________________
[ १६ ]
हलांव्यु जिनपति, बोले त्रिशना माता हैये घणु हिसती । हो मुज जाग्या भाग्य गर्भ मुज सलबल्यो, सेव्यो श्री जिन धर्म के सुरतरु जेम फल्यो ॥ ६ ॥ सखीयो कहे शिखामण स्वामीनी सांभलो, हलवे हलवे बोलो हसो रंगे चलो | एम आनंदे विचरतां दोहला पुरते, नव महिना ने साडा सात दिवस ते || १०|| चैत्र तणी सुदि तेरस नक्षत्र उतरा, जोगे जनम्या वीर के तव विकसी धरां । त्रिभुवन थयो उद्योतके रंग वधामणा, सोना रुपानी वृष्टि करे घेर सुरण || ११ | वे छप्पन्न कुमारीके ओच्छव प्रभु तणे, चल्यु रे सिंहासन इंद्र के घंटा रणझणे । मली मरनी कोड के सुरवर आवियो, पंचरूप करी प्रभुने सुरगिरि लावी || १२ || एक क्रोड साठ लाख कलश जलशु भर्या, किम सहेशे लघु वीर के इंद्र े संशय धर्मा | प्रभु अंगूठे मेरु चांप्यु अति घडघड्यो, गडगड्यो पृथ्वी लोक जगत जन लडथड्यो ॥ १३ ॥ अनंत बली प्रभु जाणी इंद्र खमावियो, चार वृषभना रूपकरी जल नामीयो । पूजी पर्ची प्रभुने माय पापे धरे, घरी अंगूठे अमृत गया नंदीश्वरे ॥ १४॥
की की की
ढाल तीसरी
( राग- हम चडी नी - देशी )
करे महोच्छव सिद्धारथ भूप, नाम ध दिन दिन बधे प्रभु सुर तरु, जेम रूपकला
वर्धमान । समान रे