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परण मोज ।
कर्ता घर्ता मरणभोजको घधार्मिक, आवश्यक, समदत्ति, पात्रदत्ति मौर न जाने क्या क्या समझते हैं । किन्तु अन्य जातीय सभाओं, युवक संघों, पंचायतों तथा परिषद आदि द्वारा कभी कभी प्रयत्न होता रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप आज समाजके कुछ भागमें मरणभोज के प्रति घृणा उत्पन्न होगई है ।
परवार सभाका प्रयत्न
दिगम्बर जैन समाजमें ' परवार सभा' यद्यपि जातीय सभा थी, किन्तु उसने मरणभोजके विरुद्ध खूब आन्दोलन किया था। सन् १९२५ में उसके पपौराक अष्टमाधिवेशन में श्री० सिंघई कुंवरसेनजी सिवनीने न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीके सभापतित्वमें एक प्रस्ताव उपस्थित किया था । प्रस्ताव रखते हुये आपने कहा कि :---
Cadastro
परवार समाजमें जो मरण जीवन गरकी प्रथा है वह इस प्रकार है " जिसका अभिसंस्कार हो उसकी जीवनवार अवश्य हो ।" किंतु आजकल तीस वर्ष से कम उमरकी मृत्यु संख्या अधिक होती है और इनकी जीवनवारोंमें जो लोग भोजन करने जाते हैं उन्हें अपना कलेजा पत्थरका ६रना पड़ता है। घर में रोना पीटना होरहा है, जीमनेवाले दिनमें रोते हुए भोजन करते हैं । जीवनवारकी प्रथा कोई शास्त्रोक्त नहीं, इसके बन्द करनेमें धर्मका नाश नहीं। आज भी अनेक दिगम्बर जैन जातियोंमें जीवनवारकी प्रथा बन्द है । अपने यहां भी जिस बालकका मृतक संस्कार होता है उसकी जीवनवार नहीं होती। इन सब बातोंपर लक्ष्य करके यह
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