________________
[६३] जिणंद ॥१॥ मोटा ना मनमाँ नहिं रे, सेवकनी अरदास । इण बाते जुगतुं नहिं रे, जेहशु बाँधी प्राश ॥०॥२॥ साहिब थी दुरे रह्या रे, को नवि सीझे काम । तो पण नजरे निहालताँ रे, को नवि लागे दाम भ०॥२॥ो लग कीजे ताहरी रे, अहनिश उभा बार । तोपण तुरीझे नहि रे, अछे कवण विचार ॥भ०॥४॥ उपरली वातों किया रे, नावे मन विशवास । आप रूपे आणी मिलो रे, जिम होवे लील विलास ॥०॥५॥ दृढ़ विशवास करी कहुँ रे, तुहीज साहिब एक । जो जाणो तो जाणजोर, मुज मन एहीज टेक ॥०॥६॥ शान्ति जिनेसर साहिबा रे, विनतड़ी अवधार । कहे कवियण आजथी रे, अंतर दूर निवार भ० ७॥
२८ श्री गोड़ी पार्श्वनाथजी का स्तवन __(राग - राजगृही नगरी नो वासी--ए देशी)
जय गोड़ी पास जिणंदा, प्रणमे सुरनर नागिदारे । जिनजी अरज सुणो, शरणागत सेवक पालो । जग तारक विरूद संभालो रे जिनजी०॥१॥ तुम सरखो अवर दीखावो जइ कीज़ तेह शुदावोरे । जिनजी० वसुधानो ताप शमावे, कुण जलधर विण वनदावे रे ॥जिनजी०॥२॥ निरगुण पण चरणे वलग्या, किम सरसे कीधा अलगारे जिनजी० पत्थर पण तीरथ संगे, जुनो तरता नीर तर गरे |जिनजी० ३॥