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________________ ५८] मरणमोज । खड़ी होकर छाती कूटना पड़ती है। फिर उसके सौभाग्यचिह अलग किये जाते हैं। फिर विषवाको १४ माहतक घरसे बाहर नहीं निकलने दिया जाता। शौचादि मकानमें ही करना पड़ता है। कुटुंबी तथा सम्बंधीजन १२ दिन तक उसीके घरपर भोजन करते हैं, फिर तेरहवें दिन खां दिया करते हैं, उसमें सैकड़ों भादमी जीमनेके लिये भाते हैं । इसके बाद तेरई तो अलग करना ही पड़ती है। जो तेरहवें दिन मरणभोज नहीं देपाता वह लोगोंकी निगाहोंमें गिर जाता है, फिर भी उसे महीनों या वर्षों के बाद ही सही मरणभोज तो देना ही पड़ता है। साथ ही लान' वर्तनादि बांटनेका भी रिवाज है । तार्य यह है कि मरणभोज और उसकी क्रिया. भोंके पीछे अच्छे२ घर भी बर्बाद होजाते हैं, तब गरीब घरोंकी तो पूछना ही क्या है ? मालवा प्रान्तमें-भी इन्हींसे मिलते जुलते रिवान हैं। यहां वर्षों बाद भी माणभोज लिये जाते हैं और हजारों रुपयोंकी 'लान' बांटी जाती है । मिथ्यात्वका रिवाज भी खूब है । मालवा और मारवाड़ प्रांतमें कहीं२ ब्राह्मणोंको जिमानेका भी रिवाज है। इसके विना शुद्धि ही नहीं मानी जाती। गुजरात प्रान्तमें-मरणोत्तर रिवाज कुछ और ही प्रकारके हैं। यहांपर जब किसीकी मृत्यु होती है तब घर कुटुम्ब और मुहल्लाकी तथा तमाम व्यवहारी स्त्रियां भाकर इकट्ठी होती हैं और मकानके बाहर सड़कपर सब एक गोल घेरेमें खड़ी होजाती हैं तथा बीचमें विधवा स्त्री खड़ी रहती है। फिर एक गानचतुर स्त्री रानिया' गाती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034960
Book TitleMaran Bhoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherSinghai Moolchand Jain Munim
Publication Year1938
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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