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कविता संग्रह ।
बरकर पावक रूप प्रथा यह हमें जलाती, शल्य तुल्य भाजन्म चित्तको नित्य दुखाती; मरणभोजकी रीतिमें, भाग लगा देंगे जभी । सुखमें होगी कीन अति, यह समाज सत्वर तभी ॥ ३ ॥ चिर संचित यह द्रव्य धूल में हाय ! मिलाते, करके यह ज्यौनार कौनसा हम सुख पाते; है दुख पहले यही गुमाया निज प्रिय जनको; और गुमाकर उसे गुमाते हैं फिर घनको,
इस शठताकी भी भहो, सीमा क्या होगी कहीं । मूरखमें सरताज भी, हमसा होगा ही नहीं ॥ ४ ॥ खिळा विविध पक्वान्न कौनसा पुण्य कमाते, देने से ज्यौनार मृतक जन कौट न जाते; दुख अवसरपर नहीं कार्य यह शोभा पाठा, क्यों करते यह कृत्य ध्यान में लेश न आता;
जानबूझकर कुपथके, बनते आज गुलाम हैं । इसीलिये संसार में, डीन हमारे काम हैं ॥ ५ ॥
रोती विधवा कहीं, कहीं भगिनी है रोती, बैठी जननी कहीं चित्तमें व्याकुल होती; रोता है हा ! पिता, कहीं आता भी रोता, रो रो कर शिशु कहीं, दुःखसे भूपर सोता;
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पाषाणोंके चितमें, का देता बो नीर है । परिजन में सर्वत्र ही, ऐसा दुख गम्भीर है ॥ ६ ॥
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