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________________ ९६] मरणभोज । एकाएक नये संकटसे घबरा गई बिचारी । नाच गई आंखोंमें आकर नव भविष्यकी ख्वारी ॥ सोचा था कुछ जोड़ गाठ जीवन निर्वाह करूँगी। धर्म ध्यान रत जैसे होगा पापी पेट भरूंगी (६) पर नुक्तेके महाशापने सब पर पानी फेरा । हाय अधूरी ही निद्रामें असमय हुआ सवेरा ॥ पड़ी और मरतीके ऊपर ये दो लातें ज्यादा । कैसे अब रक्खे समाजमें अक्षुण्ण कुल मर्यादा (७) आखिर सब पन हार गई फिर पंचों पर बेचारी । बड़ी दीनतायुत रो रो करके यह अर्ज गुज़ारी ।। पंचराज ! मैं हाय लुट गई अशुभ कर्मकी मारी । प्राणेश्वर मर गये किन्तु हा मैं न मरी हत्यारी ॥ (८) जीवन भार सिर पड़ा मेरे इसको ढोने दीजै । पर इस 'नुक्ते' के कारण मेरी मत ख्वारी कीजै ॥ भाप सोचिये कैसे संभव होगा हुक्म बजाना । जब कि नहीं है यहां पेट भरने के लिये ठिकाना ॥ (९) पंचोंके मागे बहुतेरी विधवा रोई घोई । पर लड्डू-लोलु पापी दलमें न पसीजा कई ॥ सब कुछ कहा दुहाई भी दी किन्तु न कुछ फल पाया ! सिकताथलपर कहो किसीने भला कभी जल पाया ॥ (१०) बोले पंच पापिनी हमसे अधिक न बात बनाना । ", यह प्राचीन धर्म है इसको पड़े जरूर निभाना॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034960
Book TitleMaran Bhoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherSinghai Moolchand Jain Munim
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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