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[६६] ३४ पर्युषण का स्तवन प्रभु जिणंद विचारी, भाख्या पर्व पजुषण भारी । आखा वर्ष माँ ए दिन मोटा, अाठे नहि तेमा छोटा रे । ए उत्तम ने उपकारी भा० १॥ जेम औषध माँहे कहिए, अमृत ने सारु लहीए रे, महामन्त्र माँ नवकार ||भा० २॥ तारागण माँ जेम चन्द्र, सुरवर माँहे जेम इन्द्र रे, सतीयो माँ सीता नारी |भा० ३॥ वृक्ष माँहे कल्प तरु सारो, एम पर्व पजुषण धारो रे, सूत्र माँ कल्प भव तारी भा० ४॥ ते दिवसे राखी समता, छोड़ो मोह माया ने ममता रे, समता रस दिलमाँ धारी भा० ५॥ जो बने तो अठाई कीजे, वली मास खमाण तप लीजे रे, सोल भत्तानी बलीहारी ॥भा० ६॥ नहि तो चोथ छ? तो लहीए, वली अट्ठम करी दुःख सहीए रे, ते प्राणी झुज अवतारी ॥भा० ७॥ नव पूर्व तणो सार लावी, जेणे कल्पसूत्र बनावी रे, भद्रबाहु वीर अनुसारी भा० ८॥ सोना रूपा ना फुलड़ा धरीए, ए कल्प नी पूजा करीए रे, ए शास्त्र अनुपम भारी
मा० ९॥ सुगरू मुख थी ते सार, सुणो अखंड एकवीश वार रे, जुवे अष्ट भवे शिव प्यारी भा० १०॥ गीत गान वाजिंत्र बजावे, प्रभुजी नी आँगी रचावे रे, करे भक्ति वार हजारी ॥भ० ११॥ एवा अनेक गुणाना खाणी, ते पर्व पजुषणा जाणी रे, सेवो दान दया मनोहारी भा० १२॥