Book Title: Maran Bhoj
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Singhai Moolchand Jain Munim
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ ૩૦૦૪૮૪s www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख ब परमेडीदास - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat तनमा www.umaragvanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणभा लेखक: पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ-सूरत । प्रकाशक:-- सिंघई मूलचन्द जैन मुनीम-ललितपुर (झांसी) तथा शा० साकेरचन्द मगनलाल सरैया-सूरत। स्वि. सिंघई मौजीलालजी जैन वैद्य लितपुर और स्व० शा० मगनलाल उत्तमच दनी सरैया सूरतकी स्मृति ___“जैनमित्र" और "वीर" के ग्राहकोंको भेट।] प्रथमावृत्तिा मल्प वीर सं० २४६४. विक्रम सं. १९९४. Shree Sudharmaswami-Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची। १-मरण मोजकी उत्पत्ति २-मरणभोजकी भयंकरता ३-शास्त्रीय शुद्धि .... ४-शंका समाधान ५-समदत्ति और कान .... ६-मरणभोज निषेधक कानून ७-मरणभोज विरोधी आन्दोलन -८-मरणभोजके प्रांतीय रिवाज ९-करुणाजनक सच्ची घटनायें १०-सुपसिद्ध विद्वानों और श्रीमानों के अभिप्राय ११-मरणभोज कैसे रुके ? १२-कविता संग्रह ४ "जनविजय', प्रिन्टिग प्रेस, खाटिया चकला-सूरतमें ee sudham मूलचन्द किसनद स क पडियाने मुदित किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara,'Surat' ' ww.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार। मैंने अपने पूज्य पिलाजी श्री सिंघई मौजीलालजीके स्वर्गवास होनेपर मरणमोज नहीं किया, कारण कि मैं मरणभोजको धर्म एवं समाजका घातक एक भयंकर पाप समझता हूं। किन्तु मैंने यह निश्चय किया था कि पिताजीके स्मरणार्थ एक ऐसी पुस्तक लिखी जाय जो 'मरणमोज' के विरोधमें अच्छा आन्दोलन कर सके। इसके लिये मैंने तथा मेरे पूज्य बडे भाई सिंघई मूलचंदजीने १००) के दानका संकल्प किया था। उसमें से २०) के रजत चित्र (भगवान पार्श्वनाथस्वामी और म० महावीर स्वामीके) ललितपुर और महरौनीके मंदिरोंमें विराजमान किये थे। ८०) इस पुस्तकमे लगा दिये हैं। इसके अतिरिक्त ३५) के मूल्यकी ४० प्रतियां चारुदत्त चरित्रकी भी वितरण की हैं। हमारे मित्र श्री० साकेरचन्द मगनलाल सस्या-सूरतने भी अपने स्व० पिता श्री० मगनलाल उत्तमचन्द सरैयाके स्मरणार्थ इसमें ८०) प्रदान किये हैं। और हमारे मित्र पं० मंगलप्रसादजी शास्त्री ललितपुरने भी अपनी स्व० भावी (धर्मपत्नी सिं० रामप्रसादजी), के स्मरणार्थ २५) प्रदान किये हैं। इस प्रकार यह पुस्तक प्रगट होकर जैनमित्र' और 'वीर' के ग्राहकोंको भेट दीजारही है। इसलिये मैं अपने मार्थिक सहयोग देनेवाले इन मित्रोंका मामारी हूं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) साथ ही मैं उन सभी सज्जनोंका भी भाभारी हूं जिनने इस पुस्तकके लिये सच्ची घटनायें तथा अपनी सम्मतियां और कवितायें आदि भेजकर मेरे इस कार्यमें सहयोग दिया है। .. इस पुस्तकके विवेकी एवं उत्साही पाठकोंसे मेरा साग्रह निवेदन है कि भाप इसे पढ़कर जनतामें 'मरणभोज' विरोधी विचारोंको फलायें और ऐसा प्रयत्न करें जिससे थोड़े ही समयमें इस भयंकर प्रथाका नाश होजाय । मरण मोजकी प्रथा जैन समाजका एक कलंक है। जो भाई बहिन इस पुस्तककी सहायता लेकर इस कलंकको मिटानेका प्रयत्न करेंगे उनका भी मैं भामारी होऊंगा । चन्दावाडी-सूरत । निवेदक:ता० १५-१२-३७.) परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ । । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय । - स्वर्गीय श्रीमान् सिंघई मौजीलालजी जैन वैद्यका जन्म यू० पी० के झाँसी जिलान्तर्गत महरौनी नगरमें माश्विन विक्रम संवत् १९३५ में हुमा था। आपके पितानीका नाम श्री० सिंघई दयाचंद्रजी था। ___ मापके तीन पुत्र हुए। अपने लघु पुत्र पं० परमेष्ठीदासजीके ज़हन, प्रतिमा, उत्साह और कर्मठतासे उन्होंने इस जात्युत्थान और धर्म प्रमावनाकी खातिर मर-मिट-जाने-के-अरमान-वालेको पहिचान लिया। चुनांचे, अपने बड़े लड़कों की मुलाजमत ललितपुरमें होनेके कारण जब ये महरौनीसे ललितपुर सकुटुम्ब तशरीफ़ ले आए, और वहां व्यापारिक असफलतासे उत्पन्न मार्थिक सङ्कटके वावजूद हर हालतमें परमेष्ठीदासजीको पढ़ाना जारी रखा, जिसका मुवारिक नतीजा यह निकला कि भान जैन कौम अपने इस फ़रज़न्द पर नाज़ करती है। जैन समाजके इस Whip ने हमेशा धर्मके दायरेमें रहकर प्रेस और प्लेटफार्मसे समयोचित क्रांतिके नारे बुलन्द किये । जिनवाणी माताके दामनको “चर्चासागर " जैसी नापाकीज़गीसे पङ्किल होनेसे बचानेमें, 'दस्साओंको पूजाधिकार' दिलाने में, जैनागमसम्मत 'विजातीय-विवाह ' का प्रोपेगेण्डा करने, 'जैनधर्मकी उदारता' का दिग्दर्शन कराने में, उन्होंने जिस शक्तितस संलमताके साथ काम किया है उसे क्या कभी सहृदय-विचारक जैन समाज भूल सकेगी! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर इन पं० परमेष्ठीदासजीमें धर्म-सेवाकी यह स्प्रिट फूंकने. वाले थे महरौनीके सुविख्यात सिंघई वंशके चमकते हुए सितारे श्री० मौजीलालजी उर्फ " दाऊज" ही। भापकी मात्मा धर्मभावनाओंसे निरन्तर सरशार रहती, प्रतिदिन दर्शन, स्वाध्यायादि धर्म कार्य करते। खुद समाज-सुधारक तो थे ही। वे अपने लघु पुत्र पं० परमेष्ठीदासजीके तमाम आन्दोलनों, विचारों, लेक्चरों, लेखों वगैरह प्रवृत्तियोंसे न सिर्फ सहमत रहते बल्कि प्रोत्साहन भी देते रहते। परोपकारी सिंघईजी सफल वैद्य थे। औषधियाँ बनाते और सत्पात्रोंको मुफ्त तकसीम करते । जिंदगीके आखिरी रोज़ भी एक मरीजको देखने गये, मौषधि देकर लौटे, और उसी दिन माश्विन वदी १३ वि० सं० १९९३ (ता० १५-१०-३६) की रात्रिको निराकुलतापूर्वक स्वर्गवासी होगये । संवत् १९८८ में भापके ज्येष्ठ पुत्र श्री० बंशीधरजीका मात्र ३२ वर्षकी भायुमें स्वर्गवास होगया। लेकिन मापने साहसपूर्वक उनका "मरणभोज" करनेसे साफ इन्कार कर दिया। मापके द्वितीय पुत्र सिं० मूलचन्द्रजी जन ललितपुरकी एक सुप्रसिद्ध पेढ़ीपर कार्य करते हैं। और लघुपुत्र श्री० ५० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ सूरतमें जैनमित्र कार्यालयके मैनेजर हैं । और "वीर" का संपादन भी करते हैं । सन्तोषकी बात है कि सिंघईजीका 'मरणभोज' न करके उनके स्मरणार्थ यह पुस्तक प्रगट की जारही है। मेरी भावना है कि यह किताब सहृदय वीरोंके हृदयमें "मरणभोज" की बर्बर प्रथाके खिलाफ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोशकी ऐसी ज्वाला भड़काये जो रूढिभक्तों और दकियानूसों के बुझाये न बुझे। स्वर्गीय श्री० मगनलाल उत्तमचन्दजी सरैयाका जन्म सुरतमें विक्रम सं० १९४८ में हुआ था। आप नृसिंहपुरा दि० जैन थे। मापने गुजरातीका सामान्य ज्ञान प्राप्त करके सरैया (गंधीगिरी) का व्यवसाय शुरू किया। और उसमें अच्छी कामियाबी हासिल की। भापको पुस्तकें लिखने और स्वाध्याय करनेका बड़ा शौक था।भापका स्वर्गवास मार्गशीर्ष शुक्ला १० सं० १९७४ में भसमयमें ही होगया था। आपके दो पुत्रियां और एक पुत्र हुमा । उनमेंसे वर्तमानमें पुत्र श्री० साकेरचन्द मगनलाल सरैया हैं, जो अत्यन्त उत्साही, व्यवसायी युवक हैं। आपने देशसेवा करते हुए जेलयात्रा भी की है। एक सच्चे सुधारकके मानिन्द मापने अपना अन्तर्जातीय (दि. जैन मेवाड़ा जातिमें) विवाह किया है। मापने अपने पिताजीके स्मरणार्थ इस पुस्तक के प्रकाशनमें ८०) प्रदान किये हैं। - श्री. पं० मंगलप्रसादजी जैन शास्त्री ललितपुर सुधारक युवक विद्वान हैं। आपके ड़े माई श्री. रामप्रसादजी सिंघईकी धर्मपत्नीका कुछ ही समय पूर्व असमयमें ही स्वर्गवास हो गया है । मापने उनका मरणभोज नहीं किया और इस उपयोगी पुस्तकके प्रकाशनार्थ २५) प्रदान किये हैं। निवेदक नारायणप्रसाद जैन B Sc. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AT SINEENNA, समर्पण ! पूज्य पिताजी ! आपके स्वर्गवास के बाद " मरणभोज" जैसे रूढ़िबाद और पाखण्डोंकी विशाल सेनाने मुझ पर भयंकर आक्रमण किया । किन्तु आपके जात्युत्थान एवं समाजसुधारके आदर्शोंसे ओत-प्रोत यह सिपाही इस 'महानाश' के आगे तिलभर भी झुकनेवाला नहीं था । और अन्तमें यही हुआ भी । यह पुस्तकनिर्माण भी उसीका शुभ फल ह पर मूलरूपमें व्याप ही तो इसके प्रेरक हैं, अत: यह तुच्छ कृति आपकी स्मृति स्वरूप आपको ही सादर तथा श्रद्धापूर्वक समर्पित है । - परमेष्ठी | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. सिंघई मौजीलालजी जैन वैद्य ललितपुर। जन्म-सं० १९३५ स्वर्गवास-सं० १९९३ | आश्विन । आश्विन । * "जैनविजय" प्रेस-सूरत। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः। मरणभोज। जैनागमविरुद्धोयं मृत्युभोजो निवार्यताम् । रूढिरेषोऽतिघोराऽस्ति दशमप्रागनाशिनी ॥ १॥ गृहहीना: महाक्लेशाः असंख्या विधवा यया । संजाताः स महाव्याधिः शीघ्रमेवापसार्यताम् ॥ २॥ अमंगलो मृत्युभोज: ओनस्तेजोऽपहारकः । आधिव्याधि समापूर्ण: दुरंतोदन्तसंततिः ॥ ३ ॥ शास्त्रानुमोदितो नैव नव युक्तिसमर्थितः । मृत्युभोजो बहिष्कार्य: कथं श्रेयस्करो भवेत् ॥ ४॥ सम्यग्दृष्टिपरित्यक्तं मिथ्यादृष्टिसमर्थितं । पुष्णंति ये मृत्युभोज ते नरा न नराः खराः ॥ ५ ॥ - चैनसुखदास जैन न्यायतीर्थ । . मरणभोजकी उत्पत्ति । मरणभोजका बर्थ विसी मृत व्यक्ति के नामसे या उसके निमितसे जाति, समान या किसी समूहको भोजन कराना है। इसे नुक्ता, बारमा, काज या मौसर भी कहते हैं। यह अमानुषिक प्रथा कब, कैसे, किसके द्वारा और क्योंकर उत्पन्न हुई यह न तो मैं स्वयं जानता हूं और न सौ विद्व नों को पत्र देनेपर उनसे ही कोई. संतोष. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] मरणभोज। कारक उत्तर कहींसे मिला है। इसलिये मैं मानता हूं कि जैसे चोरी, व्यभिचार, हत्या या अन्य ऐसे ही अत्याचारोंका कोई इतिहास नहीं, उसी प्रकार मरणभोजकी अमानुषिक प्रथ का भी इतिहास नहीं मिलता। हां, आत्मजागृति कार्यालय जैन गुरुकुल-ब्यावरसे प्रगट हुई पुस्तक 'सुखी कैसे बनें ?' में किरियावर (मरणमोज) की उत्पत्तिके सम्बन्धमें लिखा है कि “किसी सेठ के पुत्रने पिताकी मृत्युके रंजसे भोजन छोड़ दिया, तो चार कुटुंबियों ने उसके घरपर भोजनकी थाली ले सत्याग्रह किया कि भार खाओ तो हम खायेंगे। इससे सादा भोजन तो शुरू हुआ किन्तु वह सेठका पुत्र मीठा भोजन नहीं खाता था, उसे शुरू कराने के लिये पुनः मिठाई बनवाकर थाली परोसकर बैठ गये मोर मीठा खाना शुरू कराया। इससे कई लोग पितामक्तिी प्रशंसा करने लगे। यह देख दूसरोंने भी नकल करना चाही और चारकी जगह दस वुटुम्बी आये, फिर तीसरेने २५को बुलाया, फिर सैकड़ों और अब तो हजारों को बुलाकर मरणभोन होने लगे।" जो भी हो, माणभोजकी उत्पत्ति चाहे इस तरह हुई हो या किसी दूपरी तरह, किन्तु यह है बहुत ही भयानक । ब्रह्मणोंने तो इसे धर्मका महान अंग बताया और यह गरीब अमीर सभी हिन्दुओंमें प्रचलित होगई। जिप गरीबने जिन्दगीभर कभी मिष्टान्न न खाया होगा वह भी ४.पने घरके लोगोंकी मृत्यु होनेपर जातिक लोगोंको मिष्टान्न भोजन करना है। कारण यह है कि उसे ब्राह्मण परितों द्वारा यह विश्वास दिलाया जाता है कि मरणमोज करनेपर ही मृतात्माको शान्ति (वं सद्गति मिलेगी। बिना माणभोनके मृताShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोजकी उत्पत्ति । स्मा स्मशानकी राखमें ही लोटता रहता है। उसे राखसे निकालकर मुक्तिमें पहुंचानेका एक मात्र उपाय मरणभोज है। यह विश्वास मशिक्षितोंमें ही नहीं किन्तु शिक्षित हिन्दू घरानोंमें भी बहुतायतसे पाया जाता है। किन्तु सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सत्यको उपासक, कर्मों के बन्ध मोक्षकी व्यवस्था जाननेवाली तथा जन्ममरणसे सिद्धान्तसे परिचित जैन समाजमें भी अनेक जगह यही मूढ़तापूर्ण विश्वास छाया हुमा है। जबकि जन शास्त्र कहते हैं कि मरण होनेके बाद क्षणभरसे पहले मृतात्मा दूसरी योनिमें पहुंच जाता है और उसपर किसी अन्यके किये हुये कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो भी भनेक मूढ़ जैन लोग नेनेतरोंकी मान्यतानुसार मरणभोजसे शुभ गतिमें, नाने या तरनेकी शक्ति मानते हैं। मैं यहांपर मरणभोज सम्बन्धी हिन्दु शास्त्रों के सारहीन कथनकी समालोचना नहीं करना चाहता, किन्तु मुझे तो यहां मत्र इतना ही कहना है कि कमसे कम जैनाचारकी दृष्टिसे तो मरणभोज करना घोर मिथ्यात्वका कार्य है। इसे जो आवश्यक कृत्य मानकर करता है वह सच्चा जैनी नहीं है। हमारे एक भी जैन आर्ष शास्त्रमें मरणभोनका कोई विधि-विधान नहीं है। जैनाचार्यों के द्वारा निर्माण किये गये श्रावकाचारोंमें जैन गृहस्थकी साधारणसे साधारण क्रियाओंका कथन किया गया है, किन्तु किसी भी आचारशास्त्र में मरणभोजका विधान नहीं है। फिर भी मूढ़तावश जैन लोगों में यह प्रथा चालू है, यह खेदकी बात है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज। जैन समाजमें दो क्रियाकोश प्रचलित हैं, एक स्व० पंडितपवर दौलतरामजीका और दूसरा पं० किशनसिंहजीका । इनमेसे पं. दौलतरामजीका क्रियाकोश अधिक प्रमाणीक माना जाता है। उसमें सूतकपातककी विधिका वर्णन करके भी कहीं मरणभोजका कोई विधान नही किया है। एक बात यह भी है कि जैन कथाग्रन्थों में महापुरु. बोका विस्तृत जीवनपरिचय दिया गया है। उनमें उनके जीवनमरणकी छोटीसे छोटी घटनाओं एवं क्रियाओंका उल्लेख है। किन्तु क्या कोई बतला सकता है कि किसी महापुरुषने अपने पूर्वनोंका या किसी महापुरुषका उनके कुटुम्बियोंने मरणभोज किया था ? सच बात तो यह है कि मरणमोज न तो जैन शास्त्रानुकूल है और न इसकी कोई भावश्यक्ता ही है। मैंने मरणभोज सम्बंधी ५ प्रश्नों के १०० कार्ड छपाकर जैन समाजके १०० अग्रगण्य विद्वानों के पास भेजे थे, उनमें एक प्रश्न यह भी था कि क्या मरणभोज जैन शास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे उचित है ? किन्तु कुछ सज्जनोंने निषेधात्मक उत्तर ही दिये, मगर अन्य कट्टर रूढ़िचुस्त पण्डितोंका इसका यथार्थ उत्तर देने का साहस ही नहीं हुआ। हो भी कहांसे ? वे किसी भी तरह मरणभोजकों शास्त्रानुकूल सिद्ध कर ही नहीं सकते । स्थितिपालक दलके नेता पं० मवखनलालजी शास्त्रीके सम्पादकत्वमें निकलनेवाले जैनगजट वर्ष ४२ अंक ७ (ता०२८-१२ -३६) में मा० ज्ञानचंदजी जैनने एक विज्ञप्ति छपाई थी कि "मरणभोज शास्त्रसम्मत है, इसपर विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोजका उचित है। यह मरणमोजकी उत्पत्ति। मत सप्रमाण गजटमें प्रगट करें, ताकि शंका निवारण हो।" किन्तु इस आवश्यक प्रश्नका उत्तर देनेका साहस न तो गजटके सम्पादकजी ही कर सके और न कोई दूसरा। इसका भी कारण स्पष्ट है कि कहीं भी मरणमोजकी शास्त्रसम्मतता नहीं मिल सकती। तात्पर्य यह है कि मरणमोजका विधान न तो जैन शास्त्रोंमें है और न जैनाचारकी दृष्टिसे ही यह कार्य उचित है। जैनोंमें तो इसका प्रचार मात्र अपने पड़ौसी हिन्दुओंसे हुभा है, उन्हींका यह अनुकरण है। यही कारण है कि आजसे सौ-पचास वर्ष पूर्व प्रायः सारी जैन समाजमें मरणभोजके साथ ही उसकी मागे पीछेकी तमाम क्रियायें हिन्दू क्रियाभोंके समान ही कीजाती थीं, जिनका निषेध करते हुये पं० किशनसिंहजीने अपने क्रियाकोषमें लिखा है कि: दगध क्रिया पाछे परिवार, पाणी देय सवै तिहिवार । दिन तीजेसो तीयो करै, भात सराई मसाण हूँ धरै ॥ ५७॥ चांदी सात तवा परि डारि, चंदन टिपकी दे नरनारि । पाणी दे पाथर षडकाय, मिनदसण करिकै घरि आय ॥ ५८॥ सब परियण जीमत तिहिंवार, वांवां करते गांस निकार । सांज लगै तिनि ढांक रिषाय, गाय बछ। कुं देय षुवाय ।। ५९ ॥ ए सब क्रिया जैन मत मांहिं, निंद सकल भाषे सक नाहिं। इस प्रकार मागे भी तमाम मिथ्या क्रियाओं का वर्णन करके जैनोंको उनके त्यागनेका उपदेश दिया है। और स्पष्ट लिखा है कि एक दो या तीन समयमें तो जीव अन्य भवमें पहुंच जाता है, फिर व्यर्थ ही क्यों आडम्बर रचते हो ? उसके निमित्तसे ग्रास (अछूतापिण्ड) निकालना, पानी देना भादि सब मिथ्यात्व है। कारण कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज। मृतात्मा फिर उसके उपभोगके लिये न तो वापिस आता है और न राखमें पड़ा रहता है, न मरण स्थानपर मंडराता रहता है। इसलिये तमाम मिथ्या क्रियाओंका त्याग करो। ५९ में छन्दमें परिजनोंके जीमनेकी रूढ़ि बनाकर उसे भी निंद्य कहा है। किन्तु हम आज देखते हैं कि जैनोंमें प्रायः तमाम मिथ्या क्रियायें प्रचलित हैं। मरणभोनके लिये शक्ति न होनेपर भी अनाथ विधवाओंके गहने बेचे जाते हैं, उनके मकान बेच दिये जाते हैं, सारी सम्पत्ति स्वाहा करदी जाती है और नुक्ता किया जाता है। ऐसा न करनेपर उसकी निन्दा होती है और कहीं कहीं तो मरणभोज न करनेवालोंको जातिबहिष्कृत भी कर दिया जाता है। यह सब बातें आपको आगे करुणाजनक घटनाओं के प्रकरणमें देखमेको मिलेगी। मरणभोजकी भयंकरता। मरणभोजकी राक्षसी प्रथाके कारण अनेक विधवायें बर्बाद होगई, अनेक बच्चे दाने दानेको तरस रहे हैं, अनेक ऊंचे घर कर्ज करके मिट्टीमें मिल गये हैं। इस भयंकर प्रथाकी पुष्टि के लिये कई गृहस्थोंको घर जायदाद वेचना पड़ी, गहने वर्तन बेचना पड़े और अपना जीवनतक बेच देना पड़ा, किन्तु निर्दयी पंचोंने जीवन लेकर भी जीमन नहीं छोड़ा। निर्दयताके साथ ही साथ यह कितनी भयंकर असभ्यता है कि माता मरे या पिता, भाई मरे या भौजाई, काका मरे या काकी, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोजकी भयंकरता। [७ wwwww पुत्र मरे या पुत्री, पति मरे या पत्नी किन्तु तत्काल ही मोदक उड़ानेकी तैयारी होने लगती है। इसी विषय में एक सज्जनने लिखा है कि "मरणभोजभोजियोंने सहानुभूतिको संखिया दे दिया, कृतज्ञताको · कौड़ीके मोल बेच दिया, समवेदनाकी भद्रताको भट्टीमें झोंक दिया,. . मुदॆके मालपर गीध और कुत्तोंकी तरह टूट पड़े, खूनसे सने सीरेको हड़पने लगे, लोहू मरी लपसी डकार गये, रक्तसे लथपथ रबड़ीको सबोड़ गये, कराहते हुये आत्मीयों के कन्दनको सुनने के लिये कान फोड़, आगापीछा मूल चटोरी जिहाके चाकर बन गये।" क्या यही दया और अहिंसाका स्वरूप है ? क्या यही आर्य सभ्यताकी निशानी है ? भोजनमक्त नरपिशाचो ! तनिक अपनी हियेकी आंखें खोलो और इस पाशक्तापर विचार करो ! जा मरणभोजके दृश्यको तो एकवार देखिये:-एक तरफ कफन खरीदा जारहा है तो दूसरी ओर मरणभोजकी तिथि तय की जारही है, इधर जनाजा निकल रहा है तो उधर पकवान उड़ानेकी प्रतीक्षा होरही है, इधर चितापर मुर्दा जा रहा है तो उधर निमंत्र. णकी फहरिश्त बनाई जारही है, इघर विधवा सिर और छाती कूट कर हाय हाय कर रही है तो उधर लड्डुओंकी तैयारी होरही है, इधर पितृहीन बालक आहें भर रहे हैं तो उधर पंच लोग नुक्तेकी चर्चा में तल्लीन हैं, इधर घरके लोग आंसू बहा रहे हैं और जोर जोरसे चिल्ला रहे हैं तो उधर हृदयहीन स्त्री पुरुष लड्डू गटक रहे हैं । यह कैसा दयनीय एवं निष्ठुरतापूर्ण कृत्य है, जिसे देखकर दया तो किसी भन्धेरे कोने में खड़ी हुई रोती होगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज। सबसे अधिक दुःखकी बात तो यह है कि मरणभोजकी करुणताको जानते हुये भी आज कितने ही भोजनमट्ट, पेटाएं और धर्मके ठेकेदार बननेव,ले हृदयहीन व्यक्ति इस निर्दयतापूर्ण मरणभोजकी पुष्टि करते हैं। उनके पास न तो कोई धर्मशास्त्रोंका प्रमाण है और न कोई बुद्धिगम्य तर्क । फिर भी वे अपने हठवादको पुष्ट करते रहते हैं। यदि उनके पास कोई प्रमाण है भी तो एक मात्र त्रिवर्णाचार हो सकता है। क्या कोई मरणभोज समर्थक विद्वान किसी मार्षग्रन्थमें मरणमोजका प्रमाण बता सकते हैं ? जिस त्रिवर्णाचारका प्रमाण दिया जा सकता है वह ग्रन्थ शिथिलाचारका पोषक है, उसमें योनिपूजा, पीपलपूजा, श्राद्ध, तर्पण और ऐसी ही अनेक मिथ्यात्व पोषक बातों का विधान है, जो जैनत्वसम्यक्तको नष्ट करनेवाली हैं। उसमें तो तीसरे दिनसे लगाकर बारहवें दिन तक बराबर भोजन कराने का विधान किया गया है और हिन्दू शास्त्रों के आधारसे श्रद्ध, तर्पण, पिण्डदानका पूरा२ वर्णन करके उन्हें जैनोंके लिये विधेय बताया है। तात्पर्य यह है कि भट्टा. रक सोमसेनके त्रिवर्णाचारमें जैनियों का जैनत्व नष्ट करनेवाले भनेक विधि विध न भरे पड़े हैं। उसीमें मरणभोज भी एक है। इसके अतिरिक्त कोई भी प्राचीन या अर्वाचीन जैन शास्त्र मरणभोजका समर्थन नहीं करता। प्रत्युत पण्डितप्रवर सदासुखदासजीने रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक २२ की टीकामें मरणभोज, श्राद्ध, तर्पण आदिको लोकमूढता बताया है। . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रीय शुद्धि । [ ९ त्रिवर्णाचार तथा ब्रह्मसूरि कृत प्रतिष्ठातिलक में एक ही तरहके अक्षरशः नकल किये हुए कुछ श्लोक ऐसे भी हैं जिनका तात्पर्य यह है कि यदि दुष्ट तिथि, दुष्ट नक्षत्र या दुष्ट वारमें अथवा दुर्भिक्ष, शस्त्र, अभिपात या जलपात आदिसे मरण हो तो कुटुंबीजनोंको प्रायश्चित्त ( उद्दोषपरिहारार्थी) के हेतु से अन्नदानादि देना चाहिये । इससे यह ज्ञात होता है कि पहले मरणभोजकी प्रथा प्रायश्चित्तके रूप में प्रारम्भ हुई थी । उस समय मात्र पांच युगको अन्नदान देनेकी (पश्चानां मिथुनानां तु अन्नदानं) विधि थी । फिर भी यही धीरे धीरे बढ़कर सैकड़ों हजारोंको लड्डू खिलाने के रूपमें परिणत होगई । और अब तो सभी प्रकार के मरगोपलक्ष में बृहत् भोज किया जाता है तथा उसमें हजारों रुपया खर्च किये जाते हैं । जबतक यह प्रथा बन्द न होगी तबतक न तो समाजकी दयनीय दशा सुधर सकती है और न समाज अमानुषिकता के कलंक से ही मुक्त हो सकती है । शास्त्रीय शुद्धि | हिन्दू स्मृतियोंकी नकल करके सोमसेन भट्टारकने मरणशुद्धिके लिये भोजन कराना आवश्यक बताया है, तब आचार्य गुरुदासने प्रायश्चित्तसंग्रह चूलिका में लिखा है कि: जलानलप्रवेशेन भृगुपाता च्छिशावपि । बालसन्यासत: प्रेते सद्यः शौचं गृहिव्रते ॥ १५२॥ अर्थात् - जलमें डूबने, अग्निमें जलने, पर्वत से गिरने, बाल www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] मरणमोज । कक मरने या बाल ( मिथ्यादृष्टि ) सन्याससे मरने पर तत्काल ही शुद्धि होजाती है। किन्तु इस आर्षवाक्यके विरुद्ध सोमसेन त्रिवर्णाचारमें गौदा. नादि तथा भोजन करानेपर शुद्धि मानी गई है। ऐसी स्थितिमें प्रायश्चित्त समुच्चय ग्रंथको ही प्रमाण मानना बुद्धिमानी है। कारण कि " सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ।" अर्थात् सामान्य शास्त्रकी अपेक्षा विशेष अधिक प्रामाणिक होता है। इसलिये शिथिलाचारी मिथ्याप्रचारी भट्टारक सोमसेनकृत त्रिवर्णाचारकी अपेक्षा प्रायश्चित समुच्चय अधिक प्रामाणिक शास्त्र है । और फिर त्रिवर्णाचार तो कोई शास्त्र भी नहीं है। दुसरी बात यह है कि हम पहले बता चुके हैं कि जलपातादिसे मरनेपर तो तत्काल ही शुद्धि होजाती है और वैसे सामान्य मरण होनेपर अमुक दिन बाद स्वयं शुद्धि हो जाती है। यथा ब्राह्मणक्षत्रियविद्शूद्रा दिनैः शुद्धयन्ति पंचभिः । दश द्वादशभिः पक्षाद्यथासंख्यप्रयोगतः ॥ १५३ ॥ -प्रायश्चित्त संग्रह चूलिका । अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी स्वजनके मर जानेपर क्रमशः पांच, दस, बारह और पन्द्रह दिनके वीतनेपर स्वयमेव शुद्ध होजाते हैं। इससे वह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि जैनोंकी पातक शुद्धि १२ दिन बीत जानेपर स्वतः होजाती है। इसलिये मरणभोजसे शुद्धि होना मानना एक मात्र मिथ्यात्व है। मरणके बादकी पातकशुदि तो कालशुद्धि है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रीय शुद्धि। [११ इसलिये अमुक काल व्यतीत होजानेपर स्वयमेव शुद्धि होजाती है। यदि इसके लिये मरणभोज करना भी आवश्यक होता तो आचार्य गुरुदास उसका भी उल्लेख अवश्य करते। किन्तु उनने ऐसा न करके मात्र कालशुद्धि ही बताई है। व्यवहारमें भी यही देखा जाता है कि तेरहवें दिन (कहीं कहींपर १० दिनमें ही) शुद्धि होजाती है, और विना मरणभोज किये ही लोग देवदर्शन तथा पूजादि कार्य करने लगते हैं। इससे सिद्ध होगया कि मरणभोज शुद्धिके लिये भी अनावश्यक है। मूलाचारके समयसाराधिकारमें भी सूतकका उल्लेख है और उसकी शुद्धिके लिये लौकिक ग्लानिके त्याग करनेका उपदेश दिया है। यथाः ___ " लोकव्यवहारशोधनार्थ सूतकादिनिवारणाय लौकिकीजुगुप्सा परिहरणीया।" अर्थात-लोकव्यवहारकी शुद्धि के लिये सूतकादिके निवारणके लिये लौकिक ग्लानिका त्याग करना चाहिये। इसीको स्पष्ट करते हुये विद्वज्जनबोधकमें कहा है कि " लोकव्यवहारमें ग्लानि नहीं उपजै तैसें प्रवर्तन करना, याहीत लोकमैं सूतकादिके त्याज्य दिन जे हैं तिनमैं स्वाध्याय पूजन नहीं करते हैं, सो भी धर्मका ही विनय निमित्त ग्लानिरूप दिनका त्याग है।" इससे भी स्पष्ट सिद्ध है कि मात्र ग्लानिका त्याग कर बंद की हुई स्वाध्यायादि धार्मिक क्रियाओंका प्रारम्भ कर देना ही लौकिक शुद्धि है। इसीसे सूतक-पातककी मशुचिता मिटकर ग्लानि मिट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] मरणभोज। जाती है। यहांपर सूतका दिके त्याज्य दिन जे हैं" कहकर कालशुद्धि पर ही भार दिया है। इसके लिये मरणभोज आदिकी मावश्यक्ता नहीं है । अन्यथा उसका उल्लेख भी यहां अवश्य किया . जाता। इससे भी सिद्ध है कि मरणभोनका न तो शास्त्रीय विधान है और न उसकी कोई भावश्यक्ता ही है। फिर भी जो मरणभोज करते हैं वे अज्ञान, अविवेक, हठ और मान बढाईके भूखे हैं यही समझना चाहिये। शङ्का समाधान । माणमोजके सम्बंधमें लोग जो विविध शंकायें किया करते : हैं वे प्रायः इसप्रकारकी हुआ करती हैं। उन्हें यहांपर लिखकर साथ ही उनका उत्तर भी दिया जाता है। (१) शंका-क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे जो वे अभीतक नुक्ता ( मरण भोज ) करते आये हैं ? हमें भी उनका अनुकरण करना चाहिये। समाधान-पहली बात तो यह है कि प्रथमानुयोग या अन्य इतिहाससे यह सिद्ध नहीं होता कि हमारे प्राचीन पूर्वज मरणभोज करते थे। किसी भी चक्रवर्ती राजा महाराजा या महापुरुषके मरणभोजका कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। कई विदेशी यात्री भारतमें भाये जिनने भारतके छोटेसे छोटे रीतिरिवाजोंका वर्णन किया है, किन्तु उनने भी कहीं मरणभोजका कोई उल्लेख नहीं किया। · इमसे सिद्ध है कि हमारे प्राचीन पूर्वज मरणभोज नहीं करते थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सका समाधान। __ हां, अर्वाचीन लोगों में इसका रिवाज अवश्य चल पड़ा है। किन्तु हमारा उसी समयसे पतन भी खूब हुमा है। मरणभोज आदि कुरीतियों के कारण सारा देश नष्टभृष्ट होगया है। इसलिये यदि हमारे - पहले के लोगोंने ऐसी मूढताका प्रारम किया था तो क्या हमें भी उसका अनुकरण करना आवश्यक है ? हमें कुछ विवेकसे भी तो काम लेना चाहिये। क्या जिसके पूर्वज चोरी करते थे उसे भी चोरीका अनुकरण करना चाहिये ? जिसके पूर्वज हत्या, व्यभिचार, अनाचार आदि दुष्कृत्य करते थे क्या उसको भी यही दुष्कृत्य करना चाहिये ? यदि पेटायूँ क्रियाकाण्डियोंने पूर्वजों को धोखेमें डालकर मरणमोनकी प्रथा च लू करादी और उनने इसीमें मृतात्माकी मुक्ति मानकर उसे प्रारंम भी करदी तो क्या आज इसका इतना मयंकर परिणाम देखते हुये भी हमें यही करना चाहिये ? - अज्ञान एवं परिस्थिति के वशीभूत होकर पूर्वजोने तो बालवि बाहकी प्रथा भी चालू करदी थी और वे दुधमुंहे बालकबालिकाओं के विवाह करते थे, तो क्या हमें भी उनका अनुकरण करना चाहिये ? निनके पूर्वज पशुयज्ञ करते थे, विधानों को अनिचितामें जलाकर सती बनाते थे, काशी करवतार जाकर आत्महत्या करते थे. यदि. उनकी संतान अपने पूर्वजों की दुहाई दे और कहे कि क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे, तो क्या यह कृत्य भाज भी उचित माने जायंगे ? यदि नहीं तो मात्र मरणभोजके लिये ही क्यों पूर्वजोंकी दुहाई दीजाती है ? पूर्वजों के सभी कार्य अनुकरणीय नहीं होते, किन्तु उनमें यथार्थता और अयथार्थताका विचार करना चाहिये तथा हिताहित भी सोचना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज। (२) शंका-सम्बन्धीकी मृत्युमे जो शोक होता है उसे भुलानेके लिये नुक्ता (मरणभोज) करना आवश्यक है। मरणभोज करनेसे पंच लोग तथा जातिके स्त्री पुरुष अपने घर माते हैं और सान्त्वना देकर दुःख हलका करते हैं, इसलिये मरणभोज करना मावश्यक है। समाधान-यह भी अज्ञानतापूर्ण दलील है। सम्बन्धीके मरनेपर यदि मरणभोज करनेसे ही लोग सान्त्वना देने भाते हैं अन्यथा नहीं आयेंगे तो ऐसी भाडूती सान्त्वना प्राप्त करने की आकांक्षा रखना भयंकर भूल है। जो लोग मरणभोजके लोभसे तो सान्त्वना देने आवें और उसके विना नहीं आवें ऐसे नीच पुरुषोंका तो मुंह देखना भी पाप है। दूसरी बात यह है कि मरणभोज करनेसे यह उद्देश्य भी तो नहीं साता । कारण कि मरणभोजके दिन तो घरके स्त्री पुरुष और भी रुदन करते हैं तथा मरणभोजके बाद भी महीनोंतक दुखी बने रहते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जिन गरीब घरोंसे या अनाथ विधामोंसे शक्ति न होनेपर भी मरणमोन कराया जाता है और वे बिरादरीके भयसे अपना मकान तथा गहनेतक बेचकर मरणमोज करती हैं उनकी सान्त्वना तो क्या होती है, उल्टी जिन्दगी ही बिगड़ जाती है। वे जीवनभरके लिये दुखी होजाती हैं। इसलिये मरणभोजसे सान्त्वना मिलनेकी दलीक व्यर्थ है। हम देखते हैं कि जिनके यहां मरणभोज नहीं होता या जहां चालीस वर्षसे नीचेका मरणभोन करनेका प्रतिबन्ध है वहां भी तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घका समाधान। [१५ दुःखशान्ति होती ही है और उनके यहां भी लोग समवेदना बतानेके लिये भाते ही हैं । इसलिये भी मरणभोज करना व्यर्थ सिद्ध होता है। (३) शंका-मृत व्यक्ति के बाद पंचोंको भोजन करानेसे मृतात्माको शान्ति मिलती है और समदत्ति (दान) का भी अवसर मिलता है। समाधान-जैन सिद्धान्तानुसार मृतव्यक्ति के बाद भोजन कराने या न करानेसे मृतात्माका कोई संबंध नहीं रहता। वह जीव तो एक दो या तीन समयमें ही परमवमें पहुंच जाता है। इसलिये मरणभोजसे मृतात्माकी शान्ति मानना महामूढ़ता या घोर मिथ्यात्व है। रही समदत्तिकी बात, सो यह भी मज्ञानकी द्योतक है। इस विषयमें मैं आगे 'समात्तिपारण' में लिखूगा। (४) शंका-हम अभीतक दूपरोंके यहां मरणभोजमें जाकर बड्डू खाते रहे हैं तो अब अपने यहां मौका मानेपर विना बदला चुकाये कैसे बन्द करदें ? समाधान-इस शंकामें अंधानुकरण और कायरता है। यदि अभीतक हम अपनी मूर्खतासे इस अमानुषिक कृत्यमें भाग लेते रहे हैं तो क्या आवश्यक्ता है कि मात्र बदला चुकानेकी गरजसे इस मूर्खताकी परम्पराको चालू रखा जाय ? जबकि अब मरणभोजकी घातकता मालूम होचुकी है तब उसे तत्काल छोड़ देना चाहिये और उसका प्रारंभ अपने घरसे ही करना चाहिये। यदि इस शंकामें कोई दम है तो फिर किसीसे कोई भी व्य. सन नहीं छुड़ाया जासकता। क्योंकि व्यसनी भी तो यही शंका कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] मरण मोज । सकता है। वर्तमान में जिन प्रान्तोंमें शराबका पीना कानूनन बन्द हुआ और होरहा है बहांके पियक्कड़ लोग भी तो यह कह सकते हैं कि अभीतक हम दूसरों की बहुतसी दावतोंमें जाकर शराब पीते रहे हैं, अब हम अपने यहां अवसर मानेपर कैसे बंद करदें ? तब क्या कोई भी विवेकी इसी दलीलपर शराब पीना चालू रखना उचित मानेगा? यदि नहीं तो यह दलील मात्र मरणभोजपर कैसे लागू होसकती है ? दूसरी बात यह है कि जब धीरे धीरे मरणभोजकी प्रथा उठ जायगी तब यह प्रश्न स्वयमेव हक होजायगा । प्रारंभ में सहनशक्ति, साहस और भटलता चाहिये । यदि कोई अभीतक दूसरोंके मरणभोजमें शामिल होता रहा है तो अब अपनी मूढताको स्वीकार कर सबके सामने स्पष्ट कह देना चाहिये और भविष्य में अपनेको मरणभोज में शामिल न होने की घोषणा कर देनी चाहिये । (५) शंका - मृत व्यक्तिकी यह अंतिम इच्छा थी कि उसके बाद उसका मरणभोज अवश्य ही किया जाय। इसके लिये वह कुछ रुपया भी निकालकर रख गया है। तो क्या हम उसकी मांखें बन्द होनेपर उसकी इच्छा को कुचल डालें और उसके द्रोही बनें ? समाधान- मृत व्यक्तिकी अयोग्य इच्छाकी भी पूर्ति करना उचित नहीं है । हां, उसके संकल्पित द्रव्यका सदुपयोग किया जा सकता है। उस द्रव्यको धर्मप्रचार, समाजसुधार और ऐसे ही हितकारी कार्यों में लगाइये जिससे मृत व्यक्तिका नाम चिरस्थायी रह सके । एक दिनके भोजन कर देने से किसका कल्याण होनेवाला : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्का समाधान। है ? और फिर मरणभोनके भयंकर परिणामको देखते हुये मृत व्यक्तिकी मज्ञानमयी इच्छाकी पूर्ति क्योंकर करनी चाहिये ? विवेक मी तो कोई वस्तु है। प्रत्येक कार्य में उसका उपयोग करना चाहिये । (६) शंका-मरणभोजके समय भग्ने नगर और बाहरके भी लोग आकर एकत्रित होते हैं, उनसे दुःख हकका होता है और परिचय तथा सहानुभूति भी बढ़ती है। समाधान-परिचय और सहानुभूतिके तो और भी अनेक भवसर तथा साधन मिल सकते हैं तब इस राक्षसी रूढ़ि के नामार क्यों ऐसी आशा रक्खी जाती है ? रही लोगोंके एकत्रित होनेकी बात, सो जिसे सच्ची सहानुभूति होगी वह मरणभोज न होनेपर भी दुःखके अवसरपर आ जायगा और सच्ची समवेदना प्रगट करेगा। किन्तु जो लड्डुमोंके निमित्त से ही दौड़े आते हैं, उन स्वार्थी लोगोंकी बनावटी सहानुभूतिसे भी क्या लाभ ? उनकी सहानुभूति दुखियासे नहीं किन्तु लड्डुओंसे होती है । अन्यथा क्या कोई बतायगा कि कभी मरणभोज-भोजियों ने उस विचारी विधवांसे पूछा भी है कि तूने मरणभोजका प्रबन्ध कहांसे किया ? गहने और मकान बेचकर अब क्या करेगी ? तेग और तेरे बच्चों का पालन कैसे होगा ? जब मावश्यक्ता पड़े इमरी मदद करेंगे । इत्यादि । भा, जो लोग रक्तके लड्डू खाते हैं उनमें इतनी मानवता माये भी कहांसे ? वे तो उल्टे उस विश्वाके मानको कुर्क कराने, विस्वाने और उसे मिटाने में शामिल हो जाते हैं। (७) शंका-जिनके पास धन है वह माणभो न करें, और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] मरणमोज। जिनके पास नहीं है उनसे जबर्दस्ती कौन करता है ? गरीब लोग मात्र अपने कुटुम्बीजनोंको या पांच पंचोंको जिमा दें तो क्रिया हो जाती है। यह तो अपनी अपनी शक्तिके मुताबिक करना चाहिये। इसमें क्या हर्ज है ? समाधान-ऐसी दलीलें कट्टर स्थितिपालक पण्डितोंके मुंहसे भी सुनी जाती हैं। कितने ही मुखिया पंच लोग भी ऐसा ही कहते सुने गये हैं। किन्तु यह मात्र शब्दछल है। कारण कि किसी भी रूपमें ऐच्छिक या अनैच्छिक मरणभोजकी प्रथा चालू रहनेसे यह भयंकर अत्याचार नहीं मिट सक्ता । शक्ति अशक्ति तथा इच्छा मनिच्छाकी बातें करनेवाले लोग उस मृत व्यक्ति के कुटुम्बको इतना शर्मिन्दा भौर विवश बना देते हैं कि गरीबसे गरीब लोगोंको भी मरणभोज करना ही पड़ता है। जो मरणभोज नहीं करता उसे बद. नाम किया जाता है, उसके भागे पीछे बुगहयाँ की जाती हैं, विविध करानायें की जाती हैं, असहयोगकी धमकी दी जाती है, बहिष्कारका भय दिखाया जाता है, विवाह-शः दियोमें अड़चनें पैदा की जाती हैं और इस तरह मज़बूर कर दिया जाता है कि घरमें कलके लिये खानेको न होनेपर भी मरणभोज करना पड़ता है। कहीं कहीं तो ऐसा भी रिवाज़ है कि जब मरणभोज करनेबालेको भारी व्याज देने पर भी उधर रुपया नहीं मिलता तब पंच लोग उससे दण्डस्वरूप चिट्ठी लिखवा लेते हैं । जिसका अर्थ यह है कि गांवके लोग तुम्हारी शादी आदिमें वेवल इसी शर्त पर शामिल होंगे जब कि तुम माने फार चढ़े हुये मौसरका व्याज प्रतिमास ५) के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बका समाधान। हिसाबसे पंचोंकी पूंजीमें जमा कराते रहोगे। ऐसा मनिवार्य मरणभोजका कानून कई गांवोंमें पाया जाता है। तब फिर गरीबोंकी मर्जी पर छोड़नेकी बात तो सर्वथा असत्य और छलपूर्ण है। (८) शङ्का-यदि मरणभोज नहीं किया गया तो जेनेतर समाज हमसे घृणा करेगी और हमें नीच मानेगी। समाधान-यह भय भी व्यर्थ है। और संभवतः इसी भयको लेकर ही जैन समाजमें मरणभोजका पारम्भ हुभा हो। किन्तु यह प्रबल मान्दोकनके साथ बंद किया जासकता है। और सर्वत्र ही मरणमोजके बन्द होनेपर तथा जेनेतर जनताको यह मालूम होजाने पर कि मरणभोज जैनधर्मके विरुद्ध है-कोई भी विरोध नहीं करेगा। जैन लोग हिन्दुओं के देवी देवताओंको नहीं पूजते, उनकी तरह श्राद्धादिक नहीं करते और उनके आचार विचारसे जैनोंका आचार विचार भिन्न ही रहता है। ऐसी स्थितिमें जैनेतर लोग जैनोंसे किसी प्रकारकी घृणा नहीं करते । इस प्रकार जैन समाजमें सार्वत्रिक मरणभोज बन्द होजानेपर कोई किसी प्रकारकी घृणा नहीं करेगा। अभी भी जो लोग मरणमोज नहीं करते या जिन आमोंमें ४० वर्षसे कम मायुवालोंका मरणभोज पंचायतने बन्द कर दिया है वहांपर जैनेतर जनता जैनोंसे घृणा नहीं करती। कारण कि वह जानती है कि इनकी समाजको यह कार्य मंजूर नहीं है और यह इनके धर्मके खिलाफ है। तब घृणादिका कोई प्रश्न ही नहीं रहेगा। दूसरी बात यह है कि किसीके भयसे हमें धर्मविरुद्ध और बुरे कार्य नहीं करना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. मरणमोज । (९) शंका-जब कि मरणभोजकी प्रथा उठा दी जायगी तो फिर मरणशुद्धि-सूतक मादिकी भी क्या जरूरत है ! उसका कमन भी तो शास्त्रोंमें नहीं है। समाधान-मरणभोजसे शुद्धिका कोई संबन्ध नहीं है। मरण शुद्धिकी आवश्यक्ता तो प्रत्येक बुद्धिमानके ध्यानमें मा सक्ती है। कारण कि मरणके कारण स्वाभाविक मशुचिता हो ही जाती है। पं० दौलतरामजीके क्रियाकोषमें भी शुद्धिका विधान है। और बदि नहीं भी होता तो भी बुद्धि इतना स्वीकार किये बिना नहीं रहती कि मरणशुद्धि करना-नहाना घोना मादि आवश्यक है। किन्तु मरणभोनका इस शुद्धिके साथ गठजोड़ा कर देना उचित नहीं है। (१०) शंका-तेरहवें दिन मरणभोज करके शुद्धि होती है और तभी गृहस्थ पूजा तथा दानादि देनेका अधिकारी होता है। मरणभोनके बिना उसमें पूजा दानादिकी पात्रता कैसे आसक्ती है ? समाधान-तेरहवें दिन शुद्धि होना तो कालशुद्धि कहलाती है। मरणभोजमें शुद्धि करनेकी शक्ति नहीं है। यदि मरणभोज. करनेसे ही शुद्धि होती है तो इसका स्पष्ट अर्थ यही हुमा कि मरणभोजमें जो लोग जीमनेको आते हैं वे अशुद्धिमें जीमते हैं और उनके जीम लेनेपर शुद्धि होती है । तब तो पंच लोग अशुद्धिमें जीमनेके कारण पापके भागी होंगे। यदि कोई यों कहे कि शुद्धि तो तेरहवें दिन हो ही जाती है उसके बाद मरणभोज होता है। तो इसका अर्थ यह हुमा कि शुद्धि करनेमें मरणभोज कारण नहीं है, कारण कि वह शुद्धि होने के बाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्का समाधान । होता है। ऐसी स्थितिमें (तेरहवें दिन स्वयमेव शुद्धि होजानेपर ) यदि कोई मरणभोज न करे तो क्या वह अशुचिता पुनः लौटकर उसके घरमें घुस मायगी ? तनिक बुद्धिसे भी तो विचार करना चाहिये । दूसरी बात यह है कि कहीं कहींपर १०-११-१२ में दिन भी मरणभोज किया जाता है। तो क्या मरणभोजमें ऐसी शक्ति है कि वह जब भी किया जाय तभी अशुचि दूर भाग माती है ? कई जगह तो ऐसा भी देखा गया है कि एक घरमें कक मरणभोज है, सब रसोई तैयार होगई, और भाज रात्रिको उसी घरमें किसी दूसरे आदमीकी मृत्यु होजाती है। फिर भी उसे फूंक कर दूसरे दिन ही मरणभोज किया जाता है और शुद्धिके ठेकेदार दयाहीन जैनी वहां जीमने चले जाते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या वहाँ पर अशुचिता नहीं लगती ? क्या अपवित्रतामें ऐसा विभाग हो सकता है कि यह तो अमुक भादमीके मरणकी अपवित्रता थी जो दूर होगई, और अब दूसरेकी प्रारम्भ होती है जो हमारे लड्डुओं पर असर नहीं कर सकती ? इसे स्वार्थ, गृद्धपन या लड्डूभक्तिके सिवाय और क्या कहें ? पाठक मागेके प्रकरणोंमें ऐसी घटनाभोंको देखेंगे। एक बात और भी है कि कई जगह तेरहवें दिन, कई जगह महीने दो महीने, वर्ष दो वर्ष या बारह वर्ष बीत जानेपर भी मरणमोज किया जाता है। ऐसे कई उदाहरण मेरे पास मौजूद हैं मौर समाज भी जानती है । तब क्या उन लोगोंको इतनी लम्बी अवधितक अशुद्ध ही माना जाता है ? नहीं, वे मरणभोज न करनेपर मी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] मरणभोज । तेरहवें दिन स्वयमेव शुद्ध होजाते हैं और दानपूजादि सत्कर्म करने लगते हैं । जहां पर मरणभोजकी कतई बंदी कर दी गई है या जहां ४०४५ वर्ष के पूर्वका मरणभोज नहीं होता वहां भी तो तेरहवें दिन ( मरणभोजन करनेपर भी ) स्वयमेव शुद्धि होजाती है और वह दान पूजादिका अधिकारी होजाता है। वर्तमान में भी ऐसे घरोंमें मुनिराज आहार लेते हैं और वे लोग पूजादि करते हैं। तात्पर्य यह है कि यह कालशुद्धि है जो तेरहवें दिन स्वयमेव होजाती है। इसमें मरणभोन कार्यकारी नहीं है । शास्त्रों में भी कालशुद्धिपर ही जोर दिया है और लिखा है कि : 1 ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा दिनैः शुद्धयन्ति पंचभिः । दश द्वादशभि: पक्षाद्यथासंख्यप्रयोगतः ॥ १५३ ॥ - प्रायश्चित्तसंग्रह चूलिका । अर्थात् ब्राह्मण शक्षिय वैश्य और शूद्र अपने किसी स्वजनके मरजाने पर क्रमसे पांच दिन, दश दिन, बारह दिन और पंद्रह दिन बीत जानेसे शुद्ध होते हैं । ( टीकाकार पं० पन्नालालजी सोनी ) इससे बिलकुल स्पष्ट है कि वैश्य लोग १२ दिन बीत जानेसे स्वयमेव शुद्ध होजाते हैं । मरणभोज आदिकी मिथ्यारूढ़ि तो डोंगी लड्डू लोलुपियों द्वारा चलाई गई है और ऐसे लोग ही इसकी पुष्टि करते रहते हैं । यहां तो मात्र १० शंकायें उठाकर ही उनका यथायोग्य समाबान किया गया है। किन्तु और भी जो भाई इस सम्बन्धमें किसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समदत्ति और लान। [२३: तरहकी शंका करेंगे उनका मैं यथाशक्य समाधान करने के लिये तैयार हूं। मैं देखता हूं कि समाजमें मरणमोजके विषयमें प्रायः ऐसी या इस प्रकारकी ही शंकायें बहुधा की जाती हैं जिनका उल्लेख और समाधान किया जाचुका है। आशा है कि इनसे मरणभोज भोजियोंका कुछ समाधान अवश्य होगा । समदत्ति और लान। जैन समाजके लिये यह दुर्भाग्यकी बात है कि उसके पीछे भनेक विनाशक रूढ़ियाँ लगी हुई हैं। जिस 'मरणभोजके विषयमें मैं अभी लिख भाया हूँ उतने मात्र हीसे समानका छुटकारा नहीं होने पाता; किन्तु कई प्रांतोंमें मरणोपलक्षमें लान भी बांटी जाती है। और इसका अधिकतर रिवाज़ खण्डेलवाल जैनोंमें है। दूसरी कई जैन जातियोंमें भी इसका रिवाज़ है। इस रिवाजने भी जैन समाजकी खूब दुर्दशा की है । इसार भी दुःख तो इस बातका है कि इसे हमारे कुछ मरणभोजिया पण्डित धर्मका अङ्ग और समदत्तिका रूप बताते हैं, जिससे भोली जनता उसे नहीं छोड़ सकती। हमारे कई पाठक संभवतः लान' को नहीं जानते होंगे। जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसके उपलक्ष्य में कई स्थानोंपर वर्तन मादि बांटनेका रिवाज है। उसे लान (लाण या लानी-लाणी) कहते हैं । इस मिथ्या वाहवाहीमें हजारों रुपया बर्बाद किये जाते हैं। गरीबोंको भी देखादेखी यह कार्य करना पड़ता है और वे ऐसा करके सदाके लिये मिट जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] मरणमोज । कुछ त्रिवर्णाचारी पण्डित जैसे मरणभोजको आवश्यक क्रिया बताते हैं वैसे लानको भी धर्मका आवश्यक अंग और समदत्ति कहते हैं। इस प्रकार आर्षाज्ञाका विचार न करके केवल रूढिको ही धर्म मान लेना कितना भयंकर अज्ञान है ! ब्राह्मणों और कुछ भोजनभट्ट भट्टारकोंकी कसे जैन समाजमें मरणभोज ही नहीं; किन्तु श्राद्ध, तर्पण, गौदान, पीपल पूना, पिण्डदान और ऐसी ही अनेक मिथ्या मान्यतायें घुस गई हैं । और वे सब त्रिवर्णाचारादि रचकर धर्माज्ञाके रूपमें सामने रखीगई हैं। उन्हींमें से मरणभोज और मरणोपक्षमें लान बांटना भी है । लेकिन सचमुचमें लान या मरणभोज श्राद्धका रूपान्तर है जोकि जैनशास्त्रानुसार मिथ्यात्व माना गया है। मैं मरणभोज और लानको श्राद्धका रूपान्तर इसलिये कह रहा हू कि वह मृत व्यक्तिके उद्देश्यसे दिया जाता है जो कि मरणमोजिया पण्डितोंके कथनानुसार समदत्ति-दान कहा जाता है। ऐसे दानका निषेध पं० भाशाधर जीने सागारधर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ५३की टीकाम किया है। उनने लिखा है कि " श्राद्ध मृतपित्राद्युद्देशेन दानम् ।" अर्थात्-मृत पितादिके उद्देश्यसे दान करना श्राद्ध है और वह " न दद्यात्" नहीं देना चाहिये। उनने ऐसे श्राद्धको (सुदृग्दुहि श्राद्धादौ) सम्यक्तका घातक बताया है। इसलिये लानके नामपर बर्तन बांटना या समदत्तिके नामपर मरणभोज देना एक प्रकारका श्राद्ध है और सम्यक्तका घातक होनेसे त्याज्य है। यहां पर कोई यह कह सकता है कि जब मरणोपलक्षमें वर्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ समदत्ति और छान । नादिका दान (लान ) देना मिध्यात्व है तब आपने अपने स्व ० वितरण की ? इसका समाधान होजाता है । लान (बर्तन) पिताजी के नामपर यह पुस्तक क्यों तनिक ही विवेकपूर्वक विचार करने से बांटना एक प्रकारका परिग्रह देना है । किन्तु पुस्तकादि परिग्रह नहीं है। परिग्रहपूर्ण दान देनेका जैनाचार्योंने निषेध किया है । यथा:जीवा येन निहन्यन्ते येन पात्रं विनश्यति । रागो विवर्द्धते येन यस्मात् संपद्यते भयम् ॥ ९-४४ ॥ आरम्मा येन जन्यते दुःखितं यच्च जायते । धर्मकामैर्न तयं कदाचन निगद्यते ॥ ९-४५॥ - अमितगति श्रावकाचार । - अर्थात् जिससे जीवोंका घात हो, पात्रका विनाश हो, राग चढ़े, भय उत्पन्न हो, आरम्भ हो, दुखी हो वह वस्तु धर्मवांछक पुरुषों द्वारा नहीं दी जानी चाहिये । यहां पर परिग्रहकारी द्रव्य वर्तन आदि देनेका निषेध किया है। किन्तु पुस्तकों-ग्रंथोंका वितरण करना न तो आरम्भ परिग्रहकारी है और न वह अनर्थकारी - दुखदायी है। ग्रंथोंको तो अपरिग्रही मुनिराज भी ग्रहण करते हैं । इसलिये यदि किसीको मृत व्यक्तिके स्मरणार्थ द्रव्य व्यय करना है तो वह " शास्त्रदान कर सकता है। किन्तु समदत्ति' की ओटमें 'लान' नहीं बांट सकता । वह तो सरासर मिथ्यात्व है । शास्त्रदानको 'लान' नहीं कह सकते, क्योंकि वह तो स्वतंत्र शास्त्रदान है जो चार दानोंमें से एक है। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में " द्रव्यदानं न दातव्यं सुपुण्याय नरैः कचित् " कह कर द्रव्य दानका निषेध किया है, किन्तु शास्त्र दानका कहीं भी निषेध नहीं किया गया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 6 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] मरणभोज । जैन समाजका यह दुर्भाग्य है कि कुछ दुराग्रही लोगोंकी कृपासे यहां मरणभोज तथा लान आदिका दौरदौरा है और उसे समदत्ति दान कहकर धार्मिकताका चोला पहनाया जाता है । किन्तु उन्हें इसका विचार ही नहीं कि वह धार्मिकता किस कामकी जिससे सैकड़ों घर बर्बाद होजांय और लोग जीवनभर चिन्ताकी चितामें जलते रहें । सहृदयता से विचारिये कि मरणमोज और लान समदत्ति है या जीवनदत्ति ? कुछ लोग मरणभोज और कानको " पात्रदति " भी कहते हैं । किन्तु यह भी सरासर मूर्खता है । कारण कि शास्त्रोंमें पात्र - दान करना पुण्य और सद्भाग्यका विषय बताया है । ऐसी स्थिति में यदि किसीका पुत्र या पति मर जावे तो क्या उसकी माता और पत्नीको पुण्योदय या सौभाग्यका विषय मानना चाहिये ? क्योंकि उसे पात्रदतिका पुण्यावसर मिला है ! यदि नहीं तो मरणभोज और लानको पात्रदत्ति कहनेवाले अपने दुराग्रहको क्यों नहीं छोड़ देते ? पात्रदचि तो वह है जिसमें दाता पात्र अपात्र कुपात्र की परीक्षा करे और सत्पात्रको ही दान दे ! किन्तु लान या मरणभोज में तो पात्रादिका कोई विचार नहीं होता। वह तो जैन और जैनेतर सभी व्यवहारी जनोंको दिया जाता है । इसलिये भी इसे पात्रदत्ति कहना भयंकर भूल है । दूसरी बात यह है कि लान और मरणभोजमें शामिल होनेवाले जैन कोई भिक्षुक तो हैं नहीं कि उन्हें दान दिया जाय । यह तो अदले बदलेका व्यवहार चला आरहा है। और जब यह आज समाज के लिये घातक सिद्ध होरहा है तो इसे सहर्ष छोड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज निषेधक कानून । [२७ मरणभोज निषेधक कानून । यदि समाज इस मयंकर प्रथाका स्वेच्छासे त्याग नहीं करेगी तो वह समय दूर नहीं है जब उसे यह प्रथा कानूनन छोड़ना पड़ेगी। विचारी गरीब और विधवाओंको शक्ति न होने पर भी देखादेखी, नाक रखने के लिये, पंचोंके भयसे अपने पति और पुत्रोंका मरणमोज करना पड़ता है तथा ' लान' में हजारों रुपया बर्वाद कर देना पड़ते हैं। यदि समाजका यह पाप जल्दी दूर नहीं हुमा तो इसके लिये जल्दीसे जल्दी कानून बनाया जाना भावश्यक है। समाज-हितैषियों को इस भोर शीघ्र ही विचार करना चाहिये । यहां कोई यह कह सकता है कि हमारे सामाजिक एवं व्यक्ति. गत कार्यो में कानूनी दखलकी कोई मावश्यक्ता नहीं है। किन्तु यह तो मात्र मनोकलाना है । जब जनता ऐसी रूढ़ियोंमें फंसी रहती है जिनसे उसका विनाश होता रहता है तब उनसे छुटकारा दिलानेके लिये कानूनकी मावश्यक्ता होती है। शारदा एक्ट हमारे सामने है। अपने लड़के लड़कीका विवाह कब कहां और किस आयुमें करना यह माता पिताका व्यक्तिगत कार्य है। किन्तु जब समाजने मूढ़तावश छोटे छोटे बच्चोंका भी विवाह रचाना शुरू कर दिया मौर वह अनेक सामाजिक भान्दोलन होनेपर भी नहीं रुका तब समाजके सामूहिक हितकी दृष्टिसे शारदा कानून बना । इसी प्रकार यदि समाजने मरणभोजकी घातक प्रथाको नहीं छोड़ा तो यह निश्चित है कि उसे रोकने के लिये कानून बनाया जायगा। हर्षका विषय है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] मरणभोज। कि कुछ देशी राज्यों का ध्यान इस ओर गया है और उनने इस प्रकार कानून बनाये हैं। (१) ग्वालियर स्टेट-मैंने तारीख २७ जून सन् १९३६ के ग्वालियर गज़टमें प्राट हुआ 'मुसविदा कानून नुक्ता' देखा था। वह किस रूपमें पाप्त हुआ सो तो मुझे मालूम नहीं, किन्तु उसका सारांश यह है कि-" चूंकि वफातके बाद या उसके सिलसिले में जो कौमी खाने कदीमी रिवाज़की बिना पर दिये जाते हैं और फिजलखर्ची की जाती है उस पर जब्त कायम किया जाये ताकि आवामकी तरफसे फिजूलखर्चीकी रोक हो और उनकी आर्थिक हालत सुधरे । इस लिये हुक्म फरमाया जाता है कि-नुक्तामें वह खाना शामिल है जो मृत व्यक्तिके उद्देश्यसे ( मौसर, तेरहवीं, चालीसवां ) दिया जाता है। हां, जिन्हें इस विषयमें धार्मिक विश्वास है उसकी रक्षाके लिये इस कानूनमें अपने खानदानके मधिकसे अधिक ५१ भादमियोंको जीमनेकी छूट रहेगी। मरणोपलक्षमें लान ( वर्तन आदि ) वांटना भी कानूनके खिलाफ होगा। इस कानूनका पालन करनेपर यदि कोई पंचायत किसी प्रकारकी धमकी दे, दबाव डाले, बहिष्कार करे या दंड देगी तो वह अपराधी ठहराई जायगी। तथा जो व्यक्ति इस कानूनका भंग करेगा उसे ५००) जुर्माना और एक सप्ताह तककी सजा होगी। यदि ऐसा खिलाफ अमल कोई जाति या पंचायत करेगी तो उसका प्रत्येक मेम्बर अपराधी माना जायगा। किसी भी मनिष्ट्रटको इत्तला मिलनेपर कि कोई नुक्तादिकी तैयारी कर रहा है तो वह उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज निषेधक कानून | ऐसा न करनेको नोटिस देगा। फिर भी यदि कोई उसका उल्लंघन करेगा तो उसे १०००) जुर्माना और एक माह तक की सजा होगी। नुक्ता करनेवाले के विरुद्ध यदि कोई दावा दायर करे और उसमें अपराधी सजायाच हो तो मदालत उसके जुर्माने में से आधी रकम दावा करनेवालेको इनाम दे सकेगी और गलत साबित होने पर १००) तक दण्ड भी कर सकेगी।" W (२) होल्कर स्टेट - इन्दौर नुक्ता कानूनकी स्वीकृति होल्कर स्टेटके लिये महाराजा सा०ने १० जून सन् १९३१ को दी थी और ता० १५ जून ३१ से उसका अमल किया जारहा है। इस कानूनका सार यह है - " नुक्ता शब्दमें मोसर, चहल्लम, बरसी, छमासी मृत्यु संबन्धी रसोई, व इतर ऐसे भोजोंका समावेश होगा जो किसी मनुष्यकी मृत्युके उपलक्षमें किये जायं । कोई भी व्यक्ति अपने यहां किसी नुक्ते में १०१ से अधिक मनुष्योंको भोजन नहीं जिमा सकेगा। आर्थिक परिस्थितिकी चौकसी करके जिलाधीश ४०० व्यक्तियों तक के जिमाने की स्वीकृति दे सकेंगे । इस संख्या से अधिक किसी सूरत में भी नहीं जिमाये जा सकेंगे । इस संख्या में उन रिश्तेदारों का समावेश नहीं होगा जो मृतकके कुटुम्बियों के साथ समवेदना प्रगट करने के लिये आये हों । वशर्तें कि उन्हें नुक्तेका निमंत्रण भेजकर न बुलाया हो । कोई भी व्यक्ति किसी मृत्युके संबंध में लान या दीगर नामसे अपनी जातिमें बर्तन नहीं बांट सकेगा। किसीको यह अधिकार न होगा कि वह दूसरे किसी व्यक्तिको वज़रिये दबाव या घमकी यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] मरणमोज । नसीहतके या किसी दूसरे तरीके से नुक्ता करने या लान बांटने की उत्तेजना दे । जो इसके खिलाफ कार्य करेगा उसे ५०० ) तक जुर्माना या एक हफ्तेकी सजा या दोनों सजायें दी जावेंगी । इस कानून के खिलाफ कार्य होने की इत्तला यदि मजिस्ट्रेट के पास पहुंचे तो वह उसे रोकने के लिये नोटिस देगा । और यदि उसका पालन न किया गया तो १०००) जुर्माना या एक महीने की सजा या दोनों सजायें दी जा सकेंगी। कानूनके खिलाफ काम करनेवालेकी इतका अदालत में देनेवालेको जुर्माने की अघी रकम तक दी जा सकेगी । 19 इसी प्रकार अलवर और जोधपुर आदि स्टेटोंमें भी नुक्ता निषेवक कानून बनाये गये बनाये गये थे, किन्तु वे अधिक समय तक नहीं चले । कारण कि उनमें बहुत ढीक और छूट थी तथा उस ओर विशेष ध्यान भी नहीं दिया गया | ग्वालियर और होल्कर स्टेटके कानून यद्यपि बहुत ढीले हैं, फिर भी कुछ न कुछ तो प्रतिबंध रहेगा ही। मुझे जहांतक मालूम हुआ है इन्दौर में लोग मरणभोज न करके जलयात्रा, रथयात्रा, स्वामिवत्सल आदिके नामपर जिमाते हैं - इसलिये कानूनका ठीक अमल नहीं होने पाता । दूसरी बात यह है कि धार्मिक दृष्टिका विचार कर मरणभोज भोजियोंकी संख्या भी निश्चित की गई है, जो इन्दौर स्टेटमें तो बहुत ज्यादा है। फिर -भी इन कानूनोंसे जो जितना प्रतिबन्ध हो सके उतना ही ठीक है । इन कानूनोंमें सबसे अच्छी बात तो यह है कि किसीको भी 'कान' बांटने की छूट नहीं दी गई है। और मरणभोज विरोधी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज विरोधी मान्दोलन । 1 [ ३१ फरयाद करनेवालेको (मुकदमे में दण्ड होनेपर) इनाम देनेकी घोषणा की गई है। इसलिये युवकोंको साहसपूर्वक इन कानूनों का उपयोग करना चाहिये । यदि इसी प्रकार या इससे भी कड़ा कानून बृटिश भारतमें बन जाय तो देशका बहुत भला हो । मरणभोजके बोझ से भारतीय समाज मरी जा रही है। देश हितैषियोंका कर्तव्य है कि वे उसे शीघ्र ही बचा लें। जैन समाजमेंसे तो यह पाप सबसे पहले निकल जाना चाहिये । इसके लिये हमारी परिषद आदि संस्थाओं और जीवित युवक संघको प्रयत्न करना चाहिये । प्रयत्न और मान्दोलनका प्रभाव तत्कालन होकर भी धीरे धीरे तो अवश्य होता है । इसलिये हमें प्रयत्न करना चाहिये कि जनमत मरणभोजके विरुद्ध हो जाय । मरणभोज विरोधी आन्दोलन । जब तक समान किसी कार्यके हिताहितको नहीं जान पाती वहां तक उसे छोड़ नहीं सकती। इसलिये अन्य कुरूढ़ियोंकी भांति मरणभोजके विरूद्ध भी प्रबल आन्दोलन होने की आवश्यक्ता है । कुछ वर्षोंसे हमारी सामाजिक सभाओं और युवक संघों आदिका इस ओर ध्यान गया है । और उनने मरणभोज विरोधी प्रस्ताव करके या मरणभोजकी अमुक आयु निश्चित करके इस पापको कुछ हल्का किया है। जैन समाज में सबसे पुरानी सभा मा० दिगम्बर जैन महासभा है, किन्तु दुर्भाग्य की बात है, कि उसने मरणभोजके विरुद्ध कोई प्रयत्न नहीं किया । वह करती भी कैसे ? कारण कि नाथ मी उसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] परण मोज । कर्ता घर्ता मरणभोजको घधार्मिक, आवश्यक, समदत्ति, पात्रदत्ति मौर न जाने क्या क्या समझते हैं । किन्तु अन्य जातीय सभाओं, युवक संघों, पंचायतों तथा परिषद आदि द्वारा कभी कभी प्रयत्न होता रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप आज समाजके कुछ भागमें मरणभोज के प्रति घृणा उत्पन्न होगई है । परवार सभाका प्रयत्न दिगम्बर जैन समाजमें ' परवार सभा' यद्यपि जातीय सभा थी, किन्तु उसने मरणभोजके विरुद्ध खूब आन्दोलन किया था। सन् १९२५ में उसके पपौराक अष्टमाधिवेशन में श्री० सिंघई कुंवरसेनजी सिवनीने न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीके सभापतित्वमें एक प्रस्ताव उपस्थित किया था । प्रस्ताव रखते हुये आपने कहा कि :--- Cadastro परवार समाजमें जो मरण जीवन गरकी प्रथा है वह इस प्रकार है " जिसका अभिसंस्कार हो उसकी जीवनवार अवश्य हो ।" किंतु आजकल तीस वर्ष से कम उमरकी मृत्यु संख्या अधिक होती है और इनकी जीवनवारोंमें जो लोग भोजन करने जाते हैं उन्हें अपना कलेजा पत्थरका ६रना पड़ता है। घर में रोना पीटना होरहा है, जीमनेवाले दिनमें रोते हुए भोजन करते हैं । जीवनवारकी प्रथा कोई शास्त्रोक्त नहीं, इसके बन्द करनेमें धर्मका नाश नहीं। आज भी अनेक दिगम्बर जैन जातियोंमें जीवनवारकी प्रथा बन्द है । अपने यहां भी जिस बालकका मृतक संस्कार होता है उसकी जीवनवार नहीं होती। इन सब बातोंपर लक्ष्य करके यह 1 Shree:Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज विरोधी आन्दोलन। (३१ प्रस्ताव पास किया जावे कि-" ४० वर्षसे कम उमरकी मृत्यु होनेपर उसका जीवनवार बिलकुल न हो।" यद्यपि यह प्रस्ताव बहुत सीधा सादा था और इसमें ४० वर्षकी ही हद रखी गई थी, फिर भी कुछ लोगोंने उसमें ऐसे संशोधन पेश किये जो जैन समाजको कलंकित करनेवाले हैं। इनसे ज्ञात होजायगा कि जैन समाजमें मरणभोजका कितना जकन्य मोह है। उन संशोधनोंके कुछ नमूने इसप्रकार हैं १-कुछ कन्याओं को तो जिमाना ही चाहिये । २-जितने लोग भरथीके साथ स्मशान जावें उन्हें जिमाना चाहिये । ३-पन्द्रह वर्ष से अधिक आयुके मृत व्यक्तिका मरणभोज किया जाय। ४मविवाहितकी जीवनवार न करके विवाहितोंका मरणभोज किया जाय। ५-यह पुरानी प्रथा है, धर्मसे इसका सम्बन्ध है (?) इसलिये इसे नहीं तोड़ना चाहिये । ६-चालीस वर्ष अधिक होजाते हैं, इसलिये वीस वर्ष तककी ही आयु रखनी चाहिये । इत्यादि । जहां इसप्रकारके विचित्र संशोधन पेश किये गये थे वहां हमारे बुन्देलखण्डके अनेक विचारशीक श्रीमानोंने इन संशोधनोंका डटकर विरोध भी किया और निर्भीकतापूर्वक इसप्रकार अपने विचार प्रगट किये थे: (१) सिंघई कुँवरसेनजी सिवनी-धर्मशास्त्रों ने दिन केवल शुद्धिका रलेख है. उस हा जीवनवारसे कोई संबंस नहीं है । शुद्धि के लिये भोजन आवश्यक नहीं है। इसे धार्मिक कहकर मइंगा न लगाना चाहिये । इस रूढ़ि। चानू रहनेसे समाजशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] भरणभोज । -बड़ी हानि होरही है। कई जैन जातियोंने यह रूढ़ि बन्द भी कर दी है। इसलिये अपनी समानमें यह रूढ़ि बन्द करना नई बात नहीं है । इसका शीघ्र ही बन्द किया जाना जरूरी है। (२) बाबू कस्तूरचन्दजी वकील जबलपुर - यह समातेर की वर्तमान प्रवृत्तिको निन्दनीय समझकर घृणाकी दृष्टिसे देखती है, इसलिये बन्द की जावे । (३) सेठ पन्नालालजी टड़ैया ललितपुर - यह प्रथा - बहुत भद्दी है । एकवार हमारे यहां चौधरीजीके घर ऐसा मौका आ पड़ा था कि घरवाले शोकके मारे रो रहे थे, उधर भोजन करने, वालोंको सिर्फ अपनी ही चिन्ता थी । वास्तवमें यह प्रथा बहुत बुरी है । हमें उनकी बातों पर बहुत रंज होता है जो ताना मारमारकर भोजन खाते हैं । जो विपत्ति फंपा हुआ है उसके यहां भोजन करना ताना मारना है | यह सर्वथा अनुचित है 1 | (४) सेठ मूलचन्दजी बरुआसागर - सिर्फ कमीनों को खिलाना चाहिये । लोगों पर इस बातका अक्षेर न किया जावे कि इस रई नहीं दी । (५) पं० मौजीलालजी सागर- ये कैसे कठोर हृदय हैं जो कहते हैं कि दम वर्ष तकका मरणभोज न किया जाय । रे! यह तो इतनी भद्दी प्रथा है कि किसीका भी नुकता न करना चाहिये, चाहे गरीब हो या अमीर । सभीको एक तरहका व्यवहार करना चाहिये । (६) सेठ लालचन्दजी दमोह-हमारी जातिपें यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज विरोधी आंदोलन । [१५ एक रूढ़ि होगई है । इसे बन्द कर देना चाहिये । पंगत करनेकी कोई आवश्यक्ता नहीं है। (७) सेठ चन्द्रमानजी बमराना-मैं सिंघई कुंवरसेनजीके प्रस्तावका समर्थन करता हूं, अर्थात् यह नुक्तेकी प्रथा बन्द करदी जावे। (८) श्रीबेनीप्रसादजी-जो सेठजी साहबने कहा वही पास करना चाहिये। (९) बाबू गोकुलचन्दजी वकील-यह लड्डुओंकी बात है, जल्दी न छूटेगी, नहीं तो यह प्रथा इतनी भद्दी है कि विना प्रस्ताव पास किये ही छूट जाना चाहिये थी। एकवार हमारे यहां ( दमोहमें ) पंचोंने एक मनुष्यसे कहा कि तुम्हें चारों पुगकी पंगत देना पड़ेगी। किन्तु समय थोड़ा था, इसलिये रात रातभर तैयारी करना पड़ी। और बेसन पीसनेवाली स्त्रियां अपना समय काटनेके लिये रातभर मानन्दके गीत गाती थीं। जरा विचारनेकी बात है कि घरमें तो मातम है, किन्तु इस भोजके पीछे मानन्दके गीत गाये जाते हैं । यह लजित करनेवाली प्रथा है। बुन्देलखण्डके इन मुखिया श्रीमानोंके उद्गार पढ़कर किसे संतोष और हर्ष न होगा ? यदि सचमुच ही उक्त मुखिया लोग अपने बचनोंका पालन करते कराते तो कमसे कम बुन्देलखण्ड प्रान्तसे तो यह पाप कमीका उठ जाता । किन्तु बुन्देलखण्ड प्रान्तका यह दुर्भाग्य है कि वहीं मरणभोजकी अति भयंकर एवं दयनीय घटनायें होती रहती हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६.] सरणमोज । स्वानुभव | कहीं पर यदि मरणभोज के लिये मृत व्यक्तिकी अमुक मायुकी हृद बांधी गई है, फिर भी उसपर चलना तो कठिन ही है। कोई व्यक्ति मरणभोज न करना चाहे तो उसकी नगरमें चर्चा होती है, उसकी बुराई की जाती है और उसपर विविध रूपमें ऐसा दबाक डाला जाता है कि उसे मरणभोज बलात् करना ही पड़ता है । मेरे जीवन में ऐसे तीन अवसर आये हैं। एक तो नवम्बर स १९२८ में मेरी माताजीका स्वर्गवास होगया था । उस समय चारों . तरफसे दबाव डाला गया था । मैं उस समय विद्यार्थी था। लोगों की बातोंमें तथा कुटुंबियोंके दबावमें व्याकर माताजीका मरणभोज करना पड़ा। यदि सच पूछा जाय तो उस समय मुझे घरके कार्य करने घरनेका अधिकार ही क्या था ? इसलिये वह मेरे द्वारा। नहीं किया गया था, फिर भी मैं डटकर विरोध नहीं कर सका । फिर नवम्बर सन् ३१ में हमारे बड़े भाई श्री० बंशीधरजीका ३२ वर्षकी आयु में ही स्वर्गवास हुआ। उस समय भी कुछ लोगोंने मरणभोज के लिये मुझे दबाया, मगर मैं दृढ़ था ! कुछ सज्जन मुझे साहस और साथ देनेके लिये भी तैयार थे। मैं इससे पूर्व ही निश्चय कर चुका था कि न तो मैं मरणभोज करूंगा और न ऐसे पापकृत्य में सम्मिलित ही होऊँगा । इसलिये मैंने सबसे दृढ़तापूर्वक कह दिया कि यह मरणभोज कदापि नहीं होगा । तब इस सम्बंध में खूब चर्चा होती रही । विरोधी चर्चा होते देखकर मैंने मुखिया लोगों से मिलना शुरू www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोजविरोधी आंदोलन । [३७ किया । उनसे पूछा कि क्या आप लोग ऐसे मरणभोजके लिये भी तैयार हैं कि वृद्ध पिता जीवित है और युवक पुत्र मर गया है ? तब मुझसे सबने प्रत्यक्षमें तो इंकार कर दिया, लेकिन भीतर ही भीतर विरोधी चर्चा चलती रही। सबसे अधिक कठिनाई तो यह थी कि मेरे कुटुम्बीजन स्वयं मरणभोजके लिये आग्रह कर रहे थे। कारण कि उन्हें नाक रखनेकी पड़ी थी! किन्तु हमारे पिताजीके विचार मेरे साथ मिलते जुलते थे। वे वृद्ध होकर भी वर्तमान समाजसुधारको प्रायः पसंद करते थे। बस, फिर क्या था ? मेरा दिल दूना होगया और भाईका मरणभोज नहीं होने दिया। उधर ललितपुरकी विचारशील पंचायतने भी यह प्रस्ताव कर लिया कि ४० वर्षसे कम मायुवालेका मरणभोज न किया जाय । इस सभामें हमारे नगर (ललितपुर) के मुखिया स्व० सेठ पन्नालालजी टंडेयाने बड़ा ही प्रभावक भाषण दिया और साफ साफ कह दिया कि मरणभोजकी प्रथा धार्मिक नहीं है, किन्तु समानपर यह एक भारी बोझ है। अपने पूर्वजोंकी सभी बातोंका अनुकरण नहीं करना चाहिये । हमें कुछ विवेकसे भी तो काम लेना चाहिये। कमसे कम ४० वर्षके नीचेका मरणमोन नहीं किया जाय । और ४० वर्षसे ऊपर भी मृतव्यक्तिके कुटुम्बियोंकी इच्छापर रक्खा जाय । इसी विषयपर मनेक भाषण हुये थे और श्री० टडेयाजीके कथनानुसार प्रस्ताव सर्व सम्मतिसे पास होगया था। ___उस प्रस्तावका ललितपुरमें मधिकांश पालन हुमा, किन्तु . वर्षसे ऊपरकी मृत्युके भोन बन्द नहीं हुये। लेकिन जब गत वर्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] मरणभोज । अक्टूबर १९३६ को हमारे पिताजीका स्वर्गवास हुआ तब हमारे ऊपर कई लोगोंने दबाब डाला कि वृद्धपुरुषका तो मरणभोज करना ही चाहिये । किन्तु मैं युवा या वृद्ध के मरणभोजको ही नहीं, मरणभोन मात्रको अमानुषिक भोज मानता हूं । इसलिये मैंने तो सबसे साफ इंकार कर दिया । और मरणभोज नहीं होने दिया । दैवयोगसे ललितपुर में कुछ भाई मेरे अनुकूल भी थे और कुछ मध्यस्थ भी रहे। भाखिरकार मरणभोज नहीं हुआ और यह चर्चा गांवमें बहुत दिन तक चलती रही । 1 . कहने का तात्पर्य यह है कि जबतक खूब डटकर मरणभोज विरोधी प्रचार नहीं होगा तबतक यह मरणभोजकी प्रथा नहीं मिट सकती । मनुष्योंकी परम्परागत मावनाका मिट जाना सरल नहीं है । प्रस्ताव, प्रचार और अनेक उपाय होनेपर भी लोगोंकी रूढ़ि नहीं बदलने पाती । वे तत्काल प्रभावित भले हो जायं मगर समय आनेपर फिर जैसे तैसे होजाते हैं । जिसके घर मृत्यु होजाती है वह दृढ़तापूर्वक डटा रहे तथा चारों तरफ के विविध आक्रमणों एवं लोगोंकी टीका टिप्पणियोंको सहता रहे, यह सरल कार्य नहीं है। 1 हमारे पिताजीकी आयु करीब ६० वर्षकी थी, इसलिये कुछ लोग तो मुझसे अधिकारपूर्वक कहते थे कि तुम्हारे बापकी मृत्यु तो वृद्धावस्थामें हुई है और तुम दोनों भाई कमाते हो, फिर लोभ किस जातका ? कोई कहता था कि भाई ! तुम्हें ऐसी प्रथा पहले अपने घर से प्रारम्भ नहीं करनी चाहिये । कोई हितैषी के रूपमें कहता कि बड़े रूपमें नहीं तो साधारण तौरपर ही करदो । इतना ही नहीं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज विरोधी आदोलन । [३९ किन्तु कुटुम्बीजन तो मुझे खूब भला बुग कहते थे और कई तरहसे मुझे शर्मिदा करते थे। कुछ विवेकी सज्जन मुझे इस विरोधमें भी टिके रहने के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। तार्य यह है कि मैं स्वानुभवसे इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि यदि कोई व्यक्ति मरणभोज न करना चाहे तो उसे इस तरह शर्मिन्दा किया जाता है कि उसका टिका रहना अशक्य सा होजाता है । इसलिये मैं समझता हूं कि ४० या कम बढ़ वर्षकी कोई मर्यादा न रखकर मरणभोज मान बन्द कर दिया जाय, चाहे वह जवानका हो या बूढ़ेगा। जैनसमाजपर लदे हुये इस भयानक पापको जल्दीसे जल्दी मिटानेका प्रत्येक युवक और संस्थाओंका कार्य है। परिषदका प्रयत्न । हमारी तमाम जैन संस्थानों में से भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषदने मरणमोजके विरुद्ध सबसे अधिक भान्दोलन किया है। उसके भनेक उत्सवोंमें मरणभोज विरोधी प्रस्ताव होते रहे हैं। समानपर इस आन्दोलनका यत्किचित् प्रभाव भी पड़ा है। किन्तु सतनाके गत १३ वें अधिवेशनमें इस अमानुषिक प्रथाके विरुद्ध जो ममली कार्य हुमा था वह समाजके शुम भविष्यका सूचक है । मैंने दूसरे दिन ( ता० १२-४-३७ ) की बैठकमें इसप्रकार प्रस्ताव रखा था: "मरणमोनकी प्रथा जैनधर्म और जैनाचारके सर्वथा विरुद्ध तथा अनावश्यक एवं असभ्यताकी द्योतक है, इसलिये यह परिषद् पुनः प्रस्ताव करती है कि इस घातक प्रथाको शीघ्र बंद कर दिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] मरणभोज। जाय । और समाजसे अनुरोध करती है कि वह किसी भी भायुके स्त्री पुरुषका मरणभोज न करे और ऐसे घातक कार्यमें कतई भाग न ले। साथ ही मरणोपलक्ष माजी व लान न बांटे।" इस प्रस्तावके विवेचनमें मैंने अनेक करुणाजनक सच्ची घटनायें पेश की और इस अत्याचारपूर्ण प्रथाके विनाशके लिये जनतासे अपील की। घटनाओंको सुनकर श्रोताओंका हृदय कांप उठा। जिसका परिणाम यह हुआ कि करीब एक हजार स्त्री पुरुषोंने उसी समय मरणभोज त्यागकी प्रतिज्ञा करली। मेरे प्रस्तावके समर्थनमें श्री० चिरंजीलालजी मुंसिफ अलवर, सेठ पदमराजजी जैन रानीवाले कलकत्ता, पं० अर्जुनलालनी सेठी मादि अनेक विद्वान नेताओंने भाषण दिये थे। ___श्री. सेठ पदमराजजी जैन रानीवालोंने कहायह कितने दुःखकी बात है कि भाज इस युगमें भी जैमोंमें मरणभोजकी अमानुषी प्रथा प्रचलित है। माजमे १५ वर्ष पूर्व मैंने अपने मित्र समूह सहित इसपर खूब विचार किया और कार्यवाही की थी। किन्तु अभीतक यह प्रथा बन्द नहीं हुई ! समान सुधार छिपनेसे नहीं होगा। स्पष्ट कहिये कि हमारे समाज सुधारमें बाधक कौन हैं ? उत्तरमें कहना होगा कि वे पंच नामधारी पुतले ही बाधक हैं जिनके दुश्चरित्रों का नाम तक लेते नहीं बनता । हमें उनकी परवाह न करके साहसपूर्वक आगे बढ़ना चाहिये । और इन समानघातनी प्रथाओंका शीघ्र ही विनाश करना चाहिये। श्री. पं० अर्जुनलालजी सेठीने कहा:-अभी परमे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज विरोधी आंदोलन | [ ४१ श्रीदासने नरकका वर्णन ( मरणभोजकी करुणापूर्ण घटनायें) सुनाया है। पंचोंने यह नरक कहानी तैयार की है। इसलिये तुम इन नारकियोंमें शामिल मत होना और मरणभोजकी प्रथाका जल्दी ही मुंह काला करना । इसी प्रकार कई विद्वानोंने अपने उद्गार प्रगट किये। जिसका प्रभाव यह हुआ कि उसी समय करीब १०० अग्रगण्य स्त्री पुरुपौने तो स्टेजपर माकर विवेचन किया और प्रतिज्ञायें कीं कि अब हम मरणभोज में कतई भाग नहीं लेंगे। सेठ घरमदासजी और दयाचंदजी सतनाने घोषणा की कि हमारे सठना नगर में किसी भी जैनका मरणभोज नहीं होगा । सेठ धरमदासजीने अपनी माताका मरणभोज न करने की प्रतिज्ञा की और १५०) परिषदको दान दिये । अनेक नगरोंके वृद्ध तथा युवकोंने प्रतिज्ञायें कीं कि हमारे यहां अब मरणभोज नहीं होगा। करीब १००० स्त्री पुरुषोंने मरणभोज विरोधी प्रतिज्ञापत्रोंपर अपने दस्तखत किये, जो इसप्रकार है: 1 " मुझे विश्वास होगया है कि मरणमोजकी प्रथा जैन धर्म और जैनाचार के सर्वथा विरुद्ध तथा अनावश्यक एवं असभ्यताकी द्योतक है । इसलिये मैं प्रतिज्ञा करता (ती) हूं कि अब मैं कभी किसी भी आयु वालों (स्त्री या पुरुष) के मरणभोज में भाग नहीं लूंगा (गी) और मेरा सर्वदा यह प्रयत्न रहेगा कि हमारे यहांकी पंचायत से भी मरणभोज बन्द कर दिया जाय तथा इस घृणित प्रथाका सर्वथा नाश होजाय । " परिषद के बाद भी यह "प्रतिज्ञापत्र" हजारोंकी संख्या में भरे www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] मरणभोज । गये हैं। भाज भी लोग उन्हें मंगाकर भरकर भेजते हैं। अभी भी .. जो व्यक्ति, युवकसंघ या संस्थायें यह कार्य कर सकें वे काला . तनसुखरायजी जैन मंत्री दि० जैन परिषद-देहली " से यह फार्म मंगालें या स्वयं अपने हाथोंसे लिखकर उनपर लोगोंके दस्तखत करावें । प्रयत्न करने पर इस डायनी प्रथाका अवश्य ही विनाश हो जायगा। पुरुषोंकी भांति विवेकशील स्त्रियां भी इस भयंकर प्रथाका नाश चाहती हैं । सतना परिषदके समय श्रीमती लेखवतीजी जैनकी अध्यक्षतामें 'महिला सम्मेलन' भी हुआ था। उसमें करीक १००० बहिनें उपस्थित थीं। उसमें भी मैंने करीब १५ मिनिट मरणभोज विरोधी भाषण दिया था। जिसके फलस्वरूप सभी बहिनोंने मरणभोजमें सम्मिलित न होनेकी प्रतिज्ञा की थी। उस समय श्रीमती लेखवतीजीने बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें कहाः “पण्डितजी तो मापसे मरणभोजमें भाग न लेनेकी बात कहते हैं, किन्तु मैंतो कहती हूं कि जहां मरणभोन होता हो वहां भाप सत्याग्रह करें, दर्वाजे पर लेट जावें और किसीको भी भीतर न जाने दें। फिर भी जिन निष्ठुर पुरुषोंको मरणभोजमें जाना होगा वे भले ही तुम्हारी छाती पर लात रखकर चले जावें । हमें इस निर्दयतापूर्ण प्रथाका शीघ्र ही विनाश कर देना चाहिये।" इस भाषणका स्त्री पुरुषों पर काफी प्रभाव पड़ा। यदि इसी प्रकार मरणमोन विरोधी भान्दोलन चालू रहे तो एक वर्ष में ही समस्त जैन समाजसे इस प्रथाका नाम निशान मिट जाय । कई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोजके प्रान्तीय रिवाज । [ ४३ युवकसंघों, सभाओं और पंचायतों द्वारा इसके लिये प्रयत्न हुये हैं । अभी भी प्रबलता के साथ इसके विनाशका प्रयत्न होनेकी आवश्यक्ता है । जिस दिन जैन समाजसे मरणमोजकी प्रथा मिट जायगी उस दिन हमारी सभ्य समाजके सिरसे एक बड़े मारी कलङ्कका टीका मिट जायगा । मैं वह शुभ दिन बहुत जल्दी ही देखना चाहता हूं । मरणभोजके प्रान्तीय रिवाज । यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूं कि मरणभोजकी प्रथा धार्मिक नहीं है । यदि यह धार्मिक होती तो उसमें इतना अधिक प्रांतीय रिवाज़मेद नहीं होता। दूसरी बात यह है कि मरणभोजके सारे क्रियाकाण्ड पर ब्राह्मण संस्कृतिकी खासी छाप है। इससे सिद्ध है कि मरणभोज जैन शास्त्रानुमोदित नहीं किंतु पड़ोसियोंकी देखादेखी अपने में शामिल कर लिया गया एक पाप है। इसके विविध प्रान्तीय रिवाजोंको देखकर किसे आश्चर्य न होगा कि जैनोंमें मरणभोज कसे आया ? · श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमीने बुन्देलखण्ड और मध्यप्रांत के मरणोत्तर क्रियाकाण्डके सम्बन्धमें इस प्रकार अपने अनुभव प्रगट किये हैं "इस तरफ खास तौर से देहातके जैनोंमें, मरणके उपरांत जो क्रियाकर्म किये जाते हैं वे लगभग वैदिक रिवाजोंके अनुसार ही होते हैं। मरनेवाला जितना ही घनी मानी होता है, उसके उपळक्ष्य में ये क्रियायें उतने ही ठाठसे की जाती हैं । प्रायः तीसरे दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] मरणमोज। मस्थिशेष, जिसे कि यहां 'खारी' कहते हैं, उठानेके लिए कुछ लोग चितापर जाते हैं और उसे बटोरकर भामतौरसे किसी पासके जलाशयमें छोड़ भाते हैं; परन्तु जो लोग समर्थ होते हैं वे पवित्र गंगाजलमें छोड़नेके लिए ले जाते हैं, और प्रयाग पहुंचकर पंडोंको दान-दक्षिणा भी यथाशक्ति देते हैं। शामको घीका दीपक लेजाकर चिताभूमिपर जला माते हैं। यह प्रतिदिन तबतक जलाया जाता है, जब तक कि दिन-तेरहीं नहीं होजाती है। स्मशान-भूमिके निर्जन अन्धकारमें मृतव्यक्ति के लिए प्रकाशकी व्यवस्था कर देना ही शायद इसका उद्देश्य है। 'खारी' उठ चुकनेपर जितने कुटुम्ब-परिवार के लोग होते हैं उन्हें भोजन कराया जाता है। इसके बाद तेरहवें दिन मृत श्राद्ध किया जाता है, जो सर्वपरिचित है और जिसमें जातिके पंचोंके सिवाय दूसरी जातिके उन व्यक्तियोंको भी खूब खर्चीला भोज दिया जाता है, जो दाह-क्रियामें 'लकड़ी' देने जाते हैं। यह तो इतना भावश्यक है कि गरीबसे गरीब मनाथ विधवायें भी इस वर्चसे छुटकारा नहीं पा सकती-कर्ज काढकर भी उन्हें यह करना पड़ता है। इसके बाद छ:मासी (पाण्मासिक श्राद्ध) और बरसी (वार्षिक श्राद्ध ) भी की जाती है; परन्तु ये सर्वसाधारणके लिए भावश्यक नहीं हैं, धनी मानी ही इन्हें करते हैं। फिर भी नामवरीके लोभमें दूसरों के द्वारा पानी चढ़ाये जानेपर असमर्थ भी बहुधा कर डाला करते हैं । स्वयं मेरे सालेकी मृत्यु पर, जो बहुतही गरीब थे, उनकी पत्नीने तीनों श्राद्ध करके अपना जन्म सार्थक किया है। इन तीनों श्राद्धोंसे तो मैं परिचित था; परन्तु भवकी बार यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणभोजके प्रान्तीय रिवाज। [४५ भी पता लगा कि बहुतसे धनी तीन वर्षके बाद पितरोंमें भी मिलाये जाते हैं। अर्थात् तीसरी मृत्यु-तिथिको भोज होजानेके बाद वे पितृजनोंकी पंक्तिमें शामिल कर लिये जाते हैं-वहां परलोकमें 'अपांक्तेय' नहीं रहते हैं। मालूम नहीं : पितरोंमें मिलाने' का उक्त वास्तविक मर्थ हमारे जैनी भाई समझते हैं या नहीं; परन्तु वे अपने पुरखोंको इस अधिकारपर मारूढ़ जरूर किया करते हैं. यद्यपि पिंड-दान नहीं करते। इस तरफके जैनोंमें 'पितृ पक्ष' भी पाला जाता है। कुँवार वदीके १५ दिनोंमें औरोंके समान ये भी अपने पुरखों के नामपर पक्वान्न सेवन करनेसे नहीं चूकते । माता, पिता, पितामह, मातामह आदिकी मृत्यु-तिथियों के दिन जिन्हें 'तिथि' ही कहते हैं, स्त्रियां पहले उनके नामपर कुछ कान कढ़ाई में से निकालकर अलग रख देती हैं, जिसे 'मछूता' कहते हैं और तब दूरों को देती हैं। यह 'अछूता' पितृपिंड का ही पर्यायवाची जान पड़ता है। इस तरह यह नैननामधारी समाज इस विषयमें वेदानुयायी ही है; फर्क केवल इतना ही है कि इसने पुरखों और अपने बीचके दलालों या माढ़तियों को धता बता दिया है, और अपनी वणिक. बुद्धिसे पुरखों के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ लिया है । मालूम नहीं, इस ब्राह्मणविरहित श्राद्धसे उन्हें तृप्ति होती है या नहीं ! हमारा यह सब भाचार इस बातका प्रमाण है कि कोई भी समाज हो, वह अपने पड़ौसियोंके आचार-विचारोंसे प्रभावित हुए विना नहीं रहता, और साधारण जनता सत्व और सिद्धान्तोंकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] मरणभोज । बारीकियोंको उतना नहीं समझती जितना बाहरी आचार-विचा-रोंको। इसीलिए कहा गया है कि "गतानुगतिको लोकः न लोकः पारमार्थिकः । " इस विषय में एक बात और लिखने से रह गई । मैं एक देहात में था । वहां तड़बन्दी थी । कूटनीतिज्ञ मुखियोंकी कृपासे वहां एक ही कुटुम्बके दो घर दो तड़ोंमें विभक्त हो रहे थे । दैव1 योगसे एक घर में एक व्यक्तिकी मृत्यु होगईं और नियमानुसार उसे तेरहीं करनी पड़ी; परन्तु चूंकि दूसरी तड़वाला घर उस मृत्युभोज में शामिल न होसका, मतएव वह शुद्ध न होसका - उसका - सूतक ( पातक ? ) न उतरा और तब उसे लाचार होकर जुदा मृतक - भोज देना पड़ा | बहुत समझाने पर भी पंच-सरदार न माने । यह बात उनकी समझमें ही न आई कि एक कुल - गोत्रवाला वह दूसरा घर विना श्राद्ध किये कैसे शुद्ध हो सकता ! सो कहीं कहीं एकके मरनेपर दो दो तीन तीन तक श्राद्ध करने पड़ते हैं । बहुत से गांवोंमें यह हाल है कि यदि कोई मृतश्राद्ध न करे, बिरादरीवालों, ' लकड़ी ' देनेवालों और कमीनोंको भोजन न दे, तो उसे सार्वजनिक कुओंपर पानी नहीं भरने देते हैं, वह एक तरह से अवश्य होजाता है । आमतौर से यह भी रिवाज़ है कि जिसके यहां मृत्यु होजाती है, उस घर के लोग तेरहीं होजाने तक मंदिर नहीं जाते हैं । मृत्युमोजके दिन भोजनोपरांत घर के मुखियाको पंचजन पगड़ी बांधकर जिनदर्शनको लिवा जाते हैं, और इसके बाद उसे मंदिर जानेकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरथमोजके प्रान्तीय रिवाज। [४७ छुट्टी होजाती है। जहां तक मैं जानता हूं, अन्यत्रके जैनोंमें यह रिवाज़ नहीं है।" यद्यपि बुन्देखण्डके शहरोष भव इतना क्रियाकाण्ड नहीं रहा है, फिर भी देहातोंमें तो यह सब कुछ किया जाता है। . इसके अतिरिक्त अन्य प्रांतोंमें भी जो रिवाज प्रचलिन हैं - उनमेसे जितने प्रांतोंके मुझे प्राप्त होसके है वह नीचे दिये जाते हैं:... यू० पी० में-मेठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर मुरादाबाद तथा दिल्ली आदिमें अब मरण मोजकी प्रथा लगभग बिलकुल बन्द होगई है। कहीं२ किसी वृद्ध पुरुषकी मृत्यु होनेपर कोई२ खांडकी टिकड़ी बांट देता है। मगर यह भी बहुत कम । पहले इन नगरोंमें वृद्ध पुरुषका माणभोज होता था, वह भी अब बन्द होगया है। अलीगढ़ तथा हाथरस आदिमें अभी भी मरणभोज होता है, कारण कि वहां स्थितिपालकोंका अड्डा है । सी० पी० में-कटनी, जबलपुर, सिवनी, नागपुर, अमरा. वती आदिमें पहले तो मरणभोजका खासा दौर दौरा था, और बुंदेलखण्ड प्रांतकी भांति ही तमाम रीतिरिवाज एवं मूढ़ता प्रचलित थी, किन्तु अब यह रिवाज कम हो हा है और कई जगह ३०३५-४० वर्षसे नीचे का मरणभोज नहीं होता। किन्तु जबतक मरणभोनका नामनिशान न मिट जाय तबतक सचा सुधार नहीं कहा जासकता । मारवाड़ प्रान्तमें-मरणभोजकी प्रथा सबसे अधिक भयंकर है। किसी पुरुषके मरनेपर उसकी विधवाको कई विपकि बीवमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] मरणमोज । खड़ी होकर छाती कूटना पड़ती है। फिर उसके सौभाग्यचिह अलग किये जाते हैं। फिर विषवाको १४ माहतक घरसे बाहर नहीं निकलने दिया जाता। शौचादि मकानमें ही करना पड़ता है। कुटुंबी तथा सम्बंधीजन १२ दिन तक उसीके घरपर भोजन करते हैं, फिर तेरहवें दिन खां दिया करते हैं, उसमें सैकड़ों भादमी जीमनेके लिये भाते हैं । इसके बाद तेरई तो अलग करना ही पड़ती है। जो तेरहवें दिन मरणभोज नहीं देपाता वह लोगोंकी निगाहोंमें गिर जाता है, फिर भी उसे महीनों या वर्षों के बाद ही सही मरणभोज तो देना ही पड़ता है। साथ ही लान' वर्तनादि बांटनेका भी रिवाज है । तार्य यह है कि मरणभोज और उसकी क्रिया. भोंके पीछे अच्छे२ घर भी बर्बाद होजाते हैं, तब गरीब घरोंकी तो पूछना ही क्या है ? मालवा प्रान्तमें-भी इन्हींसे मिलते जुलते रिवान हैं। यहां वर्षों बाद भी माणभोज लिये जाते हैं और हजारों रुपयोंकी 'लान' बांटी जाती है । मिथ्यात्वका रिवाज भी खूब है । मालवा और मारवाड़ प्रांतमें कहीं२ ब्राह्मणोंको जिमानेका भी रिवाज है। इसके विना शुद्धि ही नहीं मानी जाती। गुजरात प्रान्तमें-मरणोत्तर रिवाज कुछ और ही प्रकारके हैं। यहांपर जब किसीकी मृत्यु होती है तब घर कुटुम्ब और मुहल्लाकी तथा तमाम व्यवहारी स्त्रियां भाकर इकट्ठी होती हैं और मकानके बाहर सड़कपर सब एक गोल घेरेमें खड़ी होजाती हैं तथा बीचमें विधवा स्त्री खड़ी रहती है। फिर एक गानचतुर स्त्री रानिया' गाती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मरणमोजके प्रान्तीय रिवाज । [४९ है जिसे सब स्त्रियां मिलकर तालबद्ध " राजिया" गाती हैं और चक्कर लगाती रहती हैं। गाने के साथ ही साथ वे सब स्त्रियां अपने दोनों हाथोंसे छाती ठोकती ( छाजिया लेती) जाती हैं। उनमें जो मृतव्यक्तिकी विधवा या निष्ट संबंधिनी स्त्रियां होती हैं वे तो इतने जोरसे छाती ठोकती है कि उनकी छ ती सूझ जाती है। किसीके तो खून भी निकलने लगता है। कुछ दिन हुये इसी प्रकार छाती कूटते कूटते शिकारपुर में एक वकील पत्नीका माण होगया था। यह छातीका कूटना और राजिया' गाना मात्र घरके दर्वाजे पर ही नहीं होता, किन्तु चौराहे पर और बीच मार्गमें जाकर भी इसी प्रकार निर्दयता पूर्वक छाती कूटी जाती है । जो जितने जोरसे छाती कूटती है वह उतनी ही अधिक दर्दमन्द मानी जाती है ! यदि सच पूछा जाय तो गुजरातको कलंकित करनेवाली यह सबसे मर्यकर एवं दयाजनक प्रथा है । यह शीघ्र ही बन्द होनेकी मावश्यक्ता है । इस सुधरे हुये प्रान्तमें इस मूर्खतापूर्ण प्रथाको देख कर मेरे माश्चर्य और दुःखका ठिकाना नहीं है । इस प्रकार रोने, छाती कूटने और राजिया गानेका का बहुत दिनों तक जारी रहता है। जब जब बाहरसे स्त्रियां मिलने या बैठने अथवा फेरे के लिये माती हैं तब तब यही विधि करना पड़ती है । न जाने गुजरातकी यह कलंकमय प्रथा कब मिटेगी ? सूरतमें मृतव्यक्ति को स्मशान ले जाते समय एक और भी भयंकर प्रथा है, जिसे सुनकर पाठको दिल दुखी हुये विना नहीं रहेगा। शबको स्मशानमें ले जाने वाले सभी लोग साधी दूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] मरणमोज । पहुंचने पर विश्रान्ति स्थान ( जो खास इसीलिये बनाया गया है) में ठहरते हैं। वहां पर मृतव्यक्ति के घर के लोग बिड़ी पान सुपारीका प्रबंध करते हैं और अधिकांश लोग खाते हैं। फिर स्मशान में जाकर मुर्दा जलाया जाता है। उधर मुर्दा जलता है और इधर स्मशानमें जानेवाले लोग मृतव्यक्तिकी ओरसे चाय बिड़ी पीते हैं और ताश मादि खेलते हैं। और कभीर तो नहानेके पूर्व मीठाई तक उड़ाई जाती है। मरणभोजसे भी भयंकर इस प्रथाको देखकर किसे माश्चर्य न होगा ? बिचारे मरनेवाले के घाबालोंको मुके साथ ही साथ मिठाई मादिका भी प्रबंध करना पड़ता है जो स्मशान में लेजाई जाती है और मानों मुर्देकी छातीपर बैठकर खाई जाती है । यह भी मरण. भोजका एक भयंकर प्रकार है । अब तो कई जनोंमें मिठ ई खानेकी प्रथा बन्द होरही है, फिर भी कुछ जैनोंमें यह प्रथा चालू है । मुझे स्वयं ३-४ वार स्मशान जाना पड़ा और मैंने जब यहांके लोगोंकी इस अमानुषी प्रथाको देखा तब मेरा हृदय घृणासे भर भाया । कुछ लोगोंसे इसके विरोधमें कहा भी किन्तु जिस प्रकार माणभोजिया लोग अपना हठ नहीं छोड़ सकते वैसे यह लोग भी क्यों छोड़ने लगे ? हाँ, यदि किसीकी समझमें भागया तो मिठाई न खाकर मात्र चाय पीकर ही संतोष करते हैं । यह है मरणभोनका दूसा भयंकर चित्र । स्मशान के बाद गुजरातके जैनोंमें एक ही मरणभोज नहीं होता, किन्तु ग्यारवा, (११वें दिन) वारवाँ (१२ वें दिन) और तेरवाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोजके प्रान्तीय रिवाज । (१३ ३ दिन ) भी होता है । इतना ही नहीं किन्तु कहीं कहीं तो ४-५ दिन तक मरणभोज दिया जाता था। इस प्रकार मृत व्यक्तिके घरकी बरबादी कर दी जाती है । सूरतमें भी ३-४ दिन तक जीमनेका रिवाज़ था, मगर मब धीरे धीरे वह बन्द हो गया है। और भब तो मात्र एक ही दिन मरणभोज देनेकी प्रथा रही है। वह भी भव गमग मिट गई है। अब यहांके लोग बारहवां तेरहवां मादि कुछ नहीं करते। किन्तु कोई कोई पूजा पाठ कराके उसके बहानेसे धर्ममोज देते हैं, जो लगभग मरणभोजका ही रूपान्तर है। किन्तु गुजरातके ग्रामोंमें तो ममी भी मरणभोजकी प्रथा ज्योंकी त्यों चालू है। काठियावाड़ प्रांतमें-भी गुजरातकी भांति ही छाती कूटने, राजिया गाने, और बारहवां तथा तेरहवां करने का रिवाज है। वहां भी जैनाचारहीन क्रियाकाण्ड किये जाते हैं और निःसंकोच मरणभोज किया जाता है। ___ इस तरह मरणभोजके प्रान्तीय और जातीय रिवाज़ विविध प्रकारके पाये जाते हैं। किसीमें मिथ्यात्वका असर है तो कोई महामिथ्यात्वरूप है और कोई अत्याचार, दबाव, लज्जा, या जातिभयके कारण किया जाता है तथा किसीमें मात्र गतानुगतिकता या वाहवाही ही कारण होती है। पूर्व लिखित प्रकरणोंसे पाठक भली भांति समझ गये होंगे कि जैन समाजमें मरणभोजकी राक्षसी प्रथाने घर करके उसे कितना बर्बाद कर दिया है । फिर भी हमारी जातीय पंचायतें उसे ममी भी जड़मलसे नाश करनेका साहस नहीं करती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amamaramanaamaaraamam परणभोज। मह प्रथा किसी न किसी रूपमें अनेक प्रांत और वहां की जातियों में पाई जाती है। नागपुरके एक सज्जनने लिखा है कि इस प्रान्तमें १बघेरवाल जातिमें मरणभोज करना अत्यावश्यक न होनेपर भी कई लोग गृहशुद्धिके लिये करते हैं । २-खण्डेलवाल जातिमें तो मरणभोजकी प्रथा खूब जोरोंसे प्रचलित है । ३- परवार जातिमें भी इस प्रथाका अर्धरूप पाया जाता है। ४-पद्मावती पुरवाल जातिमें यह प्रथा अभीतक चालू है । प्रायः वे लोग १३ वें दिन भोजन कराके तेरहवीं करते हैं। ५-सैतवाल जातिमें यह प्रथा पद्मावती पोरवालोंकी भांति ही प्रचलित है। खंडेलबालोंमें ला रतनलालजी बाकलीवालने अपनी माताका मरणभोज न करके १२५) दान किये । यह उनका सर्व प्रथम साहस है। एक न्यायतीर्थजीने ग्रामानुसार अपना अनुभव लिखकर भेजा है कि १-विलसी (बदायूँ ) में समझाने बुझानेपर मरणभोन बंदीका प्रस्ताव तो कराया गया, फिर भी वहांके कई जैन तेरहवें दिन कमसेकम १३ ब्राह्मणों को भोजन करा देना की भी भावश्यक समझते हैं । २-खुरई-(सागर) में न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी के प्रयत्नसे बालक और युवकोंका मरणभोजसे बंद होगया है। इसका अर्थ यह है कि जनसमाजके सर्वमान्य पूज्य . बिद्वान न्यायाचार्यजी भी मरणभोनको धर्मसंगत, भावश्यक, शुद्धिः जादू या श्रावककी क्रिया नहीं मानते । भन्यथा वे अमुक आयुके स्त्री-पुरुषोंका मरणभोज केसे बंद कराते ! इस लिये जब युवकोंके । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण मोजके प्रान्तीय रिवाज । [ ५३ मरणकी अशुद्धि योंही दूर होजाती है तब सभी आयुके मरणकी अशुद्धि भी स्वयमेव दूर हो ही जायगी । अतः मरणभोज सर्वथा बंद कर देना चाहिये । ३- भोपाल में भा० दि० जैन परिषदके प्रयत्न से भव मरणभोज बन्द होगया है । सेठ गोकुळचन्दजी परवारने अपनी पत्नीका मरणभोजन करके ७०००) दान देकर जैन कन्या पाठशाला स्थापित की है । इसी प्रकार सेठ सुन्दरकालजीने अपनी माताजीका मरणभोज न करके विमानोत्सव किया और विद्वानोंको एकत्रित करके भाषण कराये थे । यह है आदर्श कार्य I एक सज्जन लिखते हैं कि तलवाड़ा ( डूंगरपुर) में तथा सारे वागड़ प्रांत में मरणभोजकी भयंकर प्रथा चालू है । प्रत्येक परिणीत व्यक्तिका ( चाहे वह १५ - २० वर्षका भी हो ) मरणभोज किया जाता है। पंचोंका यह कानून भटल है । यदि शक्ति या सुविधा न हो तो माह, दो माह, वर्ष दो वर्ष या कई वर्ष बाद भी पंच लोग मरणभोज लेकर ही छोड़ते हैं । शोपुरकलां के एक सज्जन लिखते हैं कि यहां पर मरणके तीसरे ही दिन कुटुम्बियों को हलुवा, पूरी और चने खिलाये जाते हैं । पन्द्रह वर्ष से ऊपर के सभी स्त्री पुरुषोंका मरणभोज किया जाता है । यहां यह आवश्यक कार्य समझा जाता है । यदि कोई न कर सके तो लोग उसे बुरी नज़र से देखते हैं और ताना देते हैं । बारह दिन के बाद मरणभोज करना पड़ता है। स्त्रीके मरनेपर भगुवा कपड़े बांटे जाते हैं और समधी ब्याहीको वस्त्रोंकी पहरामनी दी जाती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज मरणभोजके समर्थकोंको विचारना चाहिये कि १५ वर्षके लड़का लड़कियोंका भी मरणभोज खानेवाले कितने निष्ठर हृदय होंगे । जहां मरणोपलक्षमें पहरावनी बांटी जाती है वहां मानवताका कितना अधःपतन होचुका है। मारवाड़ प्रान्तके एक न्यायतीर्थ विद्वान लिखते हैं कि हमारे नगरमें तो ९३ या १३वें दिन मरणभोज होता है और प्रत्येक जातीय घरमें एक एक रुपया तथा मिठाई भेजना पड़ती है। यदि कोई ८ वें या १३ वें दिन मरणभोज न कर सका हो तो विवाह के समय पितरोंके उपलक्षमें मरणभोज करना ही पड़ता है। पाठक देखेंगे कि मरणभोजके नामपर रुपया और मिठाई आदि बांटकर मत्याचारको और भी कितना अधिक बढ़ाया जाता है। एक सुप्रसिद्ध वैद्यराजजीने अपने अनुभव लिखे हैं कि मैंने पंजाब, राजपूताना, मालवा, मेवाड़, यू० पी० और सी० पी० मादिमें रहकर देखा है कि वहां किसी न किसी रूपमें मरणभोजकी प्रथा प्रचलित है । अजमेर, उदयपुर, सुजानगढ़, इन्दौर और पछार मादिमें तो कान (वर्तन) भी बांटी जाती है। सुजानगढ़में जैनोंके मतिरिक्त ब्राह्मणों को अलग भोज कराया जाता है। इसके अलावा तिमासी, छहमासी और वर्षी भी की जाती है। मुर्दा पर मिठाइयाँ खाना-रावरूपिण्डी शहरमें करीब २५० पर श्वेताम्बर जैनोंके हैं। वहां पर पहले इतनी भयंकर प्रथा भी कि किसीके घरमें मृत्यु होगई हो तो उसके घरपर पंचलोग इकटे होकर पहिले मिठाइयां उड़ाते थे और मुर्दा वहीं रक्खा रहता था। मिठाई खानेके बाद वह मुर्दा स्मशान लेजाया जाता था। देलिये, है न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोजके प्रान्तीय रिवाज। [५५ यह मानवताका लीलाम ? दैवयोगसे वहां एक जैन साधुका चातुर्मास हुमा। और उनने उपदेश देकर इस घृणित प्रथाको बंद कराया। इसे वंद हुये करीब १० वर्ष हुये हैं। किन्तु उससे पहले तो वहांके जैन लोग उसे भी अत्यन्त आवश्यक क्रिया मानते थे और उसे छोड़नेमें धर्म कर्मका नाश हुआ मानते थे। यही दशा मरणभोजके सम्बंध है। अब वहां तो मरणभोज ( तेरई) भी कतई बंद है। हां, रावलपिंडी छावनीमें अभी भी मरणभोज प्रचलित है। २ । दमोह-अभी भी कई रूढ़िचुस्त लोग मरणभोज नहीं छोड़ना चाहते। हां, कुछ सुधार प्रेमियोंने इस प्रथाको हलका कर दिया है। इटारसी-में ४० वर्षसे कम आयुके मृत व्यक्तिकी तेई नहीं होती है। शेषकी की जाती है । इसी प्रकार दूसरे प्रांतोंमें भी अनेक प्रकारके रिवाज हैं। किसी भी प्रांतके जैनी इस कलंक प्रथासे नहीं बचे। फिर भी अब कई बड़े नगरोंमें और अग्रवाल जैन आदि कुछ जातियोंमें मरणमोजकी प्रथा कतई बन्द होगई है। कई जगह ३०-३५४० वर्षकी भवधि रखी गई है। वह भी आन्दोलन चालू रहनेपर बिलकुल मिट जायगी। मरणभोजके नामपर धर्मकी दुहाई देनेवालोंसे मैं पूछता हूं कि क्या इन लोगोंको वे धर्मक्रियाहीन मानते हैं ? सच्चा सम्यत्ती और सच्च। जैन तो वह है जो स्वयं मरणभोज नहीं करता और दूसरों को इस पाप कर्मसे रोकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] मरणभोज। करुणाजनक सच्ची घटनायें । मरणभोजकी प्रथा कितनी भयंकर है, कितनी पैशाचिक है और कितनी समाजघातिनी है यह बात आगे दी जानेवाली सच्ची घटनाओंसे स्वयं ज्ञात होजायगी। यहां जो घटनायें लिखी जारही हैं उनमें एक भी कलिगत या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है, फिर भी उनमें किसीका नाम आदि न देने का कारण इतना ही है कि इन घटनाओंसे संबंधित व्यक्ति ऐसे पापकृत्य करके भी अपनेको अपमानित हुआ नहीं देखना चाहते । मैं समझता हूँ कि किसीका नाम भादि न देनेसे घटनाओंकी वास्तविकता नष्ट नहीं हो सकती, और जिन्हें विश्वास न हो उन्हें कमसे कम इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि मरणभोजके परि. णाम स्वरूप ऐसी घटनायें होना असंभव नहीं हैं। इन घटनाओंके प्रेषक जैन तमाजके सुप्रसिद्ध विद्वान और श्रीमान हैं। मैं उन -सबका आभारी हूँ। अब तनिक उन 'करुणाजनक सच्ची घटनाओं को हृदय थाम कर पढ़िये । १-अफीम खाकर मर जाना पड़ा-पन्ना स्टेटके एक ग्राममें एक परवार जैन सिंघई थे। उनकी समाजमें अच्छी प्रतिष्ठा थी। उनने कई बड़े२ कार्य किये थे। किन्तु दैवयोगसे गरीबी भागई। उधर उनकी पत्नी मर गई। मरणभोज करनेकी सिंघईजीके पास सुविधा नहीं थी। इसलिये इज्जत बचाने के लिये उनने अफीम खाली और उन्हें मृत्युभोजकी वेदीपर स्वयं मृत्युका भोज बनना पड़ा। २-पीस कूटकर गुजर करती हैं-उज्जैनके पास एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणाजनक सच्ची घटनायें । [ ५७ नगर में जैन युवक २५) की नौकरी करता था । उसके घर में माता, पत्नी, पुत्र और स्वयं, इस प्रकार चार व्यक्ति थे । वह जैसे तैसे अपनी गुजर चलाता था । दैवयोग से उसकी नौकरी छूट गईं । उसे चिन्ताने आघेरा, किसीने कोई सहायता न की । आखिर वह चिन्ताकी चिन्तामें जल मरा। पंचोंने उसकी पत्नी और माता से मरणभोज करनेके लिये आग्रह किया। उनने अपनी अशक्ति बताई । तत्र लोगों ने उन्हें बिरादरीसे अलग कर देनेकी धमकी दी। इस भयंकर शस्त्रसे डरकर उनने अपने हाथ पैर के जेवर बेचकर पंचोंको लड्डू खिला दिये । और अब वे दूसरोंकी रोटी करके तथा पीस कूटकर अपनी गुजर चलाती हैं । ३ - कन्याको वेचकर मरणभोज किया-मुंगावली से १० मीलकी दूरीपर एक ग्राम है। वहांकी यह सन् १९३३ की रोमांचकारी घटना है। वहां एक जैन हलवाईंको मृत्यु हुई । पंचोंने उसकी स्त्री और लड़के से तेरई करने के लिये आग्रह किया । किंतु उनने अपनी साफ अशक्ति प्रगट की । और कहा कि हमारे पास कलके खाने को भी नहीं है। पंचोंने अपनी बहिष्कारकी तोप उठाई और हलवाई जी के लड़के को पंचायत में बुलाकर उसके सामने रखकर कहा कि या तो अपने बापकी तेरई करो या फिर कलसे तुम लोगों का मंदिर बन्द है ! इस अत्याचारको देखकर वहांकी पाठशाला के पण्डितजीने विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें नौकरीसे हाथ धोना पड़े । उधर पंचोंमेंसे एक सज्जन (?) ने लड़केको एकांत में बुलाकर कहा कि तुम्हारी बहिन विवाहयोग्य है, उसकी सगाईं कुछ ले देकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] मरणभोज। करको उसमें जो रूपया भावे उससे तेरई और विवाह दोनों होजावेंगे। जाति बहिष्कारके भयसे लड़का और उसकी मांने यह स्वीकार कर लिया । दकालोंने प्रयत्न करके दमोहके पास एक ... ग्राममें एक ४५ वर्षके जैनके साथ लड़कीकी सगाई करा दी। १२००) तय हुये । ५००) पेशगी लिये । उनसे खूब डटकर तेरई की गई। १५-२० गांवसे भासपासके व्यवहारी जन भी माये और खूब चकाचक उड़ी। चैत्र सुदी ३को उस लड़कीका विवाह होगया । वर महाशयका यह तीसरा विवाह था। वे एक वर्ष बाद ही स्वर्ग सिधार गये । और उस १६ वर्षीया लड़कीको विधवा बना गये । भाज वह माणभोजिया पंचों के नाम पर आँस - वहा रही है। ४-कुल्हाड़ीसे मारडाले गयेका भी मरणभोजललितपुरके पास एक ग्राममें किसी विद्वेषीने एक जैनको कुल्हाड़ी मारी, जिससे वह मर गया और मारनेवालेको फांसी हुई। फिर भी कुल्हाड़ीसे मरे हुये व्यक्तिके घरवालोंको मरणभोज करना पड़ा और उसमें गांवके तथा भासपासके ग्रामोंके जैनी भी शामिल हुये थे। __ ५-गहने बेचकर मरणभोज किया-जयपुर स्टेटके एक ग्राममें ३० वर्षीय युवक बीमार हुआ। घरमें पत्नी और एक छोटा लड़का था। दरिद्रताके कारण इलाज कराना अशक्य होगया। वैद्यने मुफ्तमें इलाज करनेसे साफ इंकार कर दिया। तब उसकी पत्नीने अपने हाथका गहना गिरवी रखकर वैद्यको ४०) दिये। इलाज होनेपर भी युवककी मृत्यु होगई। तब उस दयाल वैद्यने के Shree Sudharmaswami Gyanbhanda Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणाजनक सच्ची घटनायें । [५९ ४०) वापिस दे दिये। तीसरे दिन पंच लोग उस मृतकके घर एकत्रित हुये और विधवासे मरणभोजके लिये आग्रह किया । उसके हजार इंकार करनेपर भी बहादुर पंचोंने उस गरीब विधवासे नुक्ता करवा ही डाला। इस नुक्तेने उस विधवा और उसके बच्चेपर जो विपत्ति ला पटकी उसकी कहानी अत्यन्त मर्मान्तिक वेदना उत्पन्न करनेवाली है। ६-बारह वर्ष बाद भी नुक्ता करना पड़ा-जयपु. रक पास एक ग्राममें एक कुटुम्बहीन व्यक्ति था। उसके मांबापको मरे करीब १५ वर्ष होचुके थे। फिर भी पंचोंने उसका पीछा न छोड़ा। वह बिचारा गरीब नौकर था। १५-२० वर्षमें वह २००) एकत्रित कर सका था। लोगोंके भाग्रहसे उसने एक रुपयाके व्याज पर २००) लिये और २००) अपनी २० वर्षकी कमाई के मिलाकर मां-बापका पुराना उधार मरणभोन कर डाला। पंच लोग लड्डू उड़ाकर चले गये । आज वह युवक कर्जमें फंसा है और भरपेट भोजन तक नहीं पाता । ऐसी स्थितिमें लड्डू खानेवाले पंचोंमेसे अब कोई उसकी खबर नहीं लेता। ७-अठारह वर्षका भी मरणभोज-राजपूतानेके एक ग्राममें एक भठारह वर्षके युवकको मृत्यु हुई। फिर भी पंचोंने उसका मरणभोज कराया। उसकी १५ वर्षीया विधवा हृदय-विदा. रक रुदन कर रही थी और निर्दयी पंच लड्डू गटक रहे थे। यह है हमारी अहिंसाका एक नमूना ! ८-मुर्देकी छातीपर मरणभोज-राजपूतानेके एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज। ग्राममें एक मरणभोज होरहा था. सब जैन लोग जीमने बैठे थे, इतनेमें दैवयोगसे मृतव्यक्तिके दूसरे भाईकी भी आघात पहुंचनेसे मृत्यु होगई, मगर मरणभोजिया पंच लोग निश्चत होकर पत्तलोंपर डटे रहे और लड्डू उड़ाते रहे । यह है मानवताका लीलाम ! ९-मृत बालककी लाश पर मरणभोज-मारवाड़ प्रान्तके एक ग्राममें एक ३५ वर्षीय युवककी मृत्यु होगई। उसकी विधवाने मरणभोन करनेकी शक्ति प्रगट की, मगर पंचलोग कब छोड़नेवाले थे। दो वर्ष बाद भी उस विधवासे मरणभोज कराया गया। इसी बीचमें मरणभोजके दिन हृदयको चीर देनेवाली एक दुःखद घटना घट गई। और वह यह थी कि उक्त विषवाका १२ वर्षका लड़का एकाएक बेहोश होकर जमीनपर गिर पड़ा और देखते ही देखते अनाथिनी माताको अथाह शोकसागरमें डाल अनंत निन्द्रामें मग्न होगया। उस समय उसकी विधवा माताकी क्या दशा हुई होगी सो उसे तो सहृदयी ही समझ सकते हैं। वह विचारी उस असह्य वेदनाको दवाये माथा कूट रही थी, किन्तु उधर निर्दयता और निर्लजताक अवतार मरणभोजिया लोग लड्डू गटक रहे थे। उस समय न शुद्धिका विचार था और न दयाका। १०- एक भाईके मरणभोजमें दूसरेका मरणललितपुरसे कुछ मील दूर जहां गजरथ चल चुके हैं एक ग्राममें एक युवक भाई की मत्यु होगई। तेरहवें दिन मरणभोजकी तैयारियां होरही थीं, पूरियां बन चुकी थीं। दूसरी सामग्रीकी तैयारी होरही थी कि अपने युवक भाईकी मृत्युके आघातसे दूसरे युवक माईकी भी मृत्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ करुणाजनक सच्ची घटनायें । होगई । सारे घर में हाहाकार मच गया । शत्रुओंकी भांखों में मी मांसू आगये । मगर मरणभोजिया लोगोंको तैयार मोजनकी फिक्कर थी । उनने बने हुये भोजनको ढांक मूंदकर रख दिया ! और उस मुर्देको जलाकर दूसरे दिन ही सब लोग लड्डू पूड़ी उड़ाने बैठ गये । घ' में दो युवती विघवायें हाहाकार मचा रही थीं, सर्वत्र महाशोक व्याप्त था, मगर भोजनभट्ट लोगों को इसकी चिन्ता नहीं थी । मैं पूंछता हूं कि जिस घरमें कल ही मृत्यु हुई है I वह घर आज पंचोंके भोजनके योग्य होजाता है ? और जो पण्डितलोग यह कहते हैं कि तेरहवें दिन भोजन कराने पर शुद्धि होती है। उनका ज्ञान विज्ञान ऐसे मौके पर कहां चला जाता है ? ११- पण्डितजीका मरणभोज- सागर के एक उदासीन पण्डितजी की मृत्यु के हड्डू भी वहांके जैनोंने नहीं छोड़े और वह भी ऐसी स्थिति में जबकि उनके घर में एक दिन पूर्व ही एक स्त्री की मृत्यु होगई थी । पण्डितजीका मरणभोज सोमवारको था, किन्तु उसी दिन उनके घर में दूसरी मृत्यु होगई। फिर भी मंगलवारको नुक्ता कर डाला गया । कहिये, कहां गईं वह निपोचियों की शुद्धि और कहां गया वह सारा पाखण्ड ? सच बात तो यह है कि लड्डुओंके सामने सभी कुछ क्षम्य है । १२ - डबल मरणभोज - मारवाड़ प्रान्तके एक ग्राममें एक गरीब जैनकी मृत्यु हुई। घरमें भवेली विधवा थी । पंचोंने मरघटपर ही मरणभोजकी चर्चा शुरू कर दी और तीसरे दिन उस विधवासे मरणभोज के लिये कहा । उसने अपनी साफ अशक्ति प्रगट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणमोज । की। मगर पंच लोग नहीं माने । उनने कहा कि तू घर बेचदे, गहने बेच दे मगर नुक्ता कर, अन्यथा तेरा अब पंचोंसे कोई संबन्ध नहीं रहेगा। वह बिचारी जाति बहिष्कारसे घबराई और मरणभोजकी स्वीकृति दे दी । इतने में एक महाशय बीच में ही कूद कर बोले कि इस पर पहलेका एक नुक्ता उधार है, जब तक यह उसे नहीं करेगी, तब तक यह नुक्ता भी नहीं हो सक्ता, इस लिये दो नुक्ता होना चाहिये । यह खबर विषवाके पास पहुंचाई गई। इसे सुनकर वह मुन्न हो गई, बहरी हो गई और अपना सिर कूटने लगी। -मगर पंचलोग नहीं माने । उसका घर और गहने विकवा कर डबल मरणभोज कराया गया। यह घटना जिन शास्त्री पण्डितजीने लिख कर भेजी है, वे लिखते हैं कि मैं भी इस मरणभोजके जिमकड़ों में से एक था। हम लोग जीम रहे थे और सामने ही विधवा बेसुध पड़ी थी। उसकी आँखोंसे आँसुओंकी अविरल धारा बह रही थी। मगर पाषाणहृदयी पंचोंको उसकी कोई चिन्ता नहीं थी। यह दृश्य मुझसे नहीं देखा गया और उसी दिनसे मैंने मरणभोजमें न जानेकी प्रतिज्ञा करली। वह विधवा बर्बाद होगई, उसकी खबर लेनेवाला भाज कोई नहीं है। १३-शरीरके टुकड़े होजाने पर भी मरणभोजग्वालियर राज्यके एक प्रसिद्ध नगरकी घटना है। एक २४ वर्षके युवककी मृत्यु पुटास निकालते समय भाग लग जानेसे होगई। शरीरके टुकड़े इधर उधर उड़ गये। २० वर्षकी विधवा और ५५ 'Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणाजनक सच्ची घटनायें । [ 13 वर्ष के मां बाप हृदयविदारक रुदन कर रहे थे । फिर भी मरणभोज .. कराया गया और उसमें करीब ४०० आदमी जीमने आये । १४ - मरणभोज करानेवाली चक्की पीसती है- ग्वालियर राज्यके एक नगरमै ३० वर्षीय युवक १ ॥ वर्ष के बच्चे को और अपनी विधवाको छोड़कर मरा । गरीबी होनेपर भी पंचोंने मरणभोज कराया, ३०० अ.दमी जीमने आये । फलस्वरूप पंचोंद्वारा लूटी गई वह अनाथिनी चक्की पीसकर भी अधपेट खाना खाकर जीवन विता रही है। १५ - शीलधर्म वेचना पड़ा-मालियर स्टेटके एक ग्राम में २५ वर्षीय युवककी मृत्यु हुई । शक्ति न होनेपर भी उसकी २० - वर्षीया विधवासे मरणभोज कराया गया । गहना और घर वेचकर उसने नुक्ता किया । ५०० आदमी जीमने आये । वह बर्बाद हो गई । पेटकी गुजर होना भी कठिन होगई । लड्डू - मक्तोंने उसकी कोई खबर नहीं ली । आखिरकार वह किसी दूसरे आदमीके साथ हो ली ! पंचोंने उसे जातिसे अलग कर एक ठंडी सांस ली। वह बिचारी आज भी जैन समाज के निर्दयी पंचों को कोसती है। १६ - माता पागल होगई - आगरा जिलेके एक पद्मावती पुरवाल कुटुम्बकी यह घटना है। एक युवककी तमाम पूंजी उसके पिता के मरणमोज में लगवा दीगई । जिससे उसे ५) महीने पर मज़दूरी करना पड़ी । इसी चिन्ता और दुःखमें वह घुल घुलकर मर गया । उसकी मां विक्षिप्त होकर पंचोंका गालियां देती थी कि इन लोगोंने मेरे जवान बेटेको बेमौत मार डाला । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरचमोज । १७-बच्चे परषाद होगये-एटा जिलेके एक ग्राममें एक गरीब विधवासे उसके पतिका मरणभोज कराया गया। जिससे वह बर्बाद होगई। बिचारी थोड़े ही दिनोंमें घुल घुसकर मर गई और अपने अनाथ बच्चोंको छोड़ गई जो आज भावारा फिरते हैं । उन विचारोंकी भी जिन्दगी बर्बाद होगई। १८-पंचोंको जिमाकर दर दर भटक रही हैदमोहसे पं० सुन्दरलालजी जैन वैद्य लिखते हैं कि यहांकी धर्मशालामें एक जैन विधवा माई । उसके साथ तीन छोटी२ लड़कियां थीं । किसीके तनपर एक भी कपड़ा नहीं था। वह स्त्री मात्र एक फटी धोती पहने थी। उसने रोते हुये अपनी कथा सुनाई कि मैं सागर जिलेके ग्राम की परवार दि. जैन है। एक वर्ष पूर्व पतिकी मृत्यु हुई है । पंचोंने चौथे दिन ही मुझसे तेरईका आग्रह किया और कहा कि सिंघईजीके नाम के अनुस । अच्छी तेरई करो ! मैंने कहा कि मेरे पास एक भी पैसा नहीं है । तब पंचों ने धमकी देकर मेरे जेवर उत. रवा लिये और खूब डटकर नुक्ता किया गया। तेरई के बाद ही कर्जेवाले ( जैन ) मेरे ऊार आटूटे । मुझे अपनी जमीन और मकान देदेना पड़ा। अब मेरे रहने और गुजरका कोई साधन नहीं रहा । तब मैंने पंचोंसे प्रार्थना की। उनने जवाब दिया कि हमने तुम्हारी परवरिशका कोई ठेका तो लिया नहीं और न कोई तेरा दैनदार है। तब मैं निराश होकर इस भूखे पेटको और इन भूखी बच्चियोंको लेकर घरसे निकल पड़ी। मैंने बहुत चाहा, मगर न तो मुझसे मरते बनता है और न भ्रष्ट होते ही बनता है। इसलिये भर यहां भाई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणाजनक सच्ची घटनायें। [६५ हूं।" इससे पाठक समझ सकेंगे कि मरणभोजिया पंच इस प्रकार न जाने कितनोंका जीवन बर्बाद कर देते हैं। १९-शादीके रुपया मरणभोजमें लग गयेभेलसाके पास एक गांवमें एक बुढ़िया थी। उसका एक ही गरीब पुत्र था। वह वंजी करके जैसे तैसे गुजर करता था। माताकी तीत्र इच्छ। थी कि वह अपने पुत्रका विवाह कराये और बहू को देखकर मरे । इसलिये उसने जैसे तैसे १५०) इक्ट्ठे करके छिपा रखे थे मगर गरीबको कन्या कौन देता ? भाखिर वह बुढ़िया मर गई। बहू देखनेकी इच्छासे जीवनभरमें संचित किया गया वह धन पंचोंने मरणभोजमें लगवा दिया और उसका बिवारा गरीब पुत्र कंगालका कंगाल और अविवाहितका अविवाहित रहा ! 'जिस प्रकार पंच लोग मरणके लड्डू खानेसे नहीं चकते उसी तरह क्या कोई कभी गरीबोंके शादी विवाहकी भी चिन्ता करता है ? नहीं, उन्हें इससे क्या मतलब ? २०-मरणभोजन करनेसे नौकरी छोड़ना पड़ीजैन समाजके एक सुप्रसिद्ध लेखक विद्वान शास्त्री लिखते हैं कि मेरी पत्नी मात्र १८ वर्षकी आयुमें मर्ग सिधारी। मरनेके पूर्व उसने मुझसे कहा था कि मेरा मरणभोज मत करना । मैंने ऐसा ही किया । तब गांवके लोगोंने कहा कि यह स्वार्थी है, मतलबी है, खुदगरज़ है, पढ़ा लिखा होनेपर भी उन्लू है। मैंने यह सब गालियां पुनकर भी नुक्ता नहीं किया। भाखिरकार मुझे पाठशालाकी नौकरीसे हाथ धोना पड़े। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमोज । २१-विधवाको धर्मकार्योंसे भी रोक दियाबिजावर स्टेटके एक ग्राममें एक पण्डितजीका स्वर्गवास हुआ । वे बहुत गरीब थे। उनकी विधवा नुक्ता न कर सकी, इसलिये गांवके और आसपासके जैनोंने उसका तमाम व्यवहार बंद कर दिया । कुछ दिन बाद उसी गांवमें जलयात्रा हुई। किन्तु उस विधवाको -मरणभोज न करनेके कारण जलयात्रा-धर्मकार्य में भी शामिल न होने दिया, भाखिर वह गिड़गिड़ाकर बोली कि मेरे पास दो मानी कोदों हैं। इन्हें बेचकर तेरई कर लीजिये । गर मेरे जीवनका कोई सहारा न रहेगा । यह सुनकर एक पण्डितजीको दया आगई और उनने पंचोंको समझाकर उसे जलयात्रामें शामिल होने दिया। २२-मरणभोजमें करुणा-कृन्दन-धर्मरत्न पं. दीपचन्दजी वर्णीने माना अनुभव लिखा है कि " २५ वर्ष पूर्व मैं अपने संबन्धीके एक नुक्ते में गया था । २५ वर्षका जवान कमाऊ लड़का मर गया था। उसकी स्त्रीके जेवर बेचकर तेरई कीगई थी। सब लोग जीमने बैठे । मृतकका बुड्ढा बाप और उसके लड़के भी जीमनेको बैठाये गये । सबने एक एक ग्रास उठाया ही था कि बुड्ढा और उसके लड़के बड़े ही जोरोंमे रो उठे। वे रोते रोते कह रहे थे- 'हाय, चना बर गये, भुनाई लग गई और फारसे हाथ भी बर गये । हम तो सब तरहसे लुट गये । कमाऊ लड़का मर गयो, धरको उप्पर मिट गयो । दवाईमें खर्च हो गये सो कछु न लगी पै बहकी बचोखुचो गानौ भी लुट गयो । हायरे हाय, हम तो सब तरहसे लुट गरे !!! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणाजनक सच्ची घटनायें । [ ६७ इतने में ट्रेनका समय होनेसे बाहर के कुछ आदमी आपहुंचे। बूढ़े पिताने उठकर उनके सामने सिर कूट लिया, छातीमें मुक्का दे 2 मारे, जमीनपर गिर पड़ा। उधर स्त्रियां करुणा - कुन्दन कररही थीं । फिर भी पंच लोग लड्डू गटकर रहे थे । मगर मुझसे नहीं खाया गया । और तभी से मैंने मरणभोज त्यागकी प्रतिज्ञा की और कई जगह इस राक्षसी प्रथाको बन्द कराया । २३ - विधवाके गहने वेच डाले - पंडित छोटे कालजी परवार सुपरि० महमदाबाद बोर्डिंगने लिखा है कि हमारी जातिमें: ३० वर्षीय युवककी मृत्यु हुई । उसकी स्थिति बहुत खराब थी । : जिस दिन कमाने न जावे उस दिन भूखा रहना पड़ता था । फिर भी जातीय रिवाज और शर्मके कारण तेरई करना पड़ी । विधवाके सिर से पैर तकका गहना ( जो चांदी का था ) उतारा गया और २५) में बेच दिया गया ! उनसे पगे खाजे बनाये गये । सब लोग जीमने बैठे। मैं भी उनमें से एक था । मृत युवकके बूढ़े बापको भी बिठाया गया। बहुत समझानेपर उसने खाजेका एक और तोड़ा मौर बड़े ही जोरसे की भारी ! उधर युवती विधवा चिल्ला रही थी जिससे पत्थर भी पिघल जाता । मैं भीतर ही भीतर से पड़ा। पंच लोग खाजा उड़ा रहे थे, मगर मुझसे नहीं स्वाया गया । वह दृश्य आज भी मेरी आंखों के सामने घूमता है । एक नहीं, ऐसी अनेक घटनायें होती रहती हैं । इस प्रकारकी २०-२५ ही नहीं, किन्तु सैकड़ों करुणाजनक घटनायें मेरे पास संग्रहीत हैं जो मरणभोजका दुष्परिणाम, पंचोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] मरणभोज । अत्याचार और भापत्तिग्रस्तोंकी बर्बादीको स्पष्ट बताती हैं। फिर भी जो लोग कहते हैं कि मरणभोज करनेमें कोई जबर्दस्ती नहीं करता, यह तो मनका सौदा है, दश पांच भादमियोंको जिमाकर ही रश्म: मदा कर लेनी चाहिये, वे समाजको धोखा देते हैं और इस , ! अत्याचारको ढकनेका असफल प्रयत्न करते हैं। उन्हें तथा समाजको मांखें खोलकर देखना चाहिये कि मरणभोजिया लोग कैसी कैसी स्थितिमें मरणभोज कराते हैं। ऐसे मरणभोजोंमें लड्डू उड़ानेको तो नारकी और राक्षस भी तैयार नहीं होंगे, जैसे मरणभोजोंको समाजका बहु भाग उड़ाता है। यदि बिशेष खोज की जाय तो इन घटनाओंसे भी भयंकर घटनायें मिल सकती हैं । क्या इन्हें जानकर मन भी जैन समाज इस पापका त्याग नहीं करेगी ? सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय । __ यद्यपि मरणभोजकी अशास्त्रीयता, मनावश्यकता और भयंकरताको हमारे पाठकगण भली भांति समझ गये होंगे, फिर भी मैं मरण. भोजके संबन्धमें जैन समाज के कुछ गण्यमान्य विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय भी प्रगट कर रहा हूँ। इनसे वस्तुस्थिति कुछ विशेष स्पष्ट हो जायगी। मैंने अपने पिताजीके स्वर्गवासके बाद 'मरणमोज' न करके ' मरणभोज' पुस्तक लिखनेका निश्चय किया और इस प्रथाके संबन्धमें जैन समाजके करीब १०० गण्यमान्य विद्वानों और श्रीमानों को पत्र भेजे थे, उनमें निम्न लिखित ५ प्रश्न पूछे गये थे: १-मरणभोजकी उत्पत्ति कब क्यों और कैसे हुई तथा जैनोंमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानके अभिप्राय। [६९ उसका प्रचार कबसे है ? २-क्या मरणभोज करना जैनशास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे उचित है ? ३-क्या जैन समाजमें मरणभोजका होना अभी भी मावश्यक है और उसे सर्वथा बन्द कर देना इष्ट नहीं है ? ४-आपके यहां जैन समाजमें मरणभोजकी प्रथा कैसी है ? ५-मरणभोजसे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ करुणाजनक घटनायें भी लिखनेकी कृपा करें। यह पत्र पुराने और नये विचारके-स्थितिपालक और मुधारक सभी विद्वानों तथा श्रीमानोंके पास भेजे गये थे, किन्तु जो मरणभोजके पक्षपाती हैं, जो मरणभोजमें ही धर्मकी पराकाष्ठा मानते हैं और तमाम धर्म कर्मको मरणभोजमें ही निहित मानते हैं उब पण्डितोंने तो कोई उत्तर देने तकका कष्ट नहीं किया, कारण कि उनके पास मरणभोजको योग्य सिद्ध करने के लिये न तो कोई शास्त्रीय प्रमाण है और न कोई बुद्धिगम्य तर्क । तथा वे उसका विरोध इसलिये नहीं कर सकते कि उनमें इतना साहस नहीं और न वे अपने पक्षको छोड़ ही सकते हैं, इसलिये उनने किसी प्रकारका भी कोई मनुकूल प्रतिकूल उत्तर नहीं दिया। किन्तु जिनमें साहस है, विवेक है, दूरदर्शिता है और जो - नमानेकी गति-विधिको जानते हैं उनने मुझे पत्रका उत्तर दिया, उनमेंसे कुछका सारांश मात्र यहाँ प्रगट किया जाता है। कुछ विद्वानोंके विचार १-५० चैनसुखदासजीन्यायतीर्थ-संपादक जैनदर्शन तमा जैनबंधु जयपुर लिखते हैं:-मरणमोजकी प्रथा प्राचीन नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] मरणभोज । ब्राह्मणोंके सहयोग से यह बुराई हममें आई है । जैन शास्त्रोंसे इस प्रथाका समर्थन नहीं होता । जैनाचार में इसका कोई स्थान नहीं है । यह आचार नहीं किन्तु रूढ़ि है । मरणभोज करना मिथ्यात्व है । समाज के लिये इसे आवश्यक मानना महा मूर्खता है। जैन धर्मका श्रद्धानी इसे कभी भावश्यक नहीं समझ सकता । जयपुर में धीरे २ मरणभोज बंद होरहे हैं । कई प्रतिष्ठित लोगोंने भी मरणभोज नहीं किये हैं। मैंने अपनी माताजीका भी मरणभोज नहीं किया। मेरे पास कई निर्दयतापूर्ण घटनाओं का संग्रह है । कई लड्डूखोरोंने असहाय युवती विधवाके शरीर के आभूषणोंसे मृत्युभोज कराकर निर्दयताका परिचय दिया है । 1 २- पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार - अधिष्ठाता वीर सेवामंदिर सरसावा - मरणभोजका इतिहास तो मुझे नहीं मालूम, किंतु जैनोंमें इस प्रथा के प्रचलित होनेका कारण ब्राह्मण धर्म के संस्कारोंका प्रावश्य जान पड़ता है। जैन शास्त्र और जैनाचार की दृष्टिसे मरणभोज करना उचित नहीं है। यह हिन्दुओंके श्राद्धका एक रूप या रूपान्तर है । जैन समाजमें इसकी कोई आवश्यक्ता नहीं । और न बंद कर देने से किसी अनिष्टकी संभावना ही है । हमारे यहां आन कक मरणभोजकी कोई प्रथा नहीं है । पूर्वजोंने इसे अनुचित और धर्म मानकर छोड़ दिया है। आपने अपने पिताजीका मरणभोज न करके जो साधु कार्य किया है उसके लिये आप धन्यबादके पात्र हैं । ३- पं० नन्हेंलालजी जैन सिद्धांतशास्त्री मोरेनामापने नुक्ता बंद करके जो साहस किया है वह इलाध्य है । माजफल नुक्ताकी कोई मावश्यक्ता नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुपसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय । ( ७१ ४-वाणीभूषण पं० तुलसीरामजी काव्यतीर्थ षडौत-आपने बुन्देलखण्ड जैसे प्रदेशमें और फिर ललितपुर जैसे केन्द्रमें तेरई न करके अवश्य ही सत्साहस किया है। इस साहसका मैं हार्दिक अनुमोदन करता हूँ। यहां अग्रवालोंमें तेरईके दिन मात्र कुटुम्बीजन ही जीमते हैं। ५-५० बंशीधरजी न्यायालंकार-जैन सिद्धान्त महोदधि, स्यावादवारिधि, जैन सिद्धान्त शास्त्री, प्रधानाध्यापक स० हु० दि. जैन महाविद्यालय इन्दौरने अपनी सासूके मरणमोजके संबंध मेरे पत्रके उत्तरमें लिखा था कि पुक्केलाल फेरनलालको इस दरिद्राक्रान्त जीवनमें तेरई करके अपने भापको ज्यादा दरिद्र व दुखी नहीं बना लेना चाहिये । मेरी थोडीसी भी राय नहीं है कि वे तेरई करें। न जातीय एवं समाजके लोगोंको ही चाहिये कि वे सुक्केलालको तेरई करनेको वाध्य करें। न खुद उन्हें तेरई करनेके लिये उत्सुक होना चाहिये । ६-५० कैलाशचन्दजी शास्त्री-संपादक जैन सिद्धान्त भास्कर, धर्माध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशी-मरणभोज मुझे उचित नहीं जान पड़ता। इसकी भावश्यक्ता भी नहीं है । इसे बंद कर देना चाहिये। ७-५० के० भुजबली शास्त्री-संपादक जैन सिद्धांत मास्कर मारा-मूडबिद्रीकी तरफ मरणके १६वें या २१वें दिन अपनी शक्तिके अनुसार मृत व्यक्तिके घरवाले मंदिरमें प्रायश्चित्त (दाहादि जनित) के रूपमें मभिषेकादि करते हैं। तथा विरा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] मरणभोज । दरी एवं ब्रह्मचारी आदि गृहत्यागियों को भोजन कराते हैं । इसे भी प्रायश्चित्तका एक अंग मानते हैं। इसमें भी कोई पंचायती बन्धन नहीं है। असमर्थ लोग २-४ रुपया खर्च करके मात्र अभिषेक ही करके शुद्ध हो जाते हैं । मरणभोज करना मावश्यक नहीं है । ८-१० सुमेरुचन्दजी जैन दिवाकर-शास्त्री, न्यायतीर्थ, बी० ए० एल एल० बी० सिवनी- मैं वर्तमान परिस्थिति तथा मर्थ संकटको देखते हुए इस प्रथामें उचित संशोधन चाहता हूं। हमारे यहां पंचायती तौर पर ४० वर्ष तककी मृत्युकी जीमनवार बन्द है । इससे मैं भी सहमत हूं। यदि व्यक्ति असमर्थ है तो समाजको उसे बाध्य न करके उचित छूट देना चाहिये । बृहद भोजके स्थानमें बचा हुमा द्रव्य यदि धार्मिक कार्यमें व्यय किया जाय तो समीचीन बात होगी। हमारे श्रीमानोंको भादर्श उपस्थित करना चाहिये। ९-५० मुन्नालालजी काव्यतीर्थ इन्दौर-मरणभोज शास्त्रसम्मत हर्गिज नहीं । द्रव्यवानोंको अपना द्रव्य इसके बदले किसी शुभ कार्य में लगाना श्रेष्ठ है । १०-५० किशोरीलालजी शास्त्री-स० सम्पादक जैनगजट पपौरा-मैं मृत्युभोनके विपक्षमें हूं। मैंने स्वयं अपनी वहू के मरनेपर मृत्युभोज नहीं किया। यह बड़ी दुखद प्रथा है। ११-दर्शनशास्त्री पं० आनन्दीलालजी न्यायतीर्थ जयपुर-जैन समाजमें मृत्युभोजकी प्रथा बहुत ही भयंकर है। धर्म और जैनाचारसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रथाका शीघ्र ही समूळ नाश होना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय। [७३ १२-५०मोहनलालजी शास्त्री काव्यतीर्थ सिवनीअज्ञानके प्रभावसे यह प्रथा जैनोंमें प्रवेश कर गई है। जैनशास्त्रोंमें - नुक्ताका नाम तक नहीं है। जैनाचारकी दृष्टिसे यह सर्वथा हेय है। १३-६० कुन्दनलालजी न्यायतीर्थ ब्यावर-मरणभोज जैन शास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे सर्वथा अनुचित है । जैन समाजमें यह प्रथा सर्वथा अनावश्यक एवं घातक है । सन् २३ में मुझे इसका कटु अनुभव हुआ था. तभीसे मैं इसका त्यागी हूं। यदि आप इस आन्दोलनमें सफल हुये तो अनेक घर बर्बाद होनेसे बच जायेंगे। १४-साहित्यरत्न पं० दरबारीलालजी न्यायतीर्थ वधो-ब्राह्मणोंकी जीविकाके अनेक साधनोंमें एक साधनके रूपमें मरणभोजकी प्रथा चली और जब जनसंख्या आदिकी दृष्टिसे श्रमण संस्कृति कमजोर होगई तब जैनोंमें भी इसका प्रचार होगया। मरणभोज जैनशास्त्रों और जैनाचारके सर्वथा विरुद्ध है। यह तो पूरा मिथ्यात्व है। इसके साथ जैनत्वका मेळ ही नहीं बैठता। आजकल तो वह और भी अनावश्यक है। जितने जल्दी यह बंद किया जाय उतना ही अच्छा है। मैंने अपनी पत्नी और पिताजीका नुक्ता नहीं किया । करुणाजनक घटनायें तो अनेक हैं। मरणमोजसे लोगोंका नैतिक पतन भी होता है। वे लड्डुओंकी भाशासे दाह संस्कारमें शामिल होते हैं । ऐसी स्वार्थपरता मनुष्यताका दिवालियापन है। मरणभोज यदि टैक्स है तो, या पारिश्रमिक है तो, दोनों ही लबा चिद्ध हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ७४] मरणमोज १५-पं० राजेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ-महामंत्री दि० जैन संघ अंबालाने जैन युवक परिषद इटावाके अधिवेशनमें प्रस्ताव रखा था कि "नुक्ताकी प्रथा जनधर्म एवं जैन शास्त्रोंके प्रतिकूल है, इसलिये किसी भी हालतमें मरणभोज नहीं होना चाहिये ।" इस प्रस्तावके विषयमें मापने भाष घंटा खूब प्रभावक भाषण भी दिया . था और कहा था कि मैंने स्वयं अपने पिताजीकी तेरई नहीं की, पं० परमेष्ठीदासने भी नहीं की, आप लोग भी प्रतिज्ञा करिये । तब उसी समय २०० भादमियोंने मरणभोजका त्याग कर दिया था। आदर्श त्यागियोंके विचार १६-पूज्य बाबा भागीरथजी वर्णी-आपने अपने पिताजीका नुक्ता न करके अच्छा मादर्श उपस्थित किया है। जनोंमें बहुत समयसे मरणभोजकी प्रथा घुसी हुई है। यह हिन्दुओंके श्राद्धका रूपान्तर है। मरणभोज जैनशास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे उचित नहीं है । जैन समाजमें मरण मोजका होना मावश्यक नहीं, उसे बंद कर देना ही अच्छा है। खेखड़ामें मैंने इस प्रथाको बंद करा दिया है। यदि खण्डेलवाल, मारवाड़ी और बुन्देलखण्डके नैनी इस प्रथाका नाश कर दें तो समाजका कल्याण होजाय । इन्हींमें इसका विशेष प्रचार है । मरणभोजकी करुणाजनक घटनायें इतनी भयंकर होती रहती हैं कि उन्हें लेखनीसे लिखना अशक्य है। १७-धर्मरत्न पं. दीपचन्दजी वर्णी-जैनोंमें मरणभोजकी प्रथा कबसे भाई सो तो नहीं मालूम, किन्तु यह ब्रामणोंका मनुकरण है। इसका प्रचार भट्टारकोंके शिथिलाचारसे हुमा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय । [ ७५ मरणभोज जैन शास्त्र और जैनाचार की दृष्टिसे सर्वथा विरुद्ध और अनुचित है। नुक्तेसे लौकिक शुद्धिका भी कोई संबंध नहीं है । जैन समाजमें इसकी कतई आवश्यक्ता नहीं है । मैंने कई जगह इस प्रथा को बंद कराया है। कुछ मूर्ख तो अपने जीते जी अपना नुक्ता कर जाते हैं और मूढ़ समान उसमें जीमती है । गुजरात में कई जगह तो ब्राह्मणोंको बुलाकर रजाईं, गदेला, तकिया, जूता ( जोड़ा ), अंगरखा, पगड़ी, लोटा, थाळी आदि भी देते हैं । यह जैनों का दयनीय अज्ञान है । १८ - जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीमैं आपकी दृढ़तापर साबाशी देता हूं, जो आपने अपने पिताजीकी तेरई नहीं की । जैन शास्त्रोंकी दृष्टिसे तो शुद्धि होनेपर मंदिर में यथाशक्ति विशेष पूजा व धर्मार्थ तथा करुणाभावसे चार दान करना चाहिये । मरणभोज इनके अन्तर्गत नहीं है और न जैन शास्त्रों में इसका विधान है और न यह आवश्यक ही है। इसे सर्वथा बंद कर देना चाहिये । मरण भोजसे बड़े २ सेठों को भी दिवालिया होना पड़ा है। १९ - ब्रह्मचारी प्रेमसागरजी पंचरत्न - भट्टारकोंके प्रभावसे जैनोंमें यह ब्राह्मणी प्रथा घुस गई है । मरणभोज जैन शास्त्र और जैनाचार की दृष्टिसे सर्वथा अनुचित है । न तो यह आवश्यक है और न इसके बंद कर देने से कोई हानि ही होगी, प्रत्युत समानका हित ही होगा। जैन समाजमेंसे इस घातक प्रथाका शीघ्र ही समूल नाश होना चाहिये । २० - ३० मुनिश्री न्यायविजयजी न्यायतीर्थ - एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] मरणभोज । ओर विधवा स्त्री, बुड्ढी माता और कुटुम्बीजन रो रहे हों, और दूसरी ओर पंचलोग माल मलीदा उड़ा रहे हों, यह कैसी निष्ठुरता है । लोग मृत कुटुम्बियोंको शांति देने आते हैं या उन्हें बर्बाद करने ? समाजको चाहिये कि वह असहाय विधवा और दुःखी कुटुम्बियों के प्रति समवेदना प्रगट करे, उनकी सहायता करे और उन्हें सान्वना दे, किन्तु ऐसा न करके उसके घर लोटा भरके पहुंच जाना और लड्डू उड़ाना कहांकी मानवता है? सचमुच ही मरणभोजकी प्रथा मिथ्याविकी जड़ से उत्पन्न हुई है । इसलिये निरर्थक एवं हानिकारक इस प्रथा को उखाड़ कर फेंक देना चाहिये । कुछ श्रीमानोंके विचार P २१- रा० भू० रा० ब० दानवीर सेठ हीरालालजी इन्दौर - जैन समाज में मरणभोज अब आवश्यक नहीं है, कारण कि विधवायें और असमर्थ लोग मरणभोजके कारण ही जेवर बेचकर मकान गिरवी रखकर और कर्ज लेकर आगामी जीवनको संकटमय बना लेते हैं । इस आर्थिक संकटके जमाने में तो समाजकी परिस्थिति इसी प्रथाके कारण कल्पनातीत भयानक होगई है । भतः इस प्रथाको सर्वथा बंद कर देना ही इष्टकर है । इन्दौर मरणभोजपर सरकारी प्रतिबंध भी है, जिससे १०० आदमि - योंका ही नुक्ता होसकता है । किन्तु यह प्रथा धर्मके नामपर रथ यात्राका रूप धारण करती जा रही है। मरणभोजसे सम्बन्ध रखनेवाली कई करुणाजनक घटनायें यहांपर हुई हैं, जिनके फलस्वरूप विघवाओं और असमर्थोकी दशा बड़ी दयनीय होगई है । I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय। [७७ २२-रा० ब० वाणिज्यभूषण सेठ लालचन्दजी सेठी उज्जैन-जनोंमें मरणभोजकी प्रथा बहुत समयसे है। मैंने जहांतक स्वाध्याय किया है वहांतक मैं यह विना संकोच कह सक्ता हूं कि जैन शास्त्रोंसे इसकी कुछ भी पुष्टि या सिद्धि नहीं होती है। और नुक्ते का रिवान जैन तथा जैनेतरोंमें एकसा ही देखा जाता है। मेरी रायमें मरणभोजकी बिलकुल आवश्यक्ता नहीं है । इस कुप्रथाके कारण कई विधवाओंको अपनी रही सही जीविकाकी आधारभूत पूंजीसे भी हाथ धोना पड़ता है, दरदरकी भिखारिणी बनना पड़ता है। मैं तो इस प्रथाको सर्वथा घातक एवं भनुपयुक्त ही समझता हूँ। २३-साहू श्रेयांसप्रसादजी रईस नजीबाबादअपनी माताजीके मरणभोजकी कल्पना तो मैं स्वप्नमें भी नहीं कर सकता। यह प्रथा हानिकर है। हमारे प्रान्तमें अग्रवाल जैनोंमें मरणभोज किसीके यहां नहीं होता। २४-दानवीर श्रीमंत सेठ लखमीचंदजीभेलसाहमने अपनी माताजीकी स्वयं तेरई मादि नहीं की। परिषदके बाद यहां के लोग इस घृणित प्रथाको 'छोड़ते जारहे हैं। इस प्रथासे समाजकी भारी हानि हुई है। इसका समूल नाश होना चाहिये । कुछ समाजसेवक विद्वानोंके विचार. २५-बाबू कामताप्रसादजी सं० वीर और जैन सिद्धान्त भाष्कर-जिस समय मट्टारकोंने वैष्णवोंकी नकल करके श्राद्ध तर्पणादिका विधान अपने शास्त्रोंमें किया तब ही से इसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] मरणभोज । जैनों में प्रचार हुआ। जैन दृष्टिसे मरणभोज मिथ्यात्व कहा जासक्ता है। इस तंगीके जमाने में यह प्रथा जितनी जल्दी बन्द हो उतना ही अच्छा है । हमारी बुढेलवाल जाति में यह प्रथा प्रायः उठ गई है । करुणकथायें तो रोज देखने सुनने को मिलती हैं । २६ - भारत के प्रसिद्ध कहानीकार बा० जैनेन्द्रकुमारजी देहली- मरणभोजकी उत्पत्तिके विषय में कुछ नहीं कह सकता । हां, मरणभोज करनेकी बाध्यता हरेक धर्माचारके विरुद्ध है । जैनाचार यदि धर्माचार है तो उसके भी विरुद्ध ही है । मरणभोजकी प्रथा सर्वथा अनावश्यक है इसे बंद कर देना चाहिये । - यहां पर भी कुछ प्रथा है, पर उसकी अनावश्यकता पर जनमत जगता दीखता है । २७ - श्री० बैरिष्टर जमनाप्रसादजी सब जजहिन्दू पड़ौसियोंके असर से जैनोंमें मरणभोज आया है । यह प्रथा कतई उचित नहीं है । यह अनावश्यक हैं और इसे सर्वथा बन्द कर देना चाहिये । एक दो घटनायें क्या लिखें, रोज ही घटनापर 'घटनायें होती हैं। सैकडों घर बर्बाद होगये, पर हम क्यों अगुवा बनें, इस भय से लोग करते ही चले जाते हैं । आपने अपने पिताजीकी तेरई न करके जो साहस व दूरदर्शिता दिखाई है उसके लिये वधाई ! 1 २८ - ला० तनसुखरायजी, मंत्री मा० दिगम्बर जैन 'परिषद देहली - हर्ष है कि आपने अपने पिताजीका नुक्ता नहीं किया । . इस घातक रूढिका शीघ्र ही नाश होना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय । [ ७९ २९- बाबू लालचन्दजी एडवोकेट- तथा पं० उग्रसेनजी - वकील रोहतक - आपका साहस प्रशंसनीय है । विरोधका मुकाबला दृढ़ता के साथ करें । मरणभोजकी प्रथाका इसी प्रकार विनाश होगा । 1 ३० - मा० उग्रसेनजी मंत्री परिषद परीक्षाबोर्डअब हमारे यहां तो मृत्युभोजको कोई जानता ही नहीं है। जहां इसका रिवाज है वहां भी यह शीघ्र ही मिटना चाहिये। पंच लोग आपकी परीक्षा लेंगे, इसलिये होशयार रहना । ३१ - पं० अजितप्रसादजी सब जज, एडवोकेट लखनऊ - मरणभोजकी प्रथा गरीबीमें तो जीवित मनुष्योंको यमराजके दर्शन करा देती है, संसार नरक होजाता है, आत्मघात मुक्ति-स्वरूप मालूम पड़ने लगता है। यह प्रथा घोर कष्टप्रद, अत्यन्त हानिकर और हिंसात्मक है । समाजका मुख्य कर्तव्य है कि इस भयंकर नाशकारी प्रथाको शीघ्र ही बंद कर दे । धार्मिक तत्व तो इस प्रथामें कुछ है ही नहीं । ३२ - रायसाहब नेमदासजी शिमला जैन शास्त्रों में मरणभोजका कोई उल्लेख या विधान नहीं पाया जाता । जैनाचारकी दृष्टि से भी मरणभोज उचित नहीं है । जैन समाज के लिये यह हानिकर प्रथा है । आपने अपने पिताजीका मरणभोज न करके समाजके सामने अच्छा आदर्श उपस्थित किया है । . ३३ - बा० फतहचन्दजी सेठी अजमेर- यहां नुक्ता करने की कोई अवधि निश्चित नहीं है। कई लोग मृत्युके १५-२० वर्ष बाद भी नुक्ता करते हैं । प्रायः यहां मरणकी तीन ज्योनारें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.] मरणभोज। होती हैं, एक तीसरे दिन निकटसंबंधियोंकी जिसमें लपसी पूड़ी बनती है, दूसरी बारहवें दिन बिरादरीकी, तीसरी तेरहवें दिन ज्योनारे यहां आवश्यक हैं, चाहे मरनेवाला युवक हो या भात्मघात करके ही मरा हो! अविवाहितोंके भोन नहीं होते। लावारिस : विधवा जीते जी ही अपना बारहवेंका भोज दे जाती है और लोग खुशीसे जीमते हैं। इस भयंकर एवं अमानुषिक प्रथाका जितने जल्दी नाश हो सो मच्छा है। ३४-स्व० ज्योतिप्रसादजी देवबन्द-जो मरणभोजका लोलुपी या समर्थक है उससे अधिक पतित और कौन होगा ? जैनों में मरणभोजकी उत्पत्तिका उत्तरदायित्व त्रिवर्णाचार जैसे कलंकित ग्रन्थों पर है । इस घृणित प्रथाका जैन धर्मसे क्या सम्बन्ध ? यह तो मिथ्यात्व है । जैन समाजके लिये मरणभोज कलंक स्वरूप है । जो इसके पक्षमें हाथ-पांव पीटते हैं वे जैन समाजको पतनकी ओर खींचे जा रहे हैं। हमारे यहां मरणभोजकी प्रथा कतई नहीं है। मापने इस घृणित प्रथा को टुकराकर साहसका काम किया है। ___ ३५-बा०दीपचन्दजी संपादक जैन संसारदेहलीमरणभोजकी प्रथा भान वश्यक, अनुचित और मनुष्यताके प्रतिकूल है । इसका सर्वथा बंद होजाना प्रत्येक जाति के लिये हितकर है। आपने पिताजीका मरणभोज न करके अनुकरणीय कार्य किया है। ३६-स्व० सेठ हीराचन्द नेमचन्दजी दोशी सोलापुर-मेरे अभिप्रायसे मरणभोज नहीं करना चाहिये । हमारे यहां चि० गुलाबचन्दजीकी बहूका. मरण होगया, ममर मरणभोज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय। [८१ नहीं किया गया है। जीवराज गौतपकी बहू का भी नहीं किया गया। वृद्धावस्थाके कारण मैं भ्रमण नहीं कर सकता, यदि आप यहां भाकर मेरे साथ घूमें तो सोलापुर जिले में यह प्रथा बन्द कराई जा सकती है। ३७-५० कन्हैयालालजी राजवैद्य कानपुर-जहां कुटुम्बी लोग रोरहे हों वहां पत्थर-हृदयी लोग न जाने कैसे लड्डू गटकते हैं। मेरे तो. मरणभोजका त्याग है । इस प्रथाका जल्दी ही नाश होना चाहिये। ३८-श्री. विष्णुकान्तजी वैद्य संपादक 'वैद्य' मुरादाबाद-मरणभोज करना जैन शास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे सर्वथा अनुचित है। जैन समाज के लिये यह एक भारी कलंक है। इसे सर्वथा बंद कर देना चाहिये । यहां मरणभोज प्रायः बंद है। ____३९-जैन समाजभूषण स्व० सेठ ज्वालाप्रसादजी-अपने समाजमें होनेवाली मरणभोजकी नीच प्रथाने समाजकी सभ्यता, चना, महानता, और धार्मिकत.का दिवाला बोल दिया है । यह मरणभोजकी घृणित प्रथ समाजके माथे एक बड़ा भारी कलंक है । मरणभोज खाय र दया धर्म और प्रेमभावका खुले मैदान गला काटा ज.रहा है, या मृतकमोनके बहाने दुख. यों का खून चूमा जारहा है । मृतक नो का किसी भी जैन सूत्र में उल्लेख नहीं है। यह कुप्रथा जैन धर्म के सर्वथा विरुद्ध है और दूसरों की देखादेखी जैन समाजमें प्रचलित होगई है । जो हृदयहीन मनुष्य इस कुपथाकी किसी प्रक से पुष्टि करते हैं वे केवल लड्डू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१] मरणभोज। गटकने के लिये जैन समाजको धर्मके नामपर धोखा देकर मिथ्यात्वके गहरे गड्ढेमें ढकेलते हैं और अपने लिये नर्कगतिका बन्ध बांधते हैं। इस नीच प्रथाको शीघ्र ही बन्द कर देना चाहिये । इसमें धनी निर्धन या किसी भी आयुकी कोई शर्त नहीं होनी चाहिये । ४०-कविवर श्री. कल्याणकुमार 'शशि'-मापसे जो नुक्तेकी बात करते हैं वे स्वयं उपहासास्पद बनते हैं। आपसे मरणभोजकी आशा हिन्दू मुस्लिम समझौता जैसी है । इस भयंकर प्रथाका समाजसे शीघ्र ही नाश होना चाहिये । ४१-५० छोटेलालजी परवार-सुपरि० दि० जैन बोर्डिंग अहमदावाद-मैं इस भयंकर प्रथाका कट्टर विरोधी हूँ। मेरे हृदयपर एक घटनाने भारी चोट लगाई है (जो करुणाजनक सच्ची घटनामोंमें नं० २३ पर मुद्रित है) तमीसे मैंने मरणभोजमें जाना छोड़ दिया है । नुक्ताका वार्ताला ही मुझे बुरा लगता है। ४२-विद्यारत्न पं० कमलकुमारजी शास्त्री-तथा बा० ममोलकचंदजी खण्डवा-जैनोंमें मरणभोज. ब्राह्मणों के अनुकरणका फल है । जैन शास्त्रोंमें इसका कोई विधि विधान नहीं है । यह प्रथा जैन शास्त्र और जैनाचारके सर्वथा विरुद्ध है। यहां पर यह भयंकर प्रथा भभी भी बुरी तरह जारी है। ४३-ब्र. नन्हेलालजी-भट्टारकीय जमानेमें ब्राह्मणोंसे यह क्रिया जैनोंमें भागई है। इसका जैनागम या जैनाचारसे कोई संबंध नहीं है। राजपूतान में तो कहीं की जैन लोगोंमें 'श्राद्ध' भी करते हैं। वागड़ प्रान्त में तो इतना रिवाज़ है कि यदि किसीकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय। [८३ शक्ति १३ दिनमें नुक्ता करनेकी न हो तो पंच लोग जमानत लेकर पगड़ी बांध देते हैं । फिर सुविधा होनेपर नुक्का करवाते हैं अन्यथा उसे भटका देते हैं। इधर हूमड़ोंमें 'पिण्ड क्रिया' भी ब्राह्मणसे कराई जाती है। गंगास्नान' और 'गोदान' का भी संकल्प किया जाता है। जहां जैन समाजमें इतना मिथ्यात्व घुसा हुमा है वहांकी . स्थितिका क्या वर्णन करूं? ४४-सेठ मूलचन्द किसनदासजी कापड़ियासंपादक जैनमित्र तथा दिगम्बर जैन, सूरत-मरणभोज किसी भी. भवस्थामें शास्त्रोक्त नहीं है । मरण और भोज यह शब्द ही संगत नहीं हैं । मरण मोजकी प्रथा मिथ्यात्वियोंका अनुकरण है । जैनधर्म और जैनाचारसे यह सर्वथा विरुद्ध है। पहले सूरतमें हमारी ( वीसा हूमड़ ) जातिमें मरणके ५-५ नीमनवार जबर्दस्ती देना पड़ते थे। किन्तु अब यह प्रथा यहांसे उठ ही गई है। अब तो ८० वर्षके बुड्ढे का भी मरणभोज नहीं किया जाता । इसी प्रकार अन्य प्रान्तों में भी शीघ्र ही बंद होजाना चाहिये। इसके लिये स्वयं शामिल न होनेकी और दूसरोंसे प्रतिज्ञा करानेकी आवश्यक्ता है। १५-मिश्रीलालजीगंगवाल इन्दौर-पहां नुक्ता मांदो. लनके समय कई प्रचण्ड जैन विद्वानोंकी सम्मतियां मंगाई गई थीं। उनके बलपर मैं कह सकता हूँ कि इस प्रथाका जैन धर्म और जैनाचारसे कोई संबन्ध नहीं है। इस प्रथाका बंद होना आवश्यक है। ४६-पं० सत्यंधरकुमारजी सेठी-जिस प्रकार जैनों में देवी देवताओंकी पूना घुस गई, उसी प्रकार पड़ौसियोंके संसर्गसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wand ८४] ... मरणमोज । मरणभोज भी घुस गया। जैन शास्त्रोंमें कहीं भी इस प्रथाका समर्थन नहीं मिलता। जैनसमाजमें से इस प्रथाका शीघ्र ही नाश होना चाहिये। ४७-कस्तूरचन्दजी वैद्य-मंत्री जैन विधवाश्रम अकोलाजैनधर्म और जैनाचारकी यह विरोधी प्रथा न जाने जैन समाजने क्यों कर अपना ली ? हमारे भाश्रममें ऐसी अनेक विधवायें हैं जिन्हें मरने पतिका मरणभोज करके बर्बाद होना पड़ा और फिर निराधार होकर मार्गभ्रष्ट होना पड़ा। मगर अभागी जैन समाजकी भांखें ही नहीं खुलतीं। ४८-आयुर्वेदविशारद पं० सुन्दरलालजी दमोहजैनागम और जैनाचारकी दृष्टिसे शुद्धिके लिये भी मरणमोज मावश्यक नहीं है । यह तो मात्र मिथ्यात्व है। इस घातक प्रथाका शीघ्र ही नाश होना चाहिये ।। ४९-५० बाबूरामजी जैन बजाज आगरा-वैदिक धर्मानुयायियों के प्रभावसे जैनोंमें यह प्रथा घुसी है । जैन धर्म और जैनाचारसे इसका कोई संबंध नहीं है । इस ग्रथाने समाजको बेहाल कर दिया है । इसका शीघ्र ही नाश होना चाहिये । ५०-श्री०शान्तिकुमार ठबली नागपुर-यह प्रथा धार्मिक नहीं किन्तु सामाजिक कुरूढ़ि है। यह निन्दनीय प्रथा है। इसका शीघ्र ही नामनिशान मिटना चाहिये। ५१-पं० रामकुमारजी 'स्नातक' न्यायतीर्थमरणभोजकी प्रथा जैनधर्म और समाजके लिये एक भारी कलंक है। इससे समाजका बहुत पतन हुभा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com .. :". Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय। [४५ इन सम्मतियोंके अतिरिक्त मेरे पास और भी अनेक विद्वान् तथा श्रीमानोंके पत्र माये थे जिनमें उनने मरणभोजके प्रति अपना विरोध प्रगट किया है और मेरे कार्यकी मनुमोदना की है। उन सबकी सम्मतियां और विचार प्रगट करना स्थानामावके कारण शक्य नहीं है । इसलिये यहांपर मात्र उनमें से कुछके नाम ही प्रगट किये जाते हैं मतः वे मुझे क्षमा प्रदान करेंगे। १-५० कुन्दनलालजी न्यायतीर्थ भोपाल, २-मा० मोतीला• लनी तलवाड़ा, ३-श्री० फूलचन्दजी सोगानी शोपुरकलां, ४-बा० नेमीचन्दजी पटोरिया वकील छिंदवाड़ा, ५-५० भुवनेन्द्रकुमारजी 'विश्व' जबलपुर, ६-मा० जिनेश्वरदासजी भेलसा, ७-मा० ज्ञानचन्दजी सिरोंन, ८-मा० उत्तमचन्दजी लखनादौन, ९-श्रीमान् कपूरचन्दजी केवलारी, १०-श्रीमंत सेठ विरधीचन्दजी सिवनी, ११पं० सुमेरुचन्दजी न्यायतीर्थ कोलारस, १२-पं० रवींद्रनाथजी न्यायतीर्थ रोहतक, १३-पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ बनारस, १४ला० जौहरीमलजी सर्राफ देहली, १५-१० सुदर्शनलालजी एटा, . १६-बा० कपूरचन्दजी सं० जैन संदेश आगरा, इत्यादि । - मरणभोज कैसे रुके ? प्रत्येक कुरीतियां जबर्दस्त आन्दोलनके प्रभावसे शक्तिहीन होकर नष्ट हो जाती हैं। ऐसी भनेक रूढ़ियां आपने नष्ट होती हुई देखी हैं। इसी प्रकार आन्दोलन करनेसे मरणभोजका रुक जाना भी भशक्य नहीं है। माप इस पुस्तकके 'मरणभोज विरोधी आन्दोलन' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] मरण मोज । प्रकरण में देख चुके हैं कि थोडेसे आन्दोलन से अच्छी सफलता मिल रही है। इस आन्दोलनको अभी और भी उम्र बनाने की आवश्यक्ता है। इसमें संदेह नहीं कि भान्दोलनका प्रभाव धीरे धीरे बढ़ता जाता है। पाठकों को इस बातका अनुभव होगा कि गत कुछ वर्षों के आन्दोलन से जनता के विचारोंमें बहुत परिवर्तन हुआ है। यही कारण है कि कई जगह ४०-४५ वर्ष से कम आयुके मृतव्यक्तियोंके मरणभोज नहीं किये जाते और कई जगह तो इनकी कतई बंदी होगई है। कितने ही विवेकी लोग अपने जीतेजी ऐसा प्रबंध कर जाते हैं कि मेरे मरनेपर मेरा ' मरणभोज' न किया जाय । अभी पिरावा नि० श्री० चन्दूलाल बल्द बिहारीलालजी जैन ने बाकायदे स्टाम्पपर लिखत की है कि मेरे मरनेपर मेरा मरणभोज न किया जाय । आपके कुछ शब्द यह हैं- "यह रिवाज़ हमारे मज़हब जैन के उसूलके खिलाफ है । मज़हब जैनके मुआफिक किसीके मर जानेके बाद लोगोंके खिलानेका कोई सवाब नहीं माना गया और न मरनेवालेकी रूहको कोई फायदा पहुंचता है । इसलिये अमोलकचन्द जैन पिराबाको वसिमत तहरीर करके रजिस्ट्री करा देता हूं कि मेरे और मेरी औरत सुन्दर बाईके मरने के बाद हम दोनोंका नुक्ता, छहमाही या वर्षी न की जाय । दोनोंके नुक्ता में जो ३५०) खर्च होते उन्हें कायम रखकर उसके सुदका धर्मार्थ उपयोग किया जाय । अगर अमोलकचन्द इसके खिलाफ (मुक्ता) करेगा तो दौलतको नदराहमें लगानेवाला और मेरी रूहको तकलीफ पहुंचानेवाला समझा जायगा । " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज कैसे रुके ? इससे पाठक सूमझ सकेंगे कि श्री० चान्दूलालजीको मरणभोजसे कितनी घृणा है, और यह भान्दोलनका ही प्रभाव है। इसी प्रकार और भी कई श्रीमानोंने मान्दोलनसे प्रभावित होकर मरणभोज नहीं किया और मच्छी रकम दानमें दी है। अभी हाल ही साहू शांतिप्रसादजी जैन रोहतास इन्डस्ट्रीज़की माताजीका स्वर्गवास हुभा है। उनने मरणमोजादि न करके ५०००००) पांच लाख रुपयाका मादर्श दान किया है। पूनाके सेठ घोड़ीराम हीराचन्दजी जैनने अपनी माताजीका नुक्ता न करके ५०००) गरीबोंकी रक्षाके लिये दान किये हैं। जबलपुरके सुप्रसिद्ध श्रीमान स० सिंघई भोलानाथ रतनचंदजीका स्वर्गवास होनेपर मरणभोज नहीं किया गया, किन्तु ५००) दान किये गये। झांसीमें सिं० गुलाबचचंदजी जैनकी मामीका स्वर्गवास होगया । उनने मरणभोज न करके यथाशक्ति अच्छा दान किया है। इसी प्रकार और भी अनेक उदाहरण ऐसे हैं जिनसे ज्ञात होता है कि जनतापर आंदोलनका अच्छा प्रभाव पड़ रहा है। आन्दोलनका यह भी प्रभाव हुआ है कि यदि कोई हठपूर्वक रसोई बनाता भी है तो कई लोग उसके यहां जीमने नहीं जाते। कुछ ही समयकी बात है. कि जोधपुर में बद्रीनाथजी मूथाने अपनी माताजीका मरणभोज किया । ५०० लोगोंको भामंत्रण दिया। किन्तु उसमें २५० लोग ही संमिलित हुये । इसी प्रकार यदि सर्वत्र बहिष्कार किया जाय तो बहुत जल्दी सफलता मिल सकती है। मैंने अपने पितानीका मरणभोज नहीं किया। इससे मच्छा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] मरणभोज। भान्दोलन हुभा है । परिणामस्वरूप अन्य कई लोगोंने मरणभोज नहीं किये । जैन मित्र और वीमें पण्डित गोरेलालजी जैनने समाचार छाया है कि " संघपा नि० पं. मोतीलालजीकी पितामहीका ७५ वर्षकी आयुमें स्वर्गवास होया । लोगोंके भाग्रहसे रिवाजानुसार मरणभोजका विचार हुआ। मगर मैंने बहुत समझाया कि अपने गरीब प्रांत (बुन्देलखण्ड ) में यह घातक प्रथा मिटा देनी चाहिये । तब आपने पं० परमेष्ठीदासजी का अनुकरण करते हुये मरणभोज बन्द कर दिया और गोलापूर्व जैन समाजमें इस घातक प्रथाको बन्द करने का सर्व प्रथम श्रेय आपने ही लिया । अब आप भानी पितामहीके स्मरणार्थ एक पुस्तक प्रगट करनेवाले हैं।" जैन समाजके प्रखरसुबारक रुदैनी नि० पन्नालालजी जैन घिरोरने माने एक पत्र लिखा है कि "आपके समान ही एक मामका मेरे ऊपर अटक गया था। मेरे पिताजीका ७० वर्षकी भायुमें स्वर्गवास होगया। यहांकी समाज मरणभोजके लिये भाग्रह करती रही, मगर मैंने भापके साहस और आदर्शका अनुकरण करके मरणभोज नहीं किया।" __इन घटनाओं के उल्लेख करनेका तात्पर्य यह है कि यदि कोई साहसपूर्वक अपने घरसे सुधार करे तो उसका अनुकरण करनेवाले भी बहुत होजाते हैं । और फिर उनके भी अनुकरण करनेघाले तैयार होजाते हैं । इस प्रकार धीरे धीरे कुरूढ़ियोंका नाश होता जाताहै । मरणभोजको बंद करनेके लिये भी स्वयं नमूना बननेकी आवश्यक्ता है। मरणभोजकी घातक प्रथाको बन्द करने के लिये प्रत्येक जगहकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज कैसे रुके १ [ ८९ : परिस्थिति के अनुसार अनेक उपाय हो सकते हैं । किन्तु मैं यहांपर कुछ सर्वसामान्य उपाय लिख रहा हूं १ - यदि आप मरणभोज के विरोधी हैं और यदि इस पुस्तकको पढ़ने के बाद कुछ दया उत्पन्न हुई है तो प्रतिज्ञा करिये कि मैं किसी भी मरणभोज में न तो भोजनके लिये सम्मिलित होऊँगा और न इस कार्य में किसी भी प्रकारका सहयोग ही दूंगा । २- यदि आपके घर में, कुटुम्बियों में या रिश्तेदारोंमें मरणभोज होरहा है तो मात्र आपके न जाने या उपेक्षा रखने से काम नहीं चलेगा, किन्तु आप साहसपूर्वक उसका डटकर विरोध करिये, समझाइये और इतने पर भी सफलता न मिलने पर उसके विरोध स्वरूप उपवास करिये । और उसे सबपर प्रगट कर दीजिये । ; ३ - अपनी जातिमें, ग्राम में और आसपास के ग्रामोंमें जाकर तथा मेला, प्रतिष्ठा या समादिके समय लोगों में मरणभोज विरोधी प्रचार करिये । तथा अधिक से अधिक लोगोंसे मरणभोज विरोधी प्रतिज्ञापत्र भराइये, जो " ला० तनसुखरायजी जैन मंत्री दि० जन परिषददेहली " को पत्र देने से यथेष्ट संख्या में मुफ्त मिलेंगे । ४ - जब आपको मालूम हो कि कहीं मरणभोज होनेवाला है तब आप कुछ प्रभावक लोगोंको साथ लेकर वहां समझाने जाइये और उचित मार्ग बताइये । यदि समझाने पर वह न माने तो उसे स्वयं या अपने किसी मण्डलकी ओरसे चेतावनी दीजिये कि यदि आप मरणभोज करेंगे तो हम डटकर विशेष करेंगे। यदि इसमें भी सफलता न मिले तो मरणभोज विरोधी इश्तिहार छपाकर जीमने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.] वालोंके घर तथा भाम जनतामें बांटना चाहिये तथा उसमें अपना निश्चय प्रगट कर देना चाहिये। फिर भी यदि सफलता न मिले तो भपनी मण्डलीके कुछ साहसी युवकोंको तथा कुछ बहिनोंको लेकर मरणभोज करनेवालेके दरवाजे पर शांत एवं अहिंसापूर्ण पिकेटिंग (धरना) करिये । फिर देखिये कितने निष्ठुरहृदयी मापकी छातीपर पैर रखकर भोजन करने भीतर घुसते हैं। श्रीमती लेखवतीजी जैनके शब्दोंमें तो "बहिनोंको भी पिकेटिंग करना चाहिये, फिर भी जिन निष्ठुर पुरुषोंको मरणभोजमें जाना होगा वे भले ही बहिनोंकी छातीपर लात रखकर चले जावें ।" ५-प्रत्येक नगरमें मरणभोज विरोधी दल स्थापित होना चाहिये अथवा प्रत्येक मण्डल, युवकसंघ, विद्यार्थी संघको यह कार्य अपने हाथमें लेना चाहिये । सफलता अवश्य मिलेगी। साहसी युवको! मुझे तुमसे बहुत आशा है। तुम प्रतिज्ञा करो और अपने मित्रोंसे प्रतिज्ञा कराभो कि हम मरणभोजमें किसी प्रकारका भाग नहीं लेंगे। समाजमें मरणभोन जैसी राक्षसी प्रथा चालू रहे और युवक देखा करें यह तो युवकोंके सिर सबसे बड़ा कलंक है । इस कलंकको मिटानेके लिये मरणभोज विरोधी जबर्दस्त मान्दोलन उठाओ। मच्छे कामोंमें सफलता अवश्य मिलती है। विवेकशील बहिनो ! तुम तो दया और करुणाकी मूर्ति हो । फिर क्यों इस निर्दयतापूर्ण रूदिको पुष्ट कर रही हो ! यदि तुम मरणभोममें जाना छोड़ दो, उसमें किसी प्रकारका भाग नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज कैसे रुके ? [९१ लो भौर उसका डटकर विरोध करो तो निश्चय ही यह प्रथा समाजसे जल्दी ही उठ जाय । तुम देख रही हो कि मरणमोजके कारण तुम्हारी विधवा बहिनोंकी कैसी दुर्दशा होती है। फिर भी तुम इसका विरोध क्यों नहीं करती ? तुम्हारी ओरसे तो कोई मान्दोलन ही नहीं दिखाई देता । तुम्हें तो इसके विरोधमें सबसे आगे होना चाहिये। मुझे विश्वास है कि जब तुम इसके विरोधमें अपनी मावाज़ उठाओगी तब मरणभोजका रहना असम्भव होजायगा । समाजके मुखियाओ! अब देश और समाजकी गतिविधिको भी देखो तथा विचार करो कि इस भयंकर प्रथाने अपनी समाजका कैसा नाश किया है । सैकड़ों हजारों घर इसीके कारण बरबाद होगये हैं। इसलिये इस रूदिका सर्वथा नाश कर दो। माप तो आजकलके स्वतंत्र बातावरणमें जी रहे हैं, तब फिर इस बिनाशक राक्षसी प्रथाको क्यों नहीं मिटा देते ? सम्माननीय पाठकवर्ग! इस पुस्तकको पढ़कर यदि मापके मनमें मरणभोज विरोधी विचार उत्पन्न हों तो आप भी कुछ प्रयत्न करिये । ऐसे कार्य तो संगठन और ऐक्यसे ही होसकते हैं। माशा है कि यदि आप लोग सम्मिलित प्रयत्न करेंगे तो अवश्य ही सफलता प्राप्त होगी। जिस दिन जैन समाजसे मरणभोजका मुंह काला होगा उसी दिन जैन समाजका मुख उज्वल होसकेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता-संग्रह। मरणभोज । [ रच०-श्री० घासीराम जैन " चन्द्र"] सिसक सिसककर इधर रोरही है विधवा बेचारी । उधर वालसमुदाय विलखता देदेकर किलकारी ॥ नहीं पास है इतना धन जिससे व्यतीत हो जीवन । ऐसी कुदशा छोड़ पधारे स्वर्ग लोक जीवनधन ॥ कहो किस तरह विश्वमें जीवनका निस्तार हो । कैसे विधवावृन्दका भारतमें उद्धार हो । (१) अभी तीसरा भी तो पतिका हुवा नहीं है। कामकाज निज कर विधवाने छुवा नहीं है । निज प्यारी संतान न अबतक गले लगाई। धीरज तनिक न हुवा न कुछ तनकी सुध पाई ॥ नुक्ता करवाने यहां पंचलोग माने लगे। माल उड़ानेके लिये जेवर विकवाने लगे ॥ (२) विधवा कहती कहो किस तरह जाति जिमाऊँ । कर्जा लूं या निज जेवर गिरवी रखवाऊँ ।। नहीं पास पैसा है जिससे काम चलाऊँ । ' भगवन् ! ऐसे दुखमें कैसे धीरज पाऊँ । सह न सकूँगी तनिक भी मैं उलाहने जातिमें। नुक्ता करना ही पड़े सहूं सभी दुख गातमें ॥ (३) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता-संग्रह। [ ९३ बोले पंच तुम्हारे पतिका नाम बड़ा है। किया उन्होंने यहां आजतक काम बड़ा है ॥ बुद्धिमान थे और जातिमें नाम कमाया। अपना मस्तक कभी नहीं नीचा करवाया ॥ गर उनका होगा नहीं नुक्ता वसी शानसे । कैसे अपनी जातिमें बैठोगी भभिमानसे ॥ (४) विधवाको देदेकर वाढ़ें हा नुक्ता करवाया। जेवर वेचाया मकान उसका गिरवी रखवाया ॥ पांच पांच या चार वरसके बालक भी पालेगी। उधर जातिद्वारा आये संकटको भी टालेगी । ऐसी दुष्ट प्रथामई जाति तुझे धिक्कार है। ___ जहां पेटको होरहा इतना अत्याचार है ।। (५) यह तो थी असमर्थ समर्थोकी अब सुनो कहानी । जिसको सुनकर भर आयेगा निज आंखोंमें पानी ॥ बीस वरसका पुत्र सेठजीका था गौरवशाली। .. जिसे निरख सह वधू सेठजीको छाई हरियाली ॥ .. कालचक्रके चक्रमें हुवा अधिक बीमार था । वचनेका उसका तनिक रहा नहीं मासार था ॥ (६) एक वही था उनके वह इकलौता बेटा । हाय अचानक उसे कालने मान समेटा ॥ नव विवाहिता वधू विलखती छोड़ सिधारा । चला सेठकी छातीपर क्या काल दुधारा ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] मरणमोज। हाय हायकर विविध विष शोक वहां होने लगा। सारा ही परिवार तब विलख विलख रोने लगा ॥ (७) भरे दुष्ट लोगोंने उसका भी नुक्ता करवाया । क्रन्दन करती विधवाका कुछ भी तो तरस न माया ॥ परवा नहीं द्रव्यकी लाखों भरे हुवे थे घरमें । पर अनर्थका डंका भारी बनता था जगभरमें ॥ कहो कौन रोगा नहीं देख हमारी नीचता । जिसे देखकर मूर्ख भी सहसा आंखें मींचता ॥ (८) किसी शास्त्रमें नुक्तेका सुविधान नहीं है। नुक्तामें कोई स्वजातिकी शान नहीं है ॥ स्वर्ग लोकमें मृत नरका सम्मान नहीं है। पर्व-जनोंकी इसमें कोई शान नहीं है। फिर क्यों ऐसी कुप्रथा की कीचड़में फंस रहे। तुम्हें देखकर सभ्यगण "चन्द्र" सभी हैं हंस रहे ॥ (९) मरे माइयो अब तो युग उन्नतिका माया । नहीं चलेगा ढोंग यहां अब यह मनभाया । सत पथपर था ऐसी दुष्ट प्रथाएं छोड़ो। कुटिल कुरीति कुमार्ग सदा इनसे मुख मोड़ो ॥ प्राण बचाओ जातिके त्याग दीनता हीनता । 'चन्द्र" न हरगिज इस तरह फैलाओ मति दीनता ॥(१०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता-संग्रह। नुक्तेकी भेट ! [ रचयिता-कविवर श्री. कल्याणकुमार मैन “शशि"] सामाजिक अत्याचारोंपर हो लो पानी पानी। युक्त प्रान्तके एक नगरकी है यह करुण कहानी ॥ सरल स्वभावी जैनी लाला दीनानाथ विचारे । क्रूरकालसे कवलित होकर असमय स्वर्ग सिधारे ॥ (१) अपने पीछे वीस वर्षकी विधवा पत्नी छोड़ी। मानों इस निर्दयी कर्मने सुन्दर कली मरोड़ी ॥ लाला दीनानाथ बहुत थे साधारण व्यापारी । खर्च इसलिये होजाती थी कमी कमाई सारी ॥ (२) इस कारण ही अपने पीछे अधिक नहीं धन छोड़ा । क्रिया कर्ममें खर्च होगया जो कुछ भी था थोड़ा । विधवा अबला 'रत्न प्रभा' का रहा न नेक सहारा । कैसे होगा बेचारीका आगे हाय गुज़ारा ॥ (३) पर समाजके माधीशोंका इसपर ध्यान नहीं था। मानों पंचायती राज्यमें इसको स्थान नहीं था । यह निर्दयी समाज न उसकी किञ्चित् सुध लेती थी। विलख विलख कर भबला पानी प्राण दिये देती थी (४) सम्पति, सन्तति हीन प्रथम थी पति भब हुआ पराया। भोली युवती सब कुछ खोकर हाय हुई असहाया ।। तिसपर एक नया संक्ट यह रत्नप्रमापर माया । पंचोंने जल्दी 'नुक्का ' करने का हुक्म सुनाया (५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] मरणभोज । एकाएक नये संकटसे घबरा गई बिचारी । नाच गई आंखोंमें आकर नव भविष्यकी ख्वारी ॥ सोचा था कुछ जोड़ गाठ जीवन निर्वाह करूँगी। धर्म ध्यान रत जैसे होगा पापी पेट भरूंगी (६) पर नुक्तेके महाशापने सब पर पानी फेरा । हाय अधूरी ही निद्रामें असमय हुआ सवेरा ॥ पड़ी और मरतीके ऊपर ये दो लातें ज्यादा । कैसे अब रक्खे समाजमें अक्षुण्ण कुल मर्यादा (७) आखिर सब पन हार गई फिर पंचों पर बेचारी । बड़ी दीनतायुत रो रो करके यह अर्ज गुज़ारी ।। पंचराज ! मैं हाय लुट गई अशुभ कर्मकी मारी । प्राणेश्वर मर गये किन्तु हा मैं न मरी हत्यारी ॥ (८) जीवन भार सिर पड़ा मेरे इसको ढोने दीजै । पर इस 'नुक्ते' के कारण मेरी मत ख्वारी कीजै ॥ भाप सोचिये कैसे संभव होगा हुक्म बजाना । जब कि नहीं है यहां पेट भरने के लिये ठिकाना ॥ (९) पंचोंके मागे बहुतेरी विधवा रोई घोई । पर लड्डू-लोलु पापी दलमें न पसीजा कई ॥ सब कुछ कहा दुहाई भी दी किन्तु न कुछ फल पाया ! सिकताथलपर कहो किसीने भला कभी जल पाया ॥ (१०) बोले पंच पापिनी हमसे अधिक न बात बनाना । ", यह प्राचीन धर्म है इसको पड़े जरूर निभाना॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता-संग्रह। [६९० कुशल चाहती है अपनी तो नुक्का करना होगा। वरना दण्ड बड़ा भारी फिर इसका भरना होगा.॥ (११) अबला समझी खूब दण्ड जो उसको भरना होगा। हो समाजसे खारिज फिर दरदरपर फिरना होगा । यही पंच परमेश्वर फिर उल्टा परिणाम निकाले । इन्हें न कुछ संकोच पंच यह जो कुछ भी करडालें ॥ (१२) महासंकटोंकी सिरपर घनघोर घटा घिर आई। मानों हो इस ओर कूप उस मोर मयंकर खाई॥ समझ गई इस पंच कचहरीसे जो कुछ होनाथा । व्यर्थ पत्थरोंके मागे सिर धुनधुनकर रोना था ॥ (१३) फिर उठ चकी नाट्यसा करके वह लापरवाहीका । कहती गई नाश हो जल्दी इस तानाशाहीका ।। पड़न मषिक पचड़े में उसने शीघ्र किया यह निर्णय । सभी संकटोंका कारण है मेरा जीवन निर्दय ॥ (१४) मतः नाशकारी कुप्रथापर इसका अंत उचित है । ईश्वर जाने मुरदेका खाजानेमें क्या हित है। अस्तु, कुएमें कूद पड़ी हो नुक्केसे दुःखित मन । तनिक देर मन्त होगया उसका कोमल जीवन ॥ (१५) पता नहीं इस मांति नित्य ही हा! कितनी भवलाऐं। जीवनकी बलि चढ़ा चुकी हैं छोड़ करुण गाथाएँ । भभी मेंट होंगी कितनी कुछ उसका नहीं ठिकाना । कब होगा यह नष्ट भ्रष्ट पाखण्ड भतीव पुराना ।। (१६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .९८] परणमोज । प्राणाधारसे ! [रच०-पं० राजेन्द्रकुमारजी जैन 'कुमरेश' साहित्यरत्र ।] नाथ मापके साथ उसी दिन, यदि मैं भी मर जाती। तो मरनेसे अधिक आपदा, यह मुझ पर क्यों आती। मैं दुखिया हा यहां रह गई, और साथ है कच्चा । भटक रहा दाने दानेको, माज तुम्हारा बच्चा ॥१॥ नहीं खबर लेनेवाला है, भूख प्यासकी मेरी । मैं हूं और लाल है मेरा, फूटी किस्मत मेरी ।। हाय व्यथा अपनी भी तो मैं, नहीं कहीं कह सकती। रो सकती हूं हाय न मैं पर, रोकर भी रह सकती ॥ २ ॥ पंचोंका मादेश मुझे हा, पूरण करना होगा। करूं नहीं तो, नहीं जातिमें, मेरा रहना होगा ॥ मरण भोज करना ही होगा, केसी करूं करे रे। छोड़ गये तुम तो प्रीतम पर, पास न कुछ भी मेरे ॥ ३ ॥ बेचूं यह रहनेका घर क्या, या इस तनके गहने । नहीं किया तो नाथ वाइने, मुझे पड़ेंगे सहने ॥ यह बच्चा होकर मनाथ हा. भटके मारा मारा। पर पंचोंका पेट हाय क्या, भर दूं लड्डु द्वारा ॥ ४ ॥ मामो पंचो भरे जीमलो, मैं हूं लाल खड़ा है। हमें मिटा दो तुमको तो फिर, होगा लाम बड़ा है ।। मरणभोज हो मरणमोन ही, पंचो भरे करूंगी। अपना और काल भपनेका, हां! हां !! हनन करूंगी ॥ ५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कविता-संग्रह। [९९ लड्डुलोभी पंच। (रच०-श्रीमती कमलादेवी जैन-सूरत । ) मरणके लड्डूलोभी लोग, मान बनकर परमेश्वर पंच । लूटते विधवाओंको खूब, दया आती नहिं उनको रंच ॥ १ ॥ कलेजा पत्थरका करके, बने लड्डू खानेमें दक्ष । लूटने वे भबलामोंको, बने बैठे हैं पूरे यक्ष ॥२॥ नहीं हो विधवाके घरमें, ___ व्यवस्था कलके खानेकी । लगाये रहते फिर भी माश, पंच तो लड्डू पानेकी ॥३॥ अगर होनेसे द्रव्यविहीन, बिचारी वह विधवा नारी । नहीं कर सकनेकी नुक्ता, प्रगट करती है लाचारी ॥ ४ ॥ पंच तब धमकी दे उसको, कराते मरणभोज भारी। लुटाकर उसमें वह सर्वस्व, भटकती भूली दुखपारी ॥५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] मरणमोज। मृत्युभोज निषेध । [ रच०-६० शुकदेवप्रसादजी तिवारी विद्याभूषण । ] कह की कह सब है गई, समुझि न जाय । यह समाज कस है गई, बुद्धि विहाय ॥ समदर्शीपन यानें, दियो भगाय । __ दूजेके दुखमें मुख, रही मनाय ॥ पंचनकी बुधि झिंगुरन, चरिंगे हाय । ऐसिन दुरमति फैली, कही न जाय ॥ जाति बीच यदि कोऊ कहुँ मरि जाय । तीन दिनोंके पीछे, सब जुरि जांय ॥ मृतक ढोर पे मानहु, गिद्ध उड़ाय । ऐसहि नीम सँभारे, अरु ललचाय ॥ देखत नाहिं विपत्ती, दुखियन केर । खोयो मानुस घरको, सेवहिं टेर ॥ दया गँवा दई हियसों, भये कठोर । निरदई है के निरनै, दयो बटोर ॥ देवत निरनै, घरकी, दशा भुलाय । दुखी जीव सब घरके, का कल खाय ॥ इतने पे, पुरुखनकी, कथा सुनाय । ऊँची होय रसहया, बात न जाय ।। चढ़ा सरग पै ‘सबको, देत गिराय । पीछेका फिर है, दया न माय ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता संग्रह। काटत चिठिया लिख लिख, बढ़ौ हुलास । गिनन लगे दिन पै दिन लग गई आस ॥ कैसिन भई तैयारी, लखी न जाय । भरि मरिके सब लोटा, बैठिसि आय ॥ करि करिके तारीफें, लगे उड़ान । उड़ा उडूके चलिगे, होत बिहान ॥ रोवत दुखी कुटुमवा, करत विलाप । कबहुँ न हेरत फिरिके, कीन्हेसि पाप ॥ भूखे मरत लड़कवा, घर विक जाय । फेरि न पूछत कोऊ, घर पर आय ॥ मृतक भोज जो खावत पाप कमात । इतने हू पै विक है लाज न भात ॥ दुखी कुटुममें जाके, माल उड़ात । मानहु मानस मक्षक, तिन कहँ तात । गीष, श्वान, कौमा मरु, बने शृगाल । मृतक भोजमें जाकर, खावत माल | भैय्यन ! बिनवौं तुम सन, है कर जोर । कछु इक अरजी सुनिल्यो, पावन मोर ॥ कबहुँ न जाकर खाबहु, मिरतक भोज । कठिन कमाई खाकर, जीवहु रोज ॥ दया करहु दुखियन पे, बनो दयालु । तासौं नित प्रभु तुम पर, रहै कृपाल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणभोज। एक दिना जेवनमें, अमर न होय । मृतक भोज पा बितवत, जीवन कोय ? करिल्यो माज प्रतिज्ञा "कबहुँ न जाँय । मृतक भोजके भोजन, कबहुँ न खाँय ॥" 'निरबळ" की यह बिनती, लेबहु मान । सुख सम्पति सन्तति, पावहु यश मान ॥ मरणभोजकी भट्टी। [रचयिता-कविरत्न पं० गुणभद्र जैन] लिखदे सत्वर करुण लेखनी मरण कहानी, सुन जिसको पाषाण हृदय हो पानी पानी; जबतक यह दुष्प्रथा रहेगी जीवित भूपर, भावेंगे संकट अनेक हा ! अपने ऊपर; मरणभोजकी ममिमें, स्वाहा कितने होगये । पाठक ! माप निहारिये, होते हैं कितने नये ॥ १॥ बनकर विष यह प्रथा जातिकी नसमें व्यापी, हुये सभी इसके शिकार सजन या पापी; घरमें मिलता नहीं पेटभर भी हो खाना, पर पंचोंको तो अवश्य हा ! पड़े खिलाना; निर्धन करती जारही, आज जातिको यह प्रथा। दिल दहलादे भापका, दुखप्रद है इसकी कथा ॥२॥ घर उजाड़ बन रहे, आज कितनोंके इससे, अंतरका दुख कहें पासमें जाकर किससे; . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता संग्रह । बरकर पावक रूप प्रथा यह हमें जलाती, शल्य तुल्य भाजन्म चित्तको नित्य दुखाती; मरणभोजकी रीतिमें, भाग लगा देंगे जभी । सुखमें होगी कीन अति, यह समाज सत्वर तभी ॥ ३ ॥ चिर संचित यह द्रव्य धूल में हाय ! मिलाते, करके यह ज्यौनार कौनसा हम सुख पाते; है दुख पहले यही गुमाया निज प्रिय जनको; और गुमाकर उसे गुमाते हैं फिर घनको, इस शठताकी भी भहो, सीमा क्या होगी कहीं । मूरखमें सरताज भी, हमसा होगा ही नहीं ॥ ४ ॥ खिळा विविध पक्वान्न कौनसा पुण्य कमाते, देने से ज्यौनार मृतक जन कौट न जाते; दुख अवसरपर नहीं कार्य यह शोभा पाठा, क्यों करते यह कृत्य ध्यान में लेश न आता; जानबूझकर कुपथके, बनते आज गुलाम हैं । इसीलिये संसार में, डीन हमारे काम हैं ॥ ५ ॥ रोती विधवा कहीं, कहीं भगिनी है रोती, बैठी जननी कहीं चित्तमें व्याकुल होती; रोता है हा ! पिता, कहीं आता भी रोता, रो रो कर शिशु कहीं, दुःखसे भूपर सोता; [ १०३ पाषाणोंके चितमें, का देता बो नीर है । परिजन में सर्वत्र ही, ऐसा दुख गम्भीर है ॥ ६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४] दे न उसे सन्तोष, पेट हम अपना भर कर, जाते हैं निज सदन, मोदकोंकी बातें कर; कहलाते हैं मनुज किन्तु, पशुसे हैं क्या कम, होकरके भी मनुज हुए, जब उन प्रति निर्मम; दुखप्रद दृश्य विलोकते, करते जो माहार हैं। उनसे तो उत्तम कहीं, बनके भील गंवार हैं ॥ ७ ॥ होती है ज्यौनार कहीं, घर गिरवी रख कर, अथवा तनके सकल, भूषणोंका विक्रय कर; फिर भी नहिं हो द्रव्य पूर्ण तो, चक्की दलकर, कूट पीसकर, किसी भांति पानी भी भरकर; करना पड़ता कृत्य यह, पंचोंका 'कर' है कड़ा। मृतक-भोज ही विश्वमें, धर्म अहो ! सबसे बड़ा ॥८॥ लख इसके परिणाम हगोंमें पानी आता, हा! हा ! प थर हृदय सहज टुण्ड़े होनाता; रो पड़ते निर्जीव द्रव्य भी इनके दुखसे, कह सकते हम किस प्रकार उस दुखको मुखसे; हाय ! हमारे पापने, हमें बनाया दीन है। कर पोषण उन्मार्गका, यह समान मतिदीन है । दो भगवन् ! सद्बुद्धि शीघ हम माप विचारें, उत्तम पथमें चलें कभी नहिं हिम्मत हारें, करें कुरूढ़ि विनाश सत्यका जगमें जय हो; सबका जीवन सदा यहां निर्भय मुखमय हो, दो शक्ती इस पापकी, सत्वर मूळ उखाड़ दें। फिरसे इस संसारमें, धर्मस्तमको गाड़ दें ॥१०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ द्वारालिखी गई यह क्रान्तिकारी पुस्तकें अवश्य मंगाइये | १ - चर्चामागर समीक्षा | = ) २- दानविचार समीक्षा ३ - परमेष्ठि पद्यावली ), ) ४- दस्साओंका पूजाधिकार ) ५ विजातीय विवाह मीमांसा | =) || =) ६ - चारुदत्त चरित्र ७ - जैनधर्मकी उदारता " =) गुजराती = ) मराठी मुफ्त 11) ८- मरणभोज मिलने का पता: मैनेजर - दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થી થો alchbllo “eaહ ? 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