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मरणमोज
मरणभोजके समर्थकोंको विचारना चाहिये कि १५ वर्षके लड़का लड़कियोंका भी मरणभोज खानेवाले कितने निष्ठर हृदय होंगे । जहां मरणोपलक्षमें पहरावनी बांटी जाती है वहां मानवताका कितना अधःपतन होचुका है। मारवाड़ प्रान्तके एक न्यायतीर्थ विद्वान लिखते हैं कि हमारे नगरमें तो ९३ या १३वें दिन मरणभोज होता है और प्रत्येक जातीय घरमें एक एक रुपया तथा मिठाई भेजना पड़ती है। यदि कोई ८ वें या १३ वें दिन मरणभोज न कर सका हो तो विवाह के समय पितरोंके उपलक्षमें मरणभोज करना ही पड़ता है। पाठक देखेंगे कि मरणभोजके नामपर रुपया और मिठाई आदि बांटकर मत्याचारको और भी कितना अधिक बढ़ाया जाता है।
एक सुप्रसिद्ध वैद्यराजजीने अपने अनुभव लिखे हैं कि मैंने पंजाब, राजपूताना, मालवा, मेवाड़, यू० पी० और सी० पी० मादिमें रहकर देखा है कि वहां किसी न किसी रूपमें मरणभोजकी प्रथा प्रचलित है । अजमेर, उदयपुर, सुजानगढ़, इन्दौर और पछार मादिमें तो कान (वर्तन) भी बांटी जाती है। सुजानगढ़में जैनोंके मतिरिक्त ब्राह्मणों को अलग भोज कराया जाता है। इसके अलावा तिमासी, छहमासी और वर्षी भी की जाती है।
मुर्दा पर मिठाइयाँ खाना-रावरूपिण्डी शहरमें करीब २५० पर श्वेताम्बर जैनोंके हैं। वहां पर पहले इतनी भयंकर प्रथा भी कि किसीके घरमें मृत्यु होगई हो तो उसके घरपर पंचलोग इकटे होकर पहिले मिठाइयां उड़ाते थे और मुर्दा वहीं रक्खा रहता था। मिठाई खानेके बाद वह मुर्दा स्मशान लेजाया जाता था। देलिये, है न
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