिशला० ७॥
२ उपदेश की गहूंली (राग-धन-धन वो जगमे नरनार विमलाचल के जानेवाले-ए देशी)
धन-धन वो जगमे मुनिराज, सत्य शिक्षा के देनेवाले ॥ टेक ॥ धराया आगमोद्धारक नाम, विकसित किया कुसुम सम ज्ञान । कराते ज्ञानामृत पय पान, मुनिवर पार लगाने वाले ॥ ध० १ ॥ पथ अनुगमन करे नरनार, करते ज्ञानोन्नति प्रचार । ज्ञान से भव फेरो- मिट जाय, एसी भावना भाने वाले ॥ ध० २ ॥ पक्का दुष्ट कर्मों को
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[१७२ ] मार, छोड़ा यह अनित्य संसार । धर्म की नौका में संयम धार, भव जलधि से तिरने वाले ॥ध० ३ ॥ धरो भवि विनय विवेक अपार, करो गुरु भक्ति अति मनोहार । करो मत राग द्वेष का प्रचार, मुनिवर ज्ञानके देनेवाले ॥१०॥ ॥ ४ ॥ धरते भविजन मन अति रोष, करते जो अभिमान का पोष । इसमें नहीं गरू का दोष, मुनिवर सत्य बताने बाले । ध० ५ ॥ करती महिला मंडल ध्यान, गावे उत्तम मंगलगान । आपको मिले विजय सम्मान, 'मनोहर' यश फैलाने वाले ॥ ध० ६॥
३ गहँली मन मोयो गुरू की वाणी ने शुभ जाणिने म० । यह संसार असार अपारा जाणी दुःख की खाणी ने ॥म०॥ ॥१॥ ज्ञानी वाणी गुण की खानी, मोक्ष तणि निशानी ने ॥ म० २ ॥ भव समुद्र तरने की नौका, पाप ताप विहरणी ने ॥ म० ३ ॥ गुरु हमारे है उपकारी, प्रतिबोधे नरनारी ने ॥ म० ४ ॥ गुरु गुण गायक, महिला मंडल 'मनोहर' प्रेमरस आणि ने ॥ म० ५॥
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[१७३]
४ गहूँली (राग-आज रंग वरसे म्हारो सूत्र सुन हियडे हर्षे–ए देशी)
गुरु गुण पूरा आगम सूरा सागरानंद सूरि राया रे, ॥टेक॥ सिंह समान महितल पर विचरे धर्म ध्वजा फहराते रे । मधुर धनी की देशना प्यारी प्रतिबोधे नरनारी रे ॥ गुरु० ॥ १ ॥ धर्म पताका लेकर संग में फिरो मत गति मझार रे । इस संकट को दूर करो तो सेवो पद गुरुरायरे ॥ गुरु० ॥ २ ॥ प्रीत करो यति धर्म से सारी, अन्य प्रीत दुःख भारी रे । सद्गुरु भाषे धर्म आराधो, होगा भव निस्तार रे ।। गुरु० ॥ ३ ॥ मिथ्या भोषी कपट न करना, दोष अठार को तजना रे । श्रवण करो अतिचार पियारा, लागत दोष अपार रे ॥ गुरु० ॥ ४ ॥ छल छिद्रो को कभी न देखो, मनका महत्व विचारो रे । ज्ञान दीप को प्रगट करी भवि, टालो विषय विकार रे ।। गुरु० ॥ ५ ॥ देव नर्क तियंच गति के, कठिन दुःख अपार रे । पुण्योदय से नरभव पायो 'मनोहर', जैन धर्म सुखकार रे ॥गुरु०॥६॥
५ विहार की गहूँली (राग-मारे सोना सरिखो सूरज उगीयो)
गुरुराजजी वहेला पधारजो, देश मालव यह सूर्नु पडयु । भूरे रात दिवस नरनार रे ॥ गु० ॥१॥ पूरा
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[ १७४ ] पून्ये तो मल्यो जोग जैनौ ने । तज्यो तेह के केम तजाय ॥ गु० ॥ २॥ झांको गुरु विनानो उपासरो । सूनो सद्उपदेश बिन संघ रे ॥ गु० ॥३॥ जेह शुभ सिंहासन शोभतु । तेह खाली खावाने धाय रे ॥ गु० ॥ ४ ॥ आपे श्रावी पाषानो पलाली । पायु धर्म रुपी शुभ नीर रे ॥ गु० ॥ ५॥ नरनारी भरे छे नीर, नेत्रमा साणी वाणी सांभलवा काज रे ॥ गु० ॥ ६ ॥ दीवो ज्ञाननो गोती अमे लावीयां । हीरा आवी बश्यो छे यांय रे ॥ ग० ।। ७ ॥ मीठी वाणीने निर्मल वाक्यनो । स्वाद सोने रह्यो छे एहरे ॥ गु० ॥ ८ ॥ नाम स्मरण करी आपणो । 'मनोहर' करती सेवरे । गु० ॥८॥
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६ नवपदजी की गहूँली
( राग-महा विषम काले है विभू ) सांभलो भवियण गुरु मुख वाणी, नवपद महिमा मोटि रे । सिद्धचक्रनु ध्यान धरता, झलके झगमग ज्योती रे ॥ १ ॥ मयणा श्रीपाल तप आराध्यो, रोग गयो तत काल रे। जिन शासन नो डंको बाग्यो, मयणा हुई विख्यात रे ॥ सां० २ ॥ हवे कूवर परदेश सिधावे, लेइ माता आशीष रे । पंच परमेष्टी मनमां धरता, साधे वांछीत काज रे ॥ सां० ३॥ राणी परणे ऋद्धि पामे, सुख विलसे संसार
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[ १७५] नारे । पण नवपदो ने मन थीन मुके, राखे हृदय मोझार रे ॥ सां० ४ ॥ एक रात समुद्रमा रेता, बीजे दिन परणे नारी रे । मात चक्केसरी विघ्न निवारे, विमलेश्वर सेवा सारे रे ॥ सां० ५ ॥ दोय मयणा ना वांछीत फलीया, श्री सिद्धचक्र प्रभाव रे । नव राणी परणी श्रीपाल, नगर उज्जेणि आवे रे ॥ सां० ६॥ प्रजापाल राजा ने बोलावी, तेहनु मान उतायु रे । तव मयणा बोले तेणी वार, देखो धर्म प्रभाव रे ॥सां० ७॥ चंपा पूरीनो राज्य लइने, नवपद महिमा वधारे रे । उजमा तप विधिशु करता, नवमे स्वर्ग सिधावे रे ॥ सां० ८ ॥ सं० दो हजार वीशनी साले, इन्दौर शहरनी माय रे । उपदेशे गुरुराज अमो ने, महिला मंडल नमें पाय रे ॥ सां० ९॥
७ गहूँली गुरुजी शाशनना पालन हार, शोभे शाशनमां। गुरुनो मृखडू ज्यु चन्द सोहाय शोभे०। जेनी वाणी मधुरी गवाय ॥ शो० १॥ भव सागरमां नैया डूबी रहे रे, गुरु तारण हारा छो तारो सदा रे। गुरु उपकार कदिना भूलाय ॥ शो० २ ॥ गुरु शाशन प्रभावना खूब करे रे, हैये शासन नो राग अधिक धरे रे। मालव दीपक गुरुजी कहाय ॥शो० ३॥ वांकाखेड़ी में गुरुजी जन्म लियो रे, धन्य लक्ष्मणजी पिता रे । धन्य मानकुंवरजी मात ॥ शो० ४ ॥
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[ १७६]
मनोहरश्रीजी ना पगला इन्दोरमां थया रे, महिला मंडलना मनोरथ सवि फल्या रे | वन्दन स्वीकारजो गुरुराज ॥ शो०
०५ ॥
८ पर्व पर्यूषण की गहुँली
(राग - आवो आवो देव मारा )
रुडा रुडा राज पर्ण पर्यु युषन आव्या आज । रुडा पयूषन आज || जीव अमारीनो पडही वजावो सारे शहेर । भाई-भाई ना झगडा छोड़ी, मुकी द्यो सवि वेर || ( रूडा) मोसम मोटी वी जे, करो कमाणि सार । साधवु होय तो साधी लेजो, तो झट बेडा पार || (रूडा) भव समुद्रने तरवा का पर्ण हे नाव समान | नाव सांभली जो वेसो तो जाशो मुक्ति किनार || ( रूडा) क्रोध मान माया मूकि ने करो हृदय निर्मल | दया क्षमा ने धीरज धारी, तप तपजो उजमाल || (रूडा) हली मलिने वो बेनी सुरणवा वाणी सार । कल्प सूत्रमां बारसा साये, सुखजो धर्मनो सार || ( रूडा) पुण्य प्रभावे मलिया गुरूजी, पन्यासजी महाराज | आत्म तणो ए साचो ल्हावो लूट लो सौ आज || (रूडा) जैन धर्म ना डंका बजावो बोलो जय-जयकार | 'सूर्य शिशु' विनवे भाव धरीने, उतरजो भवपार ॥ ( रूडा) |
[ समाप्त ]
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