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[१७२ ] मार, छोड़ा यह अनित्य संसार । धर्म की नौका में संयम धार, भव जलधि से तिरने वाले ॥ध० ३ ॥ धरो भवि विनय विवेक अपार, करो गुरु भक्ति अति मनोहार । करो मत राग द्वेष का प्रचार, मुनिवर ज्ञानके देनेवाले ॥१०॥ ॥ ४ ॥ धरते भविजन मन अति रोष, करते जो अभिमान का पोष । इसमें नहीं गरू का दोष, मुनिवर सत्य बताने बाले । ध० ५ ॥ करती महिला मंडल ध्यान, गावे उत्तम मंगलगान । आपको मिले विजय सम्मान, 'मनोहर' यश फैलाने वाले ॥ ध० ६॥
३ गहँली मन मोयो गुरू की वाणी ने शुभ जाणिने म० । यह संसार असार अपारा जाणी दुःख की खाणी ने ॥म०॥ ॥१॥ ज्ञानी वाणी गुण की खानी, मोक्ष तणि निशानी ने ॥ म० २ ॥ भव समुद्र तरने की नौका, पाप ताप विहरणी ने ॥ म० ३ ॥ गुरु हमारे है उपकारी, प्रतिबोधे नरनारी ने ॥ म० ४ ॥ गुरु गुण गायक, महिला मंडल 'मनोहर' प्रेमरस आणि ने ॥ म० ५॥