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मरणभोज ।
ब्राह्मणोंके सहयोग से यह बुराई हममें आई है । जैन शास्त्रोंसे इस प्रथाका समर्थन नहीं होता । जैनाचार में इसका कोई स्थान नहीं है । यह आचार नहीं किन्तु रूढ़ि है । मरणभोज करना मिथ्यात्व है । समाज के लिये इसे आवश्यक मानना महा मूर्खता है। जैन धर्मका श्रद्धानी इसे कभी भावश्यक नहीं समझ सकता । जयपुर में धीरे २ मरणभोज बंद होरहे हैं । कई प्रतिष्ठित लोगोंने भी मरणभोज नहीं किये हैं। मैंने अपनी माताजीका भी मरणभोज नहीं किया। मेरे पास कई निर्दयतापूर्ण घटनाओं का संग्रह है । कई लड्डूखोरोंने असहाय युवती विधवाके शरीर के आभूषणोंसे मृत्युभोज कराकर निर्दयताका परिचय दिया है ।
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२- पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार - अधिष्ठाता वीर सेवामंदिर सरसावा - मरणभोजका इतिहास तो मुझे नहीं मालूम, किंतु जैनोंमें इस प्रथा के प्रचलित होनेका कारण ब्राह्मण धर्म के संस्कारोंका प्रावश्य जान पड़ता है। जैन शास्त्र और जैनाचार की दृष्टिसे मरणभोज करना उचित नहीं है। यह हिन्दुओंके श्राद्धका एक रूप या रूपान्तर है । जैन समाजमें इसकी कोई आवश्यक्ता नहीं । और न बंद कर देने से किसी अनिष्टकी संभावना ही है । हमारे यहां आन कक मरणभोजकी कोई प्रथा नहीं है । पूर्वजोंने इसे अनुचित और धर्म मानकर छोड़ दिया है। आपने अपने पिताजीका मरणभोज न करके जो साधु कार्य किया है उसके लिये आप धन्यबादके पात्र हैं । ३- पं० नन्हेंलालजी जैन सिद्धांतशास्त्री मोरेनामापने नुक्ता बंद करके जो साहस किया है वह इलाध्य है । माजफल नुक्ताकी कोई मावश्यक्ता नहीं है।
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