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[८६] एम बहु मुनि पद पूछवारे, एक आवे एक जाय । श्राचारजनी उंधमारे, थाय अति अन्तराय ॥ सद्० ॥६॥ सूरि मने एम चितवेरे, क्या मुज लाग्यु पाप । शास्त्र में ए अभ्यासीयारे, तो एटलो संताप । सद् ॥७॥ पद न कहुं हवे केहनेरे, सघला मूकु विसारी । ज्ञान उपर एम आणीोरे, त्रिकरण क्रोध अपार ||सद्॥८॥ बार दिवस अण बोलीभारे, अक्षर न कह्यो एक । अशुभ ध्याने ते मरीरे, ए सुत तुज अविवेक ।। सद्० ॥९॥
ढाल पाँचवीं वाणी सुणी वरदत्तेजी, जातिस्मरण लह्म । निज पूर्व भव दीठोजी, जेम गुरूए का॥ वरदत्त कहे तव गुरूनेजी, रोग ए केम जावे । सुन्दर काय होवेजी, विद्या केम आवे ॥१॥ भाखे गुरुजी भली भातजी, पंचमी तप करो । ज्ञान आराधो रंगेजी, उजमणु करो ॥ वरदत्ते ते विधि कीधीजी, रोग दूरे गयो । भुक्त भोगी राज्य पालीजी, अन्ते सिद्ध थयो ॥२॥ गुण मंजरी परणावीजी, शाह जिनचन्द्रने । सुख भोगवी पछी लीधुजी, चारित्र सुमतिने॥ गुणमंजरी वरदत्तजी, चारित्र पालीने । विजय विमाने पहोचाजी, पाप प्रजालीने ॥३॥ भोगवी सुर सुख तिहांजी, चविया दोय सुरा । पाम्या जम्बु विदेहजी, मानव अवतारा।।