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[४३] २ अजितनाथजी का स्तवन अजित जिणंद ने सेवो भविजन भाषशु, मंगल माला जे आपे जग नाथ जो । गज लांछन विजया नंदन सोहा मणा, ज्ञान दिवाकर विनीता नगरी नाथ जो॥अजित०॥१॥ जित शत्रुभूमिपति कुलमां चन्द्रमा; कंचन वरणी दीपे उत्तम देह जो । सादा चार सो धनुषनी ऊँची देहड़ी, भविजन वेल समूहने सिंचन मेह जो ॥अजित०॥२॥ एक सहस संवेगी पुरुषनी साथशु, संयम लीधु भवसागरमा पोत जो । एक लाख साधु परिवारे शोभता, लोकालोक ने देखे केवल ज्योत जो ॥अजित०॥३॥ अानन्द दायक जिन संपति विराजता, पंचागु गणधरथी सेवित पाय जो । बहोतेर लाख पुरवनु आयु पालीने, आठ करमने जीती शिवपुर जाय जो ॥अजित०॥४॥ ज्ञानमणि उद्योते बहु वली दीपता, दोष रहितने दान दया भंडार जो । सौभाग्य पदना दाता समता सुदरु, मुक्तिविमल पद सुख प्रापे श्री कार जो ॥अजित०॥१॥
३ सुमतिनाथजी का स्तवन सुमति जिणेसर साहिबोरे, सुमति तणो दातार. सेवंता संपद मिले रे, कुमति तणो परिहार ॥ जिणंदराय माहरे तुमसु नेह, जिम वष्पियड़ा मेह. जिणंदराय आवो, मुजमन गेह ॥जिणंदा॥१॥