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अवतरिया माहण कुल अंतिम जिनपति ॥ १ ॥ अतिशे अघटतु एह थयु थाशे नहिं, जे प्रसवे जिनचक्री नीच कुले नहिं । एह मारो ओचार धरूं उत्तम कुले, हरिणगमेषी, देव तेडाव्यो एटले ॥ २ ॥ कहे माहणकुंड नयर जइ उचित करो, देवानन्दा कूखेथी प्रभुने संहरो । नयर क्षत्रिय कुड़ राय सिद्धारथ गेहिनी, त्रिशलाराणी धरो प्रभु कूखे तेहनो ॥ ३ ॥ त्रिशला गर्भ लइने धरो माहणी उरे, ब्यासी रात वसीने का तेम सुर करे । माहणी देखे सुपन जाणे त्रिशला हर्या, त्रिशला सुपन लहे तब चौद अलंकर्या ॥ ४ ॥ हाथी वृषभ सिंह लक्ष्मी माला सुन्दरूँ, शशी रवि ध्वज कुंभ पद्म सरोवर सागर । देव-विमान रयणपुज अग्नि विमल हवे, देखे त्रिशलामाताके पियुने वीनवे ॥ ५ ॥ हरखे राय सुपन पाठक तेडावीया, राजभोग सुत फल सुणो तेह वधावीश्रा। त्रिशलाराणी विधिशु गर्भ सुखे वहे, माय तणे हित हेतके प्रभु निश्चल रहे ॥६॥ माय धरे दुःख जोर विलाप घणा करे, हे मैं किंधा पाप अघोर भवांतरे । गर्भ हयों मुज केणे हवे केम पामीए, दुःख कारण जाण्यु विचायु स्वामीए ॥ ७ ॥ अहो अहो मोह- विडंबना जालम जगत में, अणदीठे दुःख एवडु उपायु पलकमें। ताम अभिग्रह धारे प्रभुजी ते कहुं, माता पिता जीवता संजम नविग्रहुं ॥ ८॥ करुणा आणी अंग