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शास्त्रीय शुद्धि।
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इसलिये अमुक काल व्यतीत होजानेपर स्वयमेव शुद्धि होजाती है। यदि इसके लिये मरणभोज करना भी आवश्यक होता तो आचार्य गुरुदास उसका भी उल्लेख अवश्य करते। किन्तु उनने ऐसा न करके मात्र कालशुद्धि ही बताई है। व्यवहारमें भी यही देखा जाता है कि तेरहवें दिन (कहीं कहींपर १० दिनमें ही) शुद्धि होजाती है, और विना मरणभोज किये ही लोग देवदर्शन तथा पूजादि कार्य करने लगते हैं। इससे सिद्ध होगया कि मरणभोज शुद्धिके लिये भी अनावश्यक है।
मूलाचारके समयसाराधिकारमें भी सूतकका उल्लेख है और उसकी शुद्धिके लिये लौकिक ग्लानिके त्याग करनेका उपदेश दिया है। यथाः
___ " लोकव्यवहारशोधनार्थ सूतकादिनिवारणाय लौकिकीजुगुप्सा परिहरणीया।"
अर्थात-लोकव्यवहारकी शुद्धि के लिये सूतकादिके निवारणके लिये लौकिक ग्लानिका त्याग करना चाहिये। इसीको स्पष्ट करते हुये विद्वज्जनबोधकमें कहा है कि " लोकव्यवहारमें ग्लानि नहीं उपजै तैसें प्रवर्तन करना, याहीत लोकमैं सूतकादिके त्याज्य दिन जे हैं तिनमैं स्वाध्याय पूजन नहीं करते हैं, सो भी धर्मका ही विनय निमित्त ग्लानिरूप दिनका त्याग है।"
इससे भी स्पष्ट सिद्ध है कि मात्र ग्लानिका त्याग कर बंद की हुई स्वाध्यायादि धार्मिक क्रियाओंका प्रारम्भ कर देना ही लौकिक शुद्धि है। इसीसे सूतक-पातककी मशुचिता मिटकर ग्लानि मिट
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