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कविता-संग्रह।
[९९ लड्डुलोभी पंच। (रच०-श्रीमती कमलादेवी जैन-सूरत । ) मरणके लड्डूलोभी लोग,
मान बनकर परमेश्वर पंच । लूटते विधवाओंको खूब,
दया आती नहिं उनको रंच ॥ १ ॥ कलेजा पत्थरका करके,
बने लड्डू खानेमें दक्ष । लूटने वे भबलामोंको,
बने बैठे हैं पूरे यक्ष ॥२॥ नहीं हो विधवाके घरमें,
___ व्यवस्था कलके खानेकी । लगाये रहते फिर भी माश,
पंच तो लड्डू पानेकी ॥३॥ अगर होनेसे द्रव्यविहीन,
बिचारी वह विधवा नारी । नहीं कर सकनेकी नुक्ता,
प्रगट करती है लाचारी ॥ ४ ॥ पंच तब धमकी दे उसको,
कराते मरणभोज भारी। लुटाकर उसमें वह सर्वस्व,
भटकती भूली दुखपारी ॥५॥
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