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मरणमोज। जैन समाजमें दो क्रियाकोश प्रचलित हैं, एक स्व० पंडितपवर दौलतरामजीका और दूसरा पं० किशनसिंहजीका । इनमेसे पं. दौलतरामजीका क्रियाकोश अधिक प्रमाणीक माना जाता है। उसमें सूतकपातककी विधिका वर्णन करके भी कहीं मरणभोजका कोई विधान नही किया है। एक बात यह भी है कि जैन कथाग्रन्थों में महापुरु. बोका विस्तृत जीवनपरिचय दिया गया है। उनमें उनके जीवनमरणकी छोटीसे छोटी घटनाओं एवं क्रियाओंका उल्लेख है। किन्तु क्या कोई बतला सकता है कि किसी महापुरुषने अपने पूर्वनोंका या किसी महापुरुषका उनके कुटुम्बियोंने मरणभोज किया था ? सच बात तो यह है कि मरणमोज न तो जैन शास्त्रानुकूल है और न इसकी कोई भावश्यक्ता ही है।
मैंने मरणभोज सम्बंधी ५ प्रश्नों के १०० कार्ड छपाकर जैन समाजके १०० अग्रगण्य विद्वानों के पास भेजे थे, उनमें एक प्रश्न यह भी था कि क्या मरणभोज जैन शास्त्र और जैनाचारकी दृष्टिसे उचित है ? किन्तु कुछ सज्जनोंने निषेधात्मक उत्तर ही दिये, मगर अन्य कट्टर रूढ़िचुस्त पण्डितोंका इसका यथार्थ उत्तर देने का साहस ही नहीं हुआ। हो भी कहांसे ? वे किसी भी तरह मरणभोजकों शास्त्रानुकूल सिद्ध कर ही नहीं सकते ।
स्थितिपालक दलके नेता पं० मवखनलालजी शास्त्रीके सम्पादकत्वमें निकलनेवाले जैनगजट वर्ष ४२ अंक ७ (ता०२८-१२ -३६) में मा० ज्ञानचंदजी जैनने एक विज्ञप्ति छपाई थी कि "मरणभोज शास्त्रसम्मत है, इसपर विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com