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मरणभोज ।
अक्टूबर १९३६ को हमारे पिताजीका स्वर्गवास हुआ तब हमारे ऊपर कई लोगोंने दबाब डाला कि वृद्धपुरुषका तो मरणभोज करना ही चाहिये । किन्तु मैं युवा या वृद्ध के मरणभोजको ही नहीं, मरणभोन मात्रको अमानुषिक भोज मानता हूं । इसलिये मैंने तो सबसे साफ इंकार कर दिया । और मरणभोज नहीं होने दिया । दैवयोगसे ललितपुर में कुछ भाई मेरे अनुकूल भी थे और कुछ मध्यस्थ भी रहे। भाखिरकार मरणभोज नहीं हुआ और यह चर्चा गांवमें बहुत दिन तक चलती रही ।
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कहने का तात्पर्य यह है कि जबतक खूब डटकर मरणभोज विरोधी प्रचार नहीं होगा तबतक यह मरणभोजकी प्रथा नहीं मिट सकती । मनुष्योंकी परम्परागत मावनाका मिट जाना सरल नहीं है । प्रस्ताव, प्रचार और अनेक उपाय होनेपर भी लोगोंकी रूढ़ि नहीं बदलने पाती । वे तत्काल प्रभावित भले हो जायं मगर समय आनेपर फिर जैसे तैसे होजाते हैं । जिसके घर मृत्यु होजाती है वह दृढ़तापूर्वक डटा रहे तथा चारों तरफ के विविध आक्रमणों एवं लोगोंकी टीका टिप्पणियोंको सहता रहे, यह सरल कार्य नहीं है।
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हमारे पिताजीकी आयु करीब ६० वर्षकी थी, इसलिये कुछ लोग तो मुझसे अधिकारपूर्वक कहते थे कि तुम्हारे बापकी मृत्यु तो वृद्धावस्थामें हुई है और तुम दोनों भाई कमाते हो, फिर लोभ किस जातका ? कोई कहता था कि भाई ! तुम्हें ऐसी प्रथा पहले अपने घर से प्रारम्भ नहीं करनी चाहिये । कोई हितैषी के रूपमें कहता कि बड़े रूपमें नहीं तो साधारण तौरपर ही करदो । इतना ही नहीं,
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