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सुप्रसिद्ध विद्वानों और श्रीमानोंके अभिप्राय। [७३
१२-५०मोहनलालजी शास्त्री काव्यतीर्थ सिवनीअज्ञानके प्रभावसे यह प्रथा जैनोंमें प्रवेश कर गई है। जैनशास्त्रोंमें - नुक्ताका नाम तक नहीं है। जैनाचारकी दृष्टिसे यह सर्वथा हेय है।
१३-६० कुन्दनलालजी न्यायतीर्थ ब्यावर-मरणभोज जैन शास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे सर्वथा अनुचित है । जैन समाजमें यह प्रथा सर्वथा अनावश्यक एवं घातक है । सन् २३ में मुझे इसका कटु अनुभव हुआ था. तभीसे मैं इसका त्यागी हूं। यदि आप इस आन्दोलनमें सफल हुये तो अनेक घर बर्बाद होनेसे बच जायेंगे।
१४-साहित्यरत्न पं० दरबारीलालजी न्यायतीर्थ वधो-ब्राह्मणोंकी जीविकाके अनेक साधनोंमें एक साधनके रूपमें मरणभोजकी प्रथा चली और जब जनसंख्या आदिकी दृष्टिसे श्रमण संस्कृति कमजोर होगई तब जैनोंमें भी इसका प्रचार होगया। मरणभोज जैनशास्त्रों और जैनाचारके सर्वथा विरुद्ध है। यह तो पूरा मिथ्यात्व है। इसके साथ जैनत्वका मेळ ही नहीं बैठता। आजकल तो वह और भी अनावश्यक है। जितने जल्दी यह बंद किया जाय उतना ही अच्छा है। मैंने अपनी पत्नी और पिताजीका नुक्ता नहीं किया । करुणाजनक घटनायें तो अनेक हैं। मरणमोजसे लोगोंका नैतिक पतन भी होता है। वे लड्डुओंकी भाशासे दाह संस्कारमें शामिल होते हैं । ऐसी स्वार्थपरता मनुष्यताका दिवालियापन है। मरणभोज यदि टैक्स है तो, या पारिश्रमिक है तो, दोनों ही लबा चिद्ध हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com