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दे न उसे सन्तोष, पेट हम अपना भर कर, जाते हैं निज सदन, मोदकोंकी बातें कर; कहलाते हैं मनुज किन्तु, पशुसे हैं क्या कम, होकरके भी मनुज हुए, जब उन प्रति निर्मम;
दुखप्रद दृश्य विलोकते, करते जो माहार हैं।
उनसे तो उत्तम कहीं, बनके भील गंवार हैं ॥ ७ ॥ होती है ज्यौनार कहीं, घर गिरवी रख कर, अथवा तनके सकल, भूषणोंका विक्रय कर; फिर भी नहिं हो द्रव्य पूर्ण तो, चक्की दलकर, कूट पीसकर, किसी भांति पानी भी भरकर;
करना पड़ता कृत्य यह, पंचोंका 'कर' है कड़ा।
मृतक-भोज ही विश्वमें, धर्म अहो ! सबसे बड़ा ॥८॥ लख इसके परिणाम हगोंमें पानी आता, हा! हा ! प थर हृदय सहज टुण्ड़े होनाता; रो पड़ते निर्जीव द्रव्य भी इनके दुखसे, कह सकते हम किस प्रकार उस दुखको मुखसे;
हाय ! हमारे पापने, हमें बनाया दीन है।
कर पोषण उन्मार्गका, यह समान मतिदीन है । दो भगवन् ! सद्बुद्धि शीघ हम माप विचारें, उत्तम पथमें चलें कभी नहिं हिम्मत हारें, करें कुरूढ़ि विनाश सत्यका जगमें जय हो; सबका जीवन सदा यहां निर्भय मुखमय हो,
दो शक्ती इस पापकी, सत्वर मूळ उखाड़ दें। फिरसे इस संसारमें, धर्मस्तमको गाड़ दें ॥१०॥
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