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॥ वारि. १ || वृक्ष कुसुमनी वृष्टि, दिव्य ध्वनि वाण मोहन । चामर सिंहासन दुंदुभि, भामंडल छत्र वखारा मोहन. ॥ वारि २ || पूजा अतिशय छे भलो, त्रिभुवन जनने मान मोहन | वचनातिशय योजन गामी, समजे भवि असमान I मोहन || वारि. ३ || ज्ञानातिशय अनुत्तर तथा संशय छेदणहार मोहन | लोकालोक प्रकाशता, केवल ज्ञान भंडार मोहन | वारि, ४ ॥ रागादिक अन्तररिपु, तेहनो कीधो अन्त मोहन | जिहां विचरे जगदीश्वरु, तिहां साते इति शमन्त मोहन. | वारि. ५ ॥ एहवा अपायापगमनो, श्रति शय अति अद्भुत मोहन । अहर्निश सेवा सारता, कोड़ि | गमे सर हूंत मोहन ॥ वारि ६ ॥ मार्ग श्री अरिहंतनो, दरिये गुण गेह मोहन । चार निक्षेपे वांदीये, ज्ञान विमल गुणा गेह मोहन || वारि, ७ ॥
११ श्री सिद्धपद की सज्झाय
नमो सिद्धाणं वीजे पदे रे लाल, जेहना गुण छे आठ रेहुं वारि लाल । शुक्ल ध्यान अनले करी रे, बाल्या कर्म कुठार रे हुँ वारी लाल ॥ १ ॥ ज्ञानावरणी दये लघु रे लाल, केवलज्ञान अनंतरे हु० । दर्शनावरणी क्षय थी थारे लाल, केवल दर्शन कन्तरे हु ० ॥ ० ॥ २॥ अक्षय अनंत सुख सहजथी रे लाल, वेदनी कर्मनो नाश रे