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मरणभोज। होती हैं, एक तीसरे दिन निकटसंबंधियोंकी जिसमें लपसी पूड़ी बनती है, दूसरी बारहवें दिन बिरादरीकी, तीसरी तेरहवें दिन ज्योनारे यहां आवश्यक हैं, चाहे मरनेवाला युवक हो या भात्मघात करके ही मरा हो! अविवाहितोंके भोन नहीं होते। लावारिस : विधवा जीते जी ही अपना बारहवेंका भोज दे जाती है और लोग खुशीसे जीमते हैं। इस भयंकर एवं अमानुषिक प्रथाका जितने जल्दी नाश हो सो मच्छा है।
३४-स्व० ज्योतिप्रसादजी देवबन्द-जो मरणभोजका लोलुपी या समर्थक है उससे अधिक पतित और कौन होगा ? जैनों में मरणभोजकी उत्पत्तिका उत्तरदायित्व त्रिवर्णाचार जैसे कलंकित ग्रन्थों पर है । इस घृणित प्रथाका जैन धर्मसे क्या सम्बन्ध ? यह तो मिथ्यात्व है । जैन समाजके लिये मरणभोज कलंक स्वरूप है । जो इसके पक्षमें हाथ-पांव पीटते हैं वे जैन समाजको पतनकी ओर खींचे जा रहे हैं। हमारे यहां मरणभोजकी प्रथा कतई नहीं है। मापने इस घृणित प्रथा को टुकराकर साहसका काम किया है। ___ ३५-बा०दीपचन्दजी संपादक जैन संसारदेहलीमरणभोजकी प्रथा भान वश्यक, अनुचित और मनुष्यताके प्रतिकूल है । इसका सर्वथा बंद होजाना प्रत्येक जाति के लिये हितकर है। आपने पिताजीका मरणभोज न करके अनुकरणीय कार्य किया है।
३६-स्व० सेठ हीराचन्द नेमचन्दजी दोशी सोलापुर-मेरे अभिप्रायसे मरणभोज नहीं करना चाहिये । हमारे यहां चि० गुलाबचन्दजीकी बहूका. मरण होगया, ममर मरणभोज
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