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कविता-संग्रह।
[६९० कुशल चाहती है अपनी तो नुक्का करना होगा। वरना दण्ड बड़ा भारी फिर इसका भरना होगा.॥ (११) अबला समझी खूब दण्ड जो उसको भरना होगा। हो समाजसे खारिज फिर दरदरपर फिरना होगा । यही पंच परमेश्वर फिर उल्टा परिणाम निकाले । इन्हें न कुछ संकोच पंच यह जो कुछ भी करडालें ॥ (१२) महासंकटोंकी सिरपर घनघोर घटा घिर आई। मानों हो इस ओर कूप उस मोर मयंकर खाई॥ समझ गई इस पंच कचहरीसे जो कुछ होनाथा । व्यर्थ पत्थरोंके मागे सिर धुनधुनकर रोना था ॥ (१३) फिर उठ चकी नाट्यसा करके वह लापरवाहीका । कहती गई नाश हो जल्दी इस तानाशाहीका ।। पड़न मषिक पचड़े में उसने शीघ्र किया यह निर्णय । सभी संकटोंका कारण है मेरा जीवन निर्दय ॥ (१४) मतः नाशकारी कुप्रथापर इसका अंत उचित है । ईश्वर जाने मुरदेका खाजानेमें क्या हित है। अस्तु, कुएमें कूद पड़ी हो नुक्केसे दुःखित मन । तनिक देर मन्त होगया उसका कोमल जीवन ॥ (१५) पता नहीं इस मांति नित्य ही हा! कितनी भवलाऐं। जीवनकी बलि चढ़ा चुकी हैं छोड़ करुण गाथाएँ । भभी मेंट होंगी कितनी कुछ उसका नहीं ठिकाना । कब होगा यह नष्ट भ्रष्ट पाखण्ड भतीव पुराना ।। (१६)
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