SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीवीतरागाय नमः। मरणभोज। जैनागमविरुद्धोयं मृत्युभोजो निवार्यताम् । रूढिरेषोऽतिघोराऽस्ति दशमप्रागनाशिनी ॥ १॥ गृहहीना: महाक्लेशाः असंख्या विधवा यया । संजाताः स महाव्याधिः शीघ्रमेवापसार्यताम् ॥ २॥ अमंगलो मृत्युभोज: ओनस्तेजोऽपहारकः । आधिव्याधि समापूर्ण: दुरंतोदन्तसंततिः ॥ ३ ॥ शास्त्रानुमोदितो नैव नव युक्तिसमर्थितः । मृत्युभोजो बहिष्कार्य: कथं श्रेयस्करो भवेत् ॥ ४॥ सम्यग्दृष्टिपरित्यक्तं मिथ्यादृष्टिसमर्थितं । पुष्णंति ये मृत्युभोज ते नरा न नराः खराः ॥ ५ ॥ - चैनसुखदास जैन न्यायतीर्थ । . मरणभोजकी उत्पत्ति । मरणभोजका बर्थ विसी मृत व्यक्ति के नामसे या उसके निमितसे जाति, समान या किसी समूहको भोजन कराना है। इसे नुक्ता, बारमा, काज या मौसर भी कहते हैं। यह अमानुषिक प्रथा कब, कैसे, किसके द्वारा और क्योंकर उत्पन्न हुई यह न तो मैं स्वयं जानता हूं और न सौ विद्व नों को पत्र देनेपर उनसे ही कोई. संतोष. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034960
Book TitleMaran Bhoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherSinghai Moolchand Jain Munim
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy