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[४५] थय थुइ मंगल करी घर लावे, प्रभुने जननी पासे ठावे । कोड़ी बत्रीश सोवन वरसावे ॥हो०॥४॥ प्रभु देहड़ी दीपे लालमणि, गुण गावे श्रेणी इन्द्र तणीं। प्रभु चिरंजीवो त्रिभुवन धणी ॥हो॥५॥ अढ़ीसे धनुष ऊँची काया, लही भोगनी राज्य रमा जाया । पछी संजम लही केवल पाया हो०॥६।। तीरथ वरतावी जगमाह, जन निस्तार्या पकरी बाँहे । जे रमण करे निज गुण माहे ॥हो०॥७॥ अम वेला मौन करी स्वामी, किम बेठा छो अंतरजामी । जग तारक विरूदे लगे खामी हो०॥८॥ निज पाद पद्य सेवा दीजे, निज समवड़ सेवकने कीजे । कहे रूपविजय मुजरो लीजे हो०॥६।।
५ सुपार्श्वनाथजी का स्तवन निरखी निरखी तुज बिंबने रे, हरखित हुए मुज मन्न, सुपास सोहामणा । निरविकारता नयन माँ रे, मुखड़े सदा सुप्रसन्न सुपास सोहामणा ॥१॥ भाव अवस्था साँभरे रे, प्रतिहारज नी शोभ सुपास सोहामणा । कोड़ी गमे देवा सेवारे करताँ मुंकी लोभ, सुपास सोहामणा ॥२॥ लोकालोकना सवि भावारे, प्रतिभासे परतक्ष, सुपास ,