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कविता-संग्रह।
मरणभोज । [ रच०-श्री० घासीराम जैन " चन्द्र"] सिसक सिसककर इधर रोरही है विधवा बेचारी । उधर वालसमुदाय विलखता देदेकर किलकारी ॥ नहीं पास है इतना धन जिससे व्यतीत हो जीवन । ऐसी कुदशा छोड़ पधारे स्वर्ग लोक जीवनधन ॥
कहो किस तरह विश्वमें जीवनका निस्तार हो ।
कैसे विधवावृन्दका भारतमें उद्धार हो । (१) अभी तीसरा भी तो पतिका हुवा नहीं है। कामकाज निज कर विधवाने छुवा नहीं है । निज प्यारी संतान न अबतक गले लगाई। धीरज तनिक न हुवा न कुछ तनकी सुध पाई ॥
नुक्ता करवाने यहां पंचलोग माने लगे।
माल उड़ानेके लिये जेवर विकवाने लगे ॥ (२) विधवा कहती कहो किस तरह जाति जिमाऊँ । कर्जा लूं या निज जेवर गिरवी रखवाऊँ ।। नहीं पास पैसा है जिससे काम चलाऊँ । ' भगवन् ! ऐसे दुखमें कैसे धीरज पाऊँ ।
सह न सकूँगी तनिक भी मैं उलाहने जातिमें। नुक्ता करना ही पड़े सहूं सभी दुख गातमें ॥ (३)
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