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[४] भाव उद्योत गयो हवे, करो द्रव्य उद्योत। इम कही राय सर्वे मली, कीधी दीपक ज्योत ॥६॥ दीवाली तिहांथी थई, जगमांही प्रसिद्ध । पद्म कहे आराधतां, लहीये अविचल रिद्ध ॥७॥
४ श्री सिद्धचक्रजी का चैत्यवन्दन पहले दिन अरिहंतनु, नित्य कीजे ध्यान । बीजे दिन वली सिद्धर्नु, कीजे गुणगान ॥१॥ आचारज त्रीजे पदे, जपतां जय जयकार । चोथे पदे उवज्झायना, गुण गावो उद्धार ।।२।। सकल साधु वंदो सही, अढीद्वीपमा जेह । पंचम पद आदर करी, जपजो धरी ससनेह ॥३॥ छठ पदे दर्शन नमो, दरिशण अजुअालो । नमो नाणपद सातमे, जिम पाप पखालो ॥४॥ आठमे पद आदर करी, चारित्र सुचंग । नवमे पद बहु तप तणो, फल लीजे अभंग ॥५॥ ऐणी परे नवपद भावशुए, जपतां नव नव कोड । पंडित 'शान्तिविजय' तणो, शिष्य कहे करजोड ॥६॥
५ श्री अरिहंतादिक चैत्यवन्दन अरिहंत देवा चरणोनी सेवा, पंदर भेदे सिद्धि पद मेवा। आयरिय उवझाय सर्व साधुना नाम,
ए पंच योगे कर प्रणाम ॥१॥