________________
९४]
मरणमोज। हाय हायकर विविध विष शोक वहां होने लगा।
सारा ही परिवार तब विलख विलख रोने लगा ॥ (७) भरे दुष्ट लोगोंने उसका भी नुक्ता करवाया । क्रन्दन करती विधवाका कुछ भी तो तरस न माया ॥ परवा नहीं द्रव्यकी लाखों भरे हुवे थे घरमें । पर अनर्थका डंका भारी बनता था जगभरमें ॥
कहो कौन रोगा नहीं देख हमारी नीचता ।
जिसे देखकर मूर्ख भी सहसा आंखें मींचता ॥ (८) किसी शास्त्रमें नुक्तेका सुविधान नहीं है। नुक्तामें कोई स्वजातिकी शान नहीं है ॥ स्वर्ग लोकमें मृत नरका सम्मान नहीं है। पर्व-जनोंकी इसमें कोई शान नहीं है।
फिर क्यों ऐसी कुप्रथा की कीचड़में फंस रहे।
तुम्हें देखकर सभ्यगण "चन्द्र" सभी हैं हंस रहे ॥ (९) मरे माइयो अब तो युग उन्नतिका माया । नहीं चलेगा ढोंग यहां अब यह मनभाया । सत पथपर था ऐसी दुष्ट प्रथाएं छोड़ो। कुटिल कुरीति कुमार्ग सदा इनसे मुख मोड़ो ॥
प्राण बचाओ जातिके त्याग दीनता हीनता । 'चन्द्र" न हरगिज इस तरह फैलाओ मति दीनता ॥(१०)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com