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समदत्ति और छान । नादिका दान (लान ) देना मिध्यात्व है तब आपने अपने स्व ० वितरण की ? इसका समाधान होजाता है । लान (बर्तन)
पिताजी के नामपर यह पुस्तक क्यों तनिक ही विवेकपूर्वक विचार करने से बांटना एक प्रकारका परिग्रह देना है । किन्तु पुस्तकादि परिग्रह नहीं है। परिग्रहपूर्ण दान देनेका जैनाचार्योंने निषेध किया है । यथा:जीवा येन निहन्यन्ते येन पात्रं विनश्यति ।
रागो विवर्द्धते येन यस्मात् संपद्यते भयम् ॥ ९-४४ ॥ आरम्मा येन जन्यते दुःखितं यच्च जायते । धर्मकामैर्न तयं कदाचन निगद्यते ॥ ९-४५॥
- अमितगति श्रावकाचार ।
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अर्थात् जिससे जीवोंका घात हो, पात्रका विनाश हो, राग चढ़े, भय उत्पन्न हो, आरम्भ हो, दुखी हो वह वस्तु धर्मवांछक पुरुषों द्वारा नहीं दी जानी चाहिये ।
यहां पर परिग्रहकारी द्रव्य वर्तन आदि देनेका निषेध किया है। किन्तु पुस्तकों-ग्रंथोंका वितरण करना न तो आरम्भ परिग्रहकारी है और न वह अनर्थकारी - दुखदायी है। ग्रंथोंको तो अपरिग्रही मुनिराज भी ग्रहण करते हैं । इसलिये यदि किसीको मृत व्यक्तिके स्मरणार्थ द्रव्य व्यय करना है तो वह " शास्त्रदान कर सकता है। किन्तु समदत्ति' की ओटमें 'लान' नहीं बांट सकता । वह तो सरासर मिथ्यात्व है । शास्त्रदानको 'लान' नहीं कह सकते, क्योंकि वह तो स्वतंत्र शास्त्रदान है जो चार दानोंमें से एक है। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में " द्रव्यदानं न दातव्यं सुपुण्याय नरैः कचित् " कह कर द्रव्य दानका निषेध किया है, किन्तु शास्त्र दानका कहीं भी निषेध नहीं किया गया ।
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