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मरणमोजकी उत्पत्ति । स्मा स्मशानकी राखमें ही लोटता रहता है। उसे राखसे निकालकर मुक्तिमें पहुंचानेका एक मात्र उपाय मरणभोज है। यह विश्वास मशिक्षितोंमें ही नहीं किन्तु शिक्षित हिन्दू घरानोंमें भी बहुतायतसे पाया जाता है।
किन्तु सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सत्यको उपासक, कर्मों के बन्ध मोक्षकी व्यवस्था जाननेवाली तथा जन्ममरणसे सिद्धान्तसे परिचित जैन समाजमें भी अनेक जगह यही मूढ़तापूर्ण विश्वास छाया हुमा है। जबकि जन शास्त्र कहते हैं कि मरण होनेके बाद क्षणभरसे पहले मृतात्मा दूसरी योनिमें पहुंच जाता है और उसपर किसी अन्यके किये हुये कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो भी भनेक मूढ़ जैन लोग नेनेतरोंकी मान्यतानुसार मरणभोजसे शुभ गतिमें, नाने या तरनेकी शक्ति मानते हैं।
मैं यहांपर मरणभोज सम्बन्धी हिन्दु शास्त्रों के सारहीन कथनकी समालोचना नहीं करना चाहता, किन्तु मुझे तो यहां मत्र इतना ही कहना है कि कमसे कम जैनाचारकी दृष्टिसे तो मरणभोज करना घोर मिथ्यात्वका कार्य है। इसे जो आवश्यक कृत्य मानकर करता है वह सच्चा जैनी नहीं है। हमारे एक भी जैन आर्ष शास्त्रमें मरणभोनका कोई विधि-विधान नहीं है। जैनाचार्यों के द्वारा निर्माण किये गये श्रावकाचारोंमें जैन गृहस्थकी साधारणसे साधारण क्रियाओंका कथन किया गया है, किन्तु किसी भी आचारशास्त्र में मरणभोजका विधान नहीं है। फिर भी मूढ़तावश जैन लोगों में यह प्रथा चालू है, यह खेदकी बात है।
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