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________________ परणभोजके प्रान्तीय रिवाज। [४५ भी पता लगा कि बहुतसे धनी तीन वर्षके बाद पितरोंमें भी मिलाये जाते हैं। अर्थात् तीसरी मृत्यु-तिथिको भोज होजानेके बाद वे पितृजनोंकी पंक्तिमें शामिल कर लिये जाते हैं-वहां परलोकमें 'अपांक्तेय' नहीं रहते हैं। मालूम नहीं : पितरोंमें मिलाने' का उक्त वास्तविक मर्थ हमारे जैनी भाई समझते हैं या नहीं; परन्तु वे अपने पुरखोंको इस अधिकारपर मारूढ़ जरूर किया करते हैं. यद्यपि पिंड-दान नहीं करते। इस तरफके जैनोंमें 'पितृ पक्ष' भी पाला जाता है। कुँवार वदीके १५ दिनोंमें औरोंके समान ये भी अपने पुरखों के नामपर पक्वान्न सेवन करनेसे नहीं चूकते । माता, पिता, पितामह, मातामह आदिकी मृत्यु-तिथियों के दिन जिन्हें 'तिथि' ही कहते हैं, स्त्रियां पहले उनके नामपर कुछ कान कढ़ाई में से निकालकर अलग रख देती हैं, जिसे 'मछूता' कहते हैं और तब दूरों को देती हैं। यह 'अछूता' पितृपिंड का ही पर्यायवाची जान पड़ता है। इस तरह यह नैननामधारी समाज इस विषयमें वेदानुयायी ही है; फर्क केवल इतना ही है कि इसने पुरखों और अपने बीचके दलालों या माढ़तियों को धता बता दिया है, और अपनी वणिक. बुद्धिसे पुरखों के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ लिया है । मालूम नहीं, इस ब्राह्मणविरहित श्राद्धसे उन्हें तृप्ति होती है या नहीं ! हमारा यह सब भाचार इस बातका प्रमाण है कि कोई भी समाज हो, वह अपने पड़ौसियोंके आचार-विचारोंसे प्रभावित हुए विना नहीं रहता, और साधारण जनता सत्व और सिद्धान्तोंकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034960
Book TitleMaran Bhoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherSinghai Moolchand Jain Munim
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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